उलटे सीधे दांव लगाए, हंस हंस फेंका पांसा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :07 फरवरी 2017
दक्षिण भारतीय सिनेमा के महान फिल्मकार एलवी प्रसाद ने 'विजय' नामक एक फिल्म बनाई, जिसकी असफलता पर उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था। उन्हें लगा कि दर्शक फिल्म को समझ नहीं पाए तो उन्होंने उसी कथा को थोड़े से फेरबदल से फिल्म बनाई 'जय विजय' जो और अधिक असफल रही। उन्होंने समझ लिया कि वह अवधारणा दोषपूर्ण थी, इसीलिए दर्शक ने उसे दूसरी बार भी अस्वीकार किया। राज कपूर की सबसे महत्वकांक्षी फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के भाग दो की घोषणा हो चुकी थी और ख्वाजा अहमद अब्बास तथा वीपी साठे ने पटकथा भी लिख दी थी तथा शर्मिला टैगोर और राखी को लिए जाने पर विचार भी हो रहा था परंतु 'मेरा नाम जोकर' की असफलता के बाद अपनी अवधारणा के सही होने की जिद राज कपूर ने नहीं की। समझदार और व्यावहारिक लोग अपनी अवधारणा के गलत साबित होने के बाद इस जिद पर नहीं डटे रहते कि वे इसे सफल सिद्ध करके रहेंगे। वर्तमान सरकार इन फिल्मकारों की तरह नहीं है। उनके नोट-बदलने की नीति असफल रही और देश के आर्थिक विकास की धारा अवरुद्ध हो गई परंतु अपने व्यापक और महंगे प्रचार-तंत्र द्वारा वे इसे सफल सिद्ध करने पर अड़े हुए हैं। फिल्मकार सबक ले लेते हैं, क्योंकि उन्हें भारी आर्थिक नुकसान झेलना पड़ता है परंतु शासक वर्ग का अपना कुछ नहीं जाता। देश की संपदा नष्ट होती है। अत: 'माल-ए-मुफ्त दिल-ए-बेरहम' के रास्ते पर वे चलते हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे शादी की दावत में मेहमान अपनी प्लेट में जितना खा सकता है, उससे कहीं अधिक व्यंजन परोस लेता है और फिर उसे कूड़ादान में फेंक देता है। यही कूड़ादान अगले दिन मोहल्ले के कूड़ादान पर फेंक दिया जाता है। उस कूड़ादान से कौअों को भगाकर भूखे भिखमंगे वह भोजन खाते हैं। देश के अवाम को भी इन भूखे भिखमंगों की तरह समझा जा रहा है। काले रंग के कौए तो भाग जाते हैं परंतु सफेदपोश लुटेरे तो अवाम को लूटते ही जा रहे हैं। यह खेल सदियों से खेला जा रहा है अौर बेआवाज अवाम लुटने का अभ्यस्त हो चुका है। हुक्मरान उस शहजादी की तरह व्यवहार करते हैं, जिससे पूछा जाता है कि कबूतर कैसे उड़ गया तो वह दूसरा कबूतर उड़ाकर बला की मासूमियत से कहती है, 'जी ऐसे उड़ गया।' हमारे हुक्मरान भी बला की मासूमियत से अवाम की अाकांक्षों के कबूतर ऐसे ही उड़ाते जा रहे हैं।
कबूतर उड़ाना और अपने प्रतिद्वंद्वी के कबूतर को पराजित का खेल सामंतवादी है। गुरुदत्त 'साहब, बीबी और गुलाम' में भी दीवालिया होते हुए सामंतवादी महंगी कबूतरबाजी करते हुए प्रस्तुत हुए हैं। कबूतरबाजी में सामंतवादी के चाटुकार चमचे भी जोर-शोर से आवाजें लगाते हैं। आज हमारा अवाम भी वैसा ही व्यवहार कर रहा है। सामंतवाद भारतीय समाज का वह स्थायी है, जो अंतरे बदलने के बाद भी गीत के मुखड़े की तरह दोहराया जाता है।
आज के 'टाइम्स' में सलमान अनीस सोज का लेख प्रकाशित हुआ है, जो विश्व बैंक में अधिकारी रह चुके हैं। उनका कथन है कि टेलीविजन पर किसी धारावाहिक के पहले पांच उबाऊ एपीसोड देखने के बाद भी हम इस आशा में पूरा धारावाहिक देख लेते हैं कि यह कभी तो मजेदार होगा। ठीक इसी तरह अवाम वर्तमान सरकार के उबाऊ एपीसोड्स देखते ही चले जा रही हैं और हुक्मरान इस मुगालते में खुश हैं कि उनकी अदाकारी फूहड़ हास्य सीरियल में सराही जा रही है। कपिल शर्मा का तमाशा महिलाओं के अपमान पर आधारित है परंतु महिला दर्शक वर्ग उसमें आनंद ले रहा है। हमारे अवाम के लिए सरकार और कपिल शर्मा के तमाशे में कोई अंतर नहीं है।
सरकार और सीरियल की लोकप्रियता रेटिंग भ्रामक हैं। रेटिंग देने वाली संस्था ने बमुश्किल सौ टेलीविजन सेट्स में लोकप्रियता सूचक उपकरण लगाए हैं और इसी भ्रामक आकलन के आधार पर रेटिंग दी जा रही है, जिसे विज्ञापन जगत मान्यता देता है और फूहड़ता अनवरत जारी है। गुरुदत्त की 'कागज के फूल' में कैफी आजमी का गीत है, 'वक्त है मेहरबां,आरजू है जवां, फिक्र कल की करें, इतनी फुर्सत कहां, दौर ये चलता रहे ये खेल कब से है जारी, बिछड़े सभी बारी बारी…'