उर्वशी पुरूरवा / भाग 6 / संतोष श्रीवास्तव

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तय हुआ कि जब तक पुरुरवा प्रतिष्ठानपुर में रहेंगे उर्वशी महर्षि च्यवन के आश्रम में रहेगी। हालांकि वहाँ उसे भोग विलास से दूर तपस्वियों की दिनचर्या निभानी होगी ।किंतु इसके अतिरिक्त दूसरा उपाय भी तो नहीं ।अरण्य महल में उसे दास दासियों के संग अकेला नहीं छोड़ा जा सकता।उर्वशी को पुरुरवा के इस प्रस्ताव से कोई असहमति नहीं थी ।वह सुकन्या के साथ स्वयं को किसी सीमा तक सहज अनुभव करती थी। यही कारण था जब पुरुरवा उर्वशी को लेकर महर्षि च्यवन के आश्रम में गए और वहाँ आने का अपना मंतव्य बताया तो महर्षि अत्यंत प्रसन्न हुए ।

"उर्वशी की प्रसूति यदि इस आश्रम में होती है तो आश्रम तो पवित्र हो जाएगा पुरुरवा ।

पुरुरवा के नेत्र छलक आए-

"मेरा सौभाग्य है महर्षि, आप मुझे इतना मान सम्मान दे रहे हैं ।"

"आओ उर्वशी तुम्हारा स्वागत है।" कहते हुए महर्षि आसन से उठे। उन्होंने उर्वशी के सिर पर हाथ रखते हुए कहा- "तुम तो पुत्री सम हो। इसे अपना पितृगृह समझो।"

सुकन्या ने भी उर्वशी को गले लगा लिया - "ऐसा लग रहा है जैसे आश्रम में सुहावनी वसंत ऋतु ने प्रवेश किया है। चलो मैं तुम्हारे विश्राम का कक्ष तुम्हें दिखा दूं।"कहते हुए सुकन्या एक छोटे से कक्ष में उर्वशी को ले गई ।जहाँ कुश का बिछौना था। सभी राजसी वैभवशाली सुख की अभ्यस्त उर्वशी जब धरती पर बिछे कुश के बिछौने पर बैठी तो क्षण भर को तो वह व्याकुल-सी हो गई। फ़िर यह सोचकर कि तपस्वियों के जीवन का अनुभव भी तो ले लेना चाहिए। उसने मुस्कुराते हुए सुकन्या की ओर देखकर कहा- "आहा, जीवन का असली आनंद तो आप लेती हैं देवी सुकन्या। जीवन मूल्यों को अंगीकार करते हुए प्रकृति से साक्षात्कार तो अब होगा मेरा और सच मानिए यह मेरे अनमोल समय का सूचक भी है।"

पुरुरवा विदा की प्रतीक्षा में खड़े थे -"आज्ञा दें महर्षि।" कहते हुए उन्होंने कनखियों से उर्वशी की ओर देखा और साथ ही दासी से कहा - "उर्वशी का ध्यान रखना तुम्हारा प्रथम कर्तव्य होगा। इन्हें किसी भी वस्तु का अभाव न होने देना।"

दासी ने हाथ जोड़ते हुए कहा- "आपकी आज्ञा का पालन होगा महाराज।"

पुरूरवा ने उर्वशी की ओर देखकर कहा- "अपना ध्यान रखना उर्वशी। मैं शीघ्र लौटूंगा।"

उर्वशी द्वार तक पुरुरवा के साथ गई ।वह बहुत पीड़ादाई समय था जब वह पुरुरवा से बिछड़ रही थी। वियोग की आंधी में वह स्वयं का संतुलन खोने ही वाली थी कि सुकन्या ने उसे कंधों से थाम लिया- "यह क्या उर्वशी, यह तो जीवन का सत्य है ।वियोग न होगा तो मिलन कैसे सार्थक होगा ।यही सृष्टि का नियम है। चलो चलकर विश्राम करो। सेविका तुम्हारे लिए दूध गर्म कर रही है।"

पुरुरवा प्रतिष्ठानपुर रथ से नहीं अपने अश्व से गए। रथ उन्होंने महर्षि च्यवन के आश्रम में भिजवा दिया कि संभव है भ्रमण हेतु उर्वशी को इसकी आवश्यकता पड़े। साथ ही आश्रम और उर्वशी की सुरक्षा के लिए कुछ सैनिक भी छोड़ दिए। बाक़ी सैनिकों के साथ उनका श्वेत अश्व द्रुत गति से प्रतिष्ठानपुर की ओर भागा जा रहा था।उतनी ही तीव्र गति से उनके मस्तिष्क में उर्वशी और महारानी के विचार गडमड हो रहे थे। उर्वशी के विषय में महारानी को क्या यह सूचना देना उचित होगा कि शीघ्र ही हमारे जीवन में संतान का पदार्पण होगा या यह बात अभी गुप्त ही रखें । यह भी तो हो सकता है कि बाद में बताने से महारानी को आघात लगे । वे उन पर बहुत विश्वास करती हैं। हृदयतल से उन्हें प्रेम करती हैं।उनके चरित्र में कहीं खोट या कृत्रिमता नहीं है। पुरूरवा के प्रति समर्पित उनका भोला भाला निश्छल सौंदर्य सदा ही सबके आकर्षण का केंद्र रहा है। बस एक ही तो कमी है उनमें कि वह उन्हें संतान नहीं दे सकीं। यह कमी समस्त जीवन को झकझोर देती है ।जब मन में विचार आता है कि उनकी मृत्यु के साथ ही सदैव के लिए उनका वंश समाप्त हो जाएगा। एकाएक अश्व रुका। राजमहल सामने था और उनके स्वागत के लिए सभासद एकत्रित हो चुके थे। प्रतिष्ठानपुर के महाराज पुरुरवा की जय हो के नारे आसमान की बुलंदियों को छू रहे थे ।

महारानी भी हाथ में थाल लिए खड़ी थीं। जैसे ही पुरुरवा ने मुख्य द्वार से राजमहल में प्रवेश किया महारानी ने हाथ के संकेत से सबको मौन किया। वे थाल लेकर पुरुरवा के समक्ष जा खड़ी हुई।

"स्वागत है महाराज" कहते हुए उन्होंने महाराज का तिलक करके आरती उतारी।

"आप कैसी हैं महारानी ?" पुरूरवा ने महारानी के कंधे पर हाथ रखा।

इतने लंबे अरसे बाद इस स्पर्श से महारानी सिहर उठी। उनका मन हुआ पुरूरवा के गले लग जाएँ। पूछें, महाराज दूसरी स्त्री के साथ रहते हुए क्या आपको एक पल को भी मेरी याद नहीं आई? क्या आपके मन में यह विचार नहीं आया कि आपकी ओशिनरी इतने मास से कैसे एकाकी जीवन व्यतीत कर रही होगी? या अन्य पुरुषों की तरह आप भी...

यह कैसा संसार का नियम है कि पुरुष भले ही दूसरी स्त्री के संग भोग विलास करके लौटा हो उसकी पत्नी उसका स्वागत ही करती है ।

मानो वह युद्ध में विजय प्राप्त कर लौटा हो ।जब से ओशीनरी काशी के अपने राजमहल से प्रतिष्ठानपुर ब्याह कर आई हैं कहीं कोई कमी नहीं रहने दी उन्होंने पतिव्रत धर्म में ।क्या केवल संतान न दे सकने के कारण वह उपेक्षित हो गई! यदि पति नपुंसक हो तो क्या पत्नी संतान प्राप्ति के लिए यह सब करेगी जो महाराज ने किया? और क्या उसका भी इसी तरह पति स्वागत करेगा?

यह प्रश्न अनुत्तरित ही है सदियों से ।

पुरुरवा के राजमहल के अंदर प्रवेश करते तक मार्ग के दोनों ओर खड़े सभासद ,सेवक,सेविकाएँ पुष्प वर्षा करते रहे।

महारानी ने आज पुरुरवा का कक्ष विशेष रूप से सज्जित किया था ।सुगंधित पुष्पों की वंदनवार से कक्ष भी सुगंधित हो उठा था। पुरुरवा ने आसन पर बैठते हुए पूछा-

"महारानी यज्ञ तो दो दिन बाद होने वाली पूर्णिमा को ही है न?"

"हाँ महाराज, तैयारियाँ पूर्ण हो चुकी हैं। आप विश्राम करें।"

मन में उठे प्रश्न को महारानी ने मन में ही दबा लिया कि उर्वशी को क्यों नहीं साथ में लाए और नहीं लाए हैं तो उसे अरण्य में एकाकी कहाँ छोड़ दिया ?महाराज को स्वयं यह सब उन्हें बताना चाहिए। वह नहीं बता रहे हैं तो महारानी के पूछने का क्या औचित्य ?उनके इस सहज प्रश्न का कहीं महाराज ग़लत अर्थ न लगा लें। महारानी चुप ही रहीं।

"हम राजपुरोहित से मिलना चाहते हैं महारानी ।अतिथि कक्ष में यह संदेश पहुँचा दीजिए।" कहते हुए पुरुरवा ने शरबत पिया और पर्यंक पर लेट गए ।महारानी कक्ष के बाहर अपने प्रासाद की ओर चली गईं।

पर्यंक पर विश्राम के लिए लेट ते ही वे उर्वशी की स्मृति में खो गए। गर्भ का अंतिम मास है ।उर्वशी को विशेष सावधानी की आवश्यकता है। वैसे तो महर्षि च्यवन का आश्रम निरापद है ।वहाँ देवी सुकन्या के निरीक्षण में उर्वशी के लिए दासियाँ भी हैं। यहाँ कितना समय रुकना पड़ेगा यह तो राजपुरोहित ही बताएँगे।

राजपुरोहित अतिथि कक्ष में पुरुरवा की प्रतीक्षा कर रहे थे। एक घड़ी पश्चात पुरुरवा ने कक्ष में प्रवेश किया।

"प्रणाम महाराज, इतने मास पश्चात आपके दर्शन कर अति प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ।" राजपुरोहित ने आसन से उठते हुए कहा।

"बैठिए पुरोहित जी।" कहते हुए पुरुरवा आसन पर बैठ गए। मौसम गर्म हो रहा था। वैसे भी चैत्र मास लग चुका था। सेवक महाराज के दाएँ बाएँ खड़े पंखा झल रहे थे। पुरुरवा ने बिना किसी भूमिका के प्रश्न किया "एकाएक इस यज्ञ के आयोजन का कारण बताएँ ।"

"महाराज आपकी कुंडली में शीघ्र ही संतान प्राप्ति का योग है। अतः सब कुछ निर्विघ्न संपन्न हो इसलिए इस यज्ञ का आयोजन मुझे उचित लगा।"

"क्या आपने इस उद्देश्य की चर्चा महारानी से की है?"

"नहीं महाराज यह तो आप ही बता सकते हैं उन्हें ।

"उचित किया पुरोहित जी। यह बात हम स्वयं उन्हें बताएँगे। एक बात का ध्यान रखिए पुरोहित जी।इस यज्ञ में केवल राज परिवार के सदस्य ही रहेंगे। हम नहीं चाहते कि इस यज्ञ का उद्देश्य आम नागरिकों तक पहुँचे। मेरा प्रारब्ध मेरे साथ है। यज्ञ की आहुतियाँ निश्चय ही उसे सुदृढ़ता और आलोक प्रदान करेंगी।"

"जैसा उचित समझे महाराज, वैसे भी महारानी चंद्रमा की उपासक हैं ।पूर्णिमा के दिन पूर्ण चंद्र के दर्शन कर यज्ञ संपन्न होगा ।यह महारानी के लिए सुखकर होगा।"

"आप महारानी को इस हेतु तैयार करें।"

"ठीक है महाराज ,आज्ञा दें ।यज्ञ के शेष कार्य पूर्ण करवाने हैं ।"

राजपुरोहित के जाते ही पुरुरवा भी आसन से उठकर सीधे राजसभा में पहुँचे। राजसभा सभी पदाधिकारी सहित अपने प्रिय महाराज की प्रतीक्षा में थी। राजसभा के द्वार से अंदर प्रवेश करते ही उनकी जय जयकार और पुष्प वर्षा हुई। यह नियम तो नहीं था किंतु पुरुरवा के कई मास पश्चात राजसभा में पधारने का यह हर्ष सूचक संकेत था । सभी का अभिवादन करते हुए पुरुरवा सिंहासन पर बैठ गए ।इस समय वे मात्र राजा की भूमिका में थे। उनका गंभीर व्यक्तित्व प्रतिष्ठानपुर के नागरिकों के आपसी असंतोष , पारिवारिक एवं सामाजिक विवादो आदि को उचित न्याय देने की ओर अग्रसर था। इस समय वह जीवन की अन्य किसी भी भूमिका में नहीं थे। न पति, न प्रेमी ।इस समय उर्वशी का स्मरण भी उनकी न्याय प्रिय भूमिका को डिगा नहीं सकता था। महामात्य द्वारा प्रस्तुत जितने भी प्रकरण थे। सभी की सुनवाई के पश्चात उन्होंने निर्णय सुनाए ।दोपहर तक वे राजकाज में व्यस्त रहे। महारानी राजसभा में उपस्थित नहीं थी। क्योंकि उन्हें यज्ञ के कार्यों के लिए राजपुरोहित से परामर्श करना था ।व्यस्तता इतनी अधिक थी फ़िर भी उन्होंने पुरुरवा के मनपसंद व्यंजनों की सूची राज रसोईये को सौंप दी थी और भोजन का समय होते ही उन्होंने राजपुरोहित को विदा कर पुरुरवा के पास सेवक भेजे कि वह भोजन कक्ष में उनकी प्रतीक्षा कर रही हैं। इस सूचना के बाद भी दो घड़ी का समय और लग गया पुरुरवा को राजसभा में।

राजसभा से भोजन कक्ष तक आते-आते पुरुरवा को धूप नम प्रतीत हुई। अर्थात दोपहर ढलने को है। महारानी बिना भोजन किए उनकी प्रतीक्षा कर रही हैं ।

भोजन कक्ष तक पहुँचते हुए वे सोचने लगे इस समय उर्वशी महर्षि च्यवन के आश्रम में अवश्य विश्राम कर रही होगी या देवी सुकन्या से वार्तालाप कर रही होगी। उसके दोनों मेमने उसकी शैय्या के आसपास उछल कूद कर रहे होंगे ।आश्रम के आसपास घने वृक्षों से होकर आता समीर कितना सुखदायक होगा ।

"आईये महाराज" महारानी ने आसन से उठते हुए उनका स्वागत किया। दासियाँ शीघ्र ही विविध व्यंजनों से भरे पात्र उठा लाई। महारानी ने दासियों को आदेश दिया - "अब तुम सब भोजन कक्ष से बाहर जाओ। आवश्यकता होगी तो बुला लूंगी।"

पुरुरवा ने व्यंजनों में से आ रही क्षुधा जगाती सुगंध से प्रसन्न हो कहा - "आहा, लंबे अंतराल के बाद आपके निर्देशन में बने भोजन का स्वाद लेने का अवसर आया है।"

" महारानी भी अपने सादगी पूर्ण शृंगार में पुरुरवा को लुभा रही थी। पुरुरवा का राजसभा वाला गंभीर व्यक्तित्व अब एक सरल, आकर्षक पति की भूमिका में था। उनके चेहरे को देखकर आभास ही नहीं हो रहा था कि उनके जीवन में महारानी के अतिरिक्त अन्य स्त्री भी है ।जिसके साथ वे 9 मास व्यतीत करके आए हैं।

"महारानी आपने राजकाज तो ख़ूब अच्छे से संभाला। बहुत निपुण है आप।"

"ऐसा नहीं है महाराज, महामात्य की सहायता से ही राजसभा के सभी कार्य निर्विघ्न संपन्न होते रहे। निर्णय न लेने की अवस्था में गंधमादन में रहते हुए भी आप परामर्श दे ही देते थे।"

पुरुरवा ने भोजन समाप्त कर लिया था ।

"अब आप विश्राम करें महाराज, मैं यज्ञ की शेष तैयारी देखती हूँ।"

कहते हुए महारानी ने दासी को बुलाया- "महाराज का कक्ष तैयार है न। तांबूल के सुवासित बीड़े रख दिए न।"

"जी महारानी आपकी आज्ञा अनुसार व्यवस्था संपूर्ण कर दी गई है।"

"ठीक है अब तुम जाओ।"

"आप भी एक प्रहर विश्राम कर लीजिए महारानी। भोजन के पश्चात कार्य अच्छे से होता कहाँ है। शरीर में शिथिलता आ जाती है। भोजन का नशा ही ऐसा है।"

अच्छा लगा महारानी को इस तरह पुरुरवा को अपनी चिंता करते देखकर ।

पुरुरवा भोजन कक्ष से महारानी के साथ ही निकले। दोनों के प्रासाद और कक्ष में दूरियाँ थीं। अतः पहले पुरुरवा ने महारानी को उनके प्रासाद के कक्ष में

पहुँचाया फ़िर अपने कक्ष में गए। स्फटिक तिपाई पर रखे तांबूल के पात्र से उन्होंने तांबूल उठाया और पर्यंक पर आराम से टिककर बैठ गए।

उर्वशी की स्मृति भूलती नहीं थी। जब भी कार्यों से निवृत्त होते उन्हें उर्वशी की स्मृति सताने लगती। उन्हें पता है यह उनके उर्वशी के प्रति अत्यधिक प्रेम का परिणाम है। कितनी अदभुत बात है महारानी के संग वर्षों से निवास करते हुए उन्हें इस तरह एकांत पाते ही कभी उनकी याद नहीं आती। क्या वह महारानी के प्रति तटस्थ हैं।क्या उनके मन में महारानी के प्रति किंचित भी अनुराग नहीं? समझ नहीं पा रहे हैं ऐसा क्यों ?क्या यह ईश्वर का उनके लिए बनाया विधान है?

महारानी धर्म कर्म से रहती हैं ।पुरूरवा की दीर्घायु और मंगल कामना के लिए व्रत रखती हैं।

राजकाज अच्छे से संभालती हैं। राजमहल में निवास करने वाले सगे सम्बंधियों के प्रति संपूर्ण कर्तव्यों का पालन करती हैं ।सौंदर्य में भी किसी से कम नहीं ।फिर उनके प्रति यह तटस्थता कैसी ?क्यों? क्या केवल संतानहीनता ही इसका कारण है या पूर्व जन्म का कोई अपराध? विश्राम करते हुए पुरुरवा महारानी के प्रति उमड़ आये स्नेह से भीगने लगे।

रात्रि विश्राम के लिए उद्यान में एकत्रित हुए मयूरों ने अपने-अपने कोनों में शरण ली। आकाश में द्वादशी का चंद्र धीरे-धीरे ज्योत्सना से चमकने लगा। पुरुरवा पर्यंक से उठने ही वाले थे कि राज विदूषक ने कक्ष में प्रवेश किया- "प्रणाम महाराज ,कैसे हैं आप ?"

"अरे मित्र तुम, हम तो जैसे थे वैसे ही हैं। तुम अपनी सुनाओ।"

"महाराज आपके राज्य में शांति और चैन रहने के पश्चात फ़िर सुनाने को रह ही क्या जाता है ।चलिए नृत्य शाला चलते हैं ।"

"नहीं मित्र ,वहाँ जाने का तनिक भी मन नहीं है। भवन के ऊपरी प्रकोष्ठ पर चलते हैं। रात्रि कालीन सौंदर्य देखने का उससे अच्छा स्थान नहीं।"

"चलिए, वैसे भी अब नृत्य शाला में रखा ही क्या है। नृत्याँगना से भी कहीं अधिक रूपसी और अप्रतिम नृत्य करने वाली उर्वशी के सान्निध्य के बाद इस सब की चाह कहाँ शेष रह जाती है।"

पुरुरवा ने मुस्कुराते हुए राज विदूषक की ओर देखा-

"तुमने कहाँ देख लिया उर्वशी का नृत्य?"

"महाराज,भूल रहे हैं कि उर्वशी इंद्रसभा की श्रेष्ठ नृत्याँगना हैं। उन्हें कौन नहीं जानता।"

भवन का ऊपरी प्रकोष्ठ मानो पहले से ही पुरुरवा के लिए सज्जित करके रखा गया था।

हिंडोले की डोरियों पर सुगंधित पुष्प माला लिपटी हुई थी। चंद्रिका की उज्जवलता में हिंडोले का शुभ्र मखमली आसन, गावतकिए अपनी शुभ्रता में मानो चंद्र से होड़ ले रहे थे। पुरुरवा ने हिंडोले पर बैठते हुए भरपूर दृष्टि चंद्र को निहारा। चंद्र को निहारना अर्थात उर्वशी को निहारना है। फ़िर स्मृतियाँ कहाँ पीछे रह जाती हैं। किंतु राजविदूषक ने उन्हें स्मृतियों में खोने नहीं दिया। पुरूरवा की अनुपस्थिति में राजमहल में घटित महत्त्वपूर्ण घटनाओं से उन्हें वह अवगत कराता रहा।