उसकी आवाज़ / प्रेम गुप्ता 'मानी'
समाज में बढ़ते अत्याचार से वह बेहद दुःखी था और उसके खिलाफ़ लड़ना चाहता था पर समझ नहीं पाता था कि यह सब वह कैसे करे। कई बार उसने अत्याचारियों के विरुद्ध रिपोर्ट भी की पर नतीजा कुछ न निकला। आखिर में पस्त हो उसने चुप्पी साधी ही थी कि तभी एक दिन अचानक उसने एक दीवार पर चिपके एक बड़े से पोस्टर पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा देखा, "कहीं भी अन्याय होता दिखे तो चुप न बैठें...आप एक लोकतन्त्र के नागरिक हैं। अन्याय के खिलाफ़ लड़ना आपका कर्तव्य ही नहीं, बल्कि जन्मसिद्ध अधिकार भी है... अतः आपसे अनुरोध है कि अन्याय के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द कर लोकतन्त्र को मजबूत बनाएँ ।"
पोस्टर पर लिखी उन पंक्तियों को पढ़ कर वह एक अजीब तरह के उत्साह से भर गया। उसे लगा जैसे वह इन पंक्तियों को साकार कर सकता है।
यह अहसास होते ही उसने अपना काम शुरू कर दिया। सबसे पहले उसने थाने में उन सफ़ेदपोशों के खिलाफ़ रिपोर्ट लिखवाई जो खटमल की तरह जनता का खून चूस कर खुद फूल रहे थे। फिर उसने नेताओं की ग़लत नीतियों की खुलकर आलोचना की, बेरोजगारी के विरुद्ध जेहाद छेड़ा, एक लोकप्रिय अखबार के कार्यालय में जाकर वहाँ के सम्पादक को अपने ऊपर हुए अत्याचार की कहानी सुनाई, अत्याचारियों के नाम बताए और फिर उसके छपने का आश्वासन पाकर बाहर आकर नारे लगाए।
अब वह बहुत खुश था। लोकतन्त्र को पतन के गर्त में जाने से रोकने के लिए उसने पहल तो की।
खुशी से फूला वह घर लौट रहा था कि तभी अचानक आठ-दस आदमी लाठी लेकर उसपर टूट पड़े। वह अपने बचाव में कुछ न कर सका और भीड़ भी बस तमाशा देखती रही।
थोड़ी देर बाद बुरी तरह घायल हो जब वह किसी तरह थाने में रपट लिखवाने पहुँचा तो बाहर ही यह सुन कर जड़ हो उठा, "साले की इतनी मरम्मत कर दी है कि अब वह हमारे खिलाफ़ आवाज़ क्या बुलन्द करेगा...उसे तो अपनी ही आवाज़ सुनाई नहीं देगी।"