उर्वशी पुरूरवा / भाग 8 / संतोष श्रीवास्तव

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राजमहल की राजकुमारी ,पिताश्री शर्याति की लाड़ली एकमात्र कन्या, भ्राताओं के बीच वही तो एक बहन थी पूरे राजमहल में। वह राजसी ठाठबाट, वह ऐश्वर्य, सुख ,वह महल के हर प्रकोष्ठ में सखियों के संग खिलखिलाती, पशु पक्षियों के संग भोर और संध्या बिताती ,स्वादिष्ट व्यंजनों से भरे थाल में से माताश्री की मनुहार पर स्वाद लेती, वह सुकन्या कैसे महर्षि की पर्णकुटी में ऋषि पत्नी बन एक शाप ग्रस्त तपस्विनी का जीवन जी रही है नहीं बता पाई उर्वशी को। उर्वशी ने तो बस इतना ही जाना कि टीले में से चमकती दो मणियों को निकालने की उत्सुकता में उसने महर्षि को अंधा कर दिया था। तथा प्रायश्चित स्वरूप वह उनके तमस भरे जीवन में उनका सहारा बनी थी।

कितना अच्छा होता यदि ऐसा ही होता किंतु ...

वन विहार के लिए पिताश्री माताश्री ,सभी भ्राताओं सहित सुकन्या की सखियाँ, सैनिक, दास ,दासियाँ विभिन्न रथों और अश्वों पर रवाना हुए थे। वन विहार का आयोजन वर्ष में दो-तीन बार हो ही जाता था। इससे प्रतिदिन की दिनचर्या से इतर ताज़गी और ऊर्जा प्राप्त होती थी। मन प्रसन्न रहता था। विशेषकर पिताश्री के लिए तो यह बहुत आवश्यक था। वे प्रतिदिन राजकाज में इतना व्यस्त रहते कि वह अपने लिए समय ही नहीं निकाल पाते थे।

सैनिकों ने उचित स्थान पर तंबू गाड़े थे ।पिताश्री, माताश्री अपने तंबू में विश्राम के पश्चात ही वन भ्रमण करना चाहते थे। किंतु सुकन्या, उसकी सखियों और भ्राताओं को तंबू में रुकने का बिल्कुल मन नहीं था। अतः सुकन्या सखियों और भ्राताओं के संग वन भ्रमण के लिए निकली।

आहा ,कितना सुंदर अरण्य है। भांति भांति के रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे वृक्ष जिनकी डालियों पर रंग-बिरंगे पक्षी चहचहा रहे थे ।पुष्पों पर भ्रमर का गुंजन और तितलियों का नर्तन था ।विधाता के रंगों का कोष अपार था ।जड़ चेतन सभी उन रंगों से ओतप्रोत थे। थोड़ी दूर जाने पर फलों के वृक्ष मानो उनके लिए ही फलों के भार से झुके थे ।सुकन्या के भ्राताओं ने दौड़ दौड़ कर उछल कूद करते हुए कच्चे, पके फल तोड़े। सुकन्या को मीठे फल खिलाते हुए सभी भ्राता अत्यंत हर्षित थे। सुकन्या उनकी लाड़ली ,दुलारी बहन जो थी। विचरण करते हुए एक समय ऐसा आया कि सुकन्या सखियों और भ्राताओं से बिछड़ कर उस टीले के पास पहुँच गई जिसमें महर्षि च्यवन तपस्या कर रहे थे। मानो उसका दुर्भाग्य ही उसे वहाँ खींच कर ले गया। फ़िर जो हुआ उसने सुकन्या का प्रारब्ध ही अंधकारमय कर दिया।

सुकन्या द्वारा उत्सुकतावश कांटों भरी डंडी महर्षि के नेत्रों में चुभाए जाने की घटना

विदित होते ही पिताश्री माताश्री सहित दौड़े आए। तब तक च्यवन ऋषि टीले से प्रकट हो चुके थे ।उनके नेत्रों से लहू की धारा बह रही थी। पूरे शरीर पर मिट्टी की परतें, तप से जीर्ण, जटाओं से विकराल मुखाकृति ।वे क्रोध से थर-थर कांप रहे थे- "राजा तुम्हारी पुत्री ने मुझे नेत्रहीन कर दिया। इसका दंड तुम्हें मिलेगा ।"

पिताश्री का चेहरा म्लान हो चुका था। सुकन्या वायु में हिले पीपल पात-सी कांप रही थी।महर्षि क्रोध से गरजे- "मैं श्राप देता हूँ ।इसी समय तुम्हारी संपूर्ण सेना का मल मूत्र रुक जाए।"

"क्षमा, क्षमा महर्षि। पुत्री से अनजाने में अपराध हुआ। क्षमा करें।" पिताश्री उनके चरणों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगे।

"मेरा शाप व्यर्थ नहीं जाएगा ।किंतु यह प्रभावहीन हो सकता है ।" महर्षि ने क्रोध का विकट रूप दिखाते हुए कहा।

"शीघ्र बताएँ महर्षि ,मुझे आपकी हर शर्त स्वीकार है। मैं शीघ्र अपनी सेना को शाप मुक्त कराना चाहता हूँ।"

पिताश्री के कथन में अश्रु का सागर उमड़ा पड़ रहा था।वे हर संभव प्रयास करना चाहते थे ।वे अपने देशभक्त सैनिकों को इस संकट से उबारना चाहते थे। क्रोध मूर्ति फ़िर गरजी- "तो सुनो राजन, तुम्हें अपनी पुत्री सुकन्या का विवाह मुझसे करना होगा ।"

वज्रपात हुआ। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे सभी को लकवा मार गया हो ।कुछ पलों के लिए अरण्य का हर वृक्ष, लता स्तब्ध हो गए। मानो पृथ्वी का चक्र ही थम गया हो। माताश्री मूर्छित हो गईं। पिताश्री मानो संज्ञा शून्य हो गए थे। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था क्रोधी महर्षि को क्या उत्तर दें। एक ओर देशभक्त सैनिकों की दारुण पीड़ा थी। दूसरी ओर पुत्री सुकन्या दांव पर लगी थी ।उसका पूरा जीवन नष्ट करने पर तुले थे च्यवन महर्षि। यह कैसे तपस्वी हैं जिनमें ह्रदय ही न था तभी तो हृदयहीनता कर बैठे।

अंततःपिताश्री को झुकना पड़ा। आहत हृदय से उन्हें महर्षि से अपनी लाड़ली सुकन्या का विवाह कर उसे काले अंधकार भरे जीवन में ढकेलना पड़ा जिसमें उजाले की एक किरण भी न थी । सुकन्या के दुर्भाग्य का उदय हो चुका था।

वह जो राजरानी का सौभाग्य लेकर इस दुनिया में आई थी। नहीं याद करना चाहती राजमहल के सुखों को, वैभव को, परे ढकेल दी है उसने उस कल्पना को कि जब कोई राजकुमार उसके जीवन में आएगा और वह उसकी बाहों में सारे संसार को भूल जाएगी।

किंतु महर्षि के संग विदा होकर उसने स्वयं को ही भुला दिया। काठ की प्रतिमा में उसने स्वयं को ढाल लिया।

उसने आश्रम में रहते हुए प्रतिदिन की दिनचर्या में स्वयं को ध्यान जप और आत्मचिंतन में डुबो लिया था। वह समझ गई थी कि उसके जीवन में वैवाहिक सुख, मातृसुख नहीं है। ।ब्राह्म बेला में उठकर वह प्राणायाम और ध्यान करती फ़िर सूर्य वंदन ,अग्निहोत्र के पश्चात औषधि उद्यान की देखभाल तथा रसोई घर में रसोई पकाकर स्वयं को आत्म चिंतन के सुपुर्द कर देती। संध्या होते ही पुनः अग्निहोत्र, संध्या पूजन और दीप मालिकाएँ प्रज्वलित कर वह महर्षि के कक्ष का दीपक बालने जब जाती तो महर्षि उसके सौंदर्य से चमत्कृत हो उसे समीप बुलाते - "आओ सुकन्ये ,मेरी मंगला पल भर बैठो न"

"क्षमा महर्षि, व्यस्त हूँ ।"

कहते हुए वह कक्ष से बाहर चली जाती ।प्रतिदिन ऐसा ही होता ।प्रतिदिन महर्षि के प्रणय निवेदन को वह अस्वीकार कर देती ।उसने अपना मन ब्रह्मचारिणी का बना लिया था। नहीं भूल पाती महर्षि की क्रूरता, जर्जर वृद्ध शरीर और नेत्रहीन होते हुए नव यौवना सुकन्या से विवाह का हठ।राजमहल की राजकुमारी को महलों से घसीट कर अरण्य में ले आने का हठ ।ठीक है महर्षि ने उसे पाने का हठ किया तो वह भी तो हठ कर सकती है उन्हें अस्वीकार करने का।जानती है इस हठ से उसका जीवन दांव पर लग गया है किंतु व्यर्थ की लालसा में स्वयं को समर्पित करने से अच्छा है मान सम्मान से जीना। कुछ सुख छूट जाने के लिए होते हैं ।कुछ सुखों को पाने के प्रयत्न में मनुष्य पूरा जीवन लगा देता है ।फिर भी रिक्तता बनी रहती है। इन सबसे परे पहुँच चुकी है सुकन्या।

एक दिन सरोवर में स्नान करते हुए सुकन्या से उर्वशी ने कहा - "आपके विषय में जानने की मेरी जिज्ञासा शांत हुई। किंतु मैं कौन हूँ, कहाँ से आई हूँ यह नहीं जानेंगी ?"

"मैं जानती हूँ तुम कौन हो उर्वशी। तुम्हारे आश्रम में आने के पहले ही महर्षि ने तपोबल से सब ज्ञात कर लिया था। देवलोक में भरत मुनि द्वारा तुम्हें दिए श्राप से महर्षि चिंतित हो उठे थे। उन्होंने मुझसे कहा था कि हमें उर्वशी और उसकी होने वाली संतान दोनों को सुरक्षा देनी होगी।

उर्वशी के नयन छलक आए ।उसके नैनो में अश्रु वैसे ही प्रतीत हो रहे थे जैसे कमल पुष्प पर ओसबिंदु। उसने विह्वल होकर कहा- "धन्य है महर्षि, इस तरह की अनुभूतियाँ मुझे देवलोक में कभी नहीं हुई। सत्य है पृथ्वी पर जीवन ही जीवात्मा के लिए वरदान है।" सुकन्या सरोवर के जल से बाहर निकलकर हरी हरी घास पर खड़ी हो गई। उसके केशो से जल की बूंदे मोती के समान घास पर टपक रही थी। सुकन्या के ऐसे भीगे सौंदर्य से अरण्य जगमगा उठा था ।दोनों मेमने घास में उछल कूद कर रहे थे। दासियों द्वारा पहनाए उर्वशी के सूखे वस्त्र हवा में उड़ रहे थे।

दोनो पूर्व दिशा में अनुराग का सिंदूरी रंग देख रही थी जैसे किसी चित्रकार ने सिंदूरी रंग के चित्र पटल पर सिलेटी दिख रहे वृक्षों को अपनी कूची से चित्रित किया हो। पखेरू अपने नीड़ से निकलकर चहचहा रहे थे। उर्वशी ने सुकन्या का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा- "भरत मुनि के शाप से आप अवगत हैं। भूलोक में या तो मैं पुरुरवा के संग जीवन व्यतीत करूं या संतान के। दोनों का सुख मैं एक साथ नहीं पा सकती। बड़ी दुविधा में हूँ देवी। न तो मैं अपने शिशु को देवलोक ले जा सकती, न प्रतिष्ठानपुर के राजमहल में।क्या करूं समझ में नहीं आ रहा।"

सुकन्या ने उसके मुख पर स्नेह भरी दृष्टि डाली-

"प्रेम करती हो और डरती हो उर्वशी! प्रेम किया है तो यह स्थिति तो आनी ही है ।"

"अर्थात ?बताएँ देवी मेरे हृदय को आपके मार्गदर्शन से शांति मिलेगी।"

"ईश्वर कोई भी कार्य बिना निमित्त के नहीं करता। आश्रम में तुम्हारा आगमन ही तुम्हारी समस्या का हल है ।तुम्हें पुरुरवा के साथ रहना है तो पुत्र को त्यागना होगा। उसके लिए आश्रम से उपयुक्त और कोई स्थान नहीं हो सकता। मेरी देखभाल और महर्षि जैसा गुरु पाकर तुम्हारा पुत्र निश्चय ही संसार का सर्वश्रेष्ठ बालक होगा। वह विद्या में निपुण संस्कारी बालक होगा ।"

उर्वशी सुकन्या के गले लगते हुए अस्फुट स्वरों में बोली-

"धन्य है देवी आप। आपने मुझे संकट से उबार लिया ।आपका यह उपकार में कभी नहीं भूलूंगी ।"

सुकन्या ने उसे धैर्य बंधाया, यह भी सिखाया कि तुम्हारा प्रसव पुरुरवा को ज्ञात न हो ।पुत्र को आश्रम में भेज कर तुम तत्काल जो सूझे पुरुरवा को बताना। चलो अब, महर्षि के जलपान का समय हो रहा है। मुझे न पाकर वे विचलित होंगे।"