उर्वशी पुरूरवा / भाग 9 / संतोष श्रीवास्तव

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यज्ञ की तैयारियाँ हो चुकी थीं।शुभ मुहूर्त में एक घड़ी शेष थी।

यज्ञ मंडप में आमंत्रित अतिथियों के लिए यथायोग्य आसन रखे गए थे। अतिथिगण आना आरंभ हो चुके थे ।दीपमालिका और पुष्पमालिका से सजे द्वार जिन पर चावल और हल्दी के मिश्रण से बने ऐपन से सुंदर चौक पूरे गए थे ।द्वार के स्तंभों के दोनों ओर द्वारपाल हाथ में नलिनी पुष्प की आकृति वाला इत्रदान लिए सुगंधित इत्र आगंतुकों पर छिड़काव करते हुए उनका स्वागत कर रहे थे ।नियत समय पर पुरुरवा और महारानी यज्ञ मंडप में पधारे । पुरुरवा ने सभी अतिथियों का हाथ जोड़कर स्वागत किया।यज्ञ कुंड के समक्ष बैठते हुए पुरुरवा को उर्वशी का स्मरण हो आया किंतु वे विचलित नहीं हुए। उन्हें अपनी मर्यादा और धार्मिक नियमों का भली भांति ज्ञान था। समाज और धर्म द्वारा स्वीकृत किए सम्बंध ही धार्मिक अनुष्ठानों में मान्य हैं। उर्वशी उनकी प्रेयसी है। उनके जीवन की संतानहीनता के शून्य को भरने वाली है ।समय आने पर उर्वशी के साथ अपने सम्बंधों को वे समाज के सामने लाएँगे ही। अभी उस विषय का उचित समय नहीं है ।राजपुरोहित ने समस्त देवी देवताओं का आह्वान करते हुए महारानी और पुरुरवा से आचमन करने को कहा और श्लोक आरंभ कर दिया। विधिवत पूजा के उपरांत हवन आरंभ हुआ ।जैसे-जैसे आहुति यज्ञ कुंड की प्रज्वलित अग्नि में पड़ती जाती अग्नि शिखाएँ तेज होती जाती ।महारानी का ग़ौर वर्ण अग्नि शिखा के ताप से हलका रक्तिम सजहो रहा था ।उनकी नाक में पहनी हीरे की लौंग से प्रस्फुटित किरणें अग्नि शिखा के साथ एकमएक होकर पूरे यज्ञ मंडप को सात्विक तेज से भर रही थीं। महारानी के अंतरमन में देवी देवताओं के प्रति श्रद्धा आस्था का संचार हो रहा था। अंतिम आहुति के पश्चात उन्होंने अपने आराध्य चंद्रमा और रोहिणी का स्मरण करते हुए राजपुरोहित द्वारा प्रज्वलित आरती और कपूर की थाली पकड़ी । पुरुरवा ने भी थाली में हाथ लगाया ।शंख ध्वनि और सुमधुर घंटियों की लय के साथ आरती संपन्न हुई ।क्षण भर को यज्ञ मंडप में सन्नाटा छा गया ।यह वह क्षण होता है जब देवी देवता हवन का अपना-अपना भाग स्वीकार करते हुए प्रस्थान करते हैं ।राजपुरोहित ने आमंत्रित अतिथियों से भी आहुतियाँ डलवाई। प्रसाद ग्रहण कर सभी अतिथियों ने विदा ली ।कुछ विशिष्ट राज्य अतिथि रात्रि भोज के लिए आमंत्रित थे ।जिनके लिए अतिथि शाला में भजन संध्या का आयोजन किया गया था। वीणा के स्वरों को साधते हुए गायको ने इतने सुंदर भजन गाये कि पूरा राजमहल सुरों की तरंगों से प्रवहमान हो चला। महारानी स्वयं रात्रि भोज का प्रबंध अपनी देखरेख में संपन्न कर रही थीं ।बस एक ही आशंका थी, कहीं कोई कमी न रह जाए। पर ऐसा हुआ नहीं ।भजनों का कार्यक्रम समाप्त होते ही सब ने रुचिकर भोजन बहुत ही आनंद से लिया तथा राजमहल से विदा ली।

दिनभर की व्यस्तता से थके हुए पुरुरवा जब अपने शयन कक्ष की ओर जाने को अग्रसर हुए तो महारानी भी साथ हो लीं । पुरुरवा ने शैय्या पर विश्राम के लिए बैठते हुए महारानी से कहा-

"आप भी विश्राम करें महारानी। आज के कार्य की सफलता का पूरा श्रेय आपको जाता है ।आपने रात दिन मेहनत कर यज्ञ संपन्न किया बड़ी बात है ।"

महारानी ने पुरूरवा के लिए अपने हाथों सुगंधित तांबूल लगाकर उन्हें देते हुए कहा - "आप भले मुझसे दूर थे लेकिन यज्ञ के कार्य करते हुए मैंने सदा आपको अपने समीप पाया। आप मेरी ऊर्जा हैं, निमित्त हैं।" पुरुरवा ने मुस्कुराते हुए तांबूल मुंह में रखा। महारानी के होठों पर इतनी देर से जो बात ठहरी थी उसे सप्रयास बाहर लाते हुए महारानी ने पूछा - "उर्वशी कैसी है महाराज? आप गंधमादन में उसे अकेला छोड़ आए! निश्चय ही उसकी सुरक्षा का प्रबंध करके आए होंगे।"

पुरुरवा को महारानी की उर्वशी के प्रति चिंता अच्छी लगी।उनका मन हुआ उर्वशी के गर्भवती होने का समाचार महारानी को दे ही दें। किंतु इस समय कहना उचित नहीं। इस समय महारानी उनके साथ अत्यंत प्रसन्न हैं। कदाचित इस समाचार से आहत न हो जाए यह भी हो सकता है कि संतान न होने की पीड़ा उन्हें उर्वशी से कमतर सिद्ध कर दे ।उन्होंने बहुत धीरे से कोमल शब्दों में कहा - "उर्वशी की सुरक्षा के लिए गंधमादन में पर्याप्त सैनिक और दास दासियाँ हैं ।आप चिंतित न हो महारानी ।"

"चिंता होती है महाराज। स्त्री हूँ न। जानती हूँ स्त्री कहीं भी सुरक्षित नहीं ।देव,दानव, मनुष्य सबकी उस पर कुदृष्टि ही रहती है।

कहते हुए महारानी उठने के लिए उद्यत हुई- "मन की बात कही महाराज । स्त्री हूँ न।अन्यथा न लें ।विश्राम करें ।"

"हाँ महारानी कल राजसभा के कार्यों के पश्चात हम गंधमादन की ओर प्रस्थान करेंगे। फ़िर दो-तीन मास यहाँ आना नहीं हो पायेगा।"

सुनकर महारानी उदास हो गईं। हालांकि पुरुरवा के पहले से निर्धारित किए कार्यक्रमों से अवगत थीं वे। फ़िर भी 8 मास के लंबे वियोग के पश्चात मिलन हुआ भी तो क्षणिक। मन ही मन सोचा जैसे 8 मास आपके बिना रह ली वैसे ही 4 मास और ।आपका हर आदेश शिरोधार्य। किंतु आपने क्या एक बार भी नहीं सोचा कि कितना कष्टकारी है आपके बिना जीना। आपकी अनुपस्थिति में संपूर्ण राजमहल की देखरेख राजसभा के मामलों में उचित न्याय की चुनौती। ओह दुष्कर, अत्यंत दुष्कर था सब।

प्रकट में कहा "महाराज गंधमादन के अरण्य महल में वैसे तो सारे प्रबंध हैं किंतु फ़िर भी अपने घर से दूर रहना बड़ा कष्टकारी होता है ।आप अपने स्वास्थ्य का, प्रसन्नता का ध्यान रखें ।वहाँ उर्वशी भी आपके भरोसे है ।वह हमारी अतिथि है ।आपको उसका भी ध्यान रखना होगा। आप तो जानते ही हैं कि आम नागरिकों की कमियों , भूलों पर किसी का ध्यान नहीं जाता। किंतु राजा पर विशेष ध्यान रहता है सबका।"

"आप चिंता न करें महारानी, जो भी होगा अच्छा ही होगा। ईश्वर ने हमारे प्रारब्ध में जो निर्धारित किया है वह तो होकर ही रहेगा। हम तो मात्र साधन हैं उसकी इच्छा के। अब आप भी विश्राम करें महारानी। रात्रि बहुत हो चुकी है। शुभ रात्रि ।"

कहते हुए महाराज पर्यंक पर लेट गए ।

"शुभ रात्रि।" महारानी शयन कक्ष से प्रस्थान करने के लिए द्वार की ओर क़दम बढ़ाने से पहले पल भर रुकीं। उन्होंने दीपस्तंभ की लौ धीमी कर दी और गवाक्ष पर पड़े रेशमी परदे खींच दिए। पुरुरवा का शयन कक्ष जादुई स्पर्श से भर गया।

प्रातः काल समय से पूर्व पुरुरवा ने राजसभा आमंत्रित की। महामात्य सहित सभी पदाधिकारियो के मन में जल्दी राजसभा आरंभ करने के प्रति जिज्ञासा तो थी किंतु वे पुरुरवा के मुख से कारण जानना चाहते थे ।वैसे भी इन दिनों पुरुरवा के क्रियाकलाप उनके लिए उत्सुकता जगा रहे थे।

पुरुरवा ने गंधमादन की ओर जाने के लिए स्वयं को तैयार किया और राजसभा की ओर जाते हुए सेनापति को सैनिकों सहित अपना प्रिय श्वेत अश्व तैयार करने का आदेश दिया।

यह अश्व 2 वर्ष का था तब राजमहल में आया था और

पुरुरवा के साथ ही बड़ा हुआ। पुरुरवा हमेशा इसी की सवारी करते थे ।उन्हें यह अश्व बहुत प्रिय था।

राजसभा में सिंहासन पर बैठते हुए पुरुरवा संतोष से भर उठे। कोई भी पदाधिकारी अनुपस्थित न था। सभासद भी आ चुके थे। अपने प्रति उनका ऐसा अनुराग पुरुरवा के मन को प्रसन्न कर गया ।उन्होंने सभी का अभिवादन स्वीकार करते हुए उन्हें अपने-अपने आसन ग्रहण करने का आदेश देते हुए महामात्य से सभा की कार्यवाही आरंभ करने को कहा। एक घड़ी में ही सारे मामलों पर निर्णय की मोहर लग चुकी थी।

पुरुरवा ने सभी को सम्बोधित करते हुए कहा- "हम 4 मास के लिए पुनः गंधमादन जा रहे हैं ।हमारी अनुपस्थिति में जिस तरह पिछले 8 मास महारानी और महामात्य ने सभा का कार्यभार संभाला था इस बार भी वैसा ही होगा। हमें भरोसा ही नहीं विश्वास है कि आप सभी का सहयोग उन्हें मिलेगा।"

सभासदों ने एक स्वर में पुरुरवा को विश्वास दिलाया कि "ऐसा ही होगा महाराज।आपकी आज्ञा शिरोधार्य।"

पुरुरवा का हृदय सभासदों के प्रति प्रेम से उमड़ आया। सिन्हासन से उठते हुए उन्होंने हाथ जोड़े।महामात्य ने सभा समाप्ति की घोषणा की।

राजसभा से विदा ले पुरुरवा सीधे महारानी के प्रासाद की ओर गए और उनके कक्ष में बिना पूर्व सूचना के प्रवेश किया ।महारानी अपनी शैय्या पर ध्यानमग्न बैठी थीं। पुरूरवा समझ गए महारानी उनके वियोग को सहने के लिए स्वयं को तैयार कर रही हैं । एकाएक पुरूरवा को सामने देख वे हड़बड़ा कर उठी। उनके होठों से अस्फुट स्वर निकला "महाराज"

स्वर की वेदना पुरुरवा भली भांति समझ गए। महारानी इस समय उनसे वियोग के चिंतन में थीं। महारानी की इस तरह की मनोदशा होना स्वाभाविक है यह भी समझते थे पुरुरवा।

उन्होंने महारानी के कंधे पर हाथ रखा- "उठिए महारानी, विदा बेला को कष्टकर न बनाएँ। प्रसन्नता से मुझे विदा करें।"

महारानी ने नेत्र खोले ।मुस्कुराई और पुरुरवा के चरण स्पर्श कर बोलीं - "महाराज आपकी प्रसन्नता में ही मेरी प्रसन्नता है ।"

फिर पीड़ित हृदय को सामान्य करते हुए बोली- "प्रस्थान करें महाराज। आपकी ओशिनरी आपकी प्रतीक्षा करेगी।"

पुरुरवा महारानी के साथ महल के मुख्य द्वार तक आए। जहाँ उनका अश्व उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। सैनिकों सहित पुरूरवा ने महल से प्रस्थान किया।

भारी मन और थके क़दमों से महारानी अपने कक्ष की ओर लौटीं ।उन्होंने निपुणिका और मदनिका को कक्ष से चले जाने को कहा। वह एकांत चाहती थीं ।भरी दोपहर थी। कक्ष के झरोखे से निरभ्र आकाश के पंडाल में धूप की किरणें रजत-सी झिलमिला रही थीं।

पुरुरवा अश्वारूढ हैं। निश्चय ही मार्ग में धूप की तीक्ष्णता उन्हें क्लांत कर रही होगी ।महारानी जानती थीं, वह सीधे गंधमादन में ही अपनी यात्रा को विराम देंगे ,मार्ग में और कहीं नहीं । इसीलिए उन्होंने पुरुरवा से शपथ ले ली थी कि वे रात्रि में यात्रा न करें। मार्ग लंबा है और दिन भर की यात्रा के बाद विश्राम की आवश्यकता को उपेक्षित न करें।

व्याकुल महारानी कभी गवाक्ष तक आ जाती कभी पर्यंक पर बैठ जाती। कभी कक्ष के बाहर प्रकोष्ठ में जहाँ मधुमालती, मोगरा, जूही आदि के पौधे, लतरें प्रकोष्ठ को हरीतिमा दे रहे थे। विवाह के पश्चात कितनी ही बार इस प्रकोष्ठ में रखे हिंडोले पर बैठकर उन्होंने पुरुरवा के साथ चंद्र दर्शन किए थे ।

काशी नरेश की कन्या औशीनरी को प्रथम दर्शन में ही पुरुरवा ने पसंद कर लिया था।राजमहल से विवाह करके आई औशीनरी के सौंदर्य पर पुरुरवा इतने मुग्ध थे कि कितनी ही रातें उन्होंने औशीनरी के साथ विहार करते हुए व्यतीत की। ऐसा लगता था जैसे गंगा नदी के किनारे प्रयागराज स्थित प्रतिष्ठानपुर के राजमहल में वसंत ने अनादि काल तक डेरा डाला हो। मानो शयनकक्ष में वसंत अपने समस्त बाणों का संधान कर कहीं छुपकर उनकी प्रेम युक्त कामलीलाएँ देख रहा है। शनैःशनैः दिवस, सप्ताह ,मास व्यतीत होते रहे किंतु औशिनरी के साथ सहवास में पुरुरवा ने कमी नहीं आने दी । पुरुरवा की अपने प्रति इतनी आसक्ति से औशिनरी व्याकुल हो गई थीं। इस तरह तो पुरूरवा राजकाज को कुशलता से नहीं संभाल पाएँगे। उनकी इतनी आसक्ति का दोष औशीनरी को ही मिलेगा। औशीनरी संस्कारी स्त्री हैं। राजधर्म, पतिधर्म से अवगत थी। वे सैन्य प्रशिक्षण में प्रशिक्षित थीं। ऐसा कोई कार्य न था जो समय आने पर वे न कर सके।

औशीनरी को याद आया। विवाह के एक वर्ष उपरांत भी उनकी गोद न भरने की चिंता से माता इला अत्यंत चिंतित थीं। कि उनका प्रतिष्ठित चंद्रवंश आगे कैसे चलेगा ?कौन होगा पुरुरवा के बाद प्रतिष्ठानपुर का राजा? उन्होंने इस बात की चर्चा पुरुरवा से की। पुरुरवा ने उन्हें धैर्य बंधाया- "माता विवाह को एक ही वर्ष तो हुआ है अभी।"

"इसीलिए तो चिंतित हूँ कि एक वर्ष पश्चात भी औशीनरी के शरीर में गर्भ के कोई लक्षण ही नहीं दिखाई दे रहे हैं ।"

"राजपुरोहित ने मेरी कुंडली में पुत्र योग बताया है माता। विलंब अवश्य हो रहा है किंतु आपका पौत्र आपकी गोद में अवश्य खेलेगा।"

पुरुरवा के चेहरे पर गहरा विश्वास देख माता इला आश्वस्त हुईं किंतु औशीनरी की व्याकुलता में अंतर नहीं आया।संध्या होते ही निपुणिका और मदनिका पुष्प वाटिका से उनके शृंगार के लिए पुष्प चुनकर लाई और माला गूंथने बैठ गईं।

यह कार्य वे भोर की बेला में ही करती थी ।किंतु भोर में तोड़े हुए रंग-बिरंगे सुगंधित पुष्प औशीनरी पूजा में अर्पित करती थी। रात्रि शृंगार की तो बात ही कुछ और थी। कभी श्वेत पुष्पों से ही औशीनरी का शृंगार होता कभी रक्तिम कभी पीत ।वे जिस रंग का परिधान पहनती उसी रंग के पुष्पों से दासियाँ उनका शृंगार करतीं ।पुरूरवा के शयन कक्ष में आते ही निपुणीका सभी दासियों को कक्ष से बाहर ले जाती ।शयनकक्ष से अधिक दूर नहीं था संगीत कक्ष। जहाँ निपुणीका स्वयं वीणा बजाती और मदनीका प्रेम गीत गाती। गीत के स्वर और वीणा की लय पुरुरवा और औशीनरी के हृदय में प्रेम का संचार करती थी। रात्रि भी मानो थम - थम कर बीतती ।रात्रि के अंतिम प्रहर पुरुरवा के वक्ष पर सिर रखे औशीनरी मीठी निद्रा में मग्न हो जाती। ऐसी प्रेम भरी कितनी ही रातें बीत गईं ।औशीनरी के प्रारब्ध का वह संतानहीनता का काला पृष्ठ कभी भी नहीं बदला। कितने ही अनुष्ठान किए औशीनरी ने ।व्रत, उपवास ,पूजन, हवन । कितनी बार निर्जला व्रत रख पुत्र प्राप्ति का जाप किया। कुम्हला जाता था उनका बदन किंतु मुख पर जाप की कांति बनी रहती थी। पुरुरवा के प्रति उनकी स्नेह वर्तिका कभी धीमी नहीं हुई। उनके प्रेम का निष्कंप वातावरण स्नेह वर्तिका को सदा स्थिर रखता। वे सोचती प्रेम भी तो एक साधना है जो ऐसे एकांत में ही होती है। पुरुरवा से मिलन के वे अनमोल क्षण थे जिनकी अनुपम छटा के बीच दोनों के अस्तित्व एकमेव हो जाते। समा लेते पुरुरवा उन्हें अपने में, डुबा लेते सर्वांग। तो फ़िर कैसे,कैसे सृष्टि के चक्र में कमी रह गई? उनकी कोख सूनी क्यों रह गई?

धीरे-धीरे पुरुरवा औशीनरी से विलग होने लगे ।उन्होंने दूसरा विवाह तो नहीं किया किंतु उनके प्रेम की ऊष्मा शीतकाल से ठिठुरे क्षणों में परिवर्तित होती गई ।

एकाएक राजमहल दीपमालिका की रोशनी से जगमगा उठा ।औशीनरी के कक्ष का दीप स्तंभ प्रज्वलित करने जब दासी ने प्रवेश किया औशीनरी ने अपने अर्धनिलीमित नेत्रों को अश्रुओं से भीगा पाया ।दूसरी स्त्री से विवाह तो नहीं ,किंतु यह उर्वशी!


गंधमादन पहुँचकर पुरूरवा अरण्य महल नहीं गए। वे सीधे च्यवन ऋषि के आश्रम पहुँचे।दोपहर ढलने को थी। वृक्षों की डालियों पर सन्नाटा था। थोड़ी ही देर में चिड़ियाँ तथा अन्य पखेरुओं के अपने नीड़ में लौटने पर डालियाँ उनकी चहचहाहट से मुखर हो जाएँगी ।आश्रम में शिष्यों की चहल-पहल थी। औषधिशाला से जड़ी बूटियों की सुगंध वातावरण को सुरभित किए थी। कदाचित महर्षि च्यवन शिष्यों से अपनी देखरेख में प्राश का अवलेह तैयार करवा रहे थे। अश्वों की हिनहिनाहट से सुकन्या अपने कक्ष से बाहर आई। शिष्यों के संग पुरुरवा के सैनिक ने सूचना दी- "महाराज पुरुरवा पधारे हैं ।"

आश्रम में चहल-पहल जाग उठी ।महर्षि औषधिशाला से बाहर आश्रम के प्रांगण में आए- "स्वागत है राजन।" "प्रणाम महर्षि ।"

पुरुरवा के चेहरे के तेज से पता लग रहा था कि यज्ञ का कार्य निर्विघ्न संपन्न हुआ है। महर्षि पुरुरवा को अपने कक्ष में ले आए।

पुरुरवा के नेत्र उर्वशी को देखने को लालायित थे, किंतु वह कहीं दिखलाई नहीं दी। उन्होंने महर्षि से पूछा -

"आश्रम में सब कुशल मंगल तो है?"

"हाँ राजन ,आप बताएँ यज्ञ के तथा प्रतिष्ठानपुर के समाचार। एक बड़े धार्मिक कार्य को संपन्न करके आप लौटे हैं।"

"जी महर्षि, आपके आशीर्वाद से यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हो गया।"

"वह तो होना ही था। यज्ञ जिस निमित्त से आपने कराया, उसमें आपकी स्वयं की मनोकामना के साथ-साथ प्रजा का हित भी है। आप तो सदा से प्रजा वत्सल हैं।"

तभी सुकन्या उनके लिए जलपान का प्रबंध कर उन्हें बुलाने आई-"चलिए महाराज, जलपान कर लें ।उर्वशी भी आपकी प्रतीक्षा कर रही है ।प्रसव के अंतिम 15 दिन शेष हैं। कल रात से थोड़ी अनमनी-सी है वह ।"

पुरुरवा हड़बड़ा कर उठे -"चलिए शीघ्र।"

फिर ठहर गए। महर्षि निश्चय ही उन्हें संस्कारहीन समझेंगे ।उन्होंने अपने को संयत किया- "आप भी चलें महर्षि ।

साथ में जलपान करते हैं ।"

आश्रम का स्वतंत्र वातावरण जहाँ स्त्री पुरुष में कोई भेदभाव नहीं ।किंतु जहाँ संस्कारों की बात आती है स्त्री से अपेक्षाएँ यहाँ भी बढ़ जाती हैं ।पुरुष यहाँ भी स्त्री से उच्च माने जाते हैं ।

महर्षि और पुरुरवा को शिष्यों ने अल्पाहार परोसा ।पीने के लिए गर्म दूध दिया ।

उर्वशी अपने कक्ष के छोटे से गवाक्ष से पुरूरवा को देखती रही ।पुरूरवा सप्ताह भर बाद लौटे हैं ।किंतु यूं लगता है जैसे वर्षों बाद लौटे हों। उर्वशी को पुरू की प्रतीक्षा युग समान लगी ।अल्पाहार के पश्चात जब सुकन्या ने पुरूरवा को उर्वशी के कक्ष में पहुँचाया, उर्वशी के नेत्र सावन,भादों के मेघ बन गए।

पुरुरवा ने हुलसकर उर्वशी को आलिंगन में भर लिया।

"मेरी प्रेयसी, मेरी प्राण। ओह ऐसी तो न थी तुम सप्ताह भर पहले। यह मेरे प्रति तुम्हारे अगाध प्रेम का सूचक है।

"हाँ पुरू नहीं जी सकती तुम बिन। तुम मेरे जीवन का आधार, मेरे प्राण, मेरे सखा।" "उर्वशी... आगे का कथन पुरुरवा के कंठ में अटक गया। प्रेम का आवेग मानो हृदय को चीरकर बाहर आने को उद्यत था । किंतु रोक रही थी मर्यादाएँ ,रोक रहा था आश्रम का शिष्यों की चहल-पहल से भरा वातावरण। प्रेमी युगल का रुकना कठिन हो रहा था।

"आज ही चलेंगे न अरण्य महल?" उर्वशी के पूछने पर पुरुरवा सोच में पड़ गए ।आश्रम से अरण्य महल की दूरी चार घड़ी की है। चलते हुए रात्रि अरण्य में ही हो जाएगी। घना अंधकार ,वन्य जीवों का ख़तरा और उर्वशी गर्भवती ।नहीं यह संकट वे मोल नहीं ले सकते। आज रात आश्रम में ही व्यतीत करनी होगी। भोर होते ही वे प्रस्थान करेंगे ।उर्वशी भी सिलेटी होती संध्या और रात्रि की संधि बेला को देख यही सोच रही थी। किंतु वह पुरुरवा के उत्तर की प्रतीक्षा में थी। पुरुरवा ने उर्वशी का चिबुक उठाते हुए कहा- "प्रिये, आज यहीं विश्राम करेंगे ।रात्रि बस होने को है ।ऐसे में घने अरण्य की यात्रा उचित नहीं। भोर होते ही हम प्रस्थान करेंगे ।कदाचित थोड़ा समय महर्षि के संग व्यतीत करना हमारे हित में होगा। उन्होंने अपने आश्रम में इतने दिन तुम्हें पुत्री सम रखा है।"

"यही मैं भी सोच रही थी पुरू।" पुरुरवा ने उर्वशी के उभरे पेट पर हाथ फेरते हुए कहा- "देखो हमारा पुत्र भी यही कह रहा है।“ दोनों हंसने लगे।