उसकी गलती / तुषार कान्त उपाध्याय
इसकी उम्र यही कोई 12-13 की होगी। छठी पास कर सातवी में गया था। इस पहाड़ी शहर में उसके पिता करीब दो साल पहले तबादला होकर आये थे। सरकारी क्वार्टर नहीं मिलने की स्थिति में इस मोहल्ले में एक मकान किराये पर ले लिया और उसका एडमिशन सरकारी स्कूल में हों गया।
ये स्कूल से लौटता तो इंतज़ार करता कब शाम हों और वह ढूध लेने जाय। देर हों जाती तो कई बार वह खेलने चलने की दोस्तों की जिद को भी ना कर देता।
'मुंशी कुछ चाकलेट-वाकलेट देता है क्या जो तुम इतने व्यग्र रहते हों दूध लेने जाने के लिए' माँ कई बार छेड़ती।
शाम होते हीं वह मुंशी चाचा की खटाल के छप्पर वाले कोने में खड़ा हों जाता। वही वह भी आकर खड़ी होती थी। एक ही भैंस का आधी-आधी दूध मिलता दोनों को। बड़ी-बड़ी आँखों से हमेशा मुस्कुराती। खूब अच्छे कपडे पहनती। सबसे बातें करती रहती थी। ये अक्सर चुप ही रहा करता। पर उससे बातें करना अच्छा लगता। कुछ भी। पर ये बोलता तब तक नहीं जब तक वह शुरुआत न कर दे।
उसके मोहल्ले से निकल कर जो मुख्य सड़क आती थी उसी पर भाटिया साहब का आरा-मशीन था। वह उन्ही भाटिया साहब की बेटी थी। दूर तक फैला अहाता। ढेर सारे कटे हुए पेड़ और लकड़ियाँ उसमे फ़ैली रहती। जाड़े के दिनों में अगल बगल के लोग लकडियो के बेकार टुकड़े तापने के लिए खरीद ले जाते। उसकी माँ भी उसी भाटिया साहब के आरा मशीन से-से लकडिया मंगाती। पिताजी के ऑफिस का चपरासी ला देता।
वो स्कूल की छुट्टियों के दिन थे। सुबह से कोहरा छाया था। ठण्ड तो इस पहाड़ी शहर में हाड़ तोडती है। दोपहर कब का बीत चूका था पर लगता था अभी दिन ही नहीं निकला। माँ ने एक बड़ा-सा झोला और पैसे पकडाते हुए लकड़ी खरीद लाने को कहा।
'चपरासी आया नहीं और आज इस ठण्ड में तापने लिए लकड़ी बिलकुल भी नहीं। लगता है जैसे जान ही निकल जाएगी। भाटिया साहब के यहाँ से थोड़ी लेता आ'।
उसने ऐसे मुंह बनाया जैसे किसी ने उसके फेल हों जाने की खबर सुना दी हों। पर करता क्या।
वो अंदर से अपनी अच्छी वाली-वाली शर्ट निकाल कर पहन आया।
'अरे लकड़ी लानी हैं, किसी शादी में जा रहा है क्या' और माँ ने इस शर्ट को खोल एक पुरानी-सी थोड़ी फटी हुई शर्ट पहना दी।
हाफ पेंट, पुरानी, थोड़ी फटी शर्ट और हाथ में बड़ा-सा झोला लिए उसके पैर भाटिया साहब के आरा-मशीन की तरफ ऐसे बढ़ रहे थे जैसे ताज़ी बनी कोलतार की सड़क पर चिपक जा रहें हों।
वो आरा-मशीन के आहाते के मुख्य द्वार पर पहुचता है।
"अरे ये क्या ...अन्दर तो बिलकुल सन्नाटा है"।
थोडा अंदर जा के एक-दो बार आवाज़ भी लगाता है। वापस फाटक पर खड़ा हो जाता है। तभी वह अंदर से निकलती है।
'कौन? कौन है?'
ये कुछ नहीं बोलता। फाटक की ओट में छुपने की कोशिश करता है। रुआंसा-सा उसका मन कभी अपने हाफ पेंट और पुरानी शर्ट को देखता है तो कभी हाथ में लिया झोले को।
और तभी उसकी नज़र इस पर पड़ जाती है।
'कौन है वहाँ ...' वह जोर से चिल्लाती है।
ये हडबड़ा कर सामने आता है।
'तुम?' फाटक के पीछे क्यों छुपे थे। '
ये कुछ बोलना चाहता है पर आवाज़ इसका साथ नहीं देती।
तभी उसकी नज़र इसके हाथ में लिए झोले पर पड़ती है।
"पापा कहते थे कोई लकड़ी चुरा ले जाता है..."
'देखो मैंने पैसे लिए हैं। मैं तो लकड़ी खरीदने आया था'। वह एक हाथ में लिए रुपये दिखता है
'ये पुराने कपडे और झोला, फिर तुम हमको देखकर छूप क्यों रहे थे?' अब उसकी भृकुटियाँ तन जातीं हैं।
कुछ सोचती है और जोर-जोर से चिल्लाने लगती है।
अब इसकी हिम्मत टूट जाती है और बिना सोचे भाग चलता है। झोला और पैसा किधर गिरा पता नहीं। बस भागता है, सीधे अपने घर की ओर ... भागता है।
पीछे से उसके चिल्लाने की आवाज़ गूंजती है–चोर-चोर ...
करीब छः महीने हों गए हैं। उसने उस आरा-मशीन वाली सड़क से जाना ही छोड़ दिया है। कभी उसके बगल के किसी जगह जाना हीं पड़ जाये, तो कोशिश करता है कि उस आरा-मशीन के सामने से न जाना पड़े। क्या पता वह कहीं खड़ी हों और उसे देखकर चिल्लाने लगे।
मुंशी चाचा के यहाँ से दूध लेने जाने से कतराता रहता। 'पढना है माँ ... आखिर सातवी में भी अपनी पोजीशन तो बचानी ही होगी ना'।
आज स्कूल से लौट रहा था तो वह सामने मिल गयी। अचानक, अपनी दोस्त के साथ आती हुई. वह चाहता था कि कहीं छुप जाये, पर क्या करे। उसने नाम लेकर रोक लिया, बिलकुल सामने खड़ी हों गयी आकर।
'मैंने सुना तुम अपने क्लास में फर्स्ट आये थे। मेरे दोस्त बता रहे थे की टीचर तुम्हारी कॉपी दुसरे क्लास में भी दिखाते हैं ...' तुम अपनी कापियाँ मुझे दे दो ना देखू कैसे लिखते हों '।
'वो ऐसे बात कार रही थी मानो कुछ हुआ ही नहीं हों। या फिर जान बुझ कर दिखा रही है जैसे ...'
ये चुप। चेहरा जैसे काला पड़ गया था। हूँ–हाँ करते रहा।
"तुमको पता है मैं उस दिन पैसे लेकर गया था ..."
'छोडो न' ... वह थोड़ी झेपती हुई बोली। शर्म से उसका चेहरा लाल हों रहा था।
'पर तुमने ऐसा किया क्यों' गुस्सा और अपमान से इसकी आवाज़ तल्ख़ हों गइ थी।
'वह मैंने फ़िल्म में देखी थी। हीरो दिन में शरीफ और रात में हीरे चुराता है। मुझे लगा तुम भी ...'
'तो मैं लकड़ियाँ चुराने गया था कपड़े बदल कर?'
'गलती हों गयी ...' नज़रें चुराती, अपने दोस्त की ओर देखती बोली।
'गलती?'
ये समझ नहीं पा रहा, गुस्सा हों या हँसे।