उर्वशी पुरूरवा / भाग 7 / संतोष श्रीवास्तव

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इसी चंद्रिका पूर्ण रात्रि में महर्षि च्यवन के आश्रम में जब दासी के साथ सुकन्या दूध लेकर उर्वशी के कक्ष में आई तो उर्वशी ने उनका हाथ पकड़ कर अपने बिछौने पर बैठा लिया - "आज तो आपकी पूरी कथा सुनकर रहूँगी देवी सुकन्या।"

"रात्रि अधिक हो गई है। अभी तुम्हें विश्राम की आवश्यकता है उर्वशी। प्रातः काल स्नान के लिए सरोवर मार्ग पर या स्नान के पश्चात का समय मैं तुम्हें दूंगी।" कहते हुए सुकन्या ने उर्वशी के लेट जाने के बाद उसे चादर ओढ़ा दी।

"शुभ रात्रि, देवी सुकन्या।"

"शुभ रात्रि उर्वशी।"

सुकन्या ने कक्ष में जलते हुए दीपक की ज्योत मद्धम कर दी और द्वार बंद करते हुए चली गई। उर्वशी को नींद नहीं आई ।पुरूरवा उसकी पलकों पर मधुर स्वप्न-सा आ बिराजे। किंतु सपना पूर्ण कैसे हो। पलकें निद्रा मग्न हो तब तो स्वप्न पूर्ण होगा। वह कक्ष के गवाक्ष से दिखते मुट्ठी भर सितारों को देखती रही जो चंद्र की ज्योत्सना में फीके फीके से लग रहे थे। पुरूरवा के संग बिताए प्रेम भरे दिनों को याद करते-करते न जाने कब उसे नींद आई जो भोर होते ही पंछियों के कलरव और मयूरों के पंखों की सरसराहट से खुली। वह अंगड़ाई लेते हुए कक्ष के बाहर आई और मेमनों को पुष्प वाटिका की हरी भरी घास पर जाने का संकेत किया।

महर्षि च्यवन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान पूजन से निवृत्त हो ध्यान कक्ष में अपने आध्यात्मिक कार्यों में व्यस्त थे। सुकन्या पुष्प वाटिका में पूजा के लिए पुष्प चुन रही थी।

"उठ गई उर्वशी? नींद अच्छी आई?"

उर्वशी ने हामी में सिर हिलाया और दासी को मेमनो को रस्सी से बाँधने को कहा।

प्रतिदिन का नियम है जब उर्वशी स्नान के लिए सरोवर जाती है तो मेमने भी उसके साथ ही जाते हैं। दासी उन्हें भी स्नान कराकर अरण्य में विचरण के लिए ले जाती है। दासी प्रतीक्षा करती रही उर्वशी और सुकन्या के आश्रम के द्वार से बाहर जाने की। उनके द्वार से निकलते ही वह उनके पीछे-पीछे चलने लगी। मार्ग में सुकन्या ने कहा - "उर्वशी, तुम्हारे विषय में भी मैं विस्तार से जानना चाहती हूँ। अब जब हम मित्र बन गए हैं तो हमें एक दूसरे से परिचित होना चाहिए ।"

"अवश्य देवी,किंतु अभी तो उत्सुकता आपकी शेष जीवन कथा की ओर है।"

सरोवर आ चुका था। प्रातः काल था ।भोर के सिलेटी धुंधलके में पूर्व दिशा अनुराग के रंग से रंग उठी थी। यही अनुराग तो मन में हलचल मचाता है। तब मन अपने वश में कहाँ रह जाता है।

स्नान करते हुए उन्होंने सूर्य का आचमन कर आदि हृदयस्त्रोत का पाठ किया जो आश्रम में आने के बाद उर्वशी ने सुकन्या से सीखा था। दासी ने उर्वशी के भीगे वस्त्र बदलवाये और मेमनों को विचरण के लिए सरोवर से दूर ले गई।

"एक घड़ी इस शिला पर विश्राम करते हैं देवी सुकन्या।" सुकन्या भी उर्वशी के साथ शिला पर बैठ गई।

" तुम तीव्र उत्सुक हो उर्वशी। मेरा जीवन अन्य स्त्रियों से भिन्न नहीं है ।यह तो मुझे बाद में महर्षि से विवाह के पश्चात ज्ञात हुआ कि वह क्यों वर्षों से तपस्यारत थे । दीर्घ तप के कारण उन्होंने अपनी युवावस्था पार कर ली थी और वृद्ध जर्जर काया सहित वे टीले से बाहर आए।

महर्षि विवाहित थे। पत्नी आरुषि अति सुंदर स्त्री थी। आरुषि पर महर्षि की तीव्र आसक्ति थी। वह जितनी सुंदर थी उतना ही मनमोहक शृंगार कर महर्षि को 24 घंटे लुभाती हुई अपने प्रेम पाश में बाँधे रखती। महर्षि उसके प्रेम में स्वयं को भूल चुके थे ।उन्हें आरुषि के अतिरिक्त और कुछ भी सुझाई नहीं देता था। स्वर्णिम दिनों में दोनों ने कई मौसम व्यतीत किये किंतु विधाता को तो महर्षि से बड़े और महत्त्वपूर्ण कार्य कराने थे। शीघ्र ही आरुषि गर्भवती हो गई और पुत्र ओरव को जन्म देते हुए प्राण लेवा प्रसूती पीड़ा में संसार से कूच कर गई। महर्षि के लिए यह वज्रपात था। विरह की पीड़ा में उनका जीना दूभर हो रहा था ।न जाने कितने पर्वत ,नदियाँ ,अरण्य उनके विरह के साक्षी हैं। लंबा समय इसी विरह में बीतता रहा। तब उन्हें एक दिन अपनी योग्यता ,अपनी शक्तियों का अंतर्मन से एहसास हुआ। किंतु वे शक्तियाँ उनके विरह रुदन में सुप्त हो चुकी थीं। उन्हें जगाना तपोबल से ही संभव था। अतः बरसों बरस वे तप करते रहे। तप करते हुए एक समय तो ऐसा आया जब उन्हें स्वयं का भान नहीं रहा। उनके शरीर पर धीरे-धीरे मिट्टी की परतें चढ़ती गई जो एक बड़े टीले के रूप में परिवर्तित हो गई। दीमकों ने उस मिट्टी के टीले पर अपने घर बना लिये। आंधी, पानी ,वर्षा ओलों में भी उस टीले की दृढ़ता बनी रही। जो मेरे दुस्साहस से ही टूटी ।

उर्वशी देवी सुकन्या के चेहरे को बिना पलक झपकाए देखे जा रही थी ।महर्षि च्यवन के तप का वृत्तांत सुन उससे रहा नहीं गया-

"देवी धन्य है यह पृथ्वी लोक जहाँ इतने महान तपस्वी हुए।" मन ही मन उर्वशी ने यह भी सोचा, तभी तो देवराज इंद्र को अपने सिंहासन का भय लगा रहता है और हम अप्सराओं को उनका तप भंग करने यहाँ भेजते रहते हैं।

"उर्वशी, यह तो मेरे विवाह के पूर्व की कथा है। विवाह के उपरांत मैंने पति रूप में महर्षि को बूढ़ा, जर्जर और नेत्रहीन ही पाया ।तुम सोच सकती हो कि मेरे दिन कैसे बीत रहे होंगे। मेरे जीवन में बस दो ही काम रह गए थे महर्षि की सेवा करना और आश्रम में अपने पाले खरगोश, मृगों, मयूरों ,गिलहरियों की देखभाल करना। कदाचित ये मेरे पालतू जीव ही तो मेरे मनोरंजन का साधन थे ।जिनके साथ बतियाते हुए मैं अपने मन में उठे अवसाद ,पीड़ा को भूल जाती थी ।पत्नी, माता के सुखों से वंचित मैं एक कठपुतली की तरह प्रातः से रात्रि तक नृत्यलीन रहती थी।

कई बार महर्षि ने अपनी पीड़ा मुझसे साझा की - "सुकन्या बहुत कुछ करने का मन है ।कई ग्रंथों की अलिखित शब्दावली मुझे उद्वेलित किए हैं ।"

मुझे पता था मेरे जीवन में कोई सुख नहीं है और इसके लिए मैं किसी को दोषी भी नहीं मानती क्योंकि अपने सुखों के द्वार मैंने स्वयं बंद किए हैं। किंतु मन में महर्षि के लिए बहुत कुछ करने की इच्छा बलवती थी ।अतः मैंने प्रस्ताव रखा- "आप आज्ञा दें तो मैं आपके विचारों को लिपिबद्ध कर सकती हूँ। आप कहते जाएँ मैं लिखती जाऊँ।" "यह इतना आसान नहीं है सुकन्या, जब क़लम चलती है तो मन में विचारों का तांता लगा रहता है ।बोलने से इस प्रक्रिया में व्यवधान आता है ।"

महर्षि की व्यथा का कारण मैं ही थी। मैंने ही उन्हें नेत्रहीन किया। सोचते ही मेरी व्याकुलता बढ़ जाती। फ़िर किसी काम में मन नहीं लगता ।इतना पश्चाताप होता कि कई बार नदी में जल समाधि लेने की इच्छा से बावरी-सी नदी तट की ओर भागती। फ़िर महर्षि का विचार कर लौट आती ।आज जो "च्यवन स्मृति" इतना अधिक चर्चित और प्रशंसित ग्रंथ है इसकी रचना का विचार उनके मन में तभी आया था। वे कई बार मुझसे इस ग्रंथ सम्बंधी विचारों की चर्चा कर चुके थे।"

"ऐसे बूढ़े, जर्जर ,नेत्रहीन महर्षि एकदम ठीक कैसे हो गए ?वह तो बहुत सुदर्शन ,ऊर्जावान तपस्वी पुरुष दिखाई देते हैं ।"

उर्वशी की उत्सुकता पर सुकन्या ने मुस्कुराते हुए अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया। "तुम्हारी शंका निर्मूल नहीं है उर्वशी। बताऊँगी, सब कुछ बताऊँगी। किंतु इस समय आश्रम लौटना होगा। दिन काफ़ी चढ़ आया है ।महर्षि स्वल्पाहार के लिए प्रतीक्षा कर रहे होंगे और तुम भी गर्भ के शिशु को कितनी देर भूखा रखोगी ।"

उर्वशी को तो वृत्तांत में इतनी उत्सुकता बनी रही कि न अपनी और न शिशु की भूख का होश रहा ।

आश्रम लौटते ही सुकन्या की रसोई में उर्वशी की दासियों ने स्वल्पाहार काफ़ी देर पहले तैयार कर लिया था। दूध भी गर्म कर कुल्हड़ो में निकाल कर उस पर केसर के रेशे डाल दिए थे ।सुकन्या के करने के लिए कुछ काम ही नहीं छोड़ा था। उर्वशी स्वल्पाहार के पश्चात अपने कक्ष में मेमनों के संग खेल रही थी ।

उसका गर्भस्थ शिशु भी इन मेमनों की तरह ही उछल कूद मचाता है गर्भ में। सुकन्या आश्रम के पीछे लगी शाक भाजी की बगिया से एक बड़ा-सा कुम्हड़ा तोड़ लाई। उर्वशी को इसका शाक बिल्कुल पसंद नहीं ।

"तुम्हें इसकी खीर खिलाऊँगी उर्वशी ।मेरे हाथ की बनी खीर अश्विनी कुमारो को भी बहुत पसंद आई थी।"

उर्वशी आसन पर सीधी होकर बैठ गई ।

"कौन अश्विनी कुमार?वो जो देवताओं के वैद्य हैं?"

"हाँ वही।एक दिन अचानक वे आश्रम के द्वार पर आए। मैं बगिया से कुम्हड़ा तोड़ रही थी ।उन्हें देख मैंने तुरंत महर्षि को उनके आगमन की सूचना दी ।और दोनों तेजस्वी कुमारों को आदरपूर्वक अतिथि कक्ष में बैठाकर उनके आने का उद्देश्य पूछा ।

"देवी च्यवन ऋषि के दर्शनों हेतु हम यहाँ आए हैं ।"

महर्षि ने उनके सामने रखी चौकी पर बैठते हुए पूछा- "आप अश्वनी कुमार है न?" "धन्य हैं आप ।बिना नेत्रों के भी पहचान लिया।"

अश्विनी कुमारों ने आश्चर्य प्रकट किया।

"अपने तपोबल से अच्छे बुरे की पहचान कर ही लेते हैं। आप वैद्य हैं ।दूसरों की पीड़ा समझते हैं। उसका निवारण भी करते हैं। बताइए क्या मेरे नेत्र ठीक हो सकते हैं ?"

"अवश्य महर्षि ,आप हमारे साथ चलना,किंतु अभी नहीं।"

"कहाँ ले जायेंगे? क्या आपका कोई उपचारगृह है?"

"नहीं महर्षि ,हम तो भ्रमण करते हुए उपचार करते हैं। पहले हम आपके नेत्रों का उपचार करेंगे। उसके पश्चात आपके बुढ़ापे का।"

कहते हुए उन्होंने औषधि के रूप में द्रव्य पदार्थ की कुछ बूंदें महर्षि के नेत्रों में डालीं ।शेष औषधि मुझे देते हुए उसकी प्रतिदिन की मात्रा के विषय में समझाते रहे ।औषधि से महर्षि के नेत्रों में ठंडक पहुँची। अश्विनी कुमार जाने को उद्यत थे। मैंने उन्हें रोकते हुए कहा- "आधी घड़ी आप महर्षि के साथ समय बिताएँ। मैं इसकी खीर बनाकर आपको खिलाती हूँ ।"

दोनों सहर्ष रुक गए ।बहुत अधिक आनंद लेते हुए दोनों ने मेरा सत्कार ग्रहण किया। विदा लेते समय सचेत कर गए कि औषधि को लेकर सचेत रहिएगा वरना उसका प्रभाव कम हो जाएगा। 1 माह पश्चात हम पुनःआएँगे। तब तक प्रभु कृपा से नेत्र ठीक हो जाएँगे।"

मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न था ।हम दोनों ही अति प्रसन्न थे ।सुकन्या यह तुम्हारे पतिव्रत धर्म का ही प्रभाव है जो अश्विनी कुमार एकाएक आश्रम में पधारे। मैं उनके प्रति संभावनाओं से ओतप्रोत थी। "देव संयोग महर्षि, बिना ईश कृपा के कुछ नहीं होता। जब जिस कार्य को संपन्न होना होता है होकर ही रहता है ।अब आप शीघ्र स्वस्थ हो जाएँगे।"

"उर्वशी चमत्कार हुआ। महर्षि के नेत्र ठीक हो गए। वे पहले की तरह देख सकते थे। उन्होंने भावविह्वल होकर मुझे गले लगा लिया और हर्ष के अतिरेक में मेरे चेहरे को स्पर्श करने लगे।"

"ओह सुकन्या, तुम कितनी सुंदर हो। इतने सुंदर रूप यौवन के होते हुए तुमने मुझ बूढ़े, अंधे की इतने वर्षों सेवा की। तुम सचमुच मंगला हो। मेरा मंगल करने वाली।आज से मैं तुम्हें मंगला कहूँगा। तुम्हें पाकर मैं ईश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ।"

मैंने महर्षि में एक सुलझे हुए श्रेष्ठ पुरुष को देखा। अब मेरे मन में पश्चाताप न था। अब मैं स्वयं को दोष रहित पा रही थी।"

"सच में आप धन्य है देवी सुकन्या।"

उर्वशी सुकन्या के प्रति सम्मान की भावना से भर उठी। दासी उर्वशी के केश विन्यास के लिए बड़ी देर से प्रतीक्षा कर रही थी। सुकन्या की तो कोई दासी नहीं थी। इतने बड़े साम्राज्य की राजकुमारी महलों के ऐशो आराम में पली बढ़ी इस तरह आश्रम में एकाकी जीवन व्यतीत कर रही है सोच कर उर्वशी का मन भर आया ।उसने दासी से कहा- "पहले देवी सुकन्या के केश संवारो ।"

सुकन्या ने दासी को रसोई घर में कुम्हड़ा ले जाने को कहा

"नहीं उर्वशी, मुझे इसकी आदत नहीं है ।वर्षों हो गये यह सब त्यागे हुए ।"कहती हुई सुकन्या रसोई घर की ओर चली गई। रात्रि भोजन के पश्चात तारों की छांव में विचरण करते हुए उर्वशी ने कहा- "अश्विनी कुमारो ने चमत्कार कर दिया।

"हाँ उर्वशी ,मेरे तो जीवन का कायाकल्प हो गया। कहाँ मैं महर्षि के साथ रहते हुए अपने पाप का दंड भुगत रही थी और कहाँ...

तभी कोई भूला भटका पंछी नीड़ की खोज में पंख फड़फड़ाता ,चीखता आश्रम के वृक्ष की डाल पर आ बैठा। उसकी व्याकुल चीख से अन्य पंछी भी चीत्कार करने लगे ।सुकन्या ने शीघ्रता से जाकर महर्षि के कक्ष के द्वार बंद कर दिए ताकि उनके लेखन में व्यवधान न आए।

"आप कितना ध्यान रखती हैं देवी सुकन्या। यही तो आपके चरित्र की विशेषता है।"

सुकन्या ने आश्रम के उद्यान में लगे आम्र वृक्ष के नीचे बने चबूतरे पर उर्वशी के साथ बैठते हुए कहा - "लेखन कोई आसान कार्य नहीं है। लेखन करते हुए लेखक ईश्वर के समीप होता है ।उसकी क़लम और विचारों में मानो ईश्वर आ बसते हैं ।तभी तो मनुष्य इस संसार से चला जाता है किंतु उसकी लिखी पुस्तक ,ग्रंथ नष्ट नहीं होते। वे अमर हैं ।च्यवन स्मृति में इन दिनों वे विभिन्न तथ्यों के महत्त्व को लिख रहे हैं।"

"आपको उनके लेखन की संपूर्ण जानकारी रहती है।"

उर्वशी ने आश्चर्य से पूछा।

" हाँ ,वे रात्रि में मुझे वह सब पढ़ कर सुनाते हैं जिसे वे दिन में लिख चुके होते हैं ।मैं उनके द्वारा लिखे गोदान के महत्त्व और मनुष्य के पापों के प्रायश्चित का विधान सुनकर बहुत प्रभावित हुई। उन्होंने बुरे कार्यों से बचने का मार्ग भी च्यवनस्मृति में लिखा है ।

वैद्य अश्वनी कुमार तो अब महर्षि के मित्र हो गए हैं। अश्विनी कुमारो ने ही विभिन्न औषधियों का सेवन करा के और सरोवर में विशेष पद्धति से स्नान करा के उन्हें यौवन प्रदान किया। जिस औषधि से महर्षि युवा हुए उस औषधि के निर्माण की प्रक्रिया का महर्षि ने विशेष अध्ययन किया। उस औषधि का नाम ही च्यवनप्राश है जो महर्षि के नाम से प्रख्यात है।"

उर्वशी निःशब्द थी

"क्या ऐसा भी संभव है कि औषधि से वृद्ध युवा हो जाए ?"

सुकन्या ने उर्वशी की शंका का समाधान करते हुए कहा- "नहीं वृद्ध युवा नहीं होता किंतु च्यवनप्राश के सेवन से युवाओं जैसी ऊर्जा और शक्ति उसमें अवश्य आ जाती है। प्रातःकाल मैं तुम्हें औषधि उद्यान दिखाने ले जाऊँगी। जिन्हें महर्षि ने अपने हाथों से लगाया है। वे स्वयं उसकी देखभाल करते हैं। अब विश्राम के लिए प्रस्थान करो उर्वशी। रात्रि का प्रथम प्रहर समाप्ति की ओर है।" उर्वशी को अपने कक्ष में विश्राम करते नींद ही नहीं आई ।देर तक वह देवी सुकन्या की जीवनगाथा के विषय में सोचती रही। फ़िर पुरुरवा की स्मृति उसे सताने लगी। पुरुरवा के साथ बिताए हर पल का स्मरण कर वह व्याकुल हो गई। उसे महाराज इंद्र याद आए। जिनकी वह अत्यंत प्रिय है।वह यह भी जानती है कि इंद्र उसे अधिक समय तक भूलोक में नहीं रहने देंगे। पिछली बार की भेंट में सखी चित्रलेखा और तिलोत्तमा ने उसे बताया था कि इंद्र प्रतिदिन देव सभा में उसकी चर्चा कर याद करते रहते हैं । "उर्वशी सावधान रहना, इंद्र तुम्हें वापस बुलाने के लिए अवश्य कोई न कोई चाल चलेंगे । वे तुम्हारे बिना रह ही नहीं सकते।"

"और तुम लोग?"

उर्वशी ने चुटकी ली थी।

"हमें तो जब तुम्हारी याद आती है ,मिलने चले आते हैं ।"

चित्रलेखा ने कहा

"कई बार तो तुम्हारे अरण्य महल की ओर जाते हुए मार्ग से ही हम लौट गए। यह सोचकर कि पुरुरवा के साथ तुम प्रेम में मग्न होगी। व्यवधान डालना उचित नहीं ।"तिलोत्तमा ने कहा।

"ईर्ष्या हो रही है तुम्हें हमारे प्रेम से ।"

तिलोत्तमा और चित्रलेखा ने हंसते हुए कहा- "बहुत ईर्ष्या हो रही है ।एक दिन तुम्हारे प्रेमी का अपहरण कर लेंगे।"

"संभव नहीं है। कदाचित मैं ऐसा होने नहीं दूंगी और तुम ऐसा करोगी भी नहीं।"

चित्रलेखा और तिलोत्तमा से भेंट का वह ख़ुशनुमा दिवस याद करते-करते उर्वशी की पलकें झपकने लगीं। वह करवट बदलकर सो गई।

प्रातः काल दैनिक कर्म से निवृत्त हो स्वल्पाहार के पश्चात सुकन्या उर्वशी को औषधि उद्यान की सैर के लिए जब ले जाने लगी तो महर्षि भी साथ हो लिए। उर्वशी महर्षि के ज्ञान से बहुत प्रभावित थी ।वह उनके सान्निध्य में एक दो घड़िया प्रतिदिन बिताने लगी थी। उस समय सुकन्या आश्रम की व्यवस्था तथा शिष्यों को प्रदान किए जाने वाले कार्यों में व्यस्त रहती ।शिष्य रसोई घर में भी सुकन्या को सहयोग करते। औषधि उद्यान देखते ही उर्वशी प्रसन्न हो गई ।उद्यान में आंवला,सफेद चंदन ,छोटी हर्र ,बहेड़ा ,बड़ी और छोटी पीपल, बेलपत्र के पेड़ थे। दूर-दूर तक फैली क्यारी में जड़ी बूटियाँ लगी थीं। महर्षि एक-एक जड़ी बूटी के नाम गुण आदि उर्वशी को बताने लगे-

"अकरकरा, शतावरी, ब्राह्मी, बिदरीकन्द, वसाका, कमल केशर, जटामानसी, गोखरू, कचूर, नागरमोथा, लौंग, पुश्करमूल, काकडसिंघी, दशमूल, जीवन्ती, पुनर्नवा, अंजीर , अश्वगंधा, गिलोय, तुलसी पत्र, मीठा नीम, सौंठ, मुनक्का, मुलेठी यह सब औषधि बनाने के काम आते हैं।"

उर्वशी ने उन्हें पहले कभी नहीं देखा था। उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। वह एक-एक जड़ी बूटी का स्पर्श कर अत्यंत प्रसन्न हो रही थी ।

"इस उद्यान की सार सम्हाल करना महर्षि के शिष्यों का काम है। वे प्रतिदिन संध्या को यहाँ आकर इन जड़ी बूटियों की देखभाल करते हैं ।"सुकन्या ने बताया ।

महर्षि ने कुछ जड़ी बूटियों के पत्ते तोड़कर उर्वशी को दिए ।"उर्वशी, इन्हें हथेली पर रगड़कर सूंघों। इसकी सुगंध में भी ऊर्जा है।"

उर्वशी ने पत्तों को रगड़कर सूंघा । पत्तों की सुगंध की तरावट उसके हृदय तक उतर गई।

"धन्य है आप महर्षि, मैं इसकी प्रक्रिया भी जानना चाहती हूँ ।कि कैसे औषधि बनकर तैयार होती है ।"

"तुम्हारी जिज्ञासा को सुकन्या शांत करेगी। सुकन्या उर्वशी को सीधे पाकशाला ले जाओ। हम किंचित विलंब से लौटेंगे । नये आये शिष्यों को जड़ी बूटियों का ज्ञान कराना है उद्यान में।"

सुकन्या उर्वशी के साथ विचरण करते हुए विभिन्न पौधों तथा उनके औषधि लाभ की जानकारी देती रही।

महर्षि शिष्यों के साथ व्यस्त थे। आश्रम लौटकर सुकन्या उर्वशी को पाकशाला ले गई। पाकशाला में मिट्टी के बर्तनों में विभिन्न औषधीयों का चूर्ण रखा था। जड़ी बूटियों को कूटने, पीसने, छानने का काम शिष्य करते हैं।

सुकन्या ने बताया - "शिष्यों से यह कार्य स्वयं महर्षि अपनी देखरेख में करवाते हैं। औषधि घी में पकाई जाती है। पकाई गई औषधि का अवलेह प्राश बन जाता है। फ़िर उसे विभिन्न पात्रों में भरकर आदेशानुसार विभिन्न राज्यों में पहुँचाया जाता है। इस औषधि की सभी राज्यों में बहुत अधिक मांग है। केवल प्राश की ही नहीं बल्कि इन औषधीयों से तैयार किया आसव,अरिष्ट, स्वरस,चूर्ण आदि की भी भरपूर मांग है ।"कहते हुए सुकन्या ने पात्र में रखे अवलेह में से थोड़ा उर्वशी को दिया। उर्वशी को अवलेह सुगंधित भी लगा और स्वादिष्ट भी।

"अमृत तुल्य इस औषधि के जनक महर्षि च्यवन को शत-शत प्रणाम। अदभुत औषधि की खोज की महर्षि ने । प्रशंसनीय कार्य।"

उर्वशी के मुख से महर्षि की प्रशंसा सुन सुकन्या के हृदय में हर्ष के साथ-साथ कुछ चुभा भी,चुभते हुए अतीत के उस समय को याद दिला गया जब महर्षि के साथ उसका विवाह हुआ था। वह कड़वी स्मृति कभी नहीं जाएगी सुकन्या के मस्तिष्क से। महर्षि के साथ का वह विगत बता कर उर्वशी के समक्ष महर्षि का सम्मान नहीं घटाना चाहती थी। किंतु वह जानती है उस समय कैसे कठिन समय को झेला है उसने।