उर्वशी में नर-नारी का निसर्ग का निरूपण / संतलाल करुण
नर-नारी के सम्बन्ध सूत्र में संसृति का समीकरण बहुत विचित्र है। यह सूत्र न केवल दैहिक तृष्णा-तुष्टि का माध्यम बनता है, बल्कि दैहिकोत्तर जीवन के द्वार भी खोलता है। इस सूत्र में संसृति और संसार को अविरल आयाम तो मिलता ही है, नर-नारी प्राकृत सहचर के रूप में जन्म-मृत्यु का विकट अन्तराल झेलने में द्विगुणित भी हो जाते है। इसी सृष्टिगत सूत्र के चलते साहचर्य-निर्वाह के लिए नर को परुषता और नारी को कोमलता का निसर्ग मिला है। परन्तु परुषता, कोमलता और सांसारिक वातावरण में पारस्परिक प्रतिक्रिया भी होती है, इसलिए नर-नारी अपने-अपने स्वभाव की मूल सीमा में बँधकर नहीं रह पाते। वे विचलित होते रहते हैं और उनकी निसर्ग-रेखाएँ अन्यान्य रूपों में उभरती रहती हैं। इसी कारण शील, प्रकृति, गुण, गठन, वासना, कर्म आदि के आधार पर इनके बहुत से निसर्ग-भेद साहित्य और शास्त्रों में चर्चित-निरूपित होते रहे हैं।
‘उर्वशी’ [1] में नर-नारी का निसर्ग-निरूपण प्रेम के आधार पर हुआ है। एक ऐसा प्रेम जो है तो सीमित ही, पर विस्तार पाने का वैचारिक आवेश लिए रहता है। काम, वासना आदि के घेरे में घूम-घूमकर फेरी लगाते रहने पर भी अंततः समरस और व्यापक प्रेम का वितान तानने में तल्लीन दिखता है। पर है वह रतिमूलक प्रेम ही। ऐसे प्रेमपरक निसर्ग-निरूपण में मोटे तौर पर दो मानवीय प्रकृतियों का रूपायन हुआ है-- पहली भ्रमर प्रकृति और दूसरी, एकनिष्ठ प्रकृति। भ्रमर प्रकृति में स्वच्छन्दता और एकनिष्ठ प्रकृति में सात्विकता की प्रवृत्तियाँ प्रकट हुई हैं। ‘उर्वशी’ में आए इन दोनों प्रकार के निसर्गो में पाश्चात्य मनोविश्लेषक युंग द्वारा चर्चित मानवीय व्यक्तित्व के दोनों स्वरूपों-- अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी[2] की प्रवृत्तियाँ क्रमशः एकनिष्ठ प्रकृति और भ्रमर प्रकृति में सहज ही देखी जा सकती हैं। परन्तु ‘उर्वशी’ के प्रमुख पात्रों के निसर्ग मात्र उपर्युक्त निसर्ग-भेदों में नहीं रखे जा सकते। क्योंकि उनके निसर्ग दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों से आक्रांत हैं। सामान्यतः प्रत्येक व्यक्तित्व में दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों के विद्यमान रहने पर भी किसी एक का प्राधान्य रहता है। पर उनमें ऐसा नहीं है। उनके निसर्ग में भ्रमरवृत्ति और एकनिष्ठता को लेकर द्वन्द्व, संघर्ष और खींचतान अधिक है। फिर भी इस प्रकार के परस्पर विरोधी और द्विधात्मक प्रवृत्तिवाले पात्रों के निसर्ग खण्डित नहीं हुए हैं। स्वच्छंदता और एकनिष्ठता दैहिक से दैहिकोत्तर होने का सोपान बनकर उपस्थित हुई है। एक के पश्चात् दूसरे का आविर्भाव हुआ है-- प्रेम और प्रव्रज्या के रूप में, संभोग और निदिध्यासन के रूप में।
‘उर्वशी’ में परियों का स्वभाव पूर्णतः स्वच्छन्द है। औशीनरी और सुकन्या पूर्ण रूप से एकनिष्ठ नारियाँ हैं। उर्वशी स्वर्ग की अप्सरा है, देवसभा की अनुपम नृत्यांगना, नारी-स्वच्छन्दता की परम प्रतीक। किन्तु धरती पर प्रणय-प्रवास के दिनों में जब उसकी सारी स्वच्छन्दता पुरूरवा के एकरसत्व में आत्मसात हो जाती है, तब वह एकनिष्ठ हो जाती है। इसी प्रकार औशीनरी और उर्वशी के बीच की भ्रमरवृत्ति में पुरूरवा पुरुष-स्वच्छन्दता के ज्वलन्त उदहारण के रूप में दिखाई देता है। किन्तु जब वह धीरे-धीरे उर्वशी से एकात्म स्थापित कर लेता है, यहाँ तक कि उर्वशी के प्रेम से वंचित होते ही संन्यास ले लेता है, तब सात्विक प्रकृति का हो जाता है। अतएव औशीनरी की सामाजिक दृष्टि में देवलोक से आई उर्वशी तो स्वच्छन्द नारी हो सकती है, किन्तु पुरूरवा सम्बन्धी प्रेम की प्रासंगिक दृष्टि से गंधमादन-विहार की उर्वशी नहीं। इसी प्रकार औशीनरी का कामातृप्त पुरूरवा तो स्वच्छन्द पुरुष कहा जा सकता है, किन्तु उर्वशी का प्रेमपुष्ट पुरूरवा नहीं। पुरुष पात्रों में कथित पात्र ऋषि च्यवन का व्यक्तित्व पूर्ण रूप से एकनिष्ठ है।
रन्भा, मेनका, सहजन्या और चित्रलेखा अप्सरा-प्रसिद्ध नारियाँ हैं। प्रेम-समर्पण से पूर्व ही उर्वशी भी इसी में आती है। इन सब के माध्यम से स्वच्छन्द प्रकृति का रूपांकन हुआ है। स्वच्छन्द नारियाँ किसी एक नर के निमित्त धीरज नहीं खोतीं।[3] वे खल-खलकर निर्मुक्त बहती कूलहीन जल होती हैं।[4] ह्रदय-दान पाकर वे झुकती नहीं, प्रेम उनके लिए एक स्वाद है, एक क्रीड़ा है।[5] उनके सारे प्रेम-व्यापार विनोद मात्र होते हैं।[6] नित्य नए-नए फूलों पर उड़ना उनका स्वभाव है।[7] सब के मन में मोद भरते हुए निर्मुक्त भ्रमण करना उनका क्रिया-कलाप है।[8] वह किसी एक गृह में कोमल द्युति की दीपिका बनकर प्रकाश नहीं फेंकतीं, बल्कि रचना की वेदना से सारे जग में उमंग लुटाती फिरती हैं।[9] न जानें कितनों की चाहों में उनका आवास होता है।[10] जिसके कारण उनके इस निजी विनोद से धर्म-पत्नियों को तड़पना पड़ता है।[11] वे अपने रूप और यौवन का जाल चारों ओर फेंकती हुई हँसी-हँसी में पुरुषों के मन का आखेट करतीं हैं।[12] वे विविध पीड़ाओं में आत्म-विसर्जन कभी नहीं करतीं।[13] अपने प्रेमी पुरुषों के क्षुधित अंक में वे स्वयं को बड़े यत्न से समेटती, क्षण-क्षण प्रकट होती, दूर होती, छिपती और फिर-फिरकर चुंबन लेती हैं।[14] उनका प्रेम झूठा और भ्रामक होता है। जो उनकी चाह में बाहें बढ़ाता है, बाद में उसे अन्धेरे के सिवा कुछ नहीं मिलता, आती तो हैं वे सपने की तरह उड़ती-उड़ती, अतीव आकर्षण लिए, किन्तु जब लौटती हैं तो अंधकार में खोती हुई, अता-पता मिटाकर।[15]
पुरुष की स्वच्छन्द प्रकृति का द्योतन पुरूरवा के माध्यम से किया गया है। स्वच्छन्द पुरुष का प्रेम भी स्वच्छन्द नारी की भाँति किसी एक घाट पर नहीं बंधता।[16] साथ ही स्वच्छन्द पुरुष स्वच्छन्द नारी के वश में अधिक रहते हैं।[17] सहधर्मिणी पत्नी में उनका मन कभी नहीं रमता।[18] और वे पुरुष जो प्रकृति-कोष से अधिक तेज लेकर आते हैं, वे और अधिक स्वच्छन्द होते हैं, वे फूलों से अपेक्षाकृत अधिक कट जाया करते हैं।[19] ऐसे पुरुष मादक प्रणय-क्षुधा से सदैव पराजित रहते हैं।[20] नित्य नई–नई सुन्दरताओं पर प्राण देते रहते हैं। वे नित्य मधु के नए-नए क्षणों से भीगना चाहते हैं तथा ओस-कणों से अभिषिक्त एक पुष्प नित्य चूमना चाहते हैं।[21] वे हमेशा नई प्रीति के लिए व्याकुल रहते हैं और जिस पर विजय पा लाते हैं, जो वश में आ जाती है, फिर उससे उनका मन नहीं भरता।[22] उनके गले में जो फूल झूल रहा होता है, उसके प्रति उनमें प्रेम नहीं जागता, जो जुन्हाई उनके क़दमों में न्योछावर हो चुकी होती है, वह उन्हें निस्तेज लगती है—
ग्रीवा में झूलते कुसुम पर प्रीति नहीं जगती है,
जो पद पर चढ़ गई, चाँदनी फीकी वह लगती है।
(उर्वशी, पृ० 33)
औशीनरी, सुकन्या और प्रणय-प्रवासिनी उर्वशी एकनिष्ठ नारियों की श्रेणी में आती हैं। इनके माध्यम से नारी के सात्विक निसर्ग का निरूपण हुआ है। एकनिष्ठ नारियाँ लज्जामयी होती हैं।[23] वे किसी छाया में छिपी हुई-सी होती हैं, प्रेम की खुली धूप में आँख खोलकर चलने में संकोच करती हैं।[24] उनमे जहाँ भी प्रेम उग आता है, बस वहीं उनकी दुनिया रुक जाती है[25] और अपने एकल प्रेम को ही आनंद का धाम मान लेती हैं।[26] ऐसी एकचारिणी नारियाँ प्रेम के विविध स्वाद से दूर रहती हैं।[27] फिर चाहे कितनी ही विपत्तियाँ क्यों न आएँ, कण भर का रस ही उनके लिए पर्याप्त है।[28] उनके केवल एक आराध्य होते हैं। एक ही तरु से लगकर सारी आयु बिता देने में उन्हें असीम सुख मिलता हैं।[29] उन्हें अपने पति से असीम प्रेम होता है, अपने भर्ता का निस्सीम गर्व होता है।[30] वे पति के सिवा किसी को अपना आधार नहीं मानतीं।[31] यहाँ तक कि पति-प्रेम के लिए देवी-देवताओं की आराधना करतीं हैं, व्रत-पालन करतीं हैं।[32] पति की अनुकूल दृष्टि के लिए वे सब कुछ करने के लिए तत्पर रहती हैं।[33] जीवन के सारे पुण्यों को प्रणय-वेदी पर चढ़ा देती हैं और उनका तन, मन, जीवन आराध्य के चरणों में ही अर्पित होता है।[34] तब भी भिखारिन की तरह पति के चेहरे को निहारती हुई प्रिय-नयनों में ही अपने सारे सुख खोजती रहतीं हैं।[35] यद्यपि उनकी यौवनश्री को क्षुधातुर प्रेम दानव रूप में पहले ही गस्से में हड़प लेता है, रूप-सौन्दर्य को अपनी कामासक्त भुजाओं के प्रेम-प्रदाह में समेट कर, भून-भानकर रख देता है, जीवन के हरे-भरे बगीचे की चहक-चमक को रसाभिलाषी होठों के उत्ताप से पतझर की उदासीनता में बदल देता है, फिर भी जो ठठरी भर शेष रह जाती है, उसे वह प्रेम के हवाले ही किए रहती हैं। वे सारे घिन, असौन्दर्य और कष्ट ओढ़-बिछा लेती हैं तो केवल एक प्रेम के कारण ही।[36] यदि पति की भ्रमरवृत्ति से उन्हें हार जाना पड़े, [37] और प्रेम की ज्वाला में आँसुओं की माला पिरोनी पड़े, [38] तो भी वे बाट जोहती हुई पति के मार्ग में फूल की कामना ही करती हैं।[39] वे अश्रुमुखी होकर भी त्रिलोकभरण से स्वामी के कल्याण की भीख ही माँगती हैं।[40] और मन की हूक जीभ पर नहीं लातीं।[41] सारी आपदा को वे किसी भाँति सह लेना चाहती हैं, किन्तु प्रियतम के पाँवों में तुच्छतम कंटक का चुभना उनके लिए असह्य होता है।[42] प्रेमोत्सर्ग में उनका यौवन ढल जाता है, शरीर अशक्त हो जाता है और फिर सन्तान-स्नेह में ऊभ-चूभ होने से अन्तस्सुष्मा तो द्रवित होती ही है--
तन हो जाता शिथिल दान में यौवन गल जाता,
ममता के रस में प्राणों का वेग पिघल जाता है।
(उर्वशी, पृष्ठ 16)
आने वाले रोग, शोक, संताप, जरा के दुर्दिन में,[43] सत्व-भार के असंग निर्वहन में,[44] सन्तति के असंग प्रसव में,[45] उनके देह की सारी शोभा, गठन, प्रकान्ति खो उठती है।[46] फिर भी बर्फ की टुकड़ियाँ नदी का रूप ले सागर तो बन ही जाती हैं, सच है कि दैहिक सौष्ठव गँवाकर सन्तानवती हो जाने से ऐसी ममतामयी नारी इतनी महान हो जाती है, जिसकी कोई सीमा नहीं--
गलती है हिमशिला सत्य है गठन देह की खोकर,
पर हो जाती वह असीम कितनी पयस्विनी होकर।
(उर्वशी, पृ०19)
और यही नहीं, ऐसी नारियों की गोद जब भर जाती है, तब उनमें नैसर्गिक पूर्णता आ जाती है, अर्थात् उनमें नारी सौन्दर्य अपनी सम्पूर्णता में दिखाई देने लगता है; तब वह दुधमुँहे शिशु को गोद में दुलारती हैं, हलराती हैं और तन्द्रामन्त्रण लय में साँझ से ही लोरी गाती हैं।[47] परन्तु जीवन-क्षेत्र में ऐसी गृहस्थ नारियों का दायित्व गम्भीर व कठिन होता है।[48] ऐसी नारियाँ क्रिया-रूप नहीं होती, क्षमाशील, सहिष्णु और करुणामयी होती हैं।[49]
एकनिष्ठ प्रकृति के पुरुषों में कथित पात्र च्यवन तथा उर्वशीनिष्ठ पुरूरवा को लिया जा सकता है। ऐसे पुरुषों का निसर्ग-निरूपण उर्वशी में बहुत कम स्थलों पर, वह भी सांकेतिक रूप में ही हुआ है। ऐसे पुरुष राजमुकुट त्याग सकतें हैं, पर प्रेम की एकनिष्ठता नहीं। पुरषों का संन्यास, संन्यास न होकर उनके एकनिष्ठ प्रेम का परिष्कार मात्र होता है।[50] ऐसे पुरुष आलिंगन के क्षेत्र में इन्द्रिय धरातल की सीमा से ऊपर उठकर अतीन्द्रिय लोक में विचरण करते हैं। नर-नारी के दैहिक द्वैत की सीमा पारकर जाते हैं। ऐसा हो जाने से फिर उन्हें भौतिक आकर्षण स्वच्छन्द नहीं बना पता। एकनिष्ठता उनके ह्रदय में घर कर जाती है। उनकी एकनिष्ठता का महत्वपूर्ण कारण है--
वह निरभ्र आकाश जहाँ की निर्विकल्प सुषमा में
न तो पुरुष मैं पुरुष, न तुम नारी केवल नारी हो;
(उर्वशी , पृ० 60)
- * * * * *
और निरंजन की समाधि से उन्मीलित होने पर
जिनके दृग दूषते नहीं अंजनवाली आँखों को।
(उर्वशी , पृ० 101)
वे भोगी और योगी दोनों हुआ करते हैं, यथावसर प्रेम और संन्यास दोनों मार्गों से गुज़रते हैं।[51] उनके निसर्ग की महत्वपूर्ण पहचान यह भी है कि उनमें नारियों के प्रति सदैव आदर-भाव रहता है।[52] उनमें सन्तान-प्रियता होती है तथा शिशुओं के प्रति अत्यन्त आकर्षण भी।[53]
इस प्रकार उर्वशी में मानवीय निसर्ग के चार स्वरुप सामने आते हैं-- नर-नारी को लेकर स्वच्छन्दता के दो और इसी प्रकार एकनिष्ठता के भी दो। स्वच्छन्द निसर्गों के माध्यम से अनर्गल संभोगेच्छा की समस्या उठाई गई है और एकनिष्ठ निसर्गों के माध्यम से उसका समाधान जुटाया गया है। समस्या रही है शरीर-स्तर के भोग की, यौनिक स्वच्छन्दता की, जो मात्र व्यक्तित्व की बहिर्मुखता का पर्याय नहीं हो सकती और समाधान दिया गया है भौतिक आधार से ऊपर उठकर आत्मा के अंतरिक्ष में पहुँचने का, यौनिक संस्कार का, जो केवल व्यक्तित्व की अन्तर्मुखता से सम्भव नहीं हो पाता। क्योंकि मनुष्य में व्यक्तित्व की बहिर्मुखता और अन्तर्मुखता के गुण सूत्र अन्य प्राणियों की अपेक्षा जटिलतम स्थिति में होते हैं। यदि मनुष्य बहिर्मुखी व्यक्तित्व का न होता तो इतना भौतिक विकास न कर पाता और यदि उसमें अन्तर्मुखता न होती तो उसके लिए प्रेम-काम की पाशविक शैली से उबर पाना सम्भव न होता। प्रेम-काम के क्षेत्र में उसका अन्तरंग इतना सुन्दर न होता। इसलिए मानवीय “काम” को पशुता से उबारने के लिए जितना महत्त्व उसके व्यक्तित्व की अन्तर्मुखता का है, उतना ही महत्त्व बहिर्मुखता का भी मानना चाहिए। कम-से-कम मानव व्यक्तित्व में उसकी बहिर्मुखता मिटाने की बात सामाजिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं हो सकती। उसे सिर्फ अन्तर्मुखता के सामंजस्य से सुसंस्कृत भर करना उचित है। तांत्रिक आचार्यों का दृष्टिकोण लेकर आचार्य द्विवेदी ने लिखा है कि “काम, क्रोध आदि मनोवृत्तियाँ जिन्हें शत्रु कहा जाता है, सुनियन्त्रित होकर परम सहायक मित्र बन जाती हैं।”[54] इसी मनोवैज्ञानिक निसर्ग-संस्कार का उदाहरण बनकर पुरूरवा-उर्वशी का समूचा व्यक्तित्व-युग्म उर्वशी में आया है। यह युग्म समस्याग्रस्त निसर्गों के कुसंस्कार का ऐसा हल है, जिसमें व्यक्तित्व की बहिर्मुखता और अन्तर्मुखता के संतुलन के स्थान पर अन्तर्मुखता का पलड़ा भारी हो गया है।
जैसे ज़रूरत से ज़्यादा भोजन स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होता है, वैसे ही आवश्यकता से अधिक व्यक्तित्व की बहिर्मुखता या अन्तर्मुखता “काम” के क्षेत्र में समस्याएँ खड़ी करती है। च्यवन और सुकन्या के व्यक्तित्व में दोनों निसर्ग-पहलुओं अर्थात् बहिर्मुखता और अन्तर्मुखता का समान उपयोग हुआ है। जिसमें प्रेम-संन्यास, लोक-परलोक, जीवन-अध्यात्म, समाज के प्रति उन्मुखता-विमुखता संतुलित है और संतुलित है उनकी परस्पर प्रेम की एकनिष्ठता । जैसा कि गोस्वामी जी ने भी सुझाया है--
घर कीन्हे घर जात है, घर छाँड़े घर जाइ।
तुलसी घर-बन बीचहीं, राम प्रेमपुर छाइ।।
(दोहावली, दोहा सं. 256)
यह दूसरे किस्म का समाधान है। या यों कहें कि च्यवन-सुकन्या के माध्यम से समस्या रहित निसर्गो के व्यक्तित्व-संतुलन की आदर्श झाँकी प्रस्तुत की गई है, जो पुरूरवा-उर्वशी की अपेक्षा समाजोपयोगी अधिक है; क्योंकि पुरूरवा-उर्वशी के निसर्गों में पहले तो बहिर्मुखता का आधिक्य रहा है, जिससे उनके निसर्ग प्रेम की स्वच्छन्दता से संत्रस्त रहे हैं, फिर जब उनमें अन्तर्मुखता आती है तो इतनी अधिक मात्रा में आती है कि उन्हें संन्यास, परलोक, अध्यात्म और सामाजिक विमुखता की एकांगी दिशा में ढकेल देती है।
इन सभी दृष्टियों से ‘उर्वशी’ काम-निसर्ग का काव्य सिद्ध होती है। प्रेमपरक निसर्ग की काव्यात्मक व्याख्या प्रमाणित होती है। उसकी संवेदना में रतिमूलक निसर्ग ही घनीभूत है। काम की नैसर्गिक समस्या और समाधान को लेकर ही उसकी सृष्टि हुई है। स्वच्छन्दता और एकनिष्ठता के बीच रत्यात्मक निसर्ग का द्विधात्मक संत्रास और उसकी द्विधामुक्ति ही इसका विचार-विन्दु है। ऐसे विचार-विन्दु के विस्तार में, प्रेम और काम की यौनिक उपपत्तियों के लिए कितने सटीक और पुराण-प्रसिद्ध पात्रों का चयन किया गया, यह कहने की आवश्यकता नहीं। और इसी वैचारिक विन्दु के विस्तृत कामाध्यात्म में पारंपरिक दैहिकता के साथ-साथ कवि की सांस्कृतिक मानसिकता भी अनुस्यूत हुई है, जिससे ‘उर्वशी’ के रूप में सर्वथा नवीन, गुरु-गम्भीर और अद्वितीय काव्य प्रतिफलित हुआ है। काव्य के समस्त उपादान, पुराख्यान, दर्शन, मनोविज्ञान, सामाजिकता आदि सब-के-सब ‘उर्वशी’ में निसर्गाश्रित हैं।
सन्दर्भ :
1- 1961 में प्रकाशित नाट्यशैली का दिनकरकृत महाकाव्य। श्री शिवपूजन सहाय के शब्दों में हिन्दी का अभिज्ञानशाकुन्तल, 1972 में ज्ञानपीठ से पुरस्कृत।
2- पाश्चात्य समीक्षा : सिद्धान्त और वाद-- सत्यदेव मिश्र, पृष्ठ- 235
3- ‘उर्वशी, पंचम संस्करण, 1973 ई0, पृष्ठ 14
4- वही, पृष्ठ 15
5- वही, पृष्ठ 15
6- वही, पृष्ठ 15
7- वही, पृष्ठ 103
8- वही, पृष्ठ 15
9- वही, पृष्ठ 15
10- वही, पृष्ठ 16
11- वही, पृष्ठ 31
12- उर्वशी, पृष्ठ 31
13- वही, पृष्ठ 15
14- वही, पृष्ठ 33-34
15- वही, पृष्ठ 34
16- वही, पृष्ठ 22
17- वही, पृष्ठ 34
18- वही, पृष्ठ 22
19- वही, पृष्ठ 36
20- वही, पृष्ठ वही
21- वही, पृष्ठ 22
22- वही, पृष्ठ 33
23- उर्वशी, पृष्ठ 154
24- वही, पृष्ठ 152
25- वही, पृष्ठ 15
26- वही, पृष्ठ 103
27- वही, पृष्ठ 103
28- वही, पृष्ठ 17
29. वही, पृष्ठ 103
30- वही, पृष्ठ 101
31- “पति के सिवा योषिता का कोई आधार नहीं है।”
(उर्वशी, पृष्ठ 37)
32- वही पृष्ठ 25
33- उर्वशी, पृष्ठ 27-28 व 34
34- वही, पृष्ठ 34-35
35- “तब भी तो भिक्षुणी-सदृश्य जोहा करतीं हैं मुख को,
सदा हेरती रहतीं प्रिय की आँखों में निज सुख को।”
(उर्वशी, पृष्ठ 35)
36- “जहाँ प्रेम राक्षसी भूख से क्षण-क्षण अकुलाता है,
प्रथम ग्रास में ही यौवन की ज्योति निगल जाता है;
धर देता है भून रूप को दाहक आलिंगन से,
छवि को प्रभाहीन कर देता ताप-तप्त चुंबन से;
पतझर का उपमान बना देता वाटिका हरी को,
और चूसता रहता फिर सुन्दरता की ठठरी को।
किरणमयी यह परी करेगी यह विरूपता धारण ?
वह भी और नहीं कुछ, केवल एक प्रेम के कारण ?”
(उर्वशी, पृष्ठ 17)
37- उर्वशी, पृष्ठ 34
38- वही, पृष्ठ 33
39- वही, पृष्ठ 38
40- उर्वशी, पृष्ठ 15
41- वही, पृष्ठ 38
42- वही, पृष्ठ 151
43- वही, पृष्ठ 16
44- वही, पृष्ठ 112
45- वही, पृष्ठ वही
46- वही, पृष्ठ 17
47- उर्वशी, पृष्ठ 19
48- वही, पृष्ठ 155
49- वही, पृष्ठ 157
50- पुरुरवा का संन्यास-ग्रहण
51- पुरूरवा और च्यवन
52- उर्वशी, पृष्ठ 16
53- वही, पृष्ठ वही
54- अशोक के फूल, घर जोड़ने की माया, पृष्ठ 32