उलझनें / हेमन्त जोशी
उस सुबह जब पुष्पेंद्र जागा तो उसे लगा कि उसके बदन पर मकडी के जाले के लिजलिजाने वाले धागे चिपक गए हैं। जैसे ही हाथ ऊपर उठाए तो वही अहसास और अधिक बढ गया। इस बात को कई साल हो गए थे और पुष्पेंद्र इसे लगभग भूल चुका था।
कॉलेज के दिनों में पुष्पेंद्र जब एक दिन फलसफे का सालाना इम्तिहान दे रहा था तब उसका एक दोस्त उसके पास आया और उससे पूछा कि क्या कोई कमलेंद्र उसका भाई है। पुष्पेंद्र को लगा था कि शायद उसका भाई इलाहाबाद से उससे मिलने आया है। पर उसके दोस्त ने उसे बताया कि उसकी मौत हो गई है।
जब तक वह इलाहाबाद पहुँचा तब तक उसके भाई का अंतिम संस्कार हो चुका था और वह अपने भाई को मरा हुआ देख नहीं पाया। उस दिन के बाद से सोते-जागते वह जाने-अनजाने लोगों में अपने भाई की छवि देखने लगता था और जाने क्या-क्या सोचने लगता पर लोगों को कभी पता भी नहीं चल पाया कि उसके मन में क्या चल रहा है।
उसे याद है आज से कोई दस साल पहले उसकी एक दादी बुआ भी अक्सर कहती रहती थीं कि उनके गले में कुछ रेंगता है। कभी-कभी तो उन्हें लगता था कि कुछ है जो उनके गालों के पास से बहते हुए गर्दन की ओर जाता है। यह आप का वहम नहीं है क्या, दादी बुआ ? उसने कहा था। अरे जाओ, तुम क्या जानो कितनी तकलीफ़ होती है। रात-रात नींद नहीं आती कभी-कभी तो.... घर के सभी लोग उनकी इस बीमारी से खासे परेशान थे। सबसे पहले तो उन्हें त्वचा रोगों के डॉक्टर को दिखाया। उसने कहा सब कुछ सामान्य है। हकीम को दिखाया, वैद्यजी को दिखाया सभी ने कुछ न कुछ दवाएँ दी इस आश्वासन के साथ कि कुछ दिनों में ठीक हो जाएगा। पर यकीन मानिए साहब कि मर्ज था की ठीक होने का नाम ही नहीं लेता था। दादी बुआ के बच्चे उन दिनों आस्ट्रेलिया में रहते थे। जब भी उनसे परिवार का कोई सदस्य कहता कि देखो उन्हें कुछ नहीं है केवल वहम है उनका तो उनके बच्चों को लगता की उनकी माँ के साथ परिवार वाले ठीक व्यवहार नहीं कर रहे। इसीलिए एक बार वह केवल अपनी माँ का इलाज कराने के लिए ही घर आए। तमाम मेडिकल टेस्ट कराये, अनेक डाक्टरों को दिखाया लेकिन कोई बात नहीं बनी। बच्चों ने यह भी कहा अपनी माँ से कि भगवान का ध्यान किया करो, भूलने की कोशिश करो इसको, तो शायद कुछ लाभ हो। एक दिन पुष्पेंद्र ने देखा की दादी बुआ की ऑंखें बंद हैं और वह कुछ बुदबुदा रही है, लेकिन उनका हाथ ठोड़ी पर लगातार गाल को खुजला रहा है। उसने न चाहते हुए भी दादी-बुआ को टोका। दादी ऑंखें बंद कर क्या बुदबुदा रही हैं आप ? उन्होंने धीरे से ऑंखें खोली और कहा बेटा हरि स्मरण कर रही हूँ पर यह गाल से कुछ बहना मुआ रुकता ही नहीं। उस दिन उसे दो बाते समझ में आई कि एक तो भगवान होता ही नहीं क्योंकि होता तो इतना कष्ट पा रही इस बुजुर्ग महिला के कष्ट जरूर हरता और दूसरी बात यह कि दादी-बुआ ठीक ही कहती हैं कि उन्हें तकलीफ़ है वरना अपने बच्चों के कहने पर हरि भजन में मन लगाने के बाद तो वह अपनी इस तकलीफ को भूल ही गई होतीं।
उसकी एक जानकार महिला मित्र ने भी एक बार उसे बताया था कि सोते-सोते उसे ऐसा लगा था कि कोई उसकी पीठ पर हाथफेर रहा था। चौंक कर जब उसने पलट कर देखा तो पीछे कोई नहीं था। नंदिनी ने यह बात भूतों के अस्तित्व के प्रमाण के तौर पर कही थी। फ़िजूल की बातें क्यों करती हो ? अच्छा तब क्या है वह? बताओ न मुझे। अरे कई बार दिमाग के भीतर कुछ रसायनिक प्रयिाएँ होती होंगी और उसी की वजह से लगता होगा तुम्हें की पीठ पर कोई हाथ फेर रहा है। फिर मजाक करते हुए पुष्पेंद्र नंदिनी से यह भी कहता था - देखो नंदिनी यह तुम्हारी विशफुल थिंकिंग है। क्या मतलब ? वह पूछती। वह कहता तुम चाहती हो कि तुम्हें कोई सहलाए, पीठ पर हाथ फेरे, मगर जब कोई ऐसा करता नहीं तो तुम्हें ऐसा लगने लगता है। धत् बदतमीज़। चलो इसे छोड़ो तुम्हें पता है कई बार मैंने अपने घर की रसोई में रात के अंधेरे में किसी सफेद रंग की आकृति को देखा है ? इसे क्या कहोगे तुम ? कैसे समझाओगे कि वह क्या है ? फिर उसने जोर देकर कहा था जो होता है और जिसके साथ होता है वही जानता है।
पुष्पेंद्र को अच्छी तरह याद है कि कालेज के दिनों में उसका एक दोस्त था भालेंदर सिंह जो पूरे कालेज में हंसी-मजाक का सबसे बडा और आसान साधन बन गया था। वजह यह थी कि उसका एक हाथ हमेशा उसकी नाक पर रहता था। कुछ भी खाता था तो दूसरे हाथ से और पहला हाथ होता था नाक पर। सोने पे सुहाना यह कि सिगरेट पीने का भी उसे शौक था। सिगरेट पीते समय भी हाथ को विश्राम नहीं मिलता था। धुऑं मुँह से निकलता था और बायाँ हाथ वहीं नाक पर रहता था विराजमान। पुष्पेंद्र अपने को बहुत तार्किक मानता था और उसने सभी तरह से भालेंदर को समझाने की चेष्टा भी की थी, लेकिन सब व्यर्थ गया और अब तो पुष्पेंद्र भी यह मान चुका था की भालेंदर तो कुत्ते की पूँछ टेड़ी वाली कहावत को पूरी तरह चरितार्थ करके ही दम लेगा।
कई साल पहले जो पुष्पेंद्र को हुआ था वह जैसे एक अप्रिय घटना थी उसके लिए। जीवन की आपाधापी में वह उस घटना को भूल भी चुका था। लेकिन इधर कुछ दिनों से उसे लगातार सोते-उठते, चलते-फिरते यही अनुभव होने लगा था कि वायु में हर तरफ मकडी के जाले हैं और रह-रह कर उसके लेसदार, चिकने और अदृश्य धागे उसके बदन में यहाँ-वहाँ चिपक जाते हैं। वह लोगों की निगाहों से बचते हुए उन धागों को अपने बदन से अलग करने के प्रयास भी करता था। खुद दस तरह के फितूरों से दूर रहने वाला, भूत-प्रेत तो क्या ईश्वर को भी नहीं मानने वाला और हर बात के पीछे तर्क ढूँढने वाला पुष्पेंद्र परेशान था कि उसे क्या हो रहा है ? कौन सी बीमारी ने उसे आ घेरा है ? उसका आश्चर्य तो तब और अधिक बढ गया जब उसने अपनी सी हरकतें करते हुए कुछ और लोगों को भी देखा। उसे पहली बार लगा कि यह कुछ ऐसी बात है जिसकी तहकिकात वह कर सकता है। एक दिन बहुत संभल कर उसने ऐसे आदमी को टोका जो अपने बदन से कुछ छुड़ाने की कोशिश कर रहा था। गौर करने लायक है कि वह आदमी भी यह काम सबकी नजरों से बचकर करने की कोशिश कर रहा था और उसकी कोशिश सफल भी थी। वह तो पुष्पेंद्र ने उसे देख कर पहचान लिया क्योंकि यह तो खुद उसका रोग था। पुष्पेंद्र धीरे से उसके पास गया और फुसफुसा कर बोला - क्या मकडी का जाला चिपक गया है ? उस आदमी ने पुष्पेंद्र को बेहद आश्चर्य से देखा और कहा - आपको कैसे मालूम ? पुष्पेंद्र ने कहा - अभी कुछ देर पहले मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था। उसने पूछा इसका कोई इलाज है? पुष्पेंद्र ने कहा अभी तक तो नही था पर आपसे बात करने के बाद लगता है कुछ दिनों में इसका इलाज मिल ही जाएगा। इन दिनों उसे लगने लगा है कि वह जानता है कि यह क्या है? यह कोई रोग नहीं है, पर वह अभी ठीक-ठीक कह नहीं सकता।
कई दिनों तक पुष्पेंद्र लगातार इस अहसास के बारे में सोचता रहा। उसे लगा कि ऐसे अनेक अहसास हो सकते हैं जो लोगों को। हर व्यक्ति के अहसास के अपने कारण होंगे, हर व्यक्ति के अहसास के पीछे वह बातें होंगी जिनसे उसे उलझन होती हो। हो सकता है कि जब तनाव में हों लोग तो उनके शरीर में वायु और रक्तनुमा जल के अनुपात में विकार आए और फिर यही वायु शरीर के विभिन्न हिस्सों में जाकर अजीबोग़रीब अहसास कराती हो। हो सकता है लेकिन यह जाले ? उसे याद हो आया कि उसका दोस्त भालेंदर कई दिनों गायब रहने के बाद एक दिन सुंदर सी लडकी के साथ जब कालेज आया तो लोग उसे पहचान ही नहीं पाए। हँस भी नहीं पाए क्योंकि उसकी नाक को उसके हाथ से मुक्ति मिल गई थी या यूँ कहिए कि एक हाथ वाले भालेंद्र को अब एक हाथ और मिल गया था। पुष्पेंद्र ने उससे बहुत पूछा था कि उसने क्या इलाज कराया, डाक्टरों ने उसकी बीमारी का क्या नाम बताया? लेकिन भालेंदर था कि बताता ही नहीं था और न उसकी गर्ल फ्रेंड ही कुछ बताती। ऐसे ही एक दिन सोचते-सोचते पुष्पेंद्र को याद आई उसकी दोस्त नंदिनी। कई दिनों के बाद जब सरोजिनी नगर में एक दिन उसकी मुलाकात नंदिनी से हुई थी तो उसके साथ उसका पति और एक बच्ची थी। धीरे से पुष्पेंद्र ने चुटकी लेते हुए जब उससे पूछा कि क्या अब भी कोई सहलाने आता है तुम्हें? वह शर्मा गई थी। तब पुष्पेंद्र ने पूछा कि और वह आकृति क्या अब भी दिखाई देती है तुम्हें? इस पर कुछ नहीं बोली। स्वाभाविक ही था जीवन इतने आगे निकल चुका है अब पुराने दिनों के वहमों के लिए समय कहाँ होगा नंदिनी के पास। लेकिन कुछ नए वहम तो हो सकते हैं ? इधर कुछ दिनों से पुष्पेंद्र ने लगातार टीवी चैनल देख रहा था। इन्हीं दिनों उसका यह अहसास उसे कुछ बढा हुआ भी लगने लगा था। सुबह से लेकर शाम तक टीवी पर न जाने क्या-क्या आता रहता है ? कौन है आरुषि का हत्यारा ? क्या सुदर्शन ही है अपने पिता का कातिल ? सोना है तो जागते रहो...और जागना है तो सोते रहो....कौन थे वह जो ख़िडकी से झांक रहे थे...किस ग्रह से आए थे? क्या डाक्टर तलवार हैं कातिल ? आसमान पर बनी आकृति किसकी है ? क्या संदेश देना चाहते हैं साई बाबा ? ...कहीं हत्या कृष्णा ने तो नहीं की ? शस्स शस्स कौन है वहाँ? कोई डायन तो नहीं...धरती पर छा जाएगा अंधेरा...प्रलय में अब देर नहीं...ख़त्म होने वाली है दुनिया....सुबह से शाम तक लगातार धारावाहिक तौर पर नहीं बल्कि धाराप्रवाह उलझनों का मकड़जाल। अचानक पुष्पेंद्र को लगा कि हो न हो यही वह जाले हैं जो उसके ही नहीं अनेक लोगों के बदन पर चिपकते जा रहे हैं। घर पर हों, सडक पर हों, दफ्तर में हो, दुकान पर हों लोगों को सुबह से शाम तक टीवी पर आ रही बकवास के अलावा कुछ और जैसे रह ही नहीं गया है आपसे में बाँटने को।
अब आप सोच रहे हैं कि न जाने कहाँ कहाँ कि बेसिर-पैर की बातों में उलझा दिया है मैने आपको। पर यकीन मानिए कि पुष्पेंद्र हो, मैं हूँ या आप हों। हम सब लोग ऐसी मिट्टी के बने हैं जिसे किसी बाहरी शक्ति की जरूरत नहीं है बनने-बिग़डने के लिए। यह ऐसी मिट्टी है जो अपने आप बहती है और अपने आप ही कठोर और ज़ड भी हो जाती है। जहाँ ज़ड हो गई है वहाँ कोई अहसास नहीं, वेदना नहीं, टीस नहीं और जहाँ बह रही है, गल रही है वहाँ भरपूर गुँजाइश है तर्क की, कुतर्क की, संवेदना की, खुशी की और दर्द की। लेकिन इसी मिट्टी से बनी दुनिया में जब चारों और से सवाल उठने लगें, भयंकर सवाल, तंग करने वाले, शोषित करने वाले, दमन करने वाले सवाल .... तो इसी मिट्टी से पनपने लगती हैं उलझनें और उलझनें ...