उलझन / एक्वेरियम / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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तुम मुझे हमेशा सुलझी हुई समझते हो, जबकि मैं तो हमेशा तुम में उलझी रही। बहुत पास होने पर जैसे तस्वीर ठीक से नहीं देखी जाती। तुमने भी मुझे बहुत पास होने पर ठीक से देखा नहीं उस दिन। मैं कह-कह कर थक गयी। तुम बिन कहे ही थक चुके थे। अब तुमसे कुछ सुनना भी नहीं मुझे। हर बात का एक नियत समय होता है। बिन मौसम तो कोयल भी नहीं सुहाती।

तुमने जो बातें होंठों के कोने में छिपाई हैं उन्हें, अब तुम ही संभालो।

क्या कहा तुमने? "मेरा तुम पर यूं इस तरह आश्रित हो जाना तुम्हें समझ नहीं आता।"

सुनो...जिसे तुम मेरा आश्रित होना कहते नहीं थकते। दरअसल वह आश्रित होना नहीं है। मुझे तुम्हारा आश्रय कभी भी नहीं चाहिए था। मैं किसी घने वृक्ष पर लिपटने वाली लता भी नहीं थी। जो आश्रय पाकर फलती-फूलती है और वृक्ष की वजह से ही जीवित रहती है। तुम महसूस ही नहीं कर पाए हमारे रिश्ते को। तुम जब-जब नदी किनारे सारंगी बजाते थे न, मैं चुपके से वहीं पास में आकर बैठ जाती थी। उस समय तुम मुझे नहीं देख रहे होते थे। तुम कुछ देर बाद उठ कर चले जाते थे लेकिन मैं घंटों वहीं रुक कर सोचती थी आखिर इस बेजान सारंगी में इतने दर्द कोई कैसे भर सकता है। तुम खुद पर मुग्ध हुए जाते थे और मैं तुम पर...जब तुम नदी में कंकड़ फेंक रहे होते थे, तब मैंने कई बार चुपके से तुम्हारी सारंगी को उठाकर हिलाकर उलट-पुलट करके देखा था कि कहाँ छिपे हैं दर्द के सुर और प्रेम की वह पुकार जो राह भुला देती है। खींच लाती है तुम तक, लेकिन मुझे उस बेजान सारंगी में कुछ नजर नहीं आता था। ऐसा ही अनोखा रिश्ता था हमारा। जैसे कोई सफेद बादल हरे पहाड़ को छूकर गुजरे, जैसे कोई हवा चन्दन के पेड़ों से सटकर बहे। मैं ऐसे ही तुम में से होकर गुजरना चाहती हूँ बस गुजर के जाने कहाँ चली जाना चाहती हूँ। जैसे दिल के भीतर धड़कनें छिपी होती हैं। जैसे होठों के कोनों पर दुआ, जैसे हाथों के स्पर्शों में शिफा तुम समझ रहे हो न? मैं क्या कहना चाहती हूँ। मेरी उलझन ये है कि मुझे कभी समझ नहीं आया मेरा यूं तुम तक आना और तुम्हारा यूं मुझसे बेखबर हो जाना। लेकिन बस मैं इतना जानती हूँ मुझे तुम्हारे पास बैठना, तुम्हें सुनना अच्छा लगता है। मैं तुम्हारे बाहर नहीं भीतर बहना चाहती हूँ जैसे उस घने बरगद में हरापन बहता है और इस सारंगी में सुर...मैं यहीं रहना चाहती हूँ तुम्हारे पास...सुन रहे हो न?