उलझती जिंदगी / राजा सिंह
वह अभी-अभी स्टेशन पर उतरा था। सुबह के आठ बज रहे थे। एक लम्बा और उॅबाऊ सफर, चंडीगढ़ से बनारस तक। सोता-जागता उंघासा। बेचैन कर देने वाली थकाऊ यात्रा। आशंकित यात्रा।
वह ट्रेन में ही फारिग हो गया था, क्योकि वह जहाँ जा रहा था, वहॉ उसे घर में घुसने दिया जायेगा या नहीं? वह पूरी तरह संशय में था। उन दोनों के बीच इतना कुछ घटित हो चुका था कि उसे नहीं लगता था कि उसका एकता प्रयाश कामयाब हो पायेगा। फिर भी वह सोचता है कि प्रयत्न करने में हर्ज ही क्या है? इस मिशन के लिये उसने कितना अपने आप को दबाया है कि उसमें अपना कुछ रह नहीं गया हैं।
वह मां-बाप, भाई-बहिन के साथ एक छोटे से बहुत पुराने मकान में दिल्ली के अत्यन्त व्यस्त ईलाके लक्ष्मीनगर में रहता है। नीचे के दो कमरे काफी पुराने दुकानदारों को किराये पर उठे थे। ऊॅपर के दो कमरों में ही वे सब रहते थे। वहीं बबिता भी ब्याह के आयी थी। रात में सोने के समय ही वह दोनों पास आ पाते थे, एक छोटे कमरे में। बाकी के लोग दूसरे बड़े कमरे में सोते थे, जो बाहर की तरफ सड़क की तरफ था। दोनों कमरों के बीच में आंगन और किचन आदि थे। छोटा कमरा पीछे की तरफ था जिसमें ज्यादातर अँधेरा पड़ा रहता था। वह छोटा कमरा भी अपने पास अलमारी, टंªक, बक्से, डबल बेड इतना कुछ समेटे था कि वह कमरा कम-स्टोर रूम ज़्यादा था। बाहर के बड़े कमरे में भी बड़ा नाम ही रह गया थ। उसमें सोफा-सेट दिवान बेड कुर्सियाँ आदि थी और घर वाले-बाहर वाले सभी उसी में पनाह पाते थे। अलबत्ता पिता जी ने ज़रूर अपना आशियाना ऊॅपर छत में बना रखा था। एक टीन शेड की छत और एक तख्त को बेड बना रखा था। बहुत सर्दियाँ हो या तपती दुपहरी, वह जब से रिटायर्ड हुये हैं उनका ज्यादातर समय वहीं गुजरता था।
पिताजी रेलवे से रिठायर्ड हो चुके थे। उनकी पेंशन, दुकानों का किराया और पारस की प्राइवेट नौंकरी सबके संयुक्त प्रयास से घर का खर्चा और भाई-बहन की पढ़ाई-लिखाई आसानी से चल रही थी। परन्तु बहुत किफायत के साथ।
ब्याह के कुछेक महीनों बाद से ही उनमें आपस में गम्भीर मतभेद उभर आये थे। वह इतने भीड़-भाड़ में नहंी रहना चाहती थी और पारस अपने घर परिवार को छोड़ नहीं सकता था। ं इस मामले में वह अडिग था, परन्तु बबिता की रोज की वही हठ थी, फरमाईश थी। उसे अपने लिए जगह चाहिए थी जहाँ वह दो पल अकेले बिता सके. कुछ अपने विषय में सोच सके. कुछ अपना जी सके. बाद-विवाद ने बाद में आपस में रोज झगड़े का रूप ले लिया था। दिन में व्यस्तता और मौंका न मिलने के कारण, रात इसी बात की भेंट चढ़ जाती थी।
अब वह उसे नापसंद करने लगा था। दिन के उजाले में, उसमें उसे कोई आकर्षण नजर नहींे आता था। ना रंग, ना रूप, उस पर उसका चपड़़-चपड़ बोलना। उसका तेज-तेज बोलते हुये नथुने फूलना और हंसने पर मंसूड़े दिखाई पड़ना, उसे आकर्षणहीन बनाते थे और रात में...जब वह उसकी शारीरिक ज़रूरत होती थी...तो इस तरह से अप्रांसिक मांग, अलग रहने की दरयाफ्त उसे, उसके प्रति वितुष्णा ही पैदा करते थे। पारस कोशिश करता था कि उसकी मांग को टाला जाये और अपनी चाह पूरी की जाये, बिना किसी अवरोध के. परन्तु अक्सर ये सम्भव नहीं हो पाता था, क्योंकि देवी जी की तरफ से हफ्ते में एक दिन से ज़्यादा नहीं, यह प्रतिबन्ध भी आयत था। ये बहुत बड़ा कारण होता था, पारस में खीज उत्पन्न करने का। उसका दिन भी असंतुष्टता से भरा रहता था।
असल में, इस आकर्षण हीन और अव्यवहारिक लड़की को अंगीकार करने में उसके पिता एवं ज्योतिषियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। उसके पिता को पंडितों ने बता रखा था कि 'आपका लड़का मंगली है, इसलिए उसकी शादी किसी मंगली लड़की से ही करियेगा, वरना अनिष्ट की सम्भावना से इन्कार नहींे किया जा सकता है।' और उसका पिता अपनी जाति की मंगली लड़की ढुड़ने में लग गया था। उम्र पर उम्र बढ़ती जा रही थी-बेटा तीस को पार गया था और मिली तो बबिता। वह मंगली भी थी, उससे गुड़ भी काफी मिल रहे थे और पंडितों के अनुसार दोनों का गृहस्थ जीवन सफल रहेगा। पारस से वह एक-दो माह बड़ी थी और साधारण थी, इसकी भी उपेक्षा की गई, भावी सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए.
उस दिन जब वह उसे पसंद करवाई गई थी, तब वह उसे ठीक लगी थी। उसके घने मुलायम, लम्बे काले बाल विज्ञापन नुमा थे और उसका रंग भी काफी साफ नजर आ रहा था। या शायद व्यूटी पार्लर वालों ने उस पर काफी मेहनत की थी उसे पसंद योग्य बनाने में। फिर उसकी बढ़ती उम्र और घर की आर्थिक हालत ज़्यादा अच्छी न होना, तिस पर उसकी साधारण प्राइवेट कम्पनी की नौंकरी, इस कारण ज़्यादा अच्छे रिश्ते न आना भी, उसके पसंद आने के कारण में इजाफा कर रहे थे।
वह प्लेटफार्म पर बने खान-पान कैफेटेरिया में आ गया। उसने सोचा कुछ हल्का-सा नास्ता करके ही चला जाये। क्या पता बैरंग ही वापिस आना पड़े? उसने देखा काफी भीड़ है, उसे काफी मशक्कत करनी पड़ी, नाश्ते का टोकन लेने पर। टोकन लड़के को देकर वह वहॉ पड़ी टेबुल-कुर्सी पर बैठ गया, अपने नाश्ते आने के इन्तजार में।
बबिता को अपने पापा के घर आये करीब-करीब तीन माह से ज़्यादा हो गये थे। इस बीच उसने पारस को किसी काल का जबाब नहीें दिया था ना ही उसके किसी मैसेज, पत्र आदि का। वह काफी डरी, सहमी और प्रताणित महसूस कर रही थी। उसने निर्णय कर लिया था, अब वह वापस किसी हाल में नहीं जायेगी। चाहें वह कितना मनायें, माफी मांगे और भविष्य में ऐसा कुछ नहीं होगा, वादा करे, कसमें खाये। कई बार ऐसा हो चुका था, वह लोकाचार के नाते और भविष्य में इतना पहाड़-सा समय, अकेले कैसे कटेगा? और अब की बार वह सुधर गया है। कैसी भी आश्वासन दे, वह नहीं जायेगी। वह कृतसंकल्प थी। ... अब तो उसकी सरकारी टीचर की नौंकरी भी है?
वह अपनी शादी से काफी प्रसन्न थी। एक तो शादी का इन्तजार करते-करते वह बुढ़ा गयी थी, वह तीस को पार कर चुकी थी। वह खाली थी। वह सारी पढ़ाई लिखाई कर चुकी थी एम0ए0बी0एड0 कर चुकी थी। सिलाई-कढ़ाई, खाना बनाना-पकाना सभी में पारंगत हो चुकी थी, इन्तजार सिर्फ़ शादी का था। नौंकरी करना उसे पसंद नहीं था। उसे लगता है कि नौंकरी वाली लड़की को डबल-मार झेलनी पड़ती है, घर की भी करो और बाहर की भी। ...ज्यादातर लड़के उसे देखकर नापसंद कर जाते थे...उसे लगता था आशाओं की सीढ़ी चढ़ाकर उसे बेदर्दी से ढकेल दिया जाता था। उसका मन क्षत-विक्षत हो जाता था। उसका मन, उसकी आरजू एक सुन्दर खूबसूरत, राजकुमार जैसे लड़के की कल्पना किया करता था। परन्तु राजकुमार क्या साधारण रंग वाले भी उसे अस्वीकार कर जाते थे, तो उसका मन विर्दीण हो जाता था। ... और फिर चमत्कार-सा ही हुआ, पारस ने उसे पसंद कर लिया था। पारस काफी सुन्दर था। सफेद कलर, स्लिम हैण्डसम, स्मार्ट और नाक नक्श भी उच्चस्तरीय थे। उससे शादी अकल्पनीय और अवर्चनीय थी। पारस ने भी उसी दिन उसे बताया था कि वह उसके घने, काले, लम्बे केश राशि पर मर मिटा है और यह काफी सन्तुष्टि दायक था।
उसे बड़ा हौंसला था, पति के साथ घूमने-फिरने का। अपने जान-पहचान वालों, अपने रिश्तेदारों के यहॉ विजिट करने का। उसमें कहीं ना कही यह भाव भी छुपा रहता था कि देखों मेरा दुल्हा कितना सुन्दर है? कुछ दिन ऐसा ही चला जैसा वह चाहती थी। एक-आध माह फिर धीरे-धीरे यह सिलसिला कम होते-होते, बंद होने की कगार पर आ गया और वह उस दड़बे में कैद हो गई, जिसमें औरों से मिलना तो दूर उसकी पारस से भी मुलाकात रात के अंधेरे में ही हो पाती थी, उस छोटे कमरे में...उस कमरे में भी वह खुलकर बात नहीं कर पाती थी...उसे फुस फुसा कर बोलना नहीं आता था...उसकी आवाज बुलंद थी और आवाजें कमरे से बाहर निकलती रहती थी और अन्यों की आंखों और चेहरे के हांव-भाव से प्रगट हो जाती थी, अगले दिन, जो उसे शर्म-सार करती रहती थी।
पिंजड़ेनुमा दो कमरों में घुटती ज़िन्दगी बाहर फड़फड़ाने के लिए बेताब हो रही थी। उसने कई बार पारस से जिक्र किया, अनुनय विनय की। प्रेमालाप-में असुविधा का जिक्र किया, मगर उसे परवाह नहीं की। उसे काम की परवाह थी बात की नहीं उसे अपने लिये स्पेश चाहिए था जो उसे नसीब नहीं हो रहा था। उसकी भावनाऐं, उमंगें धूल धुसरती हो रही थी। उसका असंतोष काम में और व्यवहार में प्रगट होने लगा था। अपने आप से लड़ती हुयी वह उससे लड़ने लगी थी और फिर उसकी लड़ाई सास, ससुर देवर और नंद तक पहुॅच गयी थी। खीज, हताशा और निराशा उस पर काबिज हो गयी थी। वह सुकून से परे हो गयी। उसकी सोंच इस हद तक पहॅुच गई थी कि यहॉ से हटने पर ही वह कुछ अपने विषय में सोच पायेगी और कुछ कर पायेगी और एक ऐसे परिवेश का निर्माण कर पायेगी, जहॉ वह अपनी कल्पनाओं और आकांक्षाओं को मूर्तरूप में साकार कर पायेगी। ...और एक दिन जब सास ने उसके मां-बाप के विषय में अपशब्द कहे और देवर विजय और नंद संध्या ने हंसी और खिल्ली उड़ाई तो उसने उसी की भाषा में प्रतिउत्तर आरोपित किया तथा गिन-गिन कर उनके घर-परिवार के सदस्यों की कमियों-कमजोरियों का बखान किया था। वह मॅुह-फट तो बचपन से थी उसे एक भी बात उधार करना नहीं आता था। तर्क-कुर्तक सबमें माहिर थी वह और उसकी बुलंद आवाज सबसे भारी थीं ...घर में कोहराम मच गया था सभी हैरान थे...नयी दुल्हन के तेवर...पिताजी हरे राम...हरे राम कहते फिर चढ़ गये छत पर...उन्हें सेवानिवृत के बाद संयासी बनने का ढोंग सवार था और हर वाक्यों पर अपने को निरपेक्ष साबित किया करते थे...बाकी सब की बोलती बंद हो गयी थी...पारस के आने तक। ...सायं को जब पारस आया तो पूरे परिवार ने उसकी जमकर बुराई की उसमें पिताजी भी सम्मिलित हुये...और उसने बिना बबिता से कुछ दरियाफ्त किये उस पर पिल पड़ा, घर के लोगों को आपमान करने का दुःस्साहस करने का...वह पिट रही थी परन्तु हार नहीं मान रही थी वह पारस के हर वार का जवाब अपनी जुबान से दे रही थी।
उसने भूख-हड़ताल कर दी थी। उसके मम्मी-पापा को खबर करी गयी थी। वह लोग आये थे। सबको समझाया-बुझाया गया। उसे भी मिल-जुल कर रहने के उपदेश दिये गये। उसकी मम्मी-पापा के अनुरोध पर कुछ दिनों के लिये उसे उनके साथ बनारस भेज दिया गया। ...उसने एक तरह का अज्ञातवाश ले लिया था...उसे पारस के ऊॅपर काफी गुस्सा आ रहा था...बिना कुछ पूंछे जाचें उसने उस पर दरिंदों की तरह व्यवहार किया था...उसके दुखों की लिस्ट में एक और इजाफा हुआ था। ...पारस का बेहसियाना व्यवहार। उसने अपनी तरफ से कोई बातचीत नहीं, पत्र व्यवहार नहीं...और उसकी आयी काल्स-मेसेज को कोई भी उत्तर नहीं दिया। दो माह व्यतीत हो गये। पहली बार इतने दिन रूकी थीं वरना वह पारस के साथ आती थी और एक-दो दिन रूककर उसी के साथ वापिस हो जाती थी।
पारस आया था निश्ंिचंत, बेफिक्र। उसे ऐसा ही लगा था। उसने मम्मी-पापा को ईशारा किया। उन्होंने उसे उसके प्रति अमानवीय व्यवहार की शिकायत की और भविष्य में ऐसा न करने की सख्त हिदायत दी थी। वह हर बात हर शर्त यस मैंन की तरह मानता चला गया। उसने बबिता से ये भी बादा कर लिया कि वह जल्द ही घर से अलग रहने का इन्तजाम कर लेगा। मम्मी-पापा तो पहले से ही तैयार थे उसे भेजने के लिए. उन्हें लोकाचार का भय सता रहा था। ...इतने दिन से घर में लड़की है...क्या बात है? ...कोई बात तो नहीं? ...आदि परन्तु बेटी के लिये भविष्य में मनोकूल वातावरण मिल जायेगा, यह उन्हें अतरिक्त खुशी प्रदान करने वाला था।
पारस बबिता को लेकर दिल्ली आ गया। यह आश्वासन देकर कि वह बबिता के साथ घर-परिवार से अलग रहेगा। परन्तु वह गम्भीर नहीं था। कम-से कम वह ऐसा ही सोचती थी। क्योंकि जब भी वह यह बात छेड़ती थी वह टालने की गरज से कुछ अलग प्रसंग छेड़ दिया करता था। परन्तु बबिता उसका खून पिये रहती थी, कोई दिन खाली नहीं जाता था। वह उलझन में था। वह चिंताग्रस्त था। कैसे कर पायेगा? मां-बाप, भाई-बहिन को कैसे छोड़ पायेगा? उनको मझधार में कैसे छोड़े? एक ही शहर में अलग कैसे रहेगा? लोग क्या कहेंगे? उसने भंाप लिया था और सुझाव दिया कि वह अपना ट्रान्सफर कहीं और करवा ले। ...प्राइवेट कम्पनी में ट्रान्सफर कहॉ होता है? वह डर भी रहा था कि बबिता अपना नंग-नाच दिखलाना शुरू न कर दे? और कहीं क्रोध और गुस्से में उसकी साथ अलग रहने का प्रामिज घर वालों पर उजागर न कर दे? बड़ी शर्मनाक बात हो जायेगी। वह अपने घर वालों को क्या मॅंुह दिखायेगा? वह दिल्ली से बाहर मिलने वाली नौंकरियों पर ध्यान देने लगा था। उसे समस्या का समाधान यही नजर आ रहा था। इससे उसका बचाव हो जायेगा और पत्नी को दिया हुआ आश्वासन पूरा हो जायेगा।
अन्ततः वह चंडीगढ़ में एक नौंकरी पाने में सफल रहा। वर्तमान नौंकरी को छोड़ दी परन्तु घर में बताया, छूट गयी। एक बात कुछ अच्छी हुई कि चंडीगढ़ की नौंकरी ज़्यादा पैकेज में मिली थी। जिससे वह कहीं से अपने को सही सिद्ध कर पा रहा था। परन्तु मन में कसक बनी रही थी। वह पराजित हुआ था। बबिता की जिद के आगे वह नत-मस्तक हुआ था। उसने हार करके शान्ति खरीदने की कोशिश की थी। ...
यहॉं चन्डीगढ़ में थोडे़ दिनों माहौल काफी सुखद रहा था। दो कमरे का पोर्शन था और सिर्फ़ वे दों। बबिता प्रसन्न थी। वह अतिरिक्त-प्यार बरसा रही थी। परन्तु वह अपराध बोध से ग्रसित था। उसमंे एक अजीब व्याकुलता व्याप्त थी जो अकथ्य और अव्यक्त थी। वह घर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से बचकर आया था। वहॉं बहन की पढ़ाई बन्द हो गई थी और छोटा भाई कैसे पढ़ पा रहा होगा, वह अनुमान लगाने में असमर्थ था? उन सबका खर्चा कैसे चलता होगा? उसने अपनी पहली तन्खाह से ही कुछ घर भेजना चालू कर दिया। इस तरह से वह कुछ अपने को धीरज दे पा रहा था और कुछ संतुष्ट भी महसूस कर पा रहा था।
कुछेक माह ही बीते थे कि बबिता ने उसे बाप बनने की खबर दी। वह खुश हुआ परन्तु दूसरे पल नयी आने वाली जिम्मेदारियों के प्रति सचेत भी हुआ। फिर भी दोनांे काफी खुशी महसूस कर रहें थे। संशकित दोनों थे अपने-अपने कारणों से। आने वाले खर्चे या बढ़ने वाले खर्चे के प्रति। ... एक दिन बबिता उसके कपडे़ धोने के लिए ले जा रही थी तभी उसने उसकी पेन्ट की जेब से मनीआर्डर की रसीद देख ली। उसने पढ़ा और हंगामा खड़ा हो गया।
'ये क्या है?' उसने रसीद दिखा कर हाथ हवा में लहराया।
'देख लो, इतनी तो पढ़ी-लिखी हो?' उसने विदुपता से कहा।
'पढ़ी तो मैं तुमसे ज़्यादा हॅू।' परन्तु चोरी छिपे घर को जो रूपये भेजे जा रहे है। मैं उसके विषय में पूॅछ रही हॅू। '
'तुमने अलग रहने का वादा करवाया था घर-परिवार को तिलांजलि देने का नहीं।' आखिर बड़े और कमाने वाले लड़के होने के नाते, मेरी भी घर के प्रति जिम्मेदारी बनती है कि नहीं? ' वह झुंझलां गया था और उसने चीखकर अपना रोष प्रगट किया।
'अपनी पत्नी के प्रति पूरी जिम्मेदारी निभा नहीं पा रहे हो, कम-से-कम अपने होने वाले बच्चे के प्रति तो कुछ सोचों? मगर तुम्हें गैरों से जब फुरसत मिले तब ना?' उसने मर्म भेदी प्रहार किया था जो आर-पार गया था और सीने में फॅंस कर रह गया था।
'मेरे मॉं-बाप, भाई-बहिन सब तुम्हें गैर लगते हैं?' वह उबल पड़ा और क्रोध-गुस्सा बाहर निकल पड़े। वह अपने में नहीं रहा था और उसने हिंसा का सहारा लिया। उसने भी यथाशक्ति प्रतिरोध किया, उसी की भाषा में। परन्तु पुरूष की शक्ति के आगे उसका प्रतिरोध क्षीड़ पड़ गया और निढ़ाल जा पड़ी।
उसने अपनी मम्मी-पापा को बुला लिया। फिर वही प्रक्रिया दोहराई गयी। वाद-विवाद, पक्ष-विपक्ष की बातें। समझाना-बुझाना। सुलह-सफाई और आने वाले बच्चें की सुरक्षा के लिये दोनों को आगाह किया गया। उसके पापा ने धमकी आदि का भी प्रयोग किया। वह चुप रहा। पारस से माफी मंगवा कर मामला-रफा दफा किया गया। वे एक-दो दिन और रूके और कुछ हद तक सामान्य स्थिति छोड़कर वे वापस चले गये।
हफ्ते से ज़्यादा समय लगा, उनके बीच सामान्य दिनचर्या प्रारम्भ होने पर। परन्तु वातावरण तनावपूर्ण ही था। बबिता में बहुत अहंकार था। वह उससे ज़्यादा पढ़ी-लिखी थी। बातचीत भी वह खुले मर्दाना ढंग से करती थी। उम्र में भी वह उससे बड़ी थी इस तनावपूर्ण और अमित्रतापूर्ण वातावरण में व्यंग-बाणों कट्ोक्तियों और एक-दूसरे को चुभने वाले वाक्यों का प्रयोग दिन-चर्या में शामिल हो गया था। अक्सर उनकी परिणति छुट-पुट संघर्ष में तब्दील हो जाती थी और अन्तःतोगत्वा मार-पीट में समाप्त होती थी पारस को बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता था। उफान आता था और गुस्से का झाग निकल जाने पर शान्त हो जाता था। वह फिर बाद में पछताता था और उसके फलस्वरूप वह सुलह-सफाई में जुट जाता था। परन्तु बबिता जल्दी अपना प्रतिरोध, असंतोष त्यागने को तैयार नहीं होती थी। इसलिए मामला दिनों-हफ्तों से ज़्यादा महीनों में सुलटने लगा था। अन्य पति-पत्नियों की तरह उनकी सुलह रात के अंधेरे में भी नहीं हो पाती थी। हर-एक लम्बी लड़ाई में बबिता अपने मम्मी-पापा को खबर करती और वे दोनों भागे-भागे चले आते। पारस को धमकी चेतावनी आदि और बबिता को अलग से समझाने आदि में। वे दोनों एक-दो दिन रूकते वे फिर वापस बनारस लौट जाते थे। अपने अन्य बच्चों की देख-भाल और लालन-पालन करने में। उसके पापा को भी आफिस से छुट्टी लेने में अजीब-सी अड़चन का सामना करना पड़ता था, क्या बताये हर बार? दामाद-बेटी का झगड़ा अब रिस्तेदारों एवं पड़ोसियों की जानकारी में आते-आते अब आफिस तक पहुॅंच रहा था। वे इस तरह की अफसाने-अफवाहों को दबाने में अब अपने आपको नाकामयाब पा रहे थे। कुछ ना कुछ तो बताना ही पड़ता था।
बच्चे के जन्म के एक-आध माह पूर्व ही पारस ने अपनी मॉं को बुला लिया था, सहायता हेतु यह एक कारण और बना था उनके बीच खिंची असंतोष की खाई को और चौड़ी करने की। वह अपनी मम्मी को चाहती थी। उसकी मम्मी इतनी जल्दी आ भी नहीं सकती थी। परन्तु वह उनकी मॉं को नहीं चाहती थी। उसका मानना था कि उसकी सास ही असली कारण है उनके बीच पनपे मतभेद का। परन्तु अपनी हालत को देखते हुये उसने कोई बबाल खड़ा करने की कोशिश नहीं की। परन्तु अपना विरोध उसने पारस से दर्ज करवा दिया था। उसकी नाखुशी छिप नहीं रही थी वह मॉं के दिशा-निर्देशों को कोई अहिमियत को नहीं दे रही थी। उनके साथ वे हास्पिटल भी जाने को तैयार नहीं होती। हर चेक-अप के लिए पारस को ही साथ जाना पड़ता आफिस से छुट्टी लेकर।
बच्चे का जन्म हुआ। सीजेरियन केश था। हफ्ता-दस दिन अस्पताल में रहना पड़ा। काफी खर्चा आयाँ। कई तरह से उधार आदि का इन्तजाम करके भी पारस की जंजीर और घड़ी खर्चे की भेंट चढ़ गई थी। दोनों वस्तुयें ससुराल से मिली थीं। यह कारण काफी था उनके द्वन्द के लिएँ परन्तु नये शिशु की हुलस में और सास की उपस्थिति ने व्यतिकुम पैदा किया। सिर्फ़ अहसास ने आंखों कंे कोर गीले किये थें अब ये आंखें क्यों गीली हुयी थी? पारस की गर्दन और कलाई के सूनेपन की वजह से या अपने घर की दी हुई चीजों के इस तरह लुप्त होने की वजह, यह अनुमान लगाने में वह अपने आप को असमर्थ पा रहा थां।
शिशु के जन्म के भी तीन-चार माह हो चुके थे। माँ जा नहीं रही थी, न ही जाने की कोई मंशा दृष्टिगोचर हो रही थी। शिशु के आने के कारण जो नजदीकियाँ दोनों के बीच आनी चाहिये, वह नदारत थी। एकान्त का फिर अभाव हो गया था रात में शिशु की वजह से और दिन में माँ की वजह से। बबिता का धैर्य टूटता जा रहा थां वह व्यस्त तो हो गयी थी परन्तु खीज परेशानी और चिंता उस पर सर चढ़ कर बोल रही थी। उसने कई बार पारस से कहा। परन्तु वह माँ के सान्निध्य में अपने को तनावमुक्त महसूस कर रहा था। क्योंकि छुट-पुट बहसों के अलावा कोई बड़ा द्वन्द युद्व नहीं हो पा रहा था। वह सोचता था कि माँ की उपस्थिति उसे लड़ाई-झगड़े से महरूम किये है और शिशु का पालन दो माँ के सान्निध्य में अच्छे ढंग से भी हो पा रहा है। उधर बहिन घर को व्यवस्थित किये है, इधर माँ की वह सेवा भी कर पा रहा है। परन्तु उसका यह कयाश धरा का धरा रह गया, जब बबिता ने अपना रोष प्रगट करना चालू कर दिया कि शिशु की देखभाल उचित ढंग से उसकी माँ नहीं कर रही है। उसने कलेश करना चालू कर दिया और अक्सर माँ से वाक्य-युद्व में उलझ रही थी। रोज की खट-खट चालू हो गयी और माँ से लड़ते-लड़ते उसकी लड़ाई उससे स्थानान्तरित होते देर नहीं लगती थी, जिसका परिणाम् मल्ल युद्व में समाप्त होने लगा। शिशु किई छिट-पुट संघर्षो का मूक-गवाह बना और कई बार अपनी उपस्थिति अपने करूण रूदन से अभिव्यक्ति की। उसने सीधे-सीधे मॉं पर इल्जाम आयत कर दिया कि उन्हीं की वजह से उन दोनोे बीच लड़ाई होती है। वह लड़ाई करके उसे अपने बेटे से पिटवाती हैं।
उसे अनचाहे ही मॉं को बिदा करनाा पड़ा। पिता जी की ठीक से देखभाल नहीं हो पा रही है और विजय तथा संध्या सम्हाल नहीं पा रहे है। 'मॉं, यहॉं सब ठीक है, अब बबिता खुद सब सम्हाल लेगी।' आपकी देहली में ज़्यादा ज़रूरत है। ' परन्तु वह क्षोभ से भरा हुआ था। उसे उसके प्रति असंतुष्टता बढ़ती ही जा रही थी। वह लाईलाज बीमारी है, जिसे इसी रूप में स्वीकार करना पड़ेगा। उसने यथास्थिति स्वीकार कर ली थी।
पिता जी की काल आयी थी। उसकी बहिन की शादी तय हो गयी है और शादी के खर्चे के लिए यथेष्ट धन नहीं हैं। उसे बड़े भाई के रूप में अपनी जिम्मेदारी की तहत, सहयोग की याचना की गई थी। उसकी आर्थिक अवस्था ऐसी नहीं थी कि उसके पास कुछ जमा पूॅंजी शेष हो। एक तो शिशु के नामकरण संस्कार, में और उसकी पहली सालगिरह में खर्च के कारण वह पूरी तरह से खलास हो चुका थां। वह तो ये कोई कार्यक्रम करना ही नहीं चाहता था, परन्तु बबिता की जिद ने और न करने की स्थिति में उपजें बवडर के डर से मजबूरन करना पड़ा था। परन्तु माहौल कुछ समय के लिए खुसगवांर तो हो ही गया था, इसमें कोई संदेह नहीं था।
।अनेकोनेक उपायों पर विचार करते-करते उसकी नजर एक बिन्दु पर आकर अटक गयी। क्यों न बबिता के जेवरों की बलि इस यज्ञ में कर दी जाय। यह वह जेवर थे जो कभी मॉं के गहने थे आज वह बबिता के हो गये थे, उसकी शादी के कारण। इसमें कोई अनुचित नहीं है। बहन की शादी आवश्यक है। उसके गहने फिर बन सकते है। यद्यपि वह जानता था, इतना आसान नहीं है, यह प्रयत्न। उसे भारी विरोध-अवरोध का सामना करना पडेगा। परन्तु वह विवश था। कोई विकल्प नहीं था।
उसने बड़े प्रेम से अपनी इच्छा बतलाई और अपने दायित्व और उसके दायित्व का बोध करायाँ। परन्तु सब व्यर्थ रहा था। उसने स्पष्ट मना कर दिया। उसने कहा 'यह स्त्री धन है, आप इसे छू भी नहीं सकते।' उसका पौरूष जाग उठा था। उसने जबरदस्ती की, मार-पीट की और उसके बक्स का ताला तोड़कर गहनें हथियायें और अगले ही दिन देहली जाकर सौंप आया था।
लौटकर आया तो बबिता का पूरा परिवार और उनका कोई दबंग रिस्तेदार की आमद हो चुकी थी और फिर शुरू हो गया वाक्य युद्ध। एक-तरफ वह और दूसरी तरफ पूरा कुनबा। लानते-मलानते, बहस-मुहावसें, आरोप-प्रत्यारोप, धमकी चेतावनी का दौर पर दौर चलता रहा और पूरी रात काली से सफेद हो गई, परन्तु परिणाम शून्य रहा। उसने अपनी असमर्थता व्यक्त की और अपने कृत्य की आवश्यकता उचित ठहराने का भसकर प्रयत्न किया, परन्तु वे सब उसे ग़लत हर हाल में सिद्ध करते ही रहे। उन लोगों ने बबिता और विशु को थोड़े दिनों के लिए बनारस भेज देने का प्रस्ताव किया। विशु के जन्म के बाद नानी के घर विशु गया नहीं है और बबिता का भी मन बदल जायेगा, उसने न चाहते हुये कोई ऐतराज नहीं जताया। वह विशु के साथ अपने मायके चली गयी।
उसकी उम्मीद से परे था यह देखना कि वह संध्या की शादी में अपने घर वालों के सहित शामिल हुई थी। वह आशंकित था कुछ अघटित होने के लिए, परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। सबका व्यवहार उचित और सामान्य लग रहा था। कही कोई ऐसा आभाव नहीं हो रहा था कि कुछेक दिनों पूर्व पारस और बबिता में कुछ ऐसा घटित हुआ था जो अशोभनीय था। उनके सम्बन्धों के द्वन्द या विसंगतियाँ कुछ भी परिलक्षित नहीं हो रही थीं। उनके अभिशप्त पारिवारिक जीवन की त्रासदायक झांकी का कोई भी कोना दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। वह बड़ी तल्लीनता और तत्परता से विवाह के सभी कार्य घर की बड़ी बहू के रूप में निष्पादित कर रही थी।
उसे घोर आश्चर्य तब हुआ, जब बबिता नये गहने पहने उसके पास आयी और उसने अपना नेकलेश उससे बांधने का अनुरोध किया। उसने कोई प्रश्न नहीं किया, सिर्फ़ झेपां था यह कहते हुये कि 'लोग क्या कहेगें?' ...अपनी पत्नी की सहायता कर रहे हो, किसी गैर की नहीं? ' लोग क्यों कहेगें? और वह इतरा कर चल दी थी।
उसके घर वाले शादी के बाद चले गये थे, उसे वही देहली छोड़ कर, बिना किसी प्रत्याशा के. वह हतःप्रभ रह गया था। एक-दो दिन वैवाहिक कार्य की समाप्ति के बाद वह दोनों और विशु साथ वापस चंडीगढ़ आ गये थे। एकदम सामान्य सुखपूर्वक जीवन-यापन करने वाले दम्पति की तरह।
बबिता ने घर आकर देखा, सब कुछ अस्त-व्यस्त था। कमरे में बिखरे सामान को देखा ...सारी चीजें फैली पड़ी थी। वह उसे सहजने में लग गयी। बिस्तर को देखा सलवटें ही सलवटें थी, जैसे कोई सोया कम करवटें ज़्यादा बदली हैं। उसे विस्तर ज़्यादा दोषी नजर आ रहा था, अपने इस स्थिति के लिए. पारस ने विशु को बाहों में ले लिया था और उस पर प्यार बरसाने लगा था और उसके साथ खेलने लगा था। बच्चा तो पहले रोया-सकुचाया फिर घीरे-धीरे उससे हिल-मिल गया। वह अपने को भूलकर उसके साथ बच्चा बन गया। वह बच्चे के साथ मगन हो गया था।
धीरे-धीरे सुबह दोपहर की तरफ बढ़ने लगी थी। इससे उसके मन को बड़ा सहारा मिला। उसका आशंकित मन सहजता की ओर बढ़ रहा था। उसे लगा आज का दिन ठीक से गुजर जायेगा और ऐसा ही हुआ। रात भी सामान्य ढ़ग से गुजर गयी। उस रात वह निश्चिन्त होकर ठीक से सो पाया था।
लेकिन अव्यक्त और अनचाही संजीदगी पूरे घर को अपने गिरफ्त में लिए हुए थी। दोनों अतिरिक्त सावधानी बरत रहे थे कि कोई ऐसी घटना या वाक्या न निकल आये, जो आयायित शान्ति को निष्फल कर दें। उनके भीतर की जंग क्या सचमुच खत्म हो गई थी? जहॉं हर पल हर लमहा एक मुठभेड़ में तब्दील हो सकता था। भावनाओं और वास्तिकताओं से युद्ध तो निरन्तर जारी ही था।
सोंचने-सोचनें में दिन सप्ताह और महीने निकलते जा रहे थे। सब कुछ भुलाकर नये सिरे से ज़िन्दगी शुरू करना, आसान नहीं लग रहा था। फिर भी उनके भीतर सामंजस्य तो चल ही रहा था। बबिता के अन्दर शक का कीड़ा रेंग रहा था। ...अब की बार वह बुलाने नहीं आया। ...मांफी भी नहीं मांगनी पड़ी उसे। ...कोई खोज खबर नहीं ली। ...उसे अपने आप आना पड़ा। क्या कारण है? ...कोई टोका-टाकी नहीं । चीखना-चिल्लाना तो एकदम बंद। क्या हो गया है? ...शक ने अपना दायरा बढ़ाना शुरू कर दिया था...और उसका मन आफिस में जाकर अटक गया था। ...हो न हो...माजरा आफिस में कहीं हो? आफिस के आने-जाने के समय पर नजर रखी जाने लगी। उसके सजनें-सवरनें पर प्रश्नचिन्ह उठने लगे थे। उसकी घूमने फिरने की फरमाइशें नकारी जाने लगीं थी। अवकाश के दिनों में भी आउटिंग निरस्त की जाने लगीं थी। वह ज़्यादा समय विशु पर व्यतीत करता था और उसके प्रति उपेक्षा का भाव अपना रखा था। जैसे उसका अस्तित्व ही न हो? उनके अन्दर की हेकड़ी, तुच्छता, आदिम इच्छा और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति अभी तक मरी नहीं थी, वह अभी तक जिन्दा थी।
एक दिन बबिता उसके आफिस अचानक आ धमकी थी, बिना किसी प्रायांेजन के. वह उस समय मिस प्रीति के साथ कम्प्यूटर में उलझा हुआ था, किसी साइट को ढुंढने और उससे जानकारी निकाल कर भावी ग्राहकों का डाटा तैय्यार करना था। वह दोनों व्यस्त और करीब नजर आ रहे थे, यह सब उसे काफी नागवार गुजरा था। वह प्रीति से एक-दो बार पहले भी मिल चुकी थी। एक बार मार्केट में जब वह प्रेगनेंट थी। उसने उसे बधाई एवं शुभकामनायें अर्पित की थी और दूसरी बार विशु की बर्थडे पार्टी में, जिसे पारस ने अपने घर पर आयोजित की थी, उसमें उसने कुछ चुने-गिने लोगों को ही बुलाया था।
बबिता ने उसी समय उन दोनों को टोका, सभी आफिस कर्मी औचक रह गये थे। उसने जमकर अपशब्दों का प्रयोग किया था प्रीति एवं पारस के सम्बन्धों को लेकर। काफी गहमा-गहमी हो गई थी। बास ने उसे बुलाया और समझाया था और बिना किसी प्रयोजन के आफिस आने को मना किया था। वह झनकती हुई और रोष प्रगट करती हुई वापस घर आ गयी थी। आफिस में अप्रासंगिक, अत्याशित और विचित्र वातावरण का निर्माण हो गया था। वह मुॅंह छिपाता फिर रहा था, उसे सफाई देना भारी पड़ रहा था। उसके घर के माहौल का आवरण खुल गया था। उसका काम में मन स्थिर नहीं रह गया था और प्रीति तो रूआंसी होकर स्तब्ध थी।
उसने बास से परमीशन ली और घर जल्दी लौट आया। घर में ईर्ष्या की आग जल रही थी। उस पर पारस का गुस्सा उस अग्नि को तीव्र प्रज्जवलित करने के लिए यथेष्ट था।
'तुम मेरे आफिस क्या करने आयी थी। क्या ज़रूरत थी?'
'तुम्हारी बेवफाई परकिया प्रेम को बेनकाब करने।'
'ऐसी तुम्हीं होगी।' अपने जैसा समझा है क्या? वह विफरा था। 'अरे! तुमसे ज़्यादा तो समझदार गंवार, जाहिल होते हैं।'
दोनों ने गुस्से और क्रोध में ऐसे-ऐसे शब्दों वाक्यों का प्रयोग किया जो घृणित और अशोभनीय थे। वे एक दूसरे के प्रति चोट पहुॅंचाने वाले शब्दों का प्रयोग कर रहे थे जो मर्मांतक और छिलने वाले थे। व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों से हट कर अब घर-परिवार और खानदानों पर प्रहार किये जाने लगे थे। गुस्से, क्रोध, क्षोभ में विवेकहीनता की चरम परिणित हुयी और एक-दूसरे पर हाथ उठाने का सिलसिला चल निकला। रोना-गाना, चिल्ला-चौथ, चीख-पुकार और फिर इसके बीच बच्चे का अन्तहीन दारूण रूदन, जिसकी ओर किसी को ध्यान देने की ज़रूरत नहीं पड़ रही थी। दोनों अपनी लड़ाई की क्षुधा शान्त नहीं कर पा रहे थे उनकी लड़ाई को विराम तभी मिल पाया जब ऊपर से मकान मालिक सक्सेना अपनी पत्नी समेत आ धमके और दोनों को गुथम-गुत्था देख अलग किया। मकान मालिकिन ने विशु को अपने संरक्षण में लेकर उसे चुप करायाँ।
वह पुलिस में रिपोर्ट लिखाने को उद्घृत थी, घरेलू हिन्सा की रिपोर्ट। उसे सक्सेना जी ने पकड़ा और समझाया-बुझाया और ऐसा करने को स्पष्ट मना किया। उस दिन सक्सेना दम्पति काफी समय तक उनके बीच बैठे रहे बीच, बचाव करते रहे। वाह्यरूप से वास्तविक शान्ति रात के 12 बजे ही स्थापित हो पायी तभी वह लोग अपने पोर्शन में गये। बबिता की भूख-हड़ताल चल निकली और पारस का भी जबरदस्ती का अनशन। बेटे को ज़रूर दूध आदि मिल गया था मकान मालिकिन के सौजन्य से।
अगले दिन, उसके बाद के दिन भी आपसी लड़ाई की भेंट चढ़ गये थे। बबिता यह नौकरी छोड़ देने के लिए जोर दे रही थी और फिर वापिस दिल्ली चलने को कह रही थी। उसने बुरी तरह नकारा। यहॉं पर यह कम्पनी छोटी थी और वह काफी सीनियर हो गया था और सेलरी भी अच्छी थी। घर का खाना-खर्चा कैसे चलेगा? रोज-रोज नौकरी कोई छाड़ता है क्या? उसके शक के आधार पर नौकरी छोड़े? वह क्या बधुवा मजदूर है बबिता का? अजीब-अजीब जिद है उसकी।
वह उसे आफिस जाने नहीं दे रही थी। दरवाजा रोककर जबरदस्ती खड़ी, वहॉं से हटाया तो स्कूटर रोक कर खड़ी हो गयी। बाल-बिखरे हुये और उसी तरह बोलती-चिल्लाती हुयी। एकदम रौद्र रूप में। उसने उसका हाथ से मुॅंह बन्द करना चाहा, तो वह और जोर-जोर से चिल्लाने लगी, 'तुम मेरा मुॅंह बन्द करना चाहते हो?' मेरा गला घोटना चाहते हो? मुझे मारना चाहते हो? मुझे कुचलना चाहते हो? यह स्कूटर मेरे घर से तुम्हें मिला है। यह स्त्री धन है। मेरी अनुमति के बैगेर तुम इसे नहीं ले जा सकते। मैं घरेलू हिन्सा और दहेज हिन्सा के लिये तुम्हारी रपट थाने में करूॅंगी। तुम्हें जेल हो जायेगी। तब तो तुम्हारी नौकरी भी छूट जायेगी। वह किसी तरह उसे परे करके देर-सबेर आफिस रवाना हुआ।
अब की बार सक्सेना साहब ने उसके घर वालों को बुला लिया, क्योंकि यह जंग दो-तीन दिन घिसट गई थी। वह दम्पति द्वय थक गये थे। मध्यक्षता करते-करते और युद्ध रूकने का नाम नहीं ले रहा था।
बबिता के मम्मी-पापा और एक प्रभावशाली रिश्तेदार जो एडवोकेट भी था उसने भी पारस को कई तरह से धमकाया और चेतावनी दी। दहेज मॉंगने के अन्तगर्त मामला दायर करने की बात कही जिसमें जमानत भी नहीं होती। घरेलू हिन्सा का भी आरोप लगाने की धमकी दी। उसके पक्ष के सभी बबिता का फेवर कर रहे थे। उसकी बात कोई सुनने-समझने को तैयार नहीं था। उसने सक्सेना साहब को बुला लिया था। एक तटस्थ आदमी की जो घटना का निर्पेक्ष ढंग से वर्णन कर सके. परन्तु उनकी बात भी हल्के में ली गई थी। 'आप नहीं समझते है ये कितना जल्लाद है?' ये हरदम मेरी बेटी को परेशान करता है। 'अब की बार पारस कसम खाये बैठा था कि वह मॉंफी नहीं मॉगेगा। किस बात की मांफी? उसने कोई ग़लत नहीं किया है।'
चलो, बबिता तैयार हो जाओं अब यहॉं एक पल भी नहीं रूकना है। इस जल्लाद के पास नहीं रहना है। ' उसके पापा उठ खडे़ हुये यह कहते हुये।
'कैसे ले जा सकते है? मेरी मर्जी के बैगेर। बबिता मेरी पत्नी है।'
'मेरी बेटी है शादी किया है, कोई बेचा नहीं है। ं' तुम अत्याचार करोगे और मैं चुप बैठूॅंगा?
'मेरी पत्नी है, पहला हक मेरा है। अब तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है वकील ने हस्तपक्षेप किया।' अभी पुलिस को लेकर आता हॅू। देखता हॅू कैसे रोकते हो जाने से चार डन्डे पडे़गे तो पता चल चलेगा। जब हवालात की सैर करोगें। अपने और दूसरे के अधिकार अपने आप पता चल जायेगें? यह कह कर वह उठा और चल दिया। ...उसे सक्सेना साहब ने रोका और समझाया। उन्होनंे पारस को भी अलग ले जाकर समझाया और बबिता को चले जाने दिया।
वह मजबूरन अपना घर बिखरते देख रहा था। उसका बच्चा विशु भी बिछड़ रहा था। उसे अपने ऑंसुओं पर कन्ट्रोल नहीं रहा था, परन्तु वह निष्ठुर बनी रही थी। हांलाकि अब की बार वह बनारस जाने को अनिछुक-सी थी, क्योंकि वह सोचती थी पारस कहीं प्रीति का न हो जाये। परन्तु वह विवश थी वह मना नहीं कर पा रही थी अपना संकोच और कारण बता नहीं सकती थी।
स्टेशन से निकलते-निकलते सुबह के साढे नौ बज गये थे। दस-पन्द्रह मिनट में ससुराल पहुॅच जॉंऊगा। क्या होगा माहौल सब उस पर टूट पड़े तो? वह क्या बचाव करेगा? उसका साथ तो पुलिस भी नहीं देगी ...शायद यह नौबत नहीं आयेगी आखिर में वह उस घर का दामाद है ...उनकी भी इज्जत का सवाल है... ऐसा कुछ भी नहीं होगा जिसमें उनकी भी बदनामी हो...खैर-देखते है? इसी उधेड़बुन में था । एक विचार आया बाबा विश्वनाथ के दर्शन करके चला जाये, उनका आशीर्वाद ले लिया जाये तो वह सुरक्षित हो जायेगा और बाबा की कृपा हो गई तो शायद बबिता भी मान जाये वापस चंडीगढ़ चलने को। ...हे! भगवान वह और उसके घर वाले मान जाये...यह कहते हुये वह बुदबुदाया और मंदिर की ओर अग्रसर हो गया।
अकेला जीवन बड़ा दुखदायी चल रहा था हांलाकि शान्ति थी परन्तु मरघट की शान्ति। कई बार वह अपनी गलतियों का विश्लेशण कर चुका था कई तरीकों से, कई दृष्टिकोण से परन्तु उसे लगता था कि वह कहीं ग़लत नहीं है। खाली घर खाने को दौड़ता था। उसे अपने बच्चे विशु की याद अक्सर बैचेन करती थी...अब तो शायद दो साल से ज़्यादा का हो गया होगा। उसका जीवन पूरी तरह असंतुष्ट करने वाला था। एकाकीपन ने उदासी को अख्तियार कर लिया था। आफिस में वह बेचारा का टैग लगाये घूम रहा था वहॉं भी सबको पता चल गया था कि उसकी बीबी अपने घर चली गई है। उसका साथ देने वाला कोई नहीं था। ज्यादातर छुट्टियों वह घर देहली चला जाता था। मॉं उसका साथ बहू को कोसने में देती थी। छोटे भाई की नौकरी भी लग गई थी लोकल देहली में वहॉं सब ठीक था। उसका अपना घर ही ठीक नहीं था।
उसने कई बार कोशिश की कि बबिता से सम्पर्क हो जाये, परन्तु नहीं हो सका। ना काल रिसीव करना ना मैसेज का रिप्लाई देना। पत्र का जबाब देना तो दूर की कौड़ी थी, वह बेचैन हो गया था। उसे अकेले रहने की आदत नहीं थी। दिन तो पता नहीं परन्तु रात बड़ी त्रासदायक थी। उसने कई बार कोशिश की शराब और सिगरेट के जरिये अकेलापन और उदासी दूर की जाये परन्तु नाकामयाब रहा था। बल्कि इनके संगत से वे और बढ़ गई थीं। शबाब का इन्तजाम कैसे करते है लोग वह अनभिग्न था। किसके पूॅछे? कौन उसके साथ हमबिस्तर होना चाहेगा? उसकी आंखों में प्यास उतर आयी थी, जो उसकी आंखों में परिलक्षित होने लगी थी। बैचेन और प्यासी आंखें तलाशती रहती थी किसी को, मगर औरतें इतनी आसानी से कहॉं मिलती है? उसकी बेरस ज़िन्दगी में कभी बबिता प्यास बनकर नहीं उभरती थी, परन्तु कभी-कभार सेक्स की आपूर्ती तो हो ही जाती थी। परन्तु घर की बिगड़ती हालात के लिए वह जिम्मेदार तो थी ही। वह घर का काम बड़े सलीके एवं फूर्ती से निपटाती थी। उसमें कोई शिकायत नहीं थी।
उसने निर्णय किया था कि वह बनारस जायेगा और बबिता को मनाकर ले आयेगा। चाहे इसके लिए उसे कितना भी जलील क्यों न होना पड़े? उसने निश्चय किया कि वह हर आरोपित इल्जाम स्वीकार कर लेगा और बबिता और उसके परिवार से अंंितम मांफंी देने को कहेगा। भविष्य में वह जोरू का गुलाम बनकर रहेगा। वह उसका प्यार तो नहीं परन्तु ज़रूरत तो है। उसके साथ बेटा विशु भी तो मिलेगा-एक संतुष्टि का अहसास।
उसने ऐसी ही प्रार्थना बाबा विश्वनाथ से की। काफी रूपये का दान प्रभू की मूर्तियों एवं पंडों, पंडितों को भेंट में अर्पित कर दिये। उसे अपना मिलन अभियान सफल बनाना सुनिश्चित करना था। उसने ज्योतिषियों को अपना हाथ भी दिखाया और गृह-दशा निवारण के उपाय आदि करने की जिज्ञाशा प्रगट की।
वह दरवाजे पर लगी काल-बेल बजा रहा है। परन्तु कोई आहट नहीं आ रही है। परन्तु हैं सब लोग, यह निश्चित था। कोई-दस-पन्द्रह मिनट बाद पापा जी ने दरवाजा खोला और प्रश्नवाचक निगाहों से उसे घूरा, जैसे वह कोई अपरिचित हो और पॅूछ रहे हों, ' आप कौंन, कैसे? वह वैसे ही खड़ा रहा, नजरें झुकाये। थोड़ी देर बाद उन्होंने उसे भीतर दाखिल किया और ड्राइंग रूम में बैठने का ईशारा किया और वह उसे वहीं छोड़कर ऊपर चढ़ गये। वह वहीं एकान्तवासी बना बैठा रहा, जैसा कोई अपराधी अपनी सजा सुनने का इन्तजार कर रहा हो। उसे वातावरण बड़ा बोझिल और रहस्यमय नजर आ रहा था। वह अनुमान लगाने में असमर्थ था कि उसके साथ क्या सलूक किया जायेगा या क्या कुछ आगे घटित होने वाला है।
थोड़ी देर बाद धड़-ध़ड़ की आवाजें जीने से उतरने की आने लगीं। जैसे लोग बड़ी जल्दी में कहीं जा रहे हों और पूरा परिवार ने आकर उसे घेर लिया था। सिर्फ़ बबिता एवं विशु अनुपस्थिति था।
' क्या करने आये हो? ...तुम्हारी हिम्मत कैसी हुई आने की...तुम अपने आप को समझते क्या हो? इसका ढीढपना तो देखो? ...गुॅडा-गर्दी करना है क्या? ...जितने मॅुह उतनी आवाजें। सारी आवाजें गुस्से और क्रोध से भरी...एक साथ चौतरफा हमला था। जैसे किसी जंगली जानवर को मारने के लिये एक जुट आये हों कि आज बचना नहीं चाहिये। परन्तु वह शान्त रहा। वह हर ऐसी स्थिति के लिये अपने आप को तैयार करके आया था।
'अपने बीबी और बच्चे को लेने आया हॅू।' उसने बिना किसी उत्तेजना के जवाब दिया।
'कोई नहीं जायेगा, जल्लाद के पास।'
'आदमी है कि कसाई है?' ...
'अपनी बीबी बच्चों से गंुडा गर्दी करता है।' कौंन किस कोने से बोल रहा था, पता नहीं? परन्तु उसने सोच रखा था कि उसे उत्तेजित नहीं होना है। परन्तु फिर भी जवान फिसल गयी।
' बबिता, भी तो कम नहीं, उसने क्या कम किया है? बेमतलब लड़ती है। ...उसके स्वर में तल्खी आ गई थी।
'देंखो, घृष्टता! हमारे घर आकर हमारी ही बच्ची पर अनर्गल आरोप लगा रहा है।'
' अरे! पुलिस बुला लो। एक और चिल्लायाँ।
'सारी! गलती मेरी है, मुझे माफ कर दीजिये और मेरी बीबी बच्चे को लौटा दीजिये।' उसने मामले को टालने की गरज से कहा।
' तुम कई माफी मांग चुके हों और फिर वहीं जालिमंाना हरकतें करने लगते हो। माफी मांगना तुम्हारे लिए शगल है। अब हम लोग तुम्हारे झांसे में नहीं आने वाले।
'मैं बीबी बच्चे के बगैर नहीं रह सकता। उन्हें मेरे साथ भेज दीजियेगा। अब कोई शिकायत नहीं मिलेगी।'
'नहीं अब ये सम्भव नहीं है। जब तुम दोनों की आपस में पटती नहीं है, तो अलग-अलग रहो। यही अच्छा रहेगा।'
'तो क्या तलाक देगी बबिता?'
'अभी तो नहीं, परन्तु तुम मजबूर करोगे तो ये भी हो सकता है।'
'मैं बबिता से मिलना चाहता हॅू और उसकी इच्छा जानना चाहता हॅू।'
'वह नहीं जायेगी। उसकी भी यही इच्छा है। उसे मरना नहीं है।' मम्मी ने कठोरता से दोहराया।
'फिर भी, मैं उसके मुॅह से सुनना चाहता हॅू। प्लीज मेंरी बीबी और बच्चे से मिलवा दीजिये। मैं उनके मॅुह से इन्कार सुनकर वापस चला जाउगा।' वह गिड़गिड़ाया था। ...एक सन्नाटा खिंचा...और टूटा...ठीक है-यह ही सही...ऐसी ही होगा। ...चलो, बबिता को भेजते हैं और फिर सब एक-एक करके ऊॅपर चढ़ गये। वह रह गया था अकेला, निरूपाय। फिर भी उसकी आस पूरी तरह टूटी नहीं थी। उसको विश्वास था कि बबिता चाहे जितना लड़-झगड़, मार-पीट करले वह हमेशा के लिये उससे अलग नहीं रह सकती। वह यह भी जानता था कि उसका ससुराल पक्ष इतना सम्पन्न नहीं है कि सदैव के लिए उसकी बीबी बच्चे का खर्चा बर्दास्त कर सके तथा वह लोग लोकाचार, समाज भीरू हैं। लड़की घर बैठी है यह हरदम छुपाते रहते हैं।
थोड़ी दे बाद। उसकी साली उसके लिए नाश्ता-पानी रख कर उड़न छू हो गयी। उसने उसे छुआ तक नहीं। वह इन्तजार कर रहा था बबिता का और सबसे ज़्यादा विशु को देखने के लिए, उससे मिलने के लिए.
काफी देर हो गयी थी। उन दोनांे के आहट नहीं आ रही थी आने की। वह अधीर हो रहा था। शायद बबिता को पट्टी पढ़ाई जा रही होगी। ... क्या कहना है? ... कैसे कहना है? ... पिघलना नहीं है। ... उसकी मांफी पर ध्यान नहीं देना है। ... उसकी गिड़गिड़ाहट का शिकार नहीं होना है। ...आदि-आदि...ं।
वह आयी साथ में विशु भी था। उसके चेहरे से बेगानापन झलक रहा था। उसमें हुलस का नितान्त अभाव था, जो महीनों बाद किसी से मिलने का होता है। वह उसके चेहरे को पढ़कर निराश हुआ।
'विशु!' इससे पहले उन दोंनों में से कोई कुछ कहता। उसके मॅुह से अनायास निकला। बच्चे ने उसकी तरफ देखा और अपनी मम्मी के साथ सट गया।
'विशु इधर आ, मेरे पास।' उसने चुटकी बजाते हुए कहा, जैसे कि यह हर रोज की घटना हो। परन्तु बच्चा अब और उससे सट गया था, या यूं कहें वह अपनी मम्मी के पीछे छुप-सा गया था और पीछे से झांकने लगा था।
उसने बबिता पर ध्यान केन्द्रित किया और साथ चंडीगढ़ चलने का अनुरोध किया। जिसे उसने बड़ी बेदर्दी से ठुकरा दिया। अब, यहाँ से कहीं भी तुम्हारे साथ जाना असम्भव है। चंडीगढ़ तो बहुत दूर की बात है। '
'क्यों, मेरे साथ नहीं रहना है।'
'अब तुम्हारे साथ जीवन नहीं बिताना है।' उसके वाक्यों में दर्द झलक रहा था। '
'एक मौंका और दो। मुझे माफ कर दो। अब ऐसा फिर नहीं होगा।'
'ये, तुम्हारा अक्सर का प्रलाप है। रोज गलती करना और गलती क्या बहशियाना हरकत करना और फिर माफी मांग लेना। फिर ये क्रम चलता ही रहता है। मैं थक चुकी हॅू इस तरह के प्रकरण को दोहराते-दोहराते।'
'आखिरी बार मॉफ कर दो। मैं तुम्हारे और विशु के वगैर रह नहीं सकता।' वह विनती के स्तर पर उतर आया था।
'क्यों, वह प्रीति कहॉ, मर गई? तुम्हारी सगी।' उसने व्यंग्यात्मक उपहास किया।
'तुम बात का पतंगड़ बनाने में माहिर हो। ऐसी कुछ था नहीं और तुमने हवा में गांठें बांध दी। इतना बड़ा बखेड़ा खड़ा कर दिया।' उसकी आवाज में तल्खी और विद्रुपता उतर आयी थीं।
' अच्छा, मैं ग़लत थी ग़लत हूॅ और ग़लत ही रहॅूगी, तो क्योें मरे जा रहे हो, मेरे साथ रहने के लिए, एक ग़लत व्यक्ति के साथ बसर करने को। मैं किसी भी हालत में नहीं जाउॅगी।
' तुम और विशु पापा पर बोझ बनेंगे और बाद में अपने भाई पर। परजीवी बनकर रहना अच्छा लगता है।
'बोझ क्यों रहेंगे?' मेरी सरकारी स्कूल में टीचर की नौंकरी लग गई है। हमारा खर्चा आसानी से चल जायेगा। ' वह फटी-फटी आंखों से उसकी तरफ देखता रहा।
'मैं, दरअसल समझ नहीं पा रहा हॅू कि तुम चाहती क्या हो?'
'मैं कुछ भी नहीं चाहती। मैं आपसे क्या चाहूॅगी।'
'तुमने सोचा है, तुम्हारे इस व्यवहार से बेटे पर क्या असर पड़ेगा?'
'जब हम अपने बारे में कुछ नहीं सोच सके तो बच्चे के बारे में क्या सोचेंगे।'
' बबिता, मैं विशु का पिता हूॅ। क्या तुम उसे पिता के प्यार से महरूम रखोगी।
'तुम्हारे पास न पति का दिल है और न ही पिता का दिल।'
उस दिन दोपहर से शुरू हुई बातचीत आधीरात तक चलती रही। पारस बार-बार अपने पिता होने की दुहाई देता रहा। अपना अधिकार जताता रहा, परन्तु वह उसे नकारती रही और किसी भी हाल में वापस चंड़ीगढ़ जाने को तैयार नहीं हुई. हाँ, इतनी सुविधा देने को तैयार हो गयी कि वह जब चाहे तो आ सकता है और विशु से मिल सकता है और विशु के लिए कुछ करना चाहे तो कर सकता है। जब उसने कहा कि यदि वह खुद यहॉ आकर रहे तो क्या हम तीनों साथ रह सकते हैं? तो उसने कहा, हॉ' ! परन्तु वह कैसे रह सकता था, बनारस में कोई उसके टेªड की नौंकरी नहीं थी, ना कोई नयी नौंकरी करने की उसकी सामर्थ थी। तो क्या हरदम उसे अपने बीबी बच्चों से अलग रहना पडे़गा? यह अनुन्तरित था। उस रात भी उसे बबिता के घर अकेले ही गुजारनी पड़ी।
अगले दिन भारी मन से उसे विदा होना पड़ा। चलते समय वह दरवाजे पर काफी देर खड़ा रहा, वह सोचता था कि बिदा करने बबिता और विशु आयेंगे, परन्तु ये नहीं हुआ। वह जड़ता का अनुभव कर रहा था और उसे अपने भीतर बादलों की तरह कुछ उमड़ने लगा था। उसे लगा कही वह विस्वल होकर फट न पड़े। परन्तु कोई नहीं था, उसको महसूसने वाला।