उसका सच (कहानी) / पुष्पा सक्सेना

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बाई आंटी और गाइड अंकल को हम बचपन से देखते आए थे। बाई आंटी जहाँ से आई थी, वहाँ स्त्रियों के लिए ‘बाई’ सम्मान-सूचक शब्द होता था, इसीलिए अम्मा उन्हें ‘बाई’ और हम उन्हें ‘बाई आंटी’ पुकारते थे। हमारे लिए बाई आंटी एक शापग्रस्त राजकुमारी थीं और गाइड अंकल वह राक्षस, जिसने उन्हें जबरन अपनी कैद में रख लिया था। उस बेमेल जोड़े को देख सब ताज्जुब करते थे-क्या सोच मेम-सी गोरी-चिट्टी, सुन्दर बाई जी को उनके मां-बाप ने काले-मोटे भूत-से गाइड साहब के साथ बाँध दिया था? एक दिन अम्मा से जब वही बात पूछी तो उन्होंने जोरों की डाँट लगाई थी,

”क्या रंग-रूप ही सब कुछ होता है? असली चीज़ आदमी का दिल होता है। गाइड साहब का सोने का दिल है। खबरदार जो फिर कभी उल्टी-सीधी बात की, समझ गई न?“

अम्मा की डाँट ने दोबारा फिर वही सवाल भले ही न पूछने दिया था, पर अन्तर में वह प्रश्न हमेशा उमड़ता-घुमड़ता रहा। इन सबके बावजूद क्रिसमस के दिन हमें गाइड अंकल की सुबह से प्रतीक्षा रहती थी। उस दिन ढेर सारे फल-मिठाइयों की टोकरी के साथ बड़ा-सा केक लाते गाइड अंकल, हमें किसी देवदूत से कम नहीं लगते। उनके आते ही हम उन्हें ‘हैप्पी क्रिसमस अंकल’ की बौछारों से भिगो डालते। अपने इर्द-गिर्द जमा बच्चों को देखते ही उनके चेहरे पर स्नेहिल मुस्कान बिखर जाती। हमारी मनपसंद टाफियाँ पाँकेट से निकालते हॅंसते हुए हमें थमाते जाते, ”ये लो मुन्नी तुम्हारा लाली पाँप, और ये रहा मिल्क चाकलेट, हमारे अनुज बेटे के लिए।“

उस उम्र में हम कभी सोच भी न सके कि जो गाइड अंकल हम बच्चों पर जान छिड़कते थे उनका अपना घर बिन बच्चों के कितना सूना था। गाइड अंकल और बाई आंटी हमारे घर के हर दुख-सुख में शामिल थे, पर दादी के कारण उनकी पहॅुंच घर के बाहर तक ही थी। उनके अाने पर उन्हें अलग रखी प्लेटों में ही नाश्ता दिया जाता। बाई आंटी ने जान कर भी शायद उस बात को हमेशा अनदेखा किया था।

अपने दो कमरों के छोटे-से घर को बाई आंटी ने ऐसा सजा रखा था कि हम मुग्ध देखते रह जाते। गाइड अंकल के बनाए कागज के गुलाबों के लिए न कभी हमारी फ़र्माइश ख़त्म होती न उनके हाथ हमारे लिए फूल बनाते थकते। अपनी फ़र्माइशें पूरी कराते हम सोच भी नहीं पाते कि हमने उनका पूरा दिन अपने नाम करा लिया था।

गाइड अंकल का सामान खरीदने-बिकवाने की दलाली का काम उन दिनों जोरों से चल रहा था। अपना सामान बेचकर अंग्रेज परिवार अपने देश वापस जा रहे थे। उन दिनों उनके प्रति लोगों के मन में द्वेष भाव भले ही रहा हो, पर उनके सामान के लिए हिन्दुस्तानियों के दिल में बहुत मोह था। मुहल्ले का शायद ही कोई ऐसा घर होगा जहाँ गाइड अंकल की मदद से कोई फ़र्नीचर, सजावटी सामान, परदे-गलीचे या क्राकरी न आ गई हो। उन चीजों को बिकवाने के लिए उन्हें अंग्रेजों से अच्छा कमीशन मिल जाया करता था। सामान बिकवाने में गाइडेंस के कारण ही अंग्रेजों ने उन्हे ‘मिस्टर गाइड’ का ख़िताब दिया था। बाद में यही नाम उनका परिचय बन गया था। उन दिनों उनके घर रोज चिकन-मीट पकता था। हमारे घर में उनके लिए अलग बर्तन रखे जाने का एक यह भी कारण था। अम्मा और दादी मीट देख भी नहीं सकती थीं।

अम्मा, जब अचानक ज्यादा बीमार पड़ गई तो हम सब घबरा गए थे। उस वक्त बाई आंटी ने पूरे घर और अम्मा को सम्हाला था। रात भर अम्मा के माथे पर पानी की पट्टी बदलती बाई आंटी, न जाने कब अपने घर के काम निबटाती। दीनू की मां से हमारे लिए चाय-नाश्ता बनवा, अम्मा की तरह प्यार से खिलाती थीं। अम्मा के किचेन में उनका प्रवेश निषिद्ध था, पर उन्होंने कभी इस बात का बुरा नहीं माना। अगर मन में कभी बुरा लगा भी तो कभी ज़ाहिर नहीं किया। अम्मा की उस बीमारी में भी बाई आंटी ने लक्ष्मण-रेखा नहीं लाँघी। अब सोचती हूँ तो समझ में नहीं आता अपने लिए किसी की घृणा को भी क्या उस तरह मान दिया जा सकता है? क्या वह इसी धरती पर जन्मीं थीं? अम्मा के पानी माँगने पर वह हममें से किसी को पुकारती थीं। खेल छोड़कर आने पर हमारी झुँझलाहट स्वाभाविक ही होती, ”भला यह भी कोई बात हुई, सारा काम कर सकती हैं, अम्मा के मुँह में दो बूँद पानी नहीं डाल सकतीं!“ हम झॅुंझलाते।

”नहीं डाल सकती बिटिया , वर्ना तुम्हारी अम्मा का धरम भ्रष्ट हो जाएगा।“ अपनी मजबूरी वह किस आसानी से बता जातीं।

बाई जी और गाइड साहिब क्रिस्तान थे, हम बच्चों ने उनकी बाजार से लाई मिठाई-मेवा खूब खाई, पर उन्होंने हमेशा यह ध्यान रखा उनके घर में पकाया खाना हम कभी न चखें। हालाँकि बाई आंटी अपने घर में बहुत अच्छा खाना बनातीं, पर हमें उसका अंश भी नहीं देतीं। कभी उनकी कंजूसी पर बेहद गुस्सा आता-

”अपने लिए इतना अच्छा खाना बनाती हैं, हमारे लिए रद्दी केक बाजार से लाती हैं। हम आपसे नहीं बोलेंगे।“

नन्हीं कविता को गोद में उठाती बाई आंटी की आँखें भर आती।

”नहीं बिटिया रानी, हम तो तुम्हारे लिए बाजार से सबसे बढ़िया केक लाए हैं, ये हमारा खाना तो एकदम खराब हैं। देख लेना जो हम इसे मॅुंह में भी डालें।“

शायद बाई आंटी उस दिन सचमुच खाना नहीं खाती थीं।

उम्र की सीढ़ियाँ फलाँगते हमारे जीवन में बाई आंटी और गाइड अंकल का महत्व कम होता गया। हमारे साथ अम्मा की भी व्यस्तताएँ बढ़ती गई। बड़ी दीदी की शादी फिर भइया का विवाह निपटाती अम्मा से बाई कब-कहाँ छूट गई, पता ही नहीं चला। शादी-ब्याह के मौकों पर पुराने विचारों वाले परिवार के सामने बाई आंटी का प्रवेश निषिद्ध-सा था। कभी आ जाने पर अम्मा जैसे घबरा-सी जातीं। बड़ी ताई, चचिया सास की तरेरती निगाहों से वह डर जातीं। जल्दी से उन्हें किसी बहाने वापस भेज, अम्मा चैन की साँस लेतीं। फिर भी चचिया सास बड़बड़ाती ही जाती, ”तुमने तो बहू हद ही कर दी, जात-कुजात कुछ नहीं देखती। हमारा भी धरम भ्रष्ट करोगी।“

अम्मा की विवशता बाई आंटी ने समझ ली थी, इसीलिए बड़ी दीदी की शादी में साड़ी का पैकेट दूर से थमा, वापस चली गई थीं। अम्मा खाने के लिए आग्रह करती ही रह गई थीं।

बड़ी दीदी की शादी के बाद घर में सन्नाटा छा गया था। बी0ए0 के लिए मुझे लखनऊ जाना पड़ा था। घर छोड़ते वक्त खूब रोई थी, पर काँलेज के जीवन ने जल्दी ही घर का बिछोह भुला दिया था। होस्टेल की दुनिया ही निराली थी। शुरू में रैगिंग का डर भले ही हावी रहा, बाद में अपने को एक बड़े भरे-पूरे परिवार का सदस्य बना पाया था। जूनियर्स की तकलीफ में सीनियर्स बड़ी बहन बन, सहायता करती थीं। काँलेज-होस्टेल की दुनिया में ऐसी रमी कि अम्मा को खत डालने में भी देरी होने लगी थी।

गर्मी की छुट्टियों में जब घर आई तो अम्मा ने उदास स्वर में कहा था, ”बाई को देख आना, बहुत बीमार हैं।“

बाई आंटी को देख बहुत बड़ा धक्का लगा था, उनका सजा-सॅंवरा घर अस्त-व्यस्त था। पहली दृष्टि में ही घर की विपन्नता स्पष्ट हो उठी थी। स्टील के चमचमाते बर्तन-क्राकरी की जगह अल्यूमिनियम के भगौने, कढ़ाही थी। गाइड अंकल अल्यूमिनियम के काले पड़े भगौने में खिचड़ी पका रहे थे। अन्दर कमरे में टूटी बाँध की खाट पर मैली दरी और चादर पर कृशकाय बाई आंटी पड़ी हुई थीं। उस स्थिति में नमस्ते करने की भी याद नहीं रह गई थी। पीछे से गाइड अंकल आए थे, ”जरा पहचानो तो देखो ये अपनी रागिनी बिटिया आई है।“

”कौन......... रागिनी........ इधर आ बेटी.........“

”ये आपको क्या हो गया है बाई आंटी?“ मेरा कंठ भर आया था।

हाथ जोड़, उन्होंने ऊपर की ओर संकेत कर दिया था। अचानक मेरी दृष्टि दीवार पर टूंगे राम-सीता के चित्र पर पड़ी थीं। ये क्या, बाई आंटी तो हमेशा ईसा को पूजती थीं। फिर आज............?

गाइड अंकल ने एक केन की कुर्सी खींच, मुझसे बैठने को कहा था।

”ये सब कैसे हो गया? आंटी कब से बीमार हैं अंकल?“

”मेरा बैड लक इसको खा गया बेटी!“

”छिः, ये कैसी बातें करते हैं! अगर आप न होते तो बीस साल पहले ही खत्म हो जाती। मेरा दुर्भाग्य आपको भी............“

न जाने वे दोनों अपनी कौन-सी पहेली बुझा रहे थे, पर एक बात ज़रूर थी, उन दोनों में अगाढ प्यार जरूर था। थोड़ी देर उनके पास बैठ, भारी मन से घर लौट आई थी।

”अम्मा, गाइड अंकल और बाई आंटी को क्या हो गया? उनका घर तो एकदम बदल गया है।“

”हाँ बेटी, सब कुछ बदल गया। बाई बेचारी को ये दिन भी देखने थे। अम्मा ने उसाँस छोड़ी थी।“

”पर उनके पास तो बहुत पैसा था अम्मा............“

”जितना कमाया उतना उड़ा दिया। दोनों ही के दिल बड़े थे। कभी सोचा ही नहीं कभी उनका काम ख़त्म भी हो सकता है..........“

”क्या गाइड अंकल का काम अब नहीं चलता अम्मा.........?“

”एक तो उम्र का तकाज़ा, उस पर अब नीलामी माल खरीदने में किसको उतनी रूचि रह गई है! वो ज़माना और था। बेचारे बहुत मुश्किल मे हैं उस पर बाई भी पड़ गई हैं। डाँक्टर बुलाने के लिए भी पैसे नहीं हैं।“

”उन्होंने सारे मुहल्ले के लिए इतना किया, क्या हम सब मिलकर उनका इलाज नहीं करा सकते?“

”उन दोनों का स्वाभिमान इस बात की इजाज़त नहीं देगा, दूसरे का एहसान याद रखने वाले लोग दुनिया में कम ही होते हैं। बहती गंगा में हाथ धो, सब उन्हें अकेला छोड़, अलग हो गएए मुन्नी।“

दूसरे दिन सुबह सूजी की खीर बना, बाई आंटी के पास जा बैठी थी। गाइड अंकल ने आँखें मूंदे पड़ी बाई जी को पुकारा था, ”आँखें खोलो गौरी, देखो हमारी बिटिया तुम्हारे लिए क्या लाई है।“

बाई जी को उनके नाम से पुकारते गाइड अंकल को उसी दिन सुना था। मुश्किल से आँखें खोलती बाई आंटी के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आ गई थी।

”अब जल्दी से उठिए आंटी, ये खीर चखकर बताइए कैसी बनी है.........“

मैं उन्हें खीर खिलाने को आतुर थी।

”मेरी बेटी के हाथ का बनाया तो अमृत ही होगा............“

र्”सिर्फ़ बातों से नहीं मानूँगी आंटी, खाकर बताना पड़ेगा। अंकल, जरा इन्हें उठाइए तो........“

हाथ का सहारा दे, हमने उन्हें तकिए के सहारे बैठा-सा दिया था। चम्मच से खीर उनके मॅुंह तक ले गई तो उनकी आँखों से झर-झर आँसू झरने लगे थे।

”ये क्या, आप रो रही हैं एआंटी?“

गाइड अंकल ने आगे बढ़, प्यार से उनके आँसू पोंछे थे। अपनी नम आँखें छिपाने के लिए वे हमें अकेला छोड़ बाहर चले गए थे-

”तू कुछ देर तो बैठेगी न बिटिया, मैं अपने काम निबटा कर आता हूँ।“

”हाँ-हाँ अंकल, आप आराम से जाइए। मैं हूँ न आंटी के पास।“

मुश्किल से एक-दो चम्मच खीर गले से उतार बाई आंटी निढाल पड़ गई थी।

”उस जन्म में जरूर तू मेरी ही बेटी रही होगी...............“

”क्यों, इस जन्म में आपकी बेटी नहीं हूँ?“ मैंने मान दिखाया था।

”इस जनम की बेेटी न जाने कहाँ होगी....... कैसी होगी......“ उनकी आँखें फिर भर आई थी।

”आपकी कोई बेटी हैए आंटी?“

उन्हें निरूत्तर पा, मैंने जिद पकड़ ली थी, ”कहाँ है आपकी बेटी? इतने दिनों तक आप दोनों अकेले क्योें रहते रहे? बताइये न आंटी...........“

”क्या बताऊॅं, कैसे बताऊॅं बेटी, उन बातों को दुहरा पाना क्या आसान है?“

”न बताकर ही आपने अपनी ये हालत बना ली है बाई आंटी! जानती हैं मन में छिपाकर रखी गई बात नासूर बन जाती है।“

”ठीक कहती है बेटी, पर वे बातें दोहरा पाना आसान नहीं है बिटिया...........“

”आपकी बेटी हूँ, अपना दुख-दर्द मुझे सुना जरूर चैन पाएँगी, कोशिश तो कीजिए।“

”जो सुनाऊॅं, उसकी कहानी लिख सकेगीएमुन्नी?“ बाई आंटी की आँखें हल्के से चमक उठी थीं।

”पर मैंने तो कभी कोई कहानी नहीं लिखी आंटी.............“

”तब रहने दे, क्या करेगी सुनकर! जी चाहता है मेरी कहानी वह पढ़े, मेरे मन की बात जान ले। मेरी बेटी तो मेरा दुख समझेगी न मुन्नी- मेरी कहानी लिखेगी मुन्नी!“

”ठीक है आंटी, मैं आपकी कहानी ज़रूर लिखॅूगी, पर वह छपेगी या नहीं, इसका वादा नहीं कर सकती।“

”मेरे लिए इतना ही काफ़ी है बेटी, वर्ना इस दुनिया से जाने के बाद भी दिल का बोझ चैन नहीं लेने देगा।“

”ऐसा क्या था आंटी? समझ लीजिए इस वक्त आपके पास आपकी बेटी ही बैठी है।“

अपना दायाँ हाथ उठा बाई आंटी ने मेरे हाथ पर रख दिया था। दो पल आँखें मूंद, मानो वह शक्ति संचय कर रही थीं। धीमे स्वर में उन्होंने अपनी कहानी शुरू की थी-

”उस दिन सुबह-सुबह बा ने जगाया था, ‘जल्दी उठ गौरी, घर में त्योहार है, तू घोड़ा बेच सो रही है?’“

”बा की बात सुनते ही नींद गायब हो गई थी। अरे आज ही तो गणेश चतुर्थी है। पिछले कितने दिनों से शारदा दीदी हमारे नृत्य का रिहर्सल करा रही थीं। इस बार के समारोह मंे हमारे गरबा ग्रुप को सबकी वाहवाही पानी थी। जल्दी से नहा-धो, रंगोली सजाने बैठी थी। मेरी रंगोली हमेशा सबसे ज्यादा सुन्दर ठहराई जाती थी। आज भी मुझे ही बाजी जीतनी थी। बा तरह-तरह के पकवान बनाने में व्यस्त थीं। नृत्य के लिए बा ने मेरे लिए कीमती गुलाबी ज़री काम का लहॅंगा-सेट बनवाया था। लग रहा था कैसे जल्दी से रात आ जाए और मैं सितारों-जड़ी अपनी चुन्नी ओढ़ गरबा करूँ।“

”आखिर वह क्षण आ ही गया । तारों-भरे आकाश के साथ सितारों-जड़ी ओढ़नी ओढ़े, हम ढेर सारी लड़कियों के आगे चाँद भी शर्मा गया था। नृत्य के बाद थाल भर मिठाइयाँ सबको मुझे ही देनी थीं। उस दिन मैं गाँव के जमींदार की लाड़ली बेटी नहीं, सबकी दुलारी बिटिया बन आशीष पाती थी। इस परम्परा को बापू ने शुरू किया था। सबसे आशीर्वाद पाना मेरा गौरव था।“

”वहीं उस रात उसने मुझे देखा था। मिठाई के लिए न हाथ बढ़ाया, न कुछ कहा, बस अपलक मुझे निहारता रह गया । संकोच से मैं मर ही गई थी। धीमे से कहा था, ‘मिठाई लीजिए......’“

”‘मुझे मिठाई नहीं मिठाई वाली चाहिए।’ धीमे से कहे उसके शब्दों पर मैं रोमांचित हो उठी थी।“

”‘छिः......’हाथ का थाल पीछे खड़ी दासी को थमा, घर के अन्दर भाग गई थी। साँस धौंकनी-सी चल रही थी। बार-बार उसका सलोना मुखड़ा, आँखों के आगे नाच रहा था। कौन था वह, पहले तो उसे कभी नहीं देखा..........“

”जब से सोलह साल पूरे कर, सत्रहवें में आई थी, बा मेरी शादी के लिए चिन्तित हो उठी थीं। उन्हें मेरा नदी-सा उमड़ता रूप-यौवन डराता था, कहीं ऊॅंच-नीच हो गई तो ख़ानदान की नाक कट जाएगी, और मैं थी कि खुली बछेरी-सी इधर-उधर डोलती ही रहती।“

”सावन का झूला झुलाती सहेलियाँ गीत गाते-गाते अचानक रूक गई थीं।“

”‘क्या हुआ, गाती क्यों नहीं?’ झूले की ऊॅंची पेंग पर चढ़ी मैं आसमान छू रही थी।“

”खिल-खिल हॅंसती सहेलियों ने पीछे की ओर इशारा किया था। अरे ये तो वही था। न जाने कब, कहाँ से आकर, वह मुझे झुला रहा था! घबराकर ऊॅंची पेंग पर चढ़े झूले से नीचे कूद पड़ी थी। घुटने बुरी तरह छिल गए थे। आँखों में सावन उमड़ आया ।“

”सबसे पहले उसी ने आकर उठाया था। हाथ जोड़ माफ़ी माँगी थी। घावों को इतने हल्के से सहलाया, मानो उसके हाथ नहीं, सेमल की रूई थी। सहेलियाँ न जाने कब खिसक लीं। उसके कंधे पर सिर रख, सिसक उठी थी।“

”नही गौरी नहीं, इन आँसुओं के लिए जो चाहे सज़ा दे दे, कसम है जो उफ़ भी करूँ।“

”तुम मुझे क्यों परेशान करते हो?“

”मैं तुमसे प्यार करता हूँ। इतना प्यार जिसमें सारे समुन्दर समा जाएँ।“

”पर मैं तुमसे नहीं करती। बा कहती हैं ये गन्दी बात होती है।“

”तुम्हारी बा गलत कहती हैं। वो तुम्हारे बापू को प्यार करती हैं, क्या ये गन्दी बात है?“

”बा की तो बापू से शादी हुई है।“

”मैं भी तुमसे शादी करूँगा।“ उसने दृढ़ स्वर में कहा था।

”हमें ऐसी बातें अच्छी नहीं लगतीं।“ शर्माकर हथेलियों में मॅुंह छिपा लिया था।

”फिर कैसी बातें अच्छी लगती हैं? वही करूँगा।“ वह हल्के-हल्के हॅंस रहा था।

”कैसी भी नहीं.........“ अपने को उसकी पकड़ से छुड़ा भाग गई थी, मेरे पीछे वह हॅंसता खड़ा रह गया था।

”बापू को अपने ब्राह्यणत्व का बहुत गर्व था। मेरा वर कुल-गोत्र में ऊंचा ही होना चाहिए। इकलौती बेटी के लिए उनके न जाने कितने सपने थे। कोई प्रस्ताव उन्हें भाता ही नहीं था।“

”उससे मेरी अक्सर मुलाकातें होने लगी थीं। सहेलियों को उसने न जाने कैसे मोहाविष्ट कर लिया था कि वे उसके गीत गाते न थकतीं। इन सबके बावजूद उससे मेरी शादी असम्भव थी। कुल-गोत्र, आर्थिक स्थिति, किसी भी तरह वह हमारे परिवार के बराबर नहीं बैठता था। बापू की ज़िद और क्रोध से पूरा खानदान डरता था। उनके सामने वह प्रस्ताव रखने की हिम्मत भी, दुस्साहस ही था। सब कुछ जानते हुए भी उसकी बुलाहट पर कोई न कोई बहाना बना, मैं पहॅुंच ही जाती। बा को शिकायत होने लगी थी, अब मैं उनके पास रहते हुए भी, सहेलियों के पास पहॅुंचने को व्याकुल रहती। बापू ने मेरे लिए घर-वर की जोरों से तलाश शुरू कर दी थी।“

”उस दिन घर में खूब तैयारियाँ हो रही थीं। बा उमगी-उमगी घर सजाने में व्यस्त थीं। मुझे अच्छे कपड़े पहन तैयार होने को कहा गया था। मेरे विस्मय पर बा ने प्यार से मेरी ठोढ़ी उठा, माथा चूम लिया था। मॅुंहलगी दासी कनिया ने कान में फुसफसाया था, ‘अरी दिदिया रानी, आज आपके ‘वो’ आ रहे हैं, समझ गई न?’“

”मैं सुन्न पड़ गई थी, अब क्या होगा? उससे बिछुड़ कर तो जीते जी मर जाऊॅंगी। बा से थोड़ी देर के लिए अपनी सहेली राधा से मिल आने का बहाना कर, घर से बाहर आ सकी थी। पूरी बात सुनते ही वह गम्भीर हो गया था।“

”आज हमारे इम्तिहान की घड़ी आ ही गई गौरी। अब इसी पल तुम्हें मुझे या अपने परिवार में से एक को चुनना है। बोलो तुम्हारा क्या फ़ैेसला है?“

”मुझे मौन खड़ा देख वह नाराज़ हो गया था-“

”अगर मुझे पता होता तुम्हारे मन में मेरे लिए इतनी-सी भी जगह नहीं, तो बहुत पहले ही ये गाँव छोड़ कहीं दूर चला गया होता। मैंने तुम्हारे प्यार में धोखा खाया हैए गौरी।“

”नहीं.... नहींकृमैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ, तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकती...... तुम मुझे गलत समझ रहे होए मोहन.....“ मैं रो पड़ी थी।

”ठीक है, तो चलो अभी इस गाँव को छोड़, कहीं ऐसी जगह चले जाएँगे, जहाँ हमें कोई न खोज सके। चलोगी गौरी?“

”तुम बापू को नहीं जानते, वे हमें ज़िन्दा नहीं छोड़ेगे। अपने मान-सम्मान के लिए उन्हें किसी की चिन्ता नहीं है।“

”मेरे साथ डरने की ज़रूरत नहीं है गैरी, मुझ पर विश्वास है न?“

”पर ........ हम कहाँ जाएँगे?“

”पर-वर के लिए अब टाइम नहीं है, या तो अभी मेरे साथ चलो, वर्ना समझ लेना मै तुम्हार लिए मर चुका हूं।

ठीक हैए मै तुम्हारे साथ चलने को तैयार हॅूं।“ काँपते स्वर में मैं इतना ही कह सकी थी।

”उसने एक भरपूर नजर मुझ पर डाली थी। आने वाले अतिथियों को दिखाने के लिए बा ने ढेर सारे गहने पहनाए थे। नए कपड़ों में मैं शायद ज्यादा ही सुन्दर लग रही थी।“

”तो चलो, एक पल की देरी भी ठीक नहीं........“ मेरा हाथ पकड़ वह चल दिया था। उसके घर में दूसरा था ही कौन जिसके लिए वह सोचता, जिससे कुछ पूछता! निपट अकेले बचपन काट, जवानी की दहलीज़ पर मेरा साथ उसे मिला था। दूसरों की दया पर आश्रित बचपन, जवानी के आते ही फुफकार कर उठा था। उसे वो पराश्रयी ज़िन्दगी नहीं जीनी थी। गाँव के मुखिया से लड़, ऊपर तक जा पहॅुचा था। दूसरों के कब्ज़े से अपनी जमीन छुड़ाकर ही उसने दम लिया था। उसके जीवट की सब तारीफ़ करते थें। आज उस जमीन का मोह छोड़, वह उसके साथ अनजान पथ पर चल दिया था।

”रेलगाड़ी में बैठते ही मेरा मन बा और बापू के लिए हाहाकार कर उठा था, न जाने उनसे ये सदमा कैसे झेला जाएगा! आँखों से आँसुओं की धार बह चली थी। आसपास के मुसाफ़िर चैंक गए थे। तभी उसने बात बनाई थी,

‘शादी के बाद पहली बार माँ का घर छोड़ा है, इसीलिए माँ की याद आ रही है।’ दो चार स्त्रियों ने मुझे ढाढ़स भी बॅंधाया था,

‘अरे लड़की की जात को ये दुख झेलना ही पड़ता है। कहीं जन्म ले, कहीं और जा बसे। धीरज धर बेटी, बाद में यही पराया घर अपना लगने लगेगा।’“

”रेलगाड़ी की लम्बी दो रातें बिता हम इलाहाबाद के पास फूलपुर पहुँचे थे।“

”उसके पास जो पैसे थे उनसे दो-चार दिन धर्मशाला में कट गए, उसके बाद गहनों का नम्बर आया। इस बीच धर्मशाला के चैकीदार की मदद से एक सेठ के यहाँ उसे पहरेदारी का काम मिल गया। ज़िन्दगी चल पड़ी थी। कभी अपने घर की याद कर खूब रोती, पर जीवन के अभावों पर कभी नहीं रोई।“

”कुछ दिनों से पड़ोस की कोठरी में एक क्रिश्चियन परिवार आकर रहने लगा था। पुरूष एकदम काला भुच्च और पत्नी एकदम जैसे परी-कन्या। हम दोनों उस बेमेल जोड़ी पर खूब हॅंसते। पुरूष अपनी पत्नी की हर माँग पूरी करने मे ही जीवन को सार्थक करता। पत्नी भी उसके आते ही फ़र्माइशों की पिटारा खोल डालती। बेचारा थका-माँदा पति, फिर फ़र्माइशें पूरी करने मेें जुट जाता। उन्हें देख मोहन मुझे बाँहों में ले खूब प्यार करता, अपने भाग्य को सराहता जो उसे मुझ जैसी पत्नी मिली थी।“

”कुछ दिनों से सुबह-सुबह मितली आती देख, वह मुझे डाँक्टर के पास ले गया था। डाँक्टरनी ने मुस्कराते हुए बधाई दी थी, ‘अब तुम बाप बनने जा रहे हो, इसकी अच्छी तरह देखभाल करना।’“ खुशी से भर उसने मुझे ऊपर उठा लिया था।

”उन नौ महीनों उसने मुझे फूल-सा रक्खा था। पारो का जनम हम दोनों के लिए बहुत शुभ सिद्ध हुआ था। सेठ ने उसे तरक्की देकर अपना खास बाँडीगार्ड बना लिया था। तनख्वाह बढ़ जाने से घर में भी खुशहाली आ गई थी। रेडियो पर आने वाले फिल्मी गीत सुनने हमारी पड़ोसिन ट्रेसा भी आने लगी थी।“

”रेडियो के गीतों पर नाचती ट्रेसा नन्ही पारो को गोद में उठा उसे भी चक्कर खिलाती जाती। खिलखिल हॅंसती पारों का मॅुंह चूमती ट्रेसा, अपने को भूल जाती। ट्रेसा हमें बहुत अपनी लगने लगी थी। घरवालों से बिछुड़, वह मेरी बहन बन गई थी। मुझे दीदी पुकारने के कारण मोहन उसका ‘जीजा’ बन गया था। जीजा-साली की नोक-झोंक पर हम खूब हॅंसते।“

”जिन्दगी आराम से गुजर रही थी। कभी बा और बापू बहुत याद आते। जी चाहता उन्हें ख़त डाल माफ़ी माँग लूँ, पर बापू का डर आड़े आ जाता-कहीं यहाँ पहॅुंच उन्होंने मोहन को कुछ कर दिया तो? सोचती थी, एक बार अकेली पारो को ले, उनके पास अचानक पहॅुंच, पाँवों पड़, माफी माँग लूँगी। नातिन का मोह छोड़ पाना क्या आसान होगा? “

”पारो एक साल की हो गई थी। टेªसा की तो वह जान ही थी। अक्सर अनजान लोग उसे ट्रेसा की बेटी समझने की भूल कर बैठ्ते। ट्रेसा का मॅुंह गर्व से चमक उठता,

‘दीदी, ये तुम्हारी बेटी मैं ले लूँगी समझीं। अपने लिए एक और बेटी ले आओ।’“

”मुझसे एक और बेटी लाने को कह रही है, अपने लिए क्यों नहीं ले आती?“

”ला सकती हूँ, बशर्ते वह पारो जैसी गोरी-सी गुड़िया हो, अपने बाप-सी भुतनी नहीं........“

”छिः, पति को भला ऐेसे कहा जाता है! कितना प्यार करते हैं वह तुझे! “ बड़ी बहन की तरह उसे समझाती और वह हॅंसती रहती।

”उस साल इलाहाबाद में कुम्भ मेला लग रहा था। दूर-दूर से तीर्थयात्रियों से भरी रेलें इलाहाबाद पहॅुंच रही थीं। बापू हमेशा कुम्भ मेले पर गंगा-स्नान के लिए इलाहाबाद जाया करते थे। मन में बार-बार आता, क्या पता बापू और बा से वहीं मिलना हो जाए। उत्सुकता से मैं कुम्भ-स्नान की प्रतीक्षा कर रही थीं। पारो के लिए मेले में पहनाने के लिए नई फ्राकें खरीद कर रख ली थीं। उसे देख बापू-बा कितने खुश होंगे! क्ल्पनाओं में डूबी ये नहीं सोच पाती थी कि हजारों-लाखों लोगों में बापू-बा से मिल पाना क्या संभव होगा?“

”गंगा-स्नान के लिए जाते समय ट्रेसा भी हमारे साथ जाने को तैयार थी। मोहन ने चिढ़ाया था, ‘अगर गंगा में डुबकी लगा ली तो हिन्दू बनना होगा, बोलो है मंजूर?’“

”क्यों, क्या मैं हिन्दू नहीं हूँ? ये देखो अब तो मैं सिन्दूर भी लगाती हूँ।“

”मोहक मुस्कान के साथ कही उसकी बात पर मैं चैंक उठी थी। इतने बड़े परिवर्तन पर मेरी दृष्टि भी नहीं पड़ी थी। कब उसने मांग भर सिन्दूर लगाना शुरू कर दिया था? क्यों? उतनी बड़ी बात मैं देख भी न सकी। एक काँटा-सा गड़ा महसूस किया था मैंने। इधर साली-जीजा की नोक-झोंक, हॅंसी-मजाक कुछ ज्यादा ही होने लगा था। ठीक है आज घर लौट कर बात करनी ही होगी।“

”उत्साह कम हो गया था, पर मेले में तो जाना ही थी। मेले की रौनक में मन का अवसाद छंट-सा गया था। पिता के कंधे पर चढ़ी पारो ताली बजा हॅंस रही थी। गंगा में डुबकी लगा पास के हनुमान मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने अकेले ही जाना पड़ा था। मन्दिर के भीतर जाने को टेªसा तैयार नहीं थी, उसके साथ मोहन को भी बाहर रूकना पड़ा था। भीड़ में पारो को साथ ले जाने की बात ही बेकार थी। उन दोनों को साथ छोड़ते न जाने क्यों अच्छा नहीं लग रहा था।“

”जल्दी-जल्दी पूजा कर बाहर आई थी। पूरे समय भगवान के ध्यान के साथ, उन दोनों का साथ याद आता रहा। बाहर वे कहीं नहीं थे। आँखें फाड़-फाड़कर चारों ओर देखती मैं पागल हो रही थी। शायद भीड़ में इधर-उधर हो गए हों। पारो का नाम ले, पागलों की तरह दौड़ते देख, मेले के स्वंय सेवकों ने पुलिस-केन्द्र तक पहॅुंचा दिया था। पूरी बात सुन पुलिस अधिकारी हॅंस पड़े थे,

‘बच्ची के साथ उसका बाप है फिर भी आप डर रही हैं! हमारी जीप आपको घर पहॅुंचा देगी। बच्ची के साथ आपके पति वहीं पहॅुंच जाएँगे। आप बेकार परेशान हो रही हैं।’“

”धक-धक करते दिल के साथ घर पहॅुंची थी। बन्द दरवाजे का ताला देख फिर रो पड़ी थी। तसल्ली दे पुलिस वाले चले गए थे। दोपहर से रात हो गई, पर आने वालों का पता नहीं। देर रात टेªसा के पति आए थे। उनका काम ही ऐसा था कि वह जल्दी घर नहीं लौट पाते, इसीलिए ट्रेसा का ज्यादा समय हमारे साथ बीतता था। सब देख-सुन कर वह भी घबरा गए थे। अपने कमरे का ताला खोलने के काफ़ी देर बाद वे फिर आए थे। हताशा-निराशा उनके चेहरे पर लिखी हुई थी।“

”‘अब उनकी खोज करना बेकार है। वे दोनों चले गए....... हमेशा के लिए.......’ सिर पकड़ वे पास पड़ी कुर्सी पर लुढ़क गए थे। अवाक् मैं उनका मॅुह ताकती रह गई थीं- ये क्या कह दिया उन्होंने!“

”सारे ज़े़वर और नगदी के साथ टेªसा उसके साथ चली गई। साथ में ले गई थी मेरा खून, मेरे ज़िगर का टुकड़ा पारो.............“

”पारो......“ चीखकर मैं जमीन पर गिर पड़ी थी। दिन और रातें कैसे बीतीं, याद नहीं, इतना जरूर था कि टेªसा के पति साइमन साया बन हर वक्त मेरे आसपास बने रहते। उन्हीं ने जबरन मुसम्मी का रस मॅंुह में डाल मुझे जीवित रखा था। होश में आने पर चारों ओर घना अॅंधेरा था। बा-बापू के साथ, उस स्थिति में नाता जोड़ पाना असम्भव था। ज़हर खा मर जाना चाहा था, पर हमेशा शान्त रहने वाले साइमन उस दिन दहाड़ उठे,

‘किसलिए मरना चाहती हो? कोई दो बूँद आँसू बहाने वाला भी है? ऐसी भी क्या मौत जिस पर कोई न रोए! मै तुम्हें यह मौत नहीं लेने दॅूगा।’

अवाक् उनका मॅुंह ताकती रह गई थी।

”‘तुमसे कभी कुछ नहीं चाहूँगा, पर क्या हम दो दोस्तों की तरह जिन्दगी नहीं काट सकते? इस ज़िन्दगी का बोझ अकेले ढो पाना मुझसे नहीं होगा..... नही होगा।’ हाथों में चेहरा ढाँप वह सिसक रहे थे। अपने को संयत कर उन्हें सम्हाला था।“

”वह शहर छोड़ हम यहाँ आ बसे। पुश्तैनी मोटर पार्ट्स का बिजनेस छोड़, साइमन मोटर कार बिकवाने वाले दलाल बन गए। मेरे लिए पक्की वैष्णवी रसोई की व्यवस्था कर उन्होंने संकोच से कहा था, ‘मैं बाहर खाना खा लिया करूँगा, आपके लिए ज़रूरी सामान मॅंगवा दिया है।’

”वाह ऐसे निभाएँगे दोस्ती? और हाँ, आज अपनी दोस्ती की शुरूआत हम जश्न मनाकर करेंगे।“

”साइमन का ताज्जुब ठीक ही था, हमेशा की शान्त गौरी उस दिन पहचानी नहीं जा सकती थी। ज़िद करके मैंने उस दिन चिकन पकाया था। साइमन परेशान दिख रहे थे। उन्हें खाना परोस अपने लिए परोसा था। प्लेट में चिकन डालते देख वह असहज हो उठे थे,

‘ये क्या, आप तो वेजीटेरियन हैं, प्याज भी नहीं खातीं, फिर.........“

”उनके सवाल का जवाब दिए बिना चिकन पीस मॅुह में डाल, पूरी ताकत से दबा डाला था। तू समझ सकती है बेटी, वो क्षण कितना कठिन रहा होगा! वर्षो के संस्कार-आस्था मिटा पाना क्या सहज होता है!“

”सच कहूँ तो उस वहशी पल ऐसा लगा था, वैसा कर मानो मैंने मोहन से अपना बदला ले लिया था। उसे अपने जीवन से दूर ढकेल, उसके साथ सारे रिश्ते तोड़, अपने को मुक्त कर लिया था...........“

अचानक वह बेहद थक गई थीं।

”एक घूँट पानी देगी मुन्नी...... कहानी तो पूरी कर दूँ।“ दो घूँट पानी गले से नीचे उतार जैसे उन्होंने शक्ति पा ली थी। धीमे-धीमे अपनी बात वह कहती गई थीं-

”सच तो ये है मुन्नी, साइमन के साथ बस दोस्ती-भर ही निभा सकी मैं। टेªसा ने जिस चेहरे से नफ़रत की, वह कितना खूबसूरत हैं, काश वह जान पाती! फिर भी कभी अपने को उन्हें सौंप न सकी। ऐसा नहीं कि हमारे बीच कभी कोई कमजोर क्षण न आया हो, पर उस पल मैं बर्फ़ बनी रह गई। साइमन ने कभी जबरन अपने को मुझ पर थोपने की कोशिश नहीं की। शायद मुझसे ज्यादा वह मेरे मन को जानते हैं। एक बार कोशिश की थी, उनका प्राप्य उन्हें दे दूँ, पर उन्होंने गम्भीर स्वर में कहा था,

‘तुम्हें साथ रखने में मेरा बहुत बड़ा स्वार्थ है, इसीलिए कभी बदले में वो कुछ देने की कोशिश मत करना, जो तुम मन से नहीं दे सकतीं। भीख मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता।“ मेरे बोझ को ढोते रहने में उनका क्या स्वार्थ हो सकता है एमुन्नी? शायद मेरी तरह वह भी ट्रेसा को भुला नहीं सके। उन दोनों की यादों के शव, हम दोनों पूरे जीवन, अपने कंधों पर ढोते रह गए...... बस। उनकी भावनाओं की मौत के लिए मैं जिम्मेवार हूँ मुन्नी, क्यों नहीं उन्होंने किसी और का साथ चाहा? तू देख ही रही हैं, उम्र के साथ साइमन का काम कम होता गया है। हम दोनों ने जहाँ एक साथ एक-दूसरे का दुख बाँटा, वहाँ कुछ अच्छा समय भी साथ बिताया है। आज हम दोनों एक-दूसरे के पूरक बनकर भी अधूरे रह गए हैं।“

”गाइड अंकल आपको बहुत चाहते हैं एआंटी! एआप भी उन्हें इतना मान देती हैं। जीवन में इतना भी कितने लोगों को मिल जाता है?“ मैंने उन्हें तसल्ली देनी चाही थी।

”जाते-जाते यही दुःख तो मथ रहा है मुन्नी, साइमन को वो सब क्यों न दे सकी जो उस धोखेबाज को दे बैठी? क्या हक था साइमन का जीवन व्यर्थ करने का?“

”ऐसा क्यों सोचती हैं आंटी! आपने उनका साथ दिया है। आपके साथ इस घर में वह कितने खुश रहते थे..........“

”कुछ न पाकर उन्होंने अपना सब कुछ मुझे दिया है एमुन्नी! ट्रेसा के जाने के बाद वह वापस अपने घर लौट सकते थे, किसी और लड़की से शादी कर सकते थे, पर शायद मेरे प्रति टेªेसा के अपराध का वह इसी तरह प्रायश्चित्त करते रहें। वह बहुत महान हैं। जानती है, हमेशा वह मेरा मन पढ़ते रहे हैं। मेरी बीमारी में न जाने कब ईसा के चित्र की जगह, मेरे राम और सीता का चित्र यहाँ लगा दिया। वे जानते थे, सब कुछ बदल जाने पर भी भगवान के प्रति अपनी आस्था मैं नहीं बदल सकी। मेरे अन्तर्मन में हमेशा राम-सीता ही मेरे आराध्य रहे।“

कुछ रूककर फिर उन्होंने कहना शुरू किया था,

”इस जाती बेला ऐसा लग रहा है, पूरी ज़िन्दगी अपने को धोखा ही देती रही। अनजाने-अनचाहे साइमन को बहुत प्यार करती रही, पर मेरे संस्कारी मन ने कभी उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहा, न जुबान ने साथ दिया। आज बार-बार यही लग रहा है, मेरे बाद कैसे जिएँगे वह? कौन है उनका....... काश पारो जैसी एक बेटी उन्हें दे जाती तो छोड़ जाना आसान होता...... उन्हें यॅू अकेला छोड़ते कलेजे में हूक उठ रही है मुन्नी........“

बाई आंटी रो रही थी।

”आप ऐसी बातें मत कीजिए आंटी! आप कहीं नहीं जाएँगी...... कभी नहीं जाएंगी।“ उनके साथ मैं भी रो रही थी।

”अगर तेरी कहानी पढ़ कभी मेरी पारो तेरे पास आए तो उसे बता सकेगी न मुन्नी..... उसका पिता वो धोखेबाज नहीं, वह तो एक चोर है जो मेरी बेटी छीन ले भागा था। उसका पिता साइमन है, जिसने उसकी माँ को प्यार सम्मान और संरक्षण दिया है। बता मुन्नी मेरा ये काम कर सकेगी न?“

मेरा उत्तर पाने के लिए बाई आंटी व्याकुल थी।

नम आँखों के साथ उनके हाथ की पकड़ से मुश्किल से अपना हाथ छुड़ा सकी थी।

”आपका काम ज़रूर पूरा करूँगी आंटी! आपकी कहानी ज़रूर लिखूँगी......ज़रूर लिखॅूगी।“ दृढ़ शब्दों में अपनी बात दोहराती, घर वापस आई थी।

पूरी रात सोते-जागते, शायद सुबह गहरी नींद सो गई थी। बाई आंटी के मन की बात गाइड अंकल को बताने का निश्चय कर, मन हल्का हो आया था। अम्मा के झकझोरने पर चैंक कर उठी थी। उनकी आवाज बेहद घबराई हुई थी, ”उठ मुन्नी, बाई हमें छोड़कर हमेशा के लिए चली गई.....“

”क्या .......आ.....! कैसे अम्मा, कल शाम तो उन्हें ठीक ठाक छोड़कर आई थी!“

”न जाने कब रात में दिल का दौरा पड़ा, डाँक्टर बुलाने की भी मोहलत नहीं दी बाई ने। जिन्दगी-भर सबकी सेवा की, पर जाते समय किसी को आवाज भी नहीं दी। गाइड साहब का बुरा हाल है।“ अम्मा रो रही थी।

पीछे से आती अम्मा की पुकार अनसुनी कर, मैं बाई आंटी के घर की ओर दौड़ चली थी।