उर्वशी पुरूरवा / भाग 5 / संतोष श्रीवास्तव
अप्रतिम सौंदर्य से युक्त प्रकृति के सान्निध्य में स्थित अरण्य महल में पुरुरवा और उर्वशी स्वर्णिम दिन बिता रहे थे । अथाह प्रेम की अनुभूति से निर्मित वातावरण में दोनों को स्वर्गिक आनंद की अनुभूति हो रही थी।
उर्वशी के लिए यह अनुभूति सर्वथा नवीन थी किंतु पुरुरवा इन अनुभूतियों को महारानी के संग बांट चुके थे।
बीच-बीच में उन्हें महारानी की याद सताती थी । जब भी संदेश वाहक प्रतिष्ठानपुर के राजमहल की कोई समस्या लेकर आता तो उसके समाधान के साथ-साथ में वे संदेश वाहक के हाथ महारानी के लिए पत्र भी भेजते।
भोजपत्र पर लिखे उनके पत्र महारानी के लिए तो जैसे धरोहर हो गए। वे अपने एकांत में उन पत्रों को पढ़तीं और महाराज की उपस्थिति अनुभव करतीं -
"महारानी ,इस अरण्य में सुंदरता का साम्राज्य है ।आकाश को चूमते विशाल चीड़, देवदार के वृक्ष हैं। वृक्षों के पीछे पर्वतों के वैभव का क्या कहना, सूर्य सबसे पहले इनके शिखर को स्पर्श करता है । सूर्य के इस स्पर्श से पर्वत की कंदराओं में जमा कोहरे का धुआं बाहर आ जाता है और जब सूर्य की रश्मियाँ पर्वतीय वृक्षों की डालियों पर बिखरती हैं तो धूप के चकत्ते धरती की हरीतिमा पर सुंदर चित्रकारी करते दिखलाई देते हैं।
सरोवरों में जिधर भी दृष्टि जाती है कमल ही कमल खिले दिखते हैं ।सफेद ,गुलाबी ,नीले कमल जैसे सरोवर पर प्रकृति ने सभी रंगों को बिखेर दिया है। मयूर तो प्रातः उठते ही पंख फैलाए दिख जाते हैं। मानो हमारे लिए नृत्य का आयोजन कर रहे हों।
प्रकृति का यह सौष्ठव एकांत क्षणों का निर्माण कर मन को एकाग्र करता है। कदाचित इसीलिए तपस्वी यहाँ वर्षों साधना रत रहते हैं। इस स्थल में अवश्य ही कुछ जादू है जो मुझे आप तक खींच रहा है। मुझ पर विश्वास रखना ओशिनरी। अवश्य इस स्थिति को लाने में ईश्वर की ओर से संकेत हुआ है।
अपना ध्यान रखें।हमारे लौटने तक स्वयं को पूजा पाठ में ही लगाए रखें। खेद करना आपके स्वभाव में नहीं है। चंद्रमा आपके आराध्य हैं। वे प्रेम के देवता हैं और अपनी ज्योत्सना से सृष्टि को रजत करते हैं। सौंदर्य और प्रेम के देवता की उपासक आप मेरे प्रति कठोर नहीं हो सकती। मुझे ज्ञात है। मैं उर्वशी में आपको देखता हूँ ।आप और उर्वशी एकाकार हो गई हैं। यही मेरा सत्य है।"
पुरुरवा के इस पत्र को पढ़कर महारानी मन में आए पुरुरवा के प्रति विकारों से धीरे-धीरे मुक्त होने लगीं। वे सब कुछ को अपना प्रारब्ध मान शांत हो चलीं।
उर्वशी रूपवान तो थी ही। उसे शृंगार की आवश्यकता नहीं थी फ़िर भी दासियाँ उसका नित्य नया शृंगार करतीं ।प्राकृतिक पुष्पों की सुगंध से युक्त जब वह पुरुरवा के समीप जाती तो पुरुरवा सब कुछ भूल कर उसके हृदय में, उसकी देह में समा जाते। उसके उन्नत स्तनों के बीच अपना चेहरा रखकर बु दबुदाते- "तुम अनंत सुख का भंडार हो उर्वशी ,तुम्हारी देह के सागर में मैं तो बस एक लहर की तरह उछाल मारता रहता हूँ ।कहो उर्वशी, तुम प्रसन्न तो हो न?"
"पुरू, मैं नहीं जानती प्रसन्नता क्या है। बस इतना जानती हूँ जो कुछ तुमसे मुझे प्राप्त हो रहा है उसकी तो देवलोक में कोई कल्पना ही नहीं कर सकता। न जाने भूलोक में ऐसा क्या है कि समस्त इंद्रियाँ व्याकुल रहती हैं। हर पल तुम्हारा साथ चाहती हैं। मोह, रिश्ते- नाते, सम्बंधों की डोर कितनी सुखकर प्रतीत होती है। पुरू, मैं तुम्हारे पास से देवलोक कभी जाना नहीं चाहती। वहाँ के स्थिर जीवन में पुनःलौटना नहीं चाहती ।"
पुरूरवा ने प्रसन्न हो उसका मुख चूम लिया और उसके रेशमी मुलायम केशों पर अपनी उंगलियाँ फिराते हुए बोले- "तुम्हें जाने कौन दे रहा है प्राण प्रिये,तुम सदैव मेरे हृदय आसन पर विराजमान रहोगी। तुम्हारे बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं।" उर्वशी भावाभिभूत हो पुरुरवा के कंधे पर सिर टिका असीम सुख में डूब गई - "डरती हूँ पुरू, कहीं ये पल बीत न जाए। जल की बूंद के समान जो अभी आई थी और अभी बिखर गई।"
"वही जल की बूंद तो प्लावन बन हममें समा गई उर्वशी ,क्या तुम देख पा रही हो समय के सनातन स्वरूप को ।जो प्रत्येक क्षण ,प्रत्येक मुहूर्त ,प्रत्येक संवत, प्रत्येक शताब्दी की जाने कितनी बूंदों को जलधारा के रूप में बहाए लिये जा रहा है।"
"हाँ पुरू, इस चरम क्षण की धारा में मुझे बह जाने दो ।इस धारा का कोई कल नहीं है। हम ही तो हैं वह कल जिसके बंधन में हमारी प्रेम की धारा बही जा रही है। देश काल और लोकों से दूर ।"
"ओह उर्वशी, प्रेम के इन क्षणों को तुमने सीमाहीन कर दिया।सर्वव्यापी कर दिया।"
जैसे प्रकृति भी इस प्रेमी युगल के आगमन से प्रसन्नता का कोष उलीच रही थी। अनुराग का गुलाबी लाल रंग सब ओर छिटका था।पर्वतों की गोद में कुछ वृक्ष ऐसे थे जिनके पत्तों पर भी लालिमा थी और डालियों पर भी। रंग-बिरंगे सुगंधित पुष्प जब अपने वृत्त पर झूलते तो बड़ा ही मनोहारी दृश्य खींच देते। उर्वशी,पुरुरवा के जीवनवृत्त पर खिलने वाले भावकुसुमों में भी मानो तरुणाई की लालिमा झांकने लगी थी।
जलप्रपात की स्फटिक जलधारा में जब दोनों जल क्रीड़ा करते तो कुछ तो उर्वशी के सौंदर्य से और कुछ सूर्य की रश्मियों से झिलमिल करते इंद्रधनुषी रंग पर्वतीय वैभव को द्विगुणित कर देते। कल - कल निनाद करती तलहटी में गिरती ये धाराएँ मानो उर्वशी और पुरुरवा के स्वागत में मीठा वाद्ययंत्र बजा रही हों।
इन अनमोल क्षणों में अनुपम छटा के बीच दोनों के अस्तित्व एकमेव हो गए।
समय का चक्र घूमता रहा। किंतु प्रातः - संध्या ,दिन - रात्रि ठहर से गए। वे दिन ,वे सप्ताह,वे मास बीत कर भी नहीं बीते जिन्होंने अपने आगोश में उर्वशी और पुरुरवा को ले लिया था। प्रेम की आसक्ति ने समय को रोक दिया था ।किंतु समय रुक सकता है क्या ?समय किसी के अधीन नहीं । पुरुरवा को समय के बीतते रहने की सुधि नहीं थी। जीवन की ऐसी गति का क्या कोई समापन हो सकता है ?उर्वशी अपार सुख के सागर में नौसिखिए तैराक-सी गोते लगा रही थी और पुरुरवा प्रकृति के कण-कण में स्वयं को अनुभूत कर रहे थे। स्वयं को पा रहे थे। यह विराट अनुभूति प्रेम का चरम है। वे ब्रह्मांड के असीमित विस्तार में विचरण कर रहे थे। प्रेम वहाँ भी था। अनुभूति वहाँ भी थी।
मौसम बीतते रहे ।उर्वशी और पुरुरवा गंधमादन अरण्य के हर वृक्ष, हर पुष्प ,पत्ते- पत्ते से परिचित हो चुके थे। इस समय को पुरुरवा ने राजकाज की जिम्मेदारियों से मुक्त हो बिताया था ।रात दिन रहने वाले उस तनाव से भी मुक्त हुए थे पुरुरवा जिसमें वे निःसंतान होने की पीड़ा को सह रहे थे। वह पीड़ा नुकीले बाण-सी उन्हें बेधती थी। वह रक्तहीन चोट उनके लिए व्याधि बन गई थी ।किसे दोष देते महारानी को या स्वयं को?
उर्वशी के गर्भ धारण करते ही पुरूरवा की वह व्याधि एकाएक समाप्त हो गई और चारों दिशाएँ उनकी मनोकामना सिद्ध होने की प्रसन्नता में मुस्कुरा उठीं।
पुरुरवा को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे पिता बनने वाले हैं। क्या सचमुच उनके भाग्य ने उनके लिए ज्योतिर्मय आयाम खोल दिए हैं? क्या उनकी हथेली की रेखाओं में पितृ ऋण से मुक्ति की रेखा भी खिंच गई है? वर्षों का शून्य अनंत में विलीन होने लगा ।उन्होंने परमपिता परमेश्वर के आगे घुटने टेक कर ,नतमस्तक होकर अपने होने वाले पुत्र के लिए प्रार्थना की।
अत्यंत प्रसन्न हो उन्होंने उर्वशी को हृदय से लगाते हुए कहा- "तुमने मेरा जीवन धन्य कर दिया। अवश्य पूर्व जन्म के मेरे पुण्य है जो तुमसे मिलन और संतान प्राप्ति का संयोग बना। मैं यह समाचार महारानी को भिजवाना चाहता हूँ ।"
उर्वशी ने रोका -"अभी नहीं पुरू, गर्भ में शिशु को स्थायित्व तो प्राप्त करने दो। अभी तो वह भ्रूण है। भ्रूण को आकार लेने दो पुरू।" कहते हुए उर्वशी ने नेत्र मूंद लिए। पुरुरवा ने उसके इस असीम आनंद में व्यवधान नहीं डाला। कक्ष में जल रहे दीप को उन्होंने धीमा किया और बाहर चले गए ।बाहर अंधकार था। हवा में वृक्षों के पत्तों की सरसराहट थी और जुगनू की चमक थी।
दूर हिमपर्वत के शिखर पर चंद्र उदय की तैयारी में था।
पुरुरवा को महारानी की याद आ गई वे उस रात्रि की स्मृति में खो गए जब महारानी ने व्रत रखा था। दिन भर अन्न जल ग्रहण नहीं किया था और आराधना में ही समय व्यतीत किया था। संध्या होते ही महारानी ने द्वारपाल के द्वारा पुरुरवा को संदेश भिजवाया कि "वे व्रत का पारायण कर रही हैं। उन्होंने राजमहल के पूर्व दिशा के मणिहर्म्य भवन के प्रांगण में उन्हें बुलाया है। वहाँ से चंद्रमा पूर्ण रूप से दिखाई देगा।"
पुरुरवा ने देखा राजद्वार अत्यंत सुरुचि से सजाया गया है ।उद्यान के कोनों में ऊँघते मोर ऐसे लग रहे थे जैसे किसी कुशल मूर्तिकार ने उन्हें प्रस्तर शिल्प में ढाल दिया हो ।महारानी के आदेश से संध्या पूजन के इस भव्य आयोजन को देख पुरूरवा विस्मित थे। जहाँ तक पुरुरवा को याद है
प्रत्येक पूर्णिमा को महारानी चंद्रमा का व्रत रखकर चंद्र उदय होने पर व्रत का पारायण करती थी किंतु वे कभी भी उस व्रत के पारायण उत्सव में सम्मिलित नहीं हुए। किंतु व्रत का इतना भव्य उत्सव तो महारानी ने इतने वर्षों में पहली बार आयोजित किया है।
पुरुरवा के चारों ओर दासियाँ दीपक लिए मणिहर्म्य भवन की ओर जा रही थी ।
मणिहर्म्य भवन के विशाल प्रांगण में बहुत ही भव्य और आकर्षक पूजा स्थल बनाया गया था। धूप दीप नैवेद्य से चंद्रमा और रोहिणी की मूर्तियों का पूजन कर खीर ,मेवा, मिष्ठान का भोग लगाते हुए महारानी ने पुरुरवा से कहा - "महाराज ,चंद्रमा और रोहिणी की आराधना करते हुए आज जो मैंने व्रत रखा है उसकी कामना में केवल आप हैं ।मुझसे विवाह कर जो संतान प्राप्ति से आप वंचित हैं वह निश्चय ही पूर्ण होगी।"
कहते हुए उन्होंने पुरुरवा के मस्तक पर चंदन रोली का तिलक किया और प्रसाद का लड्डू उनके मुंह में पूरा खिलाने के प्रयत्न में लड्डू टूटकर उनके मुख से लिपट गया । आसपास खड़ी दासियाँ ,दास विशेष कर निपुणिका और मदनिका मंद मंद मुस्कुराने लगीं ।महारानी ने अपने रेशमी आंचल से उनका मुख पोछा - ", देखिये महाराज ,आकाश में पूर्ण चंद्र प्रकट हो चुके हैं और रोहिणी भी उदित हो चुकी हैं। हमारे सौभाग्य सूचक ,आराध्य दर्शन आपकी ,मेरी, इस राज्य की, हम सब की ख़ुशहाली के सूचक है ।"
पुरुरवा ने भी अपने हाथों महारानी को जल पिलाकर ,लड्डू खिलाकर उनके व्रत का पारायण किया था ।
आज उर्वशी के गर्भ में उनका शिशु आने का शुभ संकेत महारानी के इस व्रत का फल ही तो है। निश्चय ही महारानी का पुण्य प्रताप है यह। पुरुरवा महारानी के प्रति असीम प्रेम से भर उठे।
जैसे-जैसे दिन व्यतीत हो रहे थे उर्वशी के रूप लावण्य में और भी निखार आता जा रहा था। पुरुरवा विशेष ध्यान रख रहे थे उसका। प्रातः काल उर्वशी जब सरोवर में स्नान के लिए प्रस्थान कर रही थी तो पुरुरवा ने कहा -"आज तुम्हें स्वयं अपना ध्यान रखना पड़ेगा। महर्षि च्यवन के आश्रम से कुछ साधु मुझसे मिलने आ रहे हैं।"
"चिंता मत करो पुरू, दासियाँ रहेंगी न मेरे साथ और फ़िर मैं अपना ध्यान रखने में सक्षम हूँ। यह तो तुम्हारा मेरे प्रति अति अनुराग है जो तुम अपनी पलकों पर मुझे बिठाये रखते हो ।"
पुरुरवा मुस्कुरा दिए ।सरोवर मार्ग में वे कुछ दूर तक उर्वशी के साथ आए फ़िर वापस लौट गए ।
सरोवर में उतरते ही उर्वशी ने देखा कि वायु वेग से उसकी सखियाँ चित्रलेखा, सहजन्या और रंभा चली आ रही हैं। तब तक दासियों ने दोनों मेमनों को स्नान कराकर वृक्ष की छाया में बाँध दिया था ।
जैसे ही सखियाँ सरोवर के किनारे पहुँची ।उर्वशी ने उनसे रूठने का अभिनय किया- "इतने दिनों बाद मेरी सुधि आई?"
सखियाँ भी सरोवर में उतरीं। पहले तो उन्होंने उर्वशी पर जल की बौछारें डालीं फ़िर हंसती हुई बोलीं - "तुम्हें ही हमारी सुधि नहीं उर्वशी ।तुम तो पुरुरवा के प्रेम में सब कुछ भूल बैठी हो। हम तो कितनी ही बार सरोवर के किनारे तुमसे मिलने आए किंतु तुम्हारे साथ पुरुरवा के होने के कारण हम तुम्हारे सामने नहीं आ सके।" चित्रलेखा ने कहा "अच्छा यह तो बताओ मातृत्व का भार सह पा रही हो? हम अप्सराओं को इसकी आदत नहीं है न।"रंभा ने कहा ।
उर्वशी के होठों पर हल्की स्मित रेखा उसके चेहरे को उल्लास में बदल गई -
"भूलोक में अप्सरा भी मानवी हो जाती है ।सभी दुख - दर्द हंसी-ख़ुशी का पालन करते हुए। मातृत्व मेरे लिए भार नहीं बल्कि मेरा सौभाग्य है। पूर्ण नारी होने का सौभाग्य ।"
"अर्थात तुम अपनी कोमल देह को भूल जाओगी ।तुम अपने गर्भस्थ शिशु को जन्म देकर अपनी कांति को खो दोगी ।"
सहजन्या ने विस्मय से उर्वशी की ओर देखा।
"यह भी तो निश्चित है कि प्रसव के बाद शरीर शिथिल हो जाता है और यौवन नष्ट होने लगता है।" चित्रलेखा ने उर्वशी को सचेत करते हुए कहा।
रंभा चित्रलेखा और सहजन्या की हाँ में हाँ मिलाते हुए बोली-
"हमारे लिए तो प्रेम करना भी यौवन की ज्योति को नष्ट करना है ।प्रेम, विवाह ,गर्भधारण न करने से ही तो हम अप्सराएँ चिर यौवन का सुख भोग रही हैं।"
उर्वशी ने अपने नेत्र मूंद कर उगते हुए सूर्य को प्रणाम किया फ़िर सखियों की ओर उन्मुख होते हुए कहा - "क्या अर्थ रह जाता है यौवन की कांति का जब देह उन सुखों से वंचित हो। कि जो स्त्री का शृंगार है। प्रेयसी,पत्नी, माता यही तो देह की उपलब्धियाँ हैं।"
सखियों ने सोचा उर्वशी तो पूर्णतया भूलोक की स्त्री हो गई है ।उसकी सोच में धरती का नारीत्व गूंज रहा है ।इस नारीत्व के लिए ,इस मातृत्व के लिए वह अपना यौवन त्यागने को तैयार है ।अपनी कसी हुई देहयष्टि को शिथिल करने को तैयार है ।अवश्य ही यह सुख स्वर्गिक सुखों से भी बढ़कर होगा ।चरम होगा ।अन्यथा उर्वशी तो देवलोक से भूलोक में आने को ही तैयार न थी।
सखियों को मौन देख उर्वशी मुस्कुराई - "क्यों पड़ गई न भ्रांति में ? कि उर्वशी क्यों धरती के इन सनातन बंधनों को उत्कृष्ट कह रही है ।एक बार तुम भी बंधकर देखो, आनंद लो भूलोक के भौतिक स्वरूप का ।शारीरिक क्षुधा और फ़िर तृप्ति का। हृदय के प्रेम के वशीभूत हो उमड़ते भावों का जिसका अंत मातृत्व में है ।मातृत्व जो देह की अनंत और असीम सत्ता के निकट है।धर्म भी मातृत्व को उच्च स्थान प्रदान करता है। ईश्वर के समकक्ष ही माता का स्थान है। यह एक तरह से प्रेम के धर्म की ओर बढ़ने की घोषणा है।"
सखियों ने करतल ध्वनि की -"आहा उर्वशी, तुम तो प्रेम और मातृत्व के गुणों की व्याख्याता हो गई ।हमें तो अब तुमसे ईर्ष्या हो रही है।"
"मेरे अंदर भी मातृत्व की इच्छा जागृत हो रही है ।"सहजन्या ने कहा।
सभी सरोवर से बाहर आईं।दासियों ने उर्वशी के भीगे वस्त्र बदलवाकर उसे रेशमी वस्त्र पहनाए ।सूर्य की रश्मियाँ धीरे-धीरे प्रखर हो रही थीं। किंतु वातावरण में शीतलता थी। रह - रह कर शीतल वायु के झोंके बदन को सिहरा रहे थे। मार्ग में खड़े वृक्षों की डालियों पर उगे पुष्प और फल चमकीले दिखाई दे रहे थे ।ऐसा लग रहा था जैसे उनके पीछे हरे पत्तों के झुरमुट हरियाली का रहस्य छुपाए हैं ।पक्षियों को भी जैसे यह ज्ञात है तभी तो वे अपने-अपने सुरक्षित स्थानों का चयन कर लेते हैं। फ़िर उन सुरक्षित कोटरों से निकलकर उल्लसित स्वर में चहचहाते हुए वृक्षों के चक्कर काटते हैं।
समय की गति का बोध किसी को भी नहीं हो रहा था। एकाएक उर्वशी व्याकुल हो गई। पुरुरवा भी उर्वशी को लेकर चिंतित हो रहे होंगे। उसने सखियों की ओर देखते हुए कहा-"
"विदा दो प्रिय सखियो, शीघ्र मिलेंगे हम।"कहते हुए उर्वशी तीनों से गले मिली और दासियों के संग अरण्य महल में लौट आई।
चित्रलेखा ,सहजन्या और रंभा उर्वशी के चले जाने के बाद संध्या होने तक अरण्य में विचरण करती रहीं। वे उर्वशी के विषय में ही चर्चा कर रही थीं। जिस धरती पर वह अपने महाराज इंद्र की आज्ञा से तपस्वियों के तप भंग करने के लिए भेजी जाती रहीं वह धरती, वह भूलोक उन्हें तीनों लोकों में सर्वाधिक सुंदर और महत्त्वपूर्ण लग रहा था ।उन्हें लगा कि जीवन का असली आनंद तो उर्वशी उठा रही है। वे तो बस देवलोक में उन सुखों को भोग रही हैं,जो शाश्वत हैं,सदैव उपलब्ध हैं।
जो सुख उर्वशी के सुखों के आगे उन्हें न्यून दिखाई दे रहे हैं ।नृत्य ,संगीत, सम्मोहन आदि तो उनके दैनिक कर्म है। किंतु उर्वशी भूलोक में जिन सुखों को भोग रही है वह उन्हें अधिक आकर्षित कर रहे है। सर्व सुखों के संसार में स्थिर पड़े रहने से उन्हें प्रकृति और उसके तत्वों के आंदोलन का स्वाद नहीं मिल पाया। देवलोक में सब कुछ शाश्वत है जबकि भूलोक में सृजन करते हुए उसके आनंद में जीते हुए मृत्यु हो जाना अधिक सुखकर है।
इस हरी - हरी लचीली धूप पर चलना कितना सुखकर लग रहा है। रात्रि होते ही इन पर आकाश से ओस की बूंदें गिरेंगी जो सूर्योदय होते ही मोती-सी चमकेंगी और फ़िर विलुप्त हो जाएँगी ।पुष्प प्रस्फुटित होंगे ।दिवस भर अपनी सुगंध से इस अरण्य को सुगंधित करेंगे। संध्या होते ही कुम्हला कर अपने आप में सिमट जाएँगे। रात्रि में दूसरे ही प्रकार के सुगंधित पुष्प खिलेंगे जो भोर होते ही कुम्हला जाएँगे। यह कैसा प्रकृति का चक्र है। भले ही जिज्ञासा जगाता है पर इससे प्रकृति की क्रियाशीलता सतत बनी रहती है। भूलोक की जीवन्तता और जिजीविषा सराहनीय है जो देवलोक में दिखलाई नहीं देती। इन्हीं विचारों में गुम भारी मन से उन्होंने देवलोक की ओर प्रस्थान किया।
गंधमादन पर्वत में निवास करते हुए पुरूरवा प्रतिष्ठानपुर के राजमहल के क्रियाकलापों पर भी दृष्टि बनाए रखते थे। महारानी या महामात्य जिन कार्यों को निपटाने में स्वयं को असमर्थ पाते थे। उनका ब्यौरा सैनिकों के द्वारा पुरुरवा के पास भेजा जाता । पुरुरवा ध्यान पूर्वक उन समस्याओं का समाधान खोज प्रति उत्तर भेजते । पुरुरवा के चरित्र की यही तो विशेषता थी। उन्होंने अपने जीते जी न तो कभी अपने राज्य की अवहेलना की, न महारानी की और न उर्वशी की ।
उर्वशी आठ मास के गर्भस्थ शिशु के हृदय की धड़कनें, करवटें, हलचल का अनुभव कर प्रायः पुरुरवा से इस आनंद को बांट लेती थी ।तब वह भरत मुनि का श्राप भूल जाती थी। तब उसे इतना ही याद रहता था कि उसके और पुरुरवा के प्रेम से उत्पन्न संतान की वह माता होगी।
पुरुरवा उर्वशी को लेकर दिन का अधिकांश समय च्यवन ऋषि के आश्रम में व्यतीत करते थे ।जहाँ च्यवन ऋषि की धर्म पत्नी सुकन्या बहुत ही लाड़ दुलार से उर्वशी को मिष्ठान्न मेवे परोस कर खिलाती और च्यवन ऋषि वेद पुराणों की कथाएँ सुना कर गर्भस्थ शिशु का गर्भ संस्कार करते। अब सुकन्या और उर्वशी में मित्रता हो गई थी। वह विचरण करते हुए अरण्य के आच्छादित वृक्ष के समीप पहुँचकर विश्राम के लिए रुकी। उर्वशी ने उत्सुकता वश सुकन्या से पूछा- "देवी आपका पूरा परिचय जानना चाहती हूँ। आप कौन हैं, कहाँ से आई हैं ? च्यवन ऋषि से कैसे आपका परिचय हुआ ।आपके रूप ,लावण्य, संस्कारशील स्वभाव भंगिमाएँ सब कुछ आपके राजमहल से सम्बंधों की ओर संकेत कर रहा है। क्या मेरा अनुमान सही है?"
सुकन्या ने मुस्कुराते हुए उर्वशी का हाथ पकड़ लिया- "आओ यहाँ इस शिला पर बैठते हैं।
शिला पर लताओं से झड़े हुए पीले, गुलाबी पुष्पों का बिछावन था-
"देखो प्रकृति ने तुम्हारे स्वागत में पुष्प का आसान बिछाया है।" कहते हुए सुकन्या उर्वशी सहित शिला पर बैठ गई। दोपहर ढलने को थी। वृक्षों की घनी डालियों से झांकते धूप के सुनहले टुकड़े नरम हो गए थे- "उर्वशी तुमने सही कहा, मैं पिताश्री राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या हूँ। पिताश्री अत्यंत न्यायप्रिय, प्रजा सेवक एवं कुशल प्रशासक थे ।यही सद्गुण मेरे भ्राताओं में भी बल्कि हम सब में अर्थात सभी भाई बहनों में जन्मजात हैं। हम सभी पिताश्री के पदचिन्हों पर चल रहे थे ।एक दिन पिताश्री हम सबको वन विहार के लिए इसी अरण्य में लेकर आए ।साथ में माताश्री भी थीं। हमने सरोवर में देर तक जल क्रीड़ाएँ की और फ़िर सैनिकों द्वारा ताने गए तंबू में वन भोज का आनंद लेकर हम सब भाई-बहन पिताश्री से आज्ञा ले अरण्य में विचरण के लिए निकल पड़े। पिताश्री और माता श्री ने हमारे साथ सैनिकों को भी सुरक्षा की दृष्टि से भेजा और स्वयं विश्राम करने लगे।
मैं भाइयों के संग उछल कूद करते हुए अरण्य की पुष्पित लताओं, फलों से लदे वृक्षों, जलप्रपात, सरोवर आदि का आनंद लेने लगे। कभी हम पक्षियों की बोली की नक़ल करते ।कभी दोनों हाथ फैलाकर पक्षियों की तरह उड़ने का अभिनय करते। तभी मैंने मिट्टी के टीले के अंदर से चमकती दो मणियाँ देखीं।मैंने अपने भाइयों को समीप बुलाया-
"देखो चमकदार मणियाँ।"
सभी विस्मय से उन मणियों का चमकीलापन निहारने लगे। मैंने कौतूहलवश समीप की डाली से एक डंडी तोड़ी और उन मणियों को निकालने का प्रयास करने लगी किंतु यह क्या ! मणियों में से तो लहू निकलने लगा। मारे डर के चीखते हुए हम वहाँ से भागे। पिताजी तंबू में विश्राम कर रहे थे। हमने हाँफते हुए उन मणियों में से लहू निकलने की घटना बताई। पिताश्री भी विस्मय से भर उठे-
"चलो चलकर देखते हैं।"
कहते हुए वे हमारे साथ उस टीले तक आए। तब तक टीले में से हाथ और सिर भी प्रकट होने लगा।
मैं सांस रोके यह सारा दृश्य देख रही थी। धीरे-धीरे मानव आकृति स्पष्ट होने लगी ।वे कोई तपस्वी थे जो तपस्यारत थे और जिनकी भूलवश नादानी में मैंने आंखें फोड़ दी थीं। मेरी आंखों से अश्रुधारा बह निकली।
पिताश्री दुखी मन से बोले- 'बेटी! तुमने बड़ा पाप कर डाला। यह च्यवन ऋषि हैं जिनकी तुमने आँख फोड़ दी है।'
यह सुनते ही मैं रो पड़ी। मेरा बदन कांपने लगा था। टूटते हुए स्वर में मैंने पिताश्री से कहा- 'मुझे ज्ञात नहीं था कि मैं जिसे टीला समझ कर उसमें छुपी हुई मणियों को बाहर निकालने के प्रयास में थी वे महर्षि के नेत्र हैं। मैंने बड़ा अनर्थ कर डाला।' यह कहकर मैं फूट-फूटकर रो पड़ी।
" हाँ सुकन्या तुमसे अपराध हो गया है। महर्षि च्यवन यहाँ पर तपस्या कर रहे थे। आंधी-तूफान और वर्षा के कारण इनके चारों ओर मिट्टी का टीला बन गया है। इसी कारण तुम्हारी दृष्टि को दोष हो गया। तुम्हें मात्र दो आंखें चमकती हुई दिखाई दीं। अब क्या होगा?'
इतने में च्यवन ऋषि के कराहने का स्वर भी सुनाई दिया। कातर स्वर सुनकर सुकन्या ने तय किया- "मैं इस पाप का प्रायश्चित करके इस हानि की क्षतिपूर्ति करूंगी।"
"तुम्हारे प्रायश्चित से ऋषि की आंखें तो वापस नहीं आएँगी।"पिताश्री राजा शर्याति ने कहा।
सुकन्या बोली- "पिताश्री, अपराध मैंने किया है। अतः दंड भी मैं ही भुगतूंगी।मैं इनकी आंखें बनूंगी।"
"क्या कह रही हो बेटी?"
"मैं उचित कह रही हूँ पिताश्री। मैं ऋषिदेव की आँख ही बनूंगी। मैं मात्र भूल व क्षमा का बहाना बनाकर अपराध मुक्त नहीं होना चाहती। न्याय-नीति के समान अधिकार को स्वीकार कर चलने में ही मेरा व विश्व का कल्याण है, मैंने यही सब तो सीखा है। मैं च्यवन ऋषि से विवाह करूंगी और जीवनपर्यंत उनकी आँख बनकर उनकी सेवा करूंगी।"
"किंतु पुत्री! यह तो अत्यंत जर्जर व कृशकाय शरीर के हैं और तुमने तो अभी युवावस्था में प्रवेश ही किया है। यह किसी भी तरह तुम्हारे योग्य वर नहीं है।" पिताश्री के कथन से मेरे प्रति उनकी चिंता स्पष्ट प्रकट हो रही थी।
यहाँ मैं पिताश्री को दोष नहीं दूंगी। कौन पिता चाहेगा कि उनकी पुत्री एक बूढ़े और अंधे व्यक्ति को ब्याही जाए। किंतु मेरे मन में अपराध बोध था और मैं उसका प्रायश्चित करना चाहती थी।
"पिताश्री! यहाँ पात्रता और योग्यता का प्रश्न नहीं है। मुझे तो सहर्ष प्रायश्चित करना है। मैं इस कार्य को धर्म समझकर तपस्या के माध्यम से आनंदपूर्वक पूर्ण करके रहूँगी। मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान करें।"
"मेरे हठ के समक्ष पिताश्री नत मस्तक थे ।उन्होंने गदगद होकर मुझे अपने गले से लगा लिया। कहा -"सुकन्या तुम्हें पाकर मैं धन्य हुआ। जिसने स्वयं के सुख को ठुकरा कर दूसरों के सुख में अपना सुख माना।"
किंतु माताश्री का हृदय द्रवित था। मेरे विवाह को लेकर उनके मन में सुनहरे सपने थे। मैं राजमहल के सभी सगे सम्बंधियों में सबसे अधिक सुंदर हूँ।"
"वह तो मैं देख ही रही हूँ देवी सुकन्या ,आपका गला भी बहुत मधुर है। आज तो मैं आपसे गीत भी सुनूंगी।"
उर्वशी ने बीच में व्यवधान डाला। सुकन्या के कथन का प्रवाह रुक गया।
"अवश्य किंतु आज नहीं। मेरी जीवन गाथा को यहीं विराम देती हूँ।हम आश्रम में चलते हैं। संध्या का आगमन हो चुका है। कुछ ही समय में अंधकार पांव पसारने लगेगा। महर्षि चिंतित हो जाएँगे।" कहते हुए सुकन्या चलने को तत्पर हुई।
आश्रम की ओर लौटते हुए उर्वशी के मन में इस बात को लेकर मंथन चल रहा था कि देवी सुकन्या ने तो टीले में से प्रकट हुए महर्षि च्यवन को वृद्ध बताया था, आंखें भी उनकी जा चुकी थीं। किंतु महर्षि तो सुगठित ,सुदर्शन पुरुष हैं। उनके नेत्र भी क्षतिग्रस्त नहीं है। फ़िर यह किस तरह संभव है! आश्रम में पुरुरवा उर्वशी की प्रतीक्षा में थे। उसे देखते ही उठ खड़े हुए-
"महर्षि आज्ञा दें। शीघ्र ही पुनः मिलेंगे ।आपका सान्निध्य तो बिरलों को ही मिलता है। मैं भाग्यवान हूँ।"
उर्वशी ने सुकन्या के कान के पास मुंह लाकर धीमे से कहा - "कथा आपने अधूरी छोड़ी है।" सुकन्या ने भी उतने ही धीमे से कहा-
"मिलन की उत्सुकता बनी रहनी चाहिए।
च्यवन ऋषि और सुकन्या उन्हें आश्रम के बाहर तक छोड़ने आए। सुकन्या के पाले हुए मृग और मयूर आश्रम के उद्यान में रात्रि बसेरे के लिए एकत्रित हो गए थे।
अपने कक्ष में लौटते हुए सुकन्या विचार कर रही थी कि उसने उर्वशी को अधूरी कथा बताई। कदाचित इसमें महर्षि च्यवन के प्रति उसका समर्पण और अपराध बोध है। वह कैसे बताती कि उसने जिस कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलते हुए घने अरण्य में कुटिया में जीवन के अंत समय तक के लिये प्रवेश किया है। वह उसका प्रारब्ध नहीं है बल्कि पिताश्री की सेना के प्रति तथा महर्षि च्यवन के उसके हाथों मिले घाव के प्रति उपचार है।
अरण्य महल में लौटते ही सैनिक पुरूरुवा को महारानी का पत्र दिया ।उर्वशी अपने कक्ष में विश्राम के लिए चली गई थी। पुरूरवा ने पत्र पढ़ते हुए विचार किया कि महारानी के द्वारा आयोजित किए जा रहे नेमिशेय यज्ञ में जाना तो आवश्यक है। वैसे भी राजमहल से विदा हुए नौ मास हो चुके हैं ।किंतु उर्वशी को गर्भावस्था में ले जाना उचित नहीं। गर्भ पूर्ण अवस्था में है। कहीं पथरीले, ऊँचे नीचे मार्ग में चलते हुए रथ के हिचकोलों से गर्भ को हानि न पहुँचे । किंतु उर्वशी को यहाँ अकेला कैसे छोड़ें। उनका मन तो यहीं लगा रहेगा। ईश्वर ने इतने वर्षो बाद संतान का मुख देखने का अवसर दिया है। इस अवसर को वे किसी संकट में नहीं डालना चाहते थे।
इसी उधेड़बुन में उर्वशी का हाल चाल पूछने समय पर उसके कक्ष नहीं पहुँच पाए ।उर्वशी रूठकर बिना रात्रि भोज किये बैठी रही ।दासी ने आकर सूचना दी-
"देवी उर्वशी ने अभी तक भोजन नहीं किया है। आपकी प्रतीक्षा में हैं।"
पुरुरवा शीघ्रता से कक्ष में पहुँचे-
"यह क्या उर्वशी, हमारे पुत्र का तो सोचा होता ।उसे क्यों भूखा रखे हो।"
उर्वशी इस चंचलता भरे कथन को सुनकर भूल गई कि वह उनसे रूठी है ।
"अच्छा तुम्हें बहुत चिंता है अपने पुत्र की तो समय पर आए क्यों नहीं?"
"बताता हूँ, पहले भोजन कर लें। नहीं तो और अधिक विलंब हो जाएगा।" कहते हुए उन्होंने भोजन का पहला ग्रास उर्वशी को खिलाया। भोजन के पश्चात दोनों पर्यंक पर आराम से बैठ गए ।दासी गर्म दूध और तांबूल के बीड़े रख गई।
"अब बताओ पुरू, कब से मन शंका से घिरा है ।"
"व्यर्थ शंका मत किया करो।बहुत ही शुभ समाचार है। महारानी नेमिशेय यज्ञ करने की योजना बना रही हैं। मुझे जाना होगा।"
"और मैं ?"
"नहीं उर्वशी, तुम्हें यहीं रहना होगा। तुम्हारा जाना हमारे पुत्र के लिए कष्टदायक हो सकता है। मार्ग ऊबड़- खाबड़ है।राजमहल तक पहुँचते कुछ भी हो सकता है।"
पुरुरवा के बिना रहने की कल्पना मात्र से ही उर्वशी का मन तड़प उठा।
"कैसे रहूँगी पुरू तुम्हारे बिना।"
पुरुरवा ने उर्वशी के बालों को सहलाते हुए उसका मुख चूम लिया-
"मेरे मन की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। इस एकांत में तुम्हारे साथ रहते हुए मैं प्रेम के चरम पर हूँ। प्रकृति के कण-कण में ,धरती आकाश के छोर तक, सागर की गहराई तक बस तुम ही तुम हो। तुम हो तो मैं हूँ।"
उर्वशी ने व्याकुल होकर पुरुरवा के होठों पर अपनी हथेली रख दी- "ऐसा न कहो पुरू, तुम्हारे निकट मेरा होना न होना मेरा प्रारब्ध है। पर तुम केवल मेरे नहीं हो। महारानी, प्रतिष्ठानपुर का राज प्रसाद, प्रजा तुम सबके हो। सब के प्रति तुम्हारा कर्तव्य है। सबकी तुमसे आस है।"
पुरूरवा ने विह्व्ल होकर उर्वशी को अंक में भर लिया। "ओह ,तुम कितनी समझदार हो उर्वशी। हर बात को, हर स्थिति को कितनी सहजता से जीती हो।"
दोनों अर्धरात्रि तक जागते हुए भविष्य के सपनों में खोये रहे। कक्ष के झरोखे से जब चौदस का चंद्र श्रीहीन दिखाई देने लगा तब दोनों की आंखें निद्रा में डूब गई।