उसकी चिता पर / त्रिलोक सिंह ठकुरेला
गाँव में सिर्फ मेरे पास मोबाइल होने से सोनिया के फोन भी मेरे पास आते। मैं उसके घर वालों से उसकी बातचीत कराता। वह अपने पति के साथ करनाल में रहती थी। उसका ससुराल किसी गाँव में था। शादी के दस महीने बाद ही उसके दाम्पत्य में बिखराव आने लगा। पति शराब पीता, गाली गलौज करता और उसे पीटता।
सोनिया ने कई बार माँ -बाप, भाई- भाभी से बात की। निवेदन किया कि वे उसे वहाँ से ले जाएँ।
"किस घर में किच किच नहीं होती? सब ठीक हो जायेगा।" माँ ने समझाया।
भाई अमित ने छुट्टियों का रोना रोया - "दिनों दिन स्टाफ काम होता जा रहा है। आजकल छुट्टी कहाँ मिलती है, जो जाऊँ।"
पिता की उम्मीदें बेटे पर टिकी थीं।
सोनिया के स्वरों में वेदना बढ़ती गयी। उसका अंतिम फोन आया - "निखिल ! मैं इस जीवन से तंग आ चुकी हूँ। इस आदमी ने मेरे जीवन को नरक बना दिया है। सब रिश्तेदारों से कह कर थक चुकीं हूँ। न कोई मायके वाला आता है और न ही ससुराल वाला। किसी दिन मैं आत्महत्या कर लुंगी। मैंने उसे समझाया। उसके परिवार वालों और मुहल्ले वालों से बात की। सभी उदासीन थे। अंततः सोनिया की आत्महत्या की खबर आई। गाँव से तीन गाड़िया भर कर गयीं।
उसकी चिता पर सभी रिश्तेदार उपस्थित थे।