उसकी आंखों में कुछ / प्रतापराव कदम / ओम निश्चल

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कविता कटाक्ष: वक्रताएँ और व्‍यंजनाएँ
--ओम निश्‍चल

पुस्तक: उसकी आँखों में कुछ
रचनाकार: प्रतापराव कदम
प्रकाशक: राधाकृष्‍ण प्रकाशन,7/31,अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्‍ली
मूल्‍य: 200 रुपये


कविता एक ऐसी विधा है जो पकड़ में आ जाए तो जिस वस्‍तु पर भी दृष्‍टि पड़ जाए, वही कविता की अंतर्वस्‍तु में बदल जाए। न आए तो सारी की सारी कोशिशें काव्‍याभ्‍यास की कवायद-भर लगती हैं। कविता के प्रति समाज की उत्‍तरोत्‍तर विमुखता इस बात की ओर इशारा करती है कि यह विधा सिरमौर होने के बावजूद आज की पीढ़ी से कट रही है। कविता के संस्‍कार समाज में जैसे विकसित होने चाहिए थे, वैसा न होना भी इसकी शायद एक वजह है। प्रतापराव कदम के चौथे संग्रह 'उसकी ऑंखों में कुछ' को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि वे अभी भी अपनी कविता के लिए किसी ठोस मुहावरे की तलाश में हैं। प्रतापराव कदम कविता में किसी बनावटी तेवर से नहीं, सहजता से पेश आते हैं, बल्‍कि कहें कि एक सामाजिक के तौर पर वे जो अनुभव करते हैं, उसे कविता की अंतर्वस्‍तु में ढाल देते हैं।

एक अरसा कविता में गुजार देने के बाद हम प्रतापराव कदम से यह उम्‍मीद अवश्‍य करते हैं कि उनकी कविता किसी सिद्ध मंत्र की तरह लोगों को अभिभूत करेगी और आज के जटिल समय में भी मनुष्‍यता के पक्ष में उठने वाली आवाजों से अपना सरोकार कायम करेगी। इस दृष्‍टि से देखने पर हम पाते हैं कि वे कविता में बहुत श्रम करने वाले कवियों में हैं। 'निठारी तो हड़ियॉं का एक चावल है' यों देखने में एक प्रतिक्रिया-भर प्रतीत होती है पर अंदर धँसने पर कविता की चमक औचक कौंधती है। 'हमें विजेता का अहसास भी उन्‍हें रौंदकर हुआ' जैसी पंक्‍ति एक जुमला भर नहीं है, यह एक विचार-सी लगती घटना पर कविता की पालिश है। दूसरी कविता 'हितैषी कहॉं सब्र करते हैं' में कवि का कहना कि 'जीते जी का संसार यह' - सहजता में ही जीवन की एक बड़ी बात कह जाना है। 'जच्‍चा बच्‍चा वार्ड' कविता में हर पैदाइश की खबर लेता ईश्‍वर चौकीदार इनाम इकराम जोड़ता घटाता हुआ भी यह ध्‍यान रखता है कि वैसे तो चाहे लड़की हो या लड़का कोई फर्क नहीं, पर कहीं यह चौथी जचगी तो नहीं! 'लानत भेजता हूँ' कवि के सरोकारों का संकेतक है। आज के वक्‍त में भी शारीरिक विचित्रताओं के साथ पैदा शिशु को भगवान मान लिए जाने का अंधविश्‍वास कम नही हुआ है जिस पर कवि एक सख्‍त फटकार लगाता है। यही हाल देवालय में रखे उस लोटे का है जो तमाम कर्मकांड-पाखंड का साक्षी भले बना हो, किसी की प्‍यास बुझाने के काम नहीं आता।

कविता हो और कटाक्ष न हो, व्‍यंजनाऍं और वक्रताऍं न हों तो भला कविता फिर क्‍या हुई? वह तो एक शुष्‍क गद्य का विस्‍तार हुआ। पर यह कटाक्ष किसके पक्ष में है, देखने की बात यह है। प्रताप के इस कटाक्ष को 'दुम' में देखा जा सकता है। सूदखोर के सामने बकायेदार के चिरौरी की मुद्रा में खड़े होने भर से कवि को उसकी दुम निरीहता में हिलती दिखायी देती है। पर सवाल यह कि यह कटाक्ष उस ठाकुर पर क्‍यों नहीं जिसकी वजह से एक गरीब उसके सामने हाथ जोड़े रिरियाता हुआ खड़ा है। प्रताप मुहावरों का ध्‍यान रखते हैं। एक कविता में वे कहते हैं, दाढ़ी हिलाने से क्‍या कभी ताजी हवा आती है, खिड़कियॉं खोलनी पड़ती हैं। उनकी निगाह में वे ग्राम्‍या युवतियॉं भी हैं जो खेती किसानी में रमी हैं। कदम समाज के रंग ढंग देखते हुए आगे बढ़ते हैं। अचरच नहीं कि उनके यहॉं मुस्‍लिम समुदाय पर कई कविताऍं हैं। मुस्‍लिम समाज से उनकी रब्‍त-जब्‍त का पता 'फ़ज़र की नमाज के वक्‍त इमलीपुरा' और 'अब्‍दुल्‍ला सर का इहलोक परलोक' जैसी कविताओं से चलता है। इसी के चलते मदरसों के हालात का तज़्किरा करते हुए 'इतना तक नहीं जानते मौलाना!' कहते हुए वे मौलाना पर भी कटाक्ष उछालने में बाज नहीं आते। जाति व्‍यवस्‍था पर भी एक कविता में नजर डालते हुए वे कहते हैं कि जिस जाति-समाज का कोई अतीत नहीं होता, वह सचमुच दरिद्र है पर जो जाति-समाज अतीत में ही खोया रहता है वह तो सड़ांध मारते तालाब की तरह है----नदी की कल-कल छल-छल जिसके ख्‍वाब में नही है। यानी वही, ताजा हवा के लिए खिड़कियॉं भी खुली रखो, बाहर की आबोहवा भी आने दो--कवि का खुला संदेश है। 'वाह उस्‍ताद' उन लोगों की कारगुजारियों की एक झलक है जिनके हमेशा पौबारह होते हैं---जिनकी जातीयता, क्षेत्रीयता और धर्मांधता की भट्ठी में किसान-मजदूर-कामगार सब केवल हविष्‍य-भर हैं और वे सदैव 'कस्‍मै देवाय हविषा विधेम?' की जुगत भिड़ाते हुए पाए जाते हैं।

तमाम धूर्तों के धतकरम बॉंचते हुए कदम एक यहॉं ऐसे शख्‍स की बात करते हैं जो हर छलफरेब में माहिर होते हुए भी एक सच्‍चे आदमी का जिक्र होते ही बगलें झॉंकने लगता है। पर वही आदमी तो दिनोदिन कम होता जा रहा है। वे हर तरह के पाखंड में शामिल उन पुजारियों की खबर लेते हैं जो बकरे को तिलक कर भले छोड़ दें पर धरम के नाम पर देवदासी बनाने के कारोबार में भी जो उतने ही शातिर ढंग से तल्‍लीन हैं। कदम की एक कविता कागज पर है । कागजी कार्रवाइयों का चिट्ठा। कागजी राहत, कागजी खुशहाली। समूचा देश ऐसी ही कागजी योजनाओं के नाम पर चल रहा है। इन कविताओं में कहीं विष्‍णु खरे का प्रसंग है तो कहीं मकबूल फिदा हुसैन का। कहीं प्रेम का पर्याय बन चुके राबर्ट गिल और पारो का प्रसंग है तो कहीं फेसबुक का नकली समाज है। यहॉं तक कि थाने में देवालय का नजारा भी कवि ने दिखाया है। यानी कदम ने हर कदम पर दीख पड़ती विडंबनाओं को अपने संज्ञान में लेने का यत्‍न किया है सिवाय इस विडंबना के कि संग्रह के रोमैंटिक शीर्षक 'उसकी आंखों में कुछ' से इन कविताओं की अंतर्वस्‍तु का कोई तालमेल नहीं दीखता।

कभी कभी एक कविता कहने के लिए भले छोटी हो पर एक बड़े रूपक का ताना बाना हमारे सामने रखती है। 'भरम' ऐसी ही कविता है जिसमें कवि ने बॉंस की खपच्‍चियों के ऊपर रखे मटके से रचे बने उस बिजूके की याद दिलाई है जिसे किसान आवारा पशु-पक्षियों से अपनी फसल को बचाने के लिए खेतों में खड़ा करते हैं ताकि ऐसे पशु पक्षियों को उनमें किसी चौकीदार के होने का भरम बना रहे और फसल नष्‍ट न होने पाए। यह देश आज ऐसे ही भरम और टोटकों के सहारे चल रहा है। कदम के यहॉं खंडवा इलाके की भाषा की झलक भी यत्र तत्र दिखती है। पर अपनी काव्‍यभाषा से ज्‍यादा कदम की निगाह कविता की थीम पर रही है, इसीलिए वह देखने में कुछ रूक्ष और अनगढ़ बेशक लगे, अपने लक्ष्‍य में वह संजीदा दिखती है। यों तो कदम की कुछ कविताऍं सपाट और वक्‍तव्‍यों का समूहन भी लगती हैं पर उनमें भी कविता का सत्‍व कहीं न कहीं दिख जाता है। गौरतलब यह कि कवि यदि अपने समय, बाजार, अनैतिकताओं और जीवन के दुहरे मानदंडों को बखूबी समझता है तब उसका अन्‍वय कविता में कैसा भी हो, वह कवि की विश्‍वसनीयता को एक आधार तो देता ही है। कदम ने यहॉं मनुष्‍यता के पक्ष में अपनी आवाज़ की विश्‍वसनीयता दर्ज की है, इसमें संदेह नहीं।