उर्वशी पुरूरवा / भाग 4 / संतोष श्रीवास्तव

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गंधमादन पर्वत जाने की सारी तैयारियाँ पूर्ण हो चुकी थीं। उर्वशी के लिए रथ जो दुर्गम रास्तों पर भी चलता था और पर्वतों पर भी गरुड़ की भांति उड़ता था बिल्कुल राज सिंहासन जैसा था जिसमें दासियों के लिए भी उचित स्थान थे। पुरुरवा का रथ भिन्न प्रकार का था। उनका प्रिय श्वेत अश्व रथ के अग्रभाग को अपनी पीठ पर धारण कर दौड़ता था और गहरी नदियों के किनारो को पल भर में लांघ कर इस पार से उस पार चला जाता था। साथ में सैन्य दल अश्वों पर आरूढ़ थे। रसद सामग्री ले जाने का उचित प्रबंध था। प्रतिष्ठानपुर से गंधमादन पर्वत की दूरी कई दिनों में पूर्ण होनी थी। हिमालय के कैलाश पर्वत से उत्तर दिशा की ओर स्थित इस पर्वत की वादियाँ सहज मन मोह लेती थी। किंतु उस स्थल तक पहुँचने में कई दिन लग सकते थे। अतः मार्ग में संध्या होते ही शिविर लगाने की व्यवस्था थी।

प्रस्थान की बेला निकट थी ।महारानी मंदिर में प्रभु की आराधना, पूजन ,ध्यान में निमग्न थीं। पुरुरवा के क़दमों की चाप से उनका ध्यान भंग हुआ ।पूजा संपन्न कर वे आसन से उठीं। पुरूरवा के हाथों में प्रसाद रखते हुए कहा - "जाइए महाराज ।जीवन मेरा असफल रहा किंतु आप सफल होकर लौटें ।"

पूरूरवा का मन दृढ़ था ।

"एक वर्ष पश्चात लौटूंगा। इतना समझ लो कि बिना पुत्र के सारा संसार सूना नज़र आता है। बिना कुलदीपक के राजमहल में अंधकार नज़र आता है। आप पूजा, पाठ, हवन, प्रार्थना ,ईश्वर आराधना में स्वयं को समर्पित करती रहें। मैं पितृ ऋण से मुक्ति चाहता हूँ । यह तभी संभव है जब आपका सहयोग मिले।"

कहते हुए पुरुरवा ने महारानी के कंधे थपथपाये और शीघ्रता से कक्ष के बाहर चले गए। गंधमादन पर्वत पर पुरुरवा और उर्वशी के निवास का उत्तम प्रबंध महामात्य ने करवा दिया था। प्रकट में उर्वशी से अपने सम्बंध की चर्चा पुरुरवा ने महामात्य से नहीं की थी किंतु महामात्य पुरुरवा के स्वभाव से परिचित थे ।पुरुरवा कभी भी किसी स्त्री की ओर आकृष्ट नहीं हुए। उर्वशी के साथ वे गंधमादन पर्वत पर निवास करना चाहते हैं। निश्चय ही कोई महत्त्वपूर्ण कारण होगा।

अपने कक्ष से उर्वशी के साथ प्रस्थान करते हुए पुरुरवा ने अपने मित्र राजविदूषक से कहा- "मित्र जो मैं करने जा रहा हूँ तुम्हारी दृष्टि में उचित तो है न?महारानी की तरह कहीं तुम भी तो मुझे दोषी नहीं मान रहे हो?"

राजविदूषक ने पल भर पुरुरवा के कथन की ओर ग़ौर किया अर्थात पुरुरवा इस बात की पुष्टि चाह रहे हैं कि वह सही हैं। राजविदूषक महारानी से भी उतना ही स्नेह करता था जितना महाराज से। अतः अपने कथन को तौल - तौल कर उसने पुरुरवा से कहा- "उचित अनुचित की परवाह न करें महाराज ।अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनें। मेरी दृष्टि में तो यह महारानी के प्रति अन्याय है, किंतु धर्म की दृष्टि से देखें तो आपको उर्वशी पितृ ऋण से मुक्ति दिला सकती है ।किंतु इन दोनों बातों से सर्वोपरि आपके मन में समाया उर्वशी के प्रति प्रेम है। फ़िर प्रेम तो न उम्र देखता, न धर्म । देखता है तो केवल मन, सुनता है तो केवल मन की।"

राजविदूषक के कथन ने पुरुरवा के मन का संदेह दूर कर दिया ।उन्होंने राजविदूषक को गले लगाकर रथ की ओर प्रस्थान किया।

महाराज के अश्वारोही दल और दोनों राजसी रथों को प्रस्थान करते हुए महारानी अपने प्रासाद के ऊपरी प्रकोष्ठ से तब तक देखती रही जब तक वे आंखों से ओझल नहीं हो गए। अश्वों के खुरो से उड़ी धूल मार्ग से उठकर उनकी आंखों के सामने एक बादल की तरह छा गई ।उस बादल में कुछ दीखता न था। न वर्षा की बूंदो की रिमझिम, न कोयल की मीठी टेर ,न इंद्रधनुषी रंग। बस था तो धूल भरा बादल। वे निश्चित नहीं कर पा रही थी कि इस धूल भरे बादल में वे कहाँ... क्या कोयल की कुहू कुहू में जो मीठी तान सुना कर प्रेमियों के हृदय की धड़कन बढ़ा देती है या चातक की पी कहाँ पी कहाँ की मार्मिक पुकार की भटकन में, जो स्वाति नक्षत्र की बूंद से ही तृप्त होता है। धीरे-धीरे धूल का बादल छंटने लगा। सूने मार्ग पर न महाराज का रथ था न उर्वशी का। सूने निचाट नेत्रों में अवसाद भरे पल रह गए थे जो महारानी से प्रश्न कर रहे थे सोचो ओशिनरी, क्या इस तरह महाराज तुम्हें कभी भ्रमण पर ले गए थे? क्या इस तरह पूरे 1 वर्ष के लिए उन्होंने तुम्हारे प्रेम वश राजकाज से मुंह मोड़ा है?माना वे उर्वशी के प्रेम में स्वयं को विवश पा रहे थे किंतु उर्वशी के संग साथ का यह दीर्घ समय वे राजमहल में रहकर भी तो व्यतीत कर सकते थे। किंतु ऐसा हुआ नहीं क्योंकि तुम ऐसा प्रारब्ध लिखा कर नहीं लाई न इस धरती पर ।

सोचते हुए महारानी को जैसे स्वयं का भान ही नहीं रहा। उन्हें लगा वे विदेह हो गई है। ईश्वर के दिए इस शरीर के लिए अब करने को रहा ही क्या। जीवन की इस कठोर करवट ने उन्हें गगन चूमती अग्नि की लपटों के समीप ला दिया था ।तीव्र आंच से उनका सर्वांग सुलग रहा था ।निश्चय ही भ्रमण से लौटकर महाराज उर्वशी से विवाह करेंगे। उन्हें अपनी होने वाली सौत को स्वीकृति देनी होगी। वे जानती हैं महाराज का यही आग्रह होगा। उन्हें अपनी सुहाग सेज उर्वशी के लिए खाली करनी होगी ।महाराज के हाथों में उर्वशी का हाथ देना होगा ।यह कैसी परीक्षा ?यह कैसा उनके प्रति न्याय? प्रतिष्ठानपुर के प्रति उनकी निष्ठा, समर्पण, निरंतर प्रतिष्ठानपुर के लिए ईश्वर के समक्ष जुड़े हाथ। वे शीश नवा कर यही तो करती रहीं उम्र भर। किंतु अब? अब उनका प्रिय राज्य ,उनके प्रिय पति उनसे त्याग की अपेक्षा रख रहे हैं। एकाएक आंच को उन्होंने कम होते पाया। एकाएक उन्हें लगा त्याग राज्य के हित में है और जिसमें हित है उसमें संताप कैसा।आंच समाप्त हो चुकी थी, वे लौट रही थी स्वयं की ओर। जहाँ उन्हें पहले से अधिक स्वयं को दृढ़ करना था।

अपनी नियति को स्वीकार करते हुए जीवन में एकाएक आए परिवर्तन को एक सुंदर स्वरूप देना था। खोना नहीं था महाराज को ,बल्कि अपने त्याग से और अधिक समीप कर लेना था। काफ़ी देर बाद वैचारिक मंथन से वे तब उबरी जब

मदनिका ने उन्हें आकर चेताया- "चलिए महारानी भोजनकक्ष में स्वल्पाहार कर लीजिए। फ़िर आपका बालिका भवन जाने का समय हो जाएगा।"

सुरभित सघन कानन में संध्या के पदार्पण करते ही पुरुरवा सैन्य दल सहित रुक गए। ऊँचे ऊँचे पर्वतीय वृक्षों चीड़ ,देवदार की सुई जैसी बारीक नुकीली पत्तियों से भरी लचकदार,ऊर्ध्व मुखी डालियाँ दीपदान-सी प्रतीत हो रही थी।

ढलते सूर्य की सुनहली रश्मियाँ मानो उन डालियों पर स्वर्ण बिखेर रही थीं। महाराज ने वहीं रात्रि व्यतीत करने की घोषणा करते हुए रथ रूकवाये ।आनन-फानन में तंबू तान दिए गए ।अश्वों को वृक्षों के तनों से बाँधकर चारा पानी दिया गया ।तंबू मशालों से प्रकाशित हो तिलिस्म रच रहे थे। रात्रि भोज तो पकाना न था क्योंकि प्रतिष्ठानपुर से ही महारानी की देखरेख में भोजन से भरे पात्रों को भेजा गया था।

दिन भर यात्रा की थकान सभी के चेहरों पर थी। फ़िर भी भोजन के उपरांत पुरूरवा उर्वशी के साथ विश्राम करते हुए उसके गाए गीत का आनंद ले रहे थे ।गीत था या मधुर लोरी जिसकी सुरीली तान में पुरुरवा की पलकें मुंदने लगी।

वन भी शांत था। किंतु शांत वन में चलती हवा से सांय - सांय की ध्वनि निकल रही थी। झींगरों की झंकार के साथ कभी-कभी किसी बनेले पशु की आवाज़ चौंका देती। किंतु इन सब भय उत्पन्न करने वाली आवाजों पर भारी था उर्वशी का गीत। जिसे सुनते-सुनते पुरूरवा को गहरी निद्रा आ गई।

निद्रा मग्न पुरुरवा को एक टक देखती रही उर्वशी। ओह कितना मासूम किंतु तेजस्वी मुख है पुरू का। उनके शौर्य ,कीर्ति और प्रजावत्सलता के आगे नतमस्तक है उर्वशी। अवश्य उसने पुण्य कर्म किए हैं तभी इस धरती पर पुरुरवा के लिए आगमन हुआ है।

ठंडी हवाएँ तंबू में प्रवेश कर उर्वशी के बदन में सिहरन की अनुभूति करा रही थीं। बाहर सैनिक पहरा दे रहे थे। हवा में तेजी पकड़ती मशाले मानो पर्वतीय स्थल को अग्नि की आभा प्रदान कर रही थीं।

यह पहला पड़ाव था ।इसी तरह दो और पड़ावो में रात्रि विश्राम कर भोर के अप्रतिम वन सौंदर्य को निहारते हुए, जलप्रपातों, नदियों का स्फटिक-सा उज्ज्वल जल का आनंद लेते हुए चौथे दिन पुरुरवा दल बल सहित गंधमादन पर्वत पहुँच गए।

हिमालय के कैलाश पर्वत के उत्तर में स्थित गंधमादन पर्वत कुबेर के राज्य क्षेत्र में स्थित है। क्योंकि यह हिमवंत पर्वत के समीप है जिसे यक्षलोक भी कहा जाता है । यहाँ किन्नर जाति के आदिवासी भी निवास करते हैं। इसके घने अरण्य में हिंसक पशुओं का वास है। अरण्य की सघनता से यहाँ दिन में भी अंधकार रहता है। इस सुरभित कानन में प्रतिष्ठानपुर के वास्तुकला में निपुण कारीगरों एवं शिल्पकारों ने महामात्य की योजना के अनुसार अत्यंत सुंदर काष्ठ महल का निर्माण किया था। यह महल महाराज पुरुरवा के विहार के लिए बनाया गया था। जहाँ वे उर्वशी के साथ एक वर्ष तक निवास करेंगे। महल को देखते ही पुरूरवा के मुंह से निकला -"अद्भुत... सौंदर्य की पराकाष्ठा को पार करता निर्माण।"

"जैसे इंद्रपुरी का कोई भवन।"

कहते हुए उर्वशी भी गदगद थी।

महल में प्रवेश करते हुए पुरुरवा और उर्वशी ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो पर्वत राज हिमालय ने अपनी पुत्री का विवाह रचाया हो। उनके आते ही रौनक से भर उठा था गंधमादन पर्वत। वादियों और पर्वतों पर लगे ऊँचे ऊँचे विशाल वृक्ष किसी तपस्वी के समान हजारों वर्षों से तप में लीन दिखाई दे रहे थे। वादियों में प्रस्फुटित रंग-बिरंगे औषधीय पुष्पों पत्तियों की सुवास से पूरा पर्वतीय क्षेत्र सुवासित था। कदाचित यही कारण था इस क्षेत्र को गंधमादन नाम देने का।

पुरुरवा का गंधमादन पर्वत की वादी में निर्मित महल जिसे वे काष्ठ महल नाम से सम्बोधित कर रहे थे ऐसा दिखता था मानो आरती के थाल में जड़ा नगीना। किंतु उर्वशी को इस नाम पर आपत्ति थी।

"पुरू काष्ठ नहीं अरण्य महल नाम रखिए न। काष्ठ महल से ऐसी अनुभूति होती है जैसे यह महल नहीं हवन कुंड हो जिसमें काष्ठ के टुकड़ों को हवन की अग्नि प्रज्वलित करने के लिए रखा गया हो। अभी हम हवन का काष्ठ नहीं बनना चाहते। अभी तो हवन के निमित्त हमें उन अवसरों को जुटाना है जो हवन का हेतु बने।

मुग्ध थे पुरूरवा उर्वशी के इस तर्क पर। इस दृष्टि से तो उन्होंने सोचा ही नहीं कभी। उर्वशी न केवल रूप सौंदर्य में बल्कि तार्किक ज्ञान में भी असाधारण है।

"उर्वशी तुम्हें पाकर मैं धन्य हो गया। तुमने मेरे एक रस जीवन में रस से भरा पात्र छलका दिया।"

"पुरू रसास्वादन तो भ्रमर का कार्य है। हम तो प्रेम रस में डूब चुके हैं। अनंत काल तक डूबे रहना चाहते हैं।"

वार्तालाप करते हुए उर्वशी और पुरुरवा महल का अवलोकन कर रहे थे। अरण्य महल का उत्तरी भाग जहाँ लंबे चौड़े गवाक्ष से नीचे की ओर की उतरती घाटी फूलों से भरी बेहद रमणीक थी। उतराई बेहद गहरी थी जिसकी ओर देखते हुए मूर्छा-सी आने लगती थी। घाटी के रंग-बिरंगे पुष्पों की ओर देखते हुए उर्वशी ने अभी पुरुरवा के कंधे पर सिर टिकाया ही था कि उनके विशेष अनुचर सत्यदेव ने आकर कहा

"क्षमा करें महाराज, यात्रा की थकान उतार लें। समीप ही एक सरोवर है जिसका जल तो हिम जैसा अत्यंत शीतल है किंतु वहीं पर एक गर्म पानी की धारा भी है।"

"गर्म जल की धारा? और सरोवर हिम जैसा शीतल! अविश्वसनीय!"

उर्वशी ने सत्यदेव की ओर देखते हुए आश्चर्य प्रकट किया। पुरुरवा ने तुरंत ही इस बात का समाधान करते हुए कहा - "उर्वशी हिमालय के इन पहाड़ी क्षेत्रों में उष्ण और शीतल दोनों जलधारा प्रवाहित होती हैं जो एक दूसरे के जल को अपने में समाहित नहीं करती। उन दोनों धाराओं का अपना अलग अस्तित्व होता है।"

"क्या रथ की आवश्यकता पड़ेगी सरोवर तक पहुँचने में?" "नहीं महाराज ,निकट ही है सरोवर। आप कहे तो मैं साथ चलूं।"

"हाँ सत्यव्रत हमें सरोवर तक पहुँचा दो।"

कहते हुए पुरुरवा उर्वशी के साथ सरोवर की दिशा में अग्रसर हुए। सरोवर बहुत विशाल और आसपास छोटे-छोटे पौधों से घिरा बहुत ही रमणीय था।

दोपहर ढलने को थी। जल में प्रवेश करते हुए पुरुरवा ने उष्ण जलधारा को खोज निकाला और उर्वशी को स्नान के लिए आमंत्रित किया। उर्वशी तो ऐसे सरोवर में अपनी सखियों के संग कितनी ही बार क्रीडा कर चुकी है। वह तुरंत ही पुरुरवा के पास पहुँच गई ।पुरुरवा ने कहा- "आओ, आज हम परिणय सूत्र में बंध जाते हैं। आस्ताचलगामी सूर्य को साक्षी मानकर मैं तुम्हें पत्नी रूप में स्वीकार करता हूँ।"

अपनी अंजलि में जल लेकर उन्होंने सूर्य की ओर देखते हुए कहा और उर्वशी का जल से अभिषेक किया। पूरी प्रकृति इस अद्भुत परिणय की साक्षी हो गई। ठीक उसी समय सूर्य की एक नाज़ुक-सी किरण ने उर्वशी के मुख को प्रकाशित किया और उसकी मांग में सिंदूर के समान सज गई।

उर्वशी अपने मन में उठे आवेग को संभाल नहीं पा रही थी। उसने शरमाते हुए पुरुरवा की ओर देखा और गले तक जल में डूब गई। पुरुरवा भी देर तक उष्ण जलधारा में डूबे रहे। स्नान के बाद जब दोनों अरण्य महल में लौटे तो मानो उनका नया जन्म हुआ हो।

अपने कक्ष में जाकर उर्वशी पल भर को ठिठकी ।मानो पाणीग्रहण संस्कार के पश्चात पितृ ग्रह से विदा होकर अपने ससुराल में गृह प्रवेश कर रही हो।दासियों ने आगे बढ़कर उर्वशी के भीगे वस्त्र उतार कर नए वस्त्रों और आभूषणों से उसका शृंगार किया।

अरण्य महल में दीप स्तंभों के बावजूद अंधकार धीरे-धीरे प्रवेश कर रहा था ।अपने कक्ष में नववधू उर्वशी पर्यंक पर बैठी पुरूरवा की प्रतीक्षा कर रही थी ।

रात्रि अपने क़दम धीरे-धीरे बढ़ा रही थी। आज की रात आकाश भी मेघ विहीन था और सितारों के दीप जलाए मानो उर्वशी और पुरुरवा के परिणय सूत्र में बंधने पर प्रफुल्लित हो उनका स्वागत कर रहा था।

दोनों के मिलन की यह वह रात्रि थी जब प्रतिष्ठानपुर के राजमहल के उत्तराधिकारी की वर्षों की प्रतीक्षा समाप्त होने वाली थी। उर्वशी और पुरुरवा का यह मिलन सर्वदा के लिए अमर होने वाला था।

उर्वशी ने पुरूरवा के गले में बाहें डालते हुए कहा- "मुझे इस क्षण की कब से प्रतीक्षा थी।"

"उर्वशी" बस इतना ही कह पाए पुरूरवा और उन्होंने अपना मस्तक उर्वशी के दोनों स्तनों के बीच ऐसे टिका दिया जैसे पुष्पों के पराग पर कोई भ्रमर हो। दोनों के इस मिलन के साक्षी धरती आकाश ,समस्त प्रकृति गहरे अनुराग में खो गए। घोसलों में पक्षियों ने पंख फड़फड़ा कर रात्रि की नीरवता मुखर कर दी । पुष्पों से भरी डा लियो ने पुष्प बरसा कर इस प्रेम कथा का स्वागत किया। विश्व की प्रथम प्रेम कथा किसी महर्षि के द्वारा भोजपत्र पर लिखे पृष्ठों से उठकर साकार हो रही थी।


प्रातः काल भी आसमान साफ़ था कहीं कहीं सफेद बादलों के इक्का-दुक्का टुकड़े तैर रहे थे हवा में खुनकी थी।

उर्वशी और पुरुरवा जलपान से निवृत हुए ही थे कि प्रहरी ने आकर सूचना दी- "महाराज कुछ साधु अतिथि आए हैं। आपसे मिलना चाहते हैं ।"

"उन्हें आदर पूर्वक अतिथि कक्ष में आसन दो। हम आते हैं।" प्रहरी के जाते ही उठने को तत्पर पुरुरवा ने उर्वशी के कपोल थपथपाये - "आता हूँ। प्रिये ,न जाने किस हेतु अतिथि पधारे हैं।"

अतिथि कक्ष में विराजमान साधु सेवक के लाये जल का पान कर ही रहे थे कि पुरुरवा को आते देख तत्काल खड़े हो गए - "प्रणाम महाराज।"

पुरुरवा ने उनके चरण स्पर्श किए और आने का कारण पूछा- "महाराज, हम इस अरण्य में अपने आश्रमों में तपस्या करते हैं और शिष्यों को दीक्षित करते हैं । किंतु"

"यह तो हमारे लिए सुखद समाचार है। किंतु आप सभी के मुख पर प्रसन्नता नहीं बल्कि भय दिखाई दे रहा है। आप निःसंकोच कहें, हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं?"

साधुओं ने हाथ जोड़ते हुए कहा- "महाराज,इन दिनों गंधमादन के शांत, सुरम्य अरण्य में काफ़ी उत्पात हो रहा है। हमारी तप साधना में विघ्न पड़ रहा है।"

"आश्चर्य गंधमादन में उत्पात!यह शांति स्थल तो ऋषि मुनियों की तपश्चार्य से जाना जाता है।"

"सत्य है महाराज, किंतु अब यहाँ दस्युओं का बोलबाला है ।वे लुटेरे हैं और हिंसा प्रेमी है। वे हमें हमारी कुटिया ,आश्रमों में शांति से नहीं रहने देते । वे आए दिन भिक्षा से प्राप्त हमारे संग्रह किये अन्न को लूट ले जाते हैं। विरोध करो तो तीक्ष्ण हथियारों से हमें घायल कर तड़पता छोड़ जाते हैं। आपके पास हम सहायता के लिए आए हैं ।यह शांत अरण्य अशांति हिंसा और लूट का स्थल बन गया है। दस्यु तो अब आश्रम के विद्यार्थियों का अपहरण भी करने लगे हैं। वे उन्हें अपने जैसा ही दस्यु बनाकर अपने दल को शक्तिशाली बनाने पर तुले हैं।"

साधुओं से सारा वृत्तांत सुन पुरुरवा गंभीर हो गए ।उन्हें उनकी रक्षा करने का आश्वासन देकर विदा तो किया किंतु स्वयं इस अप्रत्याशित समस्या का समाधान खोजने लगे। उन्होंने तत्काल अपनी सेना के सेनापति को बुलाकर सैनिक स्थिति का बारीकी से निरीक्षण किया और कल रात्रि ही दस्युओं का सामना करने की योजना बनाई ।

पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण मौसम कभी भी निश्चित नहीं रहता। दो दिन से लगातार आंधी, झंझावात, वर्षा, ओलों की वृष्टि के कारण दस्युओं पर आक्रमण करने की योजना क्रियान्वित नहीं हो सकी। पश्चिमी विक्षोभ के सक्रिय होने से आकाशीय विद्युत की चमक बादलों की गड़गड़ाहट और तेज वर्षा ने घाटियों पर्वतों को धुंधले आवरण से ढक लिया था।

अरण्य महल में उर्वशी और पुरुरवा अपने कक्ष में मौसम के इस भयावह रूप को देखते मौन बैठे थे। अगर पुरुरवा का मन शांत होता तो यह वर्षा कितनी मनभावनी प्रतीत होती।

वर्षा की हर बूंद से वे प्रेम को बटोर रहे होते। वर्षा का अनवरत गिरना मधुर धुन-सा प्रतीत होता। मानो एक प्रेम रागिनी धीरे-धीरे मेघना के तानपूरे में विद्युत के तारों को छेड़ संपूर्ण प्रकृति को रागमय कर रही हो। यह कैसे विरोधाभास में वे स्वयं को पा रहे थे ।एक ओर प्रेम की अनुभूति में सराबोर और दूसरी ओर आश्रमों पर छाए दस्युओं के संकट की चिंता। न जाने क्या बीत रही होगी तपस्वियों ,साधुओं पर ।इन्हीं स्थितियों का लाभ उठाकर तो दस्यु धावा बोलते हैं ।

उन्होंने व्याकुल होकर उर्वशी से कहा- "हम कल ही आक्रमण करेंगे दस्युओं पर ।मौसम चाहे कितना भी ख़राब क्यों न हो।" "पुरू निश्चय ही तुम्हारी तपस्वियों के प्रति चिंता तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल है। जब मन में परोपकार या अपने कर्तव्य पालन की चिंता हो तो ब्रह्मांड भी उसे सुनता है ।पूरा करने में सहायता करता है ।"

"हाँ उर्वशी, अब दस्युओं के दिन पूरे हुए ।अभारण्य पूर्ण रूप से सुरक्षित होगा ।मेरा मन कहता है ।"

"सो जाओ पुरू, कल तुम्हें विश्राम नहीं मिलेगा ।किंतु सफलता अवश्य मिलेगी।"

उर्वशी ने पुरुरवा को कंधों से पकड़ कर पर्यंक पर लेटा दिया और दीप स्तंभ स्वयं धीमा कर दिया।

मौसम की तीव्रता कम हो चुकी थी । वर्षा से भीगे चीड़ और देवदार के वृक्ष एक अलग तरह की सुगंध लिए हवा में झूम रहे थे। ऐसी सुगंध की अनुभूति पहली बार उर्वशी को हो रही थी। यह सुगंध इस बात का संकेत थी कि यह अरण्य अब सुरक्षित होने की दिशा में क़दम बढ़ा चुका है।

मौसम अनुकूल होने लगा था पूर्व ने अपने सैनिकों सहित दशन को समाप्त कर देने की योजना बना ली थी संध्या होते ही घने वनों में कुछ कर देना था क्योंकि दशन के आश्रमों पर आक्रमण करने शिष्यों के अपहरण और लूटमार का समय रात्रि में ही होता है उर्वशी ने महारानी की भांति पूर्व के माथे पर तिलक लगाया और आरती उतारी-

"विजय प्राप्त कर लौटें पुरू।" "ऐसा ही होगा प्रिये।"कहते हुए उर्वशी को गले लगा कर पुरूरवा अपने अश्व पर आरूढ़ हुए। सैनिकों का अश्वारोही दल पुरूरवा की देखरेख में वन में प्रवेश करने लगा। रात्रि का अंधकार धीरे-धीरे वन प्रदेश पर छाने लगा ।वन की चारों दिशाओं में सैनिकों की टुकड़ियाँ दस्युओ की खोज में गहरी दृष्टि रखे थीं। कभी कभी वन की नीरवता पखेरुओं के पंख फड़फड़ाने से मुखर हो जाती। जुगनुओ के झुंड झाड़ियों में टिमकते घने वन में मानो पुरुरवा का मार्ग प्रशस्त कर रहे थे ।एकाएक भागते पैरों की पदचाप समीप आती अनुभव हुई। निश्चय ही दस्युओ का दल था जो आश्रमों की ओर भागा जा रहा था। वह इस बात से अनभिज्ञ थे कि पुरुरवा की सेना उनका पीछा कर रही है। अभी वह आश्रमों के द्वार की ओर विभिन्न टोलियों में पहुँचे ही थे कि सैनिकों के धनुष से छूटे तीर उनका हृदय बेधने लगे। पुरुरवा ने देखते ही देखते सामने आए आश्रम के द्वार से अंदर की ओर उन्मुख दस्युओ की टोली को अकेले ही समाप्त कर दिया। हाहाकार मच उठा ।अपनी-अपनी कुटियों ,आश्रमों से दीपक की बाती तेज कर साधु तपस्वी बाहर आ गए। द्वार पर पुरुरवा अश्व पर सवार दिखे। उनका अश्व हिनहिनाकर उनकी विजय की घोषणा कर रहा था।दस्युओ का सफाया हो चुका था। साधु पुरुरवा की जय जयकार करने लगे-

"महाराज पुरूरवा की जय हो ।आपने हमें संकट से मुक्त किया। ईश्वर आपकी हर अभिलाषा पूर्ण करे।"

जो आश्रम दस्युओ के डर से मृतप्राय से हो चुके थे अब वहाँ जीवन का प्रकाश था। प्रसन्नता की लहर चहुंओर व्याप्त थी। यह कार्य इतना सरल न था।

दस्युओ के दल को परास्त करने के लिए पुरुरवा के सैनिकों को सारी रात संघर्ष करना पड़ा था। इस वन के वे अभ्यस्त नहीं थे। सैनिक माशालों का प्रकाश भी नहीं कर सकते थे क्योंकि प्रकाश में सैनिकों को पहचान कर दस्यु भाग जाते। या फ़िर अपने तीक्ष्ण हथियारों से उन पर आक्रमण करते। ऐसे में पुरुरवा के सैनिकों के हताहत होने या मारे जाने की संभावना थी जो पुरुरवा नहीं चाहते थे।

अतः मोर्चा तो अंधकार में ही तय करना था। रात्रि को हिंसक पशुओं का भी डर था। वे रात्रि में ही शिकार या जल की खोज में निकलते हैं। दस्युओ के साथ हिंसक पशुओ पर भी दृष्टि रखनी थी।

सूर्य की पहली किरण ने वन में प्रवेश किया। अंधकार की प्रगाढ़ता धीरे-धीरे कम होती सुनहरे उजास में बदलने लगी। घोसलों में दुबके पखेरू चहचहा उठे ।साधु तपस्वियों ने पुरुरवा को कोटि कोटि आशीर्वाद देते हुए विदा किया।

पुरुरवा के कुछ सैनिक दस्युओ का दाह संस्कार करने को वन में ही रुक गए। पुरुरवा की ओर से यही आदेश था।

दूसरे ही दिन सभी साधु और कुछ शिष्य भी पुरुरवा से मिलने आए। अतिथि कक्ष में पुरुरवा के साथ उर्वशी भी साधुओं से मिलने आई। शिष्यों ने उर्वशी और पुरुरवा के चरण स्पर्श कर प्रणाम किया। साधु समवेत स्वर में वंदना करने लगे "आप धन्य है महाराज। आपने वर्षों के संकट को पल भर में दूर कर दिया। अब हम निर्विघ्न जप तप में ध्यान लगा सकेंगे।"

उर्वशी साधुओं की पुरुरवा के प्रति श्रद्धा ,विश्वास से अत्यंत प्रसन्न थी। उसने पूछा

"मान्यवर ,सुना है यहाँ कस्तूरी मृग है। हम उन्हें देखना चाहते हैं ।"

"जी महारानी, दुर्गम बर्फीले पर्वतों पर उनका वास है। उन पर्वतों पर देवदार ,चीड़ आदि पर्वतीय वृक्षों का वन है। आपको रथ से नहीं अश्वों से जाना होगा। उन पर्वतों पर जाने के अभ्यस्त अश्व आपको यहीं मिल जाएँगे ।यहाँ के किन्नर आदिवासी उन अश्वों को ऐसे दुर्गम पहाड़ी रास्तों में जाने के लिए प्रशिक्षित करते हैं।" वृद्ध साधु ने कहा ।

उर्वशी ने प्रसन्न हो पुरूरवा की ओर देखा। उर्वशी के मुख पर आई प्रसन्नता देख पुरूरवा भी प्रसन्न हुए। उन्होंने सत्यव्रत से दो अश्वों का प्रबंध करने को कहा।

"हम कल ही कस्तूरी मृग देखने जाएँगे।"

"जो आदेश महाराज।" सत्यव्रत ने शीश नवा कर कहा।

"महाराज आप उन किन्नर आदिवासियों के क्षेत्र में भी जाईएगा ।वे देवदार के सघन वनों में भोजपत्र की कुटिया बनाकर निवास करते हैं। उनसे मिलकर आपको प्रसन्नता होगी।"

"अवश्य, आपने उनके विषय में बताकर हमारे मन में किन्नरों से मिलने की इच्छा जागृत कर दी। हम उनसे अवश्य मिलेंगे। अब आपसे विदा चाहते हैं आप जलपान ग्रहण करके जाइएगा।" कहते हुए पुरुरवा ने उर्वशी के साथ अपने कक्ष की ओर प्रस्थान किया।

देर तक साधुओं की तुमुल ध्वनि आती रही- "आप धन्य है महाराज। ईश्वर आपको चिरायु करें।


नियत समय पर किन्नर अश्व लेकर आ गए। उर्वशी की प्रसन्नता का ठिकाना न था। आज वह कस्तूरी मृग देखेगी। कितने आश्चर्य की बात है कि यह मूल्यवान औषधि मृगों की नाभि में होती है। अपनी नाभि से निकलती इस मादक सुगंध से उन्मादित हो मृग छलांग लगाते भागते दौड़ते हैं। यह ज्ञात करने के लिए कि यह सुगंध कहाँ से आ रही है। किंतु न तो सुगंध उनका पीछा छोड़ती है और न उन्हें मिलती है।

दोनों अश्वों के साथ दो किन्नर आदिवासी लड़के भी थे जो अश्वों की बागडोर थामे थे।

"ये क्या हमारे साथ चलेंगे?"

"हाँ उर्वशी, यही तो हमें उस पर्वतीय मार्ग पर ले जाएँगे जहाँ कस्तूरी मृग हैं।"

दोनों अश्वों पर आरूढ़ हो गए। अश्वों के साथ-साथ लड़के भी बागडोर थामे चलने लगे। उर्वशी का अश्व आगे था। पुरूरवा ने अपना अश्व दो क़दम पीछे रखा था ।मार्ग कहीं चढ़ाई का था, कहीं उतराई का ।किंतु इससे अश्वों के चलने की गति में कोई अंतर नहीं आ रहा था। मार्ग में छोटे-बड़े जलप्रपातों का आनंद लेते हुए उर्वशी पुरुरवा उस स्थल पर पहुँच गए जहाँ कस्तूरी मृगो का झुंड अपने शावकों के संग अठखेलियाँ कर रहा था। मृगों ने चकित हो उर्वशी पुरुरवा की ओर देखा ।पल भर ठिठके , दूसरे ही पल छलांग लगाते वृक्षों की ओट हो गए।

"महाराज, यही है कस्तूरी मृग ।"

उर्वशी पुरूरवा अश्वों से उतर गए। मृग उन्हें वृक्षों की ओट से झांकते दिखाई दिए। उर्वशी मृगों को टकटकी की बाँधकर देख रही थी।

"पुरू, जिन मृगों को मैं जानती पहचानती हूँ। यह रंग रूप में वैसे नहीं दिख रहे । इनके सींग भी नहीं है और यह भूरे,कत्थई हैं। देखो पुरू, इनके मुख से दो दांत बाहर निकले हैं जो गले की ओर मुड़े हुए हैं। ये मृगों की भांति चंचल भी नहीं है। यह तो मुझे बहुत शर्मीले और भीरू दिखाई दे रहे हैं। तभी तो हमें देखते ही वृक्षों की ओट में चले गए।"

पुरुरवा पैदल ही उर्वशी के साथ उन मृगों की ओर धीरे-धीरे चलने लगे।

"ठीक कह रही हो उर्वशी, यह अत्यंत शर्मीले होते हैं ।कस्तूरी मादा मृग में नहीं बल्कि नर मृग में होती है ।जो उनके उदर के निचले भाग में एक ग्रंथि से स्रावित होकर ग्रंथि से जुड़े थैली नुमा भाग में इकट्ठी होती रहती है।"

"फिर उसे निकालते कैसे हैं ?"

"थैली को काटकर। मृग थैली का काटना सह नहीं पाते।" "अर्थात ?"उर्वशी ने चौक कर पूछा।

"अर्थात वे मर जाते हैं। या थैली काटने के पहले ही मार दिए जाते हैं।"

"यह तो बड़ा दर्दनाक कृत्य है?"

"हाँ उर्वशी। किंतु कस्तूरी पाने का यही एक उपाय है।"

यह सुनकर उर्वशी उदास हो गई। एक घड़ी वहाँ रुकने के कारण मृगों का उनके प्रति उत्पन्न भय जाता रहा। अंतत उर्वशी को मृग शावक पर हाथ फेरने का अवसर मिल ही गया। भूरे और कत्थई मिले-जुले रंग के रेशमी मुलायम शावक को उर्वशी गोद में उठाकर प्यार करने लगी। उसका सफेद निचला हिस्सा बहुत आकर्षक था। उसके उदर के भाग में कहीं भी कस्तूरी की ग्रंथि नहीं थी ।अर्थात वह मादा है ।

पुरुरवा के अश्व का आदिवासी लड़का कह रहा था - "महाराज, थोड़ी ही देर में संध्या हो जाएगी। आपको हमारी कुटिया भी तो चलना है। हमारे माता-पिता से मिलने।

"हाँ, हाँ चलेंगे न। उर्वशी चलो अब किन्नरों का आवास भी देख लें। अंधकार होने के पहले अरण्य महल भी पहुँच जाना है।"

उर्वशी ने शावक को गोद से उतारते हुए कहा -"आऊँगी तुमसे मिलने प्रिय मित्र।

वह अश्व पर बैठ गई। मृग शावक उसे टकटकी बाँधे देखता रहा। मानो कह रहा हो अभी तो मित्रता हुई और अभी ही बिछोह भी!"

दो कोस चलने के बाद वे किन्नरों के आवास क्षेत्र में पहुँच गए। ऊँची नीची पहाड़ी भूमि पर भोजपत्र की लकड़ी से निर्मित लगभग 15 कुटिया बनी थीं। जिनकी छानी भोजपत्र के पत्तों से छाई हुई थी। हिमपात में भी सुरक्षित रहने वाली इन कुटियाँ में किन्नर परिवार अधिक नहीं थे ।अश्वों को आता देख सामने वाली कुटिया से दो लडकियाँ निकलीं। कदाचित दोनों लड़कों ने पहले ही पुरुरवा के आने की सूचना दे दी होगी। क्योंकि दोनों उन्हें प्रणाम कर रक्त चंदन से बनी तिपाईयों की ओर संकेत कर बोली - " विराजिये महाराज, महारानी। दोनों लड़कियों के केश वन पुष्पों की वेणी से सजे थे। गले में नीलमणि की मालाएँ थीं। वे कटि भाग तक ही वस्त्र पहने थीं। ऊपर मालाओं का ज़ाल-सा था जो उनके स्तनों को ढके था।

"ये मेरी बहने हैं महाराज।"

तभी कुटिया से श्वेत केश की अधेड़ महिला निकली

"और ये माता।"

प्रौढ़ महिला ने प्रणाम करते हुए दोनों लड़कियों से पेय लाने को कहा। पुरुरवा ने मना किया- "अब हमे विदा दीजिए देवी, संध्या के साथ-साथ अंधकार का भी प्रवेश होने वाला है ।मार्ग भी लंबा है।"

तीनों ने उर्वशी को अश्व पर चढ़ने में सहायता की और सूखे पुष्पों से निर्मित पुष्पगुच्छ भेंट किया।

"अति सुंदर,धन्यवाद ।"कहते हुए उर्वशी और पुरुरवा ने अरण्य महल की दिशा की ओर प्रस्थान किया ।

आंखों से ओझल होते तक तीनों प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़े खड़ी रहीं।