उसके साथ चाय का आख़िरी कप / सुधांशु गुप्त

Gadya Kosh से
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आज बारह तारीख है। बारह मार्च उन्नीस सौ पिच्चासी। आज का दिन मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। पिछले कई महीनों से मैं इसी दिन का इंतजार कर रहा था। गोकि स्थितियों में अब काफी फर्क आ चुका है, फिर भी आज के दिन का इंतजार मैंने जितनी शिद्दत से किया है, बता नहीं सकता, और अंततः आज का दिन आ ही पहुंचा।

दरअसल आज उसका जन्मदिन है। आज उसने मुझे पार्टी देने का वायदा किया है। वह यानी मेरी प्रमिका.... सो आज मैं बहुत खुश हूं।

मैंने तैयार होने की गति बढ़ा दी है।

मैं एक कम्पनी में काम करता हूं। यहां से कई पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं। मैं इन्हीं में से एक के संपादकीय विभाग में पिछले लगभग एक वर्ष से काम कर रहा हूं। वह एक अन्य पत्रिका में काम करती है, पिछले दो सालों से। मुझे सिर्फ एक वर्ष हुआ है। एक साल से मैं निरन्तर ऑफिस जा रहा हूं, लेकिन आज जितना उत्साहित पहले कभी नहीं हुआ। आज मुझे लग रहा है कि उन दिनों में और आज के दिन में कितना फर्क है।

कितने बोरियत भरे और उबाऊ होते थे वे दिन । रोज सुबह उठे, नहाए या न नहाए ऑफिस पहुंच गए। खाने का डिब्बा लेकर और शाम को लौट आए खाली डिब्बा ले कर। रोज वही बस.... वही लोग.... वही काम। सबिंग... टाइपिंग... प्रेस कॉपी... कम्पोजिंग... ब्रोमाइड... फिल्म... ले- आउट... मेकअप.... करक्शंस... डमी.... ब्लू प्रिंट.... वन पीस... फर्मा रिलीज... मैगजीन आउट... और फिर वही सिलसिला।

लेकिन एक दिन बड़ी विचित्र घटना घटी। ऑफिस से घर लौटा तो मुझे खुद में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन नजर आया। एक सुखद परिवर्तन... मुझे लगा, आज मेरा वह चिड़चिड़ापन कहीं छूट गया है। लगा जैसे मन में कोई खुशी तैर रही है।

रात को बिस्तर पर लेटा तो दिन में घटी सारी घटनाओं को खंगालने लगा। अपने साथ हुई सभी बातों को याद करता रहा। लेकिन भरपूर सोचने के बाद भी मुझे इस अत्यधिक उत्साह का कारण समझ में नहीं आया। और यह बात मेरे गले नहीं उतर रही थी कि अकारण कोई व्यक्ति इतना उत्साहित हो सकता है।

अगले दिन ऑफिस पहुंचा। बहुत सावधान था। सोच कर आया था कि कल की अकारण खुशी का कारण जानना है। दराज में हाथ का लिफाफा रखा और सीधा ऊपर पहुंच गया- एक अन्य विभाग में। वहां मेरे एक मित्र बैठते है। दिन में जब भी फुरसत मिलती है, ऊपर उसी के पास जाकर बैठ जाता हूं।

कमरे में घुसा।

‘‘नमस्ते सुशांतजी।’’

मैं एकटक देखता रह गया। एक सीधी सादी, बहुत सुन्दर नहीं, लेकिन आकर्षक, बड़ी-बड़ी आंखों वाली इस लड़की की दोनों पुतलियां मुझ पर कहीं टिकी हुई थीं।

‘‘नमस्ते स्वातिजी’’, मैं सब समझ गया। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था कि आदमी की खुशियों के कारण कितने छोटे होते हैं।

‘‘आप हमारे नाम के पीछे ‘जी’ क्यों लगाते हैं,’’ पता नहीं कैसा जादू था उसकी आवाज में।

मैंने खुद को थोड़ा संयत करते हुए कहा, ‘‘ आप भी तो मेरे नाम के पीछे ‘जी’ लगाती हैं।

‘‘लेकिन हम तो आपसे कितने छोटे हैं।’’

मुझे उसकी यह जिद बहुत भली लगी थी।

‘‘अच्छा स्वातिजी, हम आपके नाम के पीछे ‘जी’ नहीं लगायेंगे।’’ मैंने बात को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से कहा।

‘‘लगा तो रहे हैं आप।’’ उसने उसी मासूमियत से कहा।

‘‘अच्छा, आज तो लगा लेने दो।’’

‘‘नई.... ई.... ई....’’ उसने बच्चों की तरह जिद की थी।

‘‘अच्छा बाबा, आज से तुम्हें सिर्फ स्वाति ही कहेंगे और हां, तुम्हारा नाम बहुत सुंदर है’’, मैंने कहा था। यह मेरी उससे पहली मुलाकात थी।

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मैं ऑफिस जाने के लिए पूरी तरह तैयार हो चुका हूं। खुश हूं। आज बारह तारीख है। बारह मार्च। आज उसका जन्मदिन है। आज वह मुझे पार्टी देगी।

मैं बस स्टॉप पर आ गया हूं। बस रोज की तरह खड़ी है 8704, रूट नं. 358...। वही लोग, वही ड्राइवर, वहीं कंडक्टर। फिर भी मुझे लगा कि कहीं कुछ है, जो बदल गया है। मैं चुपचाप बैठ गया हूं। खिड़की के पास। मैं हमेशा खिड़की के ही पास बैठता हूं।

बस चल पड़ी। सब कुछ पीछे छूटने लगा। मैं मुड़-मुड कर उन्हें दोबारा देखने की कोशिश कर रहा हूं।

एक अन्य दिन की बात है। मैं रोज की तरह ऊपर गया।

‘‘नमस्ते सुशांत जी ’’, उसने उसी निश्छल और निष्कपट मुस्कुराहट से कहा।

मैंने दोगुने उत्साह से कहा, ‘‘नमस्ते। कैसी हैं आप?’’

‘‘ठीक हूं।’’ उसकी सादगी देखते ही बनती थी।

‘‘कल मैंने आपका एक लेख पढ़ा था’’, शायद वह आज पहले से ही तैयार हो कर आई थी।

‘‘अच्छा, कौन-सा?’’ मैंने जान-बझूकर अनभिज्ञता जाहिर की, क्योंकि उस पत्रिका में अब तक मेरा सिर्फ एक ही लेख छपा था।

‘‘वो-ड्रीम साइक्लोजी वाला। बहुत अच्छा लिखते हैं। आप।’’

‘‘अच्छा।’’

‘‘हां, सचमुच बहुत अच्छा लिखते हैं.... आप।’’

‘‘एक ही लेख से आपने मेरे सारे लेखन के विषय में फैसला दे दिया’’, मैंन बातचीत आगे बढ़ाई।

‘‘हां, और क्या-आप जो भी लिखेंगे, अच्छा ही लिखेंगे’’ पता नहीं उसने यह गंभीरता से कहा था या बचपने से।

‘‘इतना विश्वास।’’ मैंने मन में सोचा था। काश! यह विश्वास हमेशा ऐसे ही जीवित रहे।

‘‘लेकिन एक बात बताइए।’’ उसने दोबारा कहा, ‘‘आदमी जो भी सपने देखता है, क्या उनका संबंध कहीं न कहीं वास्तविक जिन्दगी से होता है?’’

‘‘देखो स्वाति होता दरअसल यह है कि हर आदमी जीवन में कुछ इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं पालता है। लेकिन वास्तविक जिन्दगी में आदमी इन सबको पूरा नहीं कर पाता। अपूर्ण इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं कभी मरती नहीं। बल्कि मनुष्य के अवचेतन में वे हमेशा रहती हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मनुष्य अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को ड्रीम के माध्यम से पूरा करता है।’’ मैं एक दार्शनिक के से लहजे में बोलने लगा था।

मैंने देखा, वह अपलक मुझे देखे जा रही थी।

मैंने बात को बदलते हुए कहा, ‘‘आप सपने देखी हैं?’’

उसकी तंद्रा टूटी। उसने सवाल को समझने की कोशिश की। हल्का-सा संकोच भी न जाने कहां से उसके चेहरे पर उभर आया, जिससे उसके गाल गुलाबी हो गए और उनमें दोनों और दो छोटे-छोटे गड्ढे पड़ गए। वह बोली, ‘‘हां देखती तो हूं-लेकिन भूल जाती हूं।’’

बस एक झटके साथ रुक गई। सपना टूट गया। मैंने आंखें बाहर से हटा कर अन्दर की ओर घुमाई है। भीड़ अब भी है। यानी मंजिल अभी दूर है। मुझे आखिरी स्टॉप पर ही उतरना होता है।

आज बारह तारीख है। आज वह मुझे पार्टी देगी। आज मैं बहुत खुश हूं।

अगले दिन मैं आफिस पहुंचा। मन में एक अजीब सी उधेड़बुन थी। रोज ही की तरह सीधा ऊपर उसके कमरे में पहुंच गया। संयोग से वह कमरे में अकेली थी। ऑफिस शुरू होने में अभी पन्द्रह-बीस मिनट शेष थे। लोग अभी आए नहीं थे।

मेरे कमरे में घुसते ही उसने मुझे कुछ इस तरह ‘नमस्ते सुशांत जी’ कहा मानो वह जानती हो कि इस वक्त उसके कमरे में मेरे सिवाय और कोई नहीं आ सकता। या हो सकता है वह स्वयं ही इस बात की अपेक्षा कर रही हो कि मैं आऊं।

‘‘नमस्ते! क्या हाल है’’, मैंने कहा।

‘‘ठीक है, आप सुनाइए।’’

मैंने कहा,‘‘ देखो स्वाति कितनी विचित्र बात है, कल ही हम सपनों के बारे में बातें कर रहे थे और रात को मुझे एक सपना दिखाई दिया।’’

‘‘सपना! कैसा सपना?’’ उसके चेहरे पर जिज्ञासा के साथ साथ हल्की-सी आशंका भी मुझे साफ नजर आई।

‘‘मैंने देखा, तुम अपनी कुछ सहेलियों के साथ खड़ी हो। शाम का वक्त है, जहां सूरज डूबा है, वहां अब भी एक गुलाबी निशान है। रोशनी बस आकाश के उसी छोटे से हिस्से में है। तुम अपनी सहेलियों के साथ हंस-हंस कर बातें कर रही हो। मैं तुम्हें देख कर खुश हो गया। सोचा, आज तुमसे अच्छी तरह बातचीत करेंगे। मैं तुम्हारी ओर आने लगा। चलता रहा-चलता रहा। काफी चलने के बाद क्या देखता हूं कि इतना चलने के बाद भी हमारे बीच की दूरी स्थायी है। मैं तुम्हें आवाज दे कर बुलाना चाहता हूं। तुम एक बार मेरी ओर देखती हो और फिर उपेक्षा से मुंह दूसरी तरफ फेर लेती हो। मैं तुम्हें जोर-जोर से पुकारता हूं। लेकिन तुम नहीं सुनती- तभी मेरी नींद खुल गई, सपना सुना कर मैं एकदम इस तरह चुप हो गया माना मेरे पास कहने के लिए कुछ शेष न बचा हो।

मैंने देखा, उसके चेहरे पर भय की बारीक-सी रेखाएं तैर रही थीं। उसे समझ नहीं आया कि क्या कहे।

और मौके का फायदा उठा कर एक चुप्पी हम दोनों के बीच दबे पांव आ कर कब खड़ी हो गई, पता ही नहीं चला।

मुझे भी हल्का-सा संकोच हुआ कि क्यों बेकार में आते ही सपना सुनाया। अंततः मैंने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘क्यों, क्या हुआ? क्या सोचने लगी।’’

‘‘मैं सोच रही थी कल ही आपने बताया था कि कोई भी सपना अकारण नहीं आता। फिर आपको यह सपना क्यों दिखाई दिया? क्या आप ऐसा चाहते हैं।’’

‘‘मैं ऐसा कभी सोच भी नहीं सकता। बल्कि मैं तो चाहता हूं कि यह संबंध और मजबूत हो, मधुर हो लेकिन मेरे साथ हमेशा ऐसा होता है कि जो भी चीज या लोग मुझे अच्छे लगती हैं, प्रिय लगते हैं, जिसे मैं चाहता हूं, वह मुझसे छिन जाती है। इन्हीं सब बातों से मेरे भीतर यह डर बैठ गया है, कहीं तुम भी मुझसे बोलना न छोड़ दो या कहीं यह संबंध टूट न जाए।’’

‘‘नहीं सुशांतजी, ऐसा कभी हो सकता है, कभी नहीं होगा’’,

उसने उसी भोलेपन कहा था

‘‘आर यू श्योर।’’

‘‘श्योर।’’


बस एक झटके के साथ रुक गई। खाली हो रही है। ‘मंजिल आ गई’ मैंने सोचा।

मंजिल! मुझे हल्की-सी हंसी आई.... और मैं तेजी से ऑफिस की ओर बढ़ने लगा... मंजिल की ओर।

आज मैं बहुत खुश हूं। आज बारह तारीख है। बारह मार्च। आज वह मुझे पार्टी देगी। वह यानी स्वाति... मेरी प्रेमिका...।

जाने क्यों आज मुझे उसके साथ घटी हर घटना, हर बात याद आ रही है। ठीक उसी तरह बुढ़ापे में, अपने आखिरी दिनों में आदमी अपने सभी खट्टे-मीठे अनुभवों को याद करता है। मुझे लगा, मैं भी अब बूढ़ा हो आया हूं...।

यही सब सोचते-सोचते मैं ऑफिस आ गया।

एक विशाल से हॉल में अनेक मेज-कुर्सियां बड़े सलीके से लगी हैं, मेजों के सामने पड़ी कुर्सियों पर उतने ही सलीके से लोग बैठे हैं-काम कर रहे हैं। लगभग साढ़े नौ बजे का समय है। मैं भी एक कुर्सी पर बैठा हूं। काम में आज बिल्कुल मन नहीं लग रहा। मेरा मन कर रहा है कि एक बार ऊपर जा कर उसे ‘जन्मदिन मुबारक हो’ कह आऊं। लेकिन साहस नहीं कर पा रहा। डर है कहीं वह नाराज न हो जाए। आज का सारा प्रोग्राम भी चौपट हो जाएगा। उसका गुस्सा बहुत तेज है। गुस्से से उसका चेहरा एकदम लाल हो जाता है। लाल रंग मुझे बहुत पसंद है।

मैंने दोनों कुहनियों के बीच सिर को फंसा कर मेज पर रख लिया है। मुझे याद आ रहा है। एक अन्य दिन की बात है।

उसने मुझे पूछा था, ‘‘आप बहुत पढ़ते-लिखते हैं न?’’

‘‘हां, पढ़ने-लिखने का तो मुझे सचमुच बहुत शौक है।’’

‘‘मैंने सुना है आपने मनोविज्ञान पर भी अनेक पुस्तकें पढ़ी हैं’’, उसने दोबारा कहा।

‘‘तुम अपना मनोविज्ञान जानना चाहती हो?’’ मैंने बात समझते हुए कहा।

उसने हां में गर्दन हिलाई थी।

इसके बाद मैंने उसको, उसके बारे में ढेर सारी बातें बताई। उसके गुण, अवगुण, उसकी नेचर, उसका व्यवहार.... वह क्या सोचती है, क्या चाहती है... और भी न जाने क्या-क्या बोलता रहा था मैं उस दिन। मुझे खुद याद नहीं है। लेकिन इतना याद है कि अन्त में मैंने कहा था, ‘‘स्वातिजी मैंने एक उपन्यास पढ़ा था। उसकी नायिका का एक स्थान पर कहती है, आई नीड समवन हू इज कैपेबल ऑफ ब्रेकिंग योर विल, मुझे लगता है तुम्हारे साथ भी यही स्थिति है। यू नीड समवन हू इज कैपेबल ऑफ ब्रेकिंग योर विल।

उसने बात की गंभीरता को शायद समझा नहीं था। बोली-कौन तोड़ेगा मेरी विल पॉवर?

मेरे मुंह से अप्रत्याशित रूप से निकल गया-मैं।

बात को समझने में उसे एक सैकेंड लगा और उसका सारा चेहरा गुलाबी हो गया। फिर भी उसने कहा था, सुशांतजी आप बहुत अच्छे हैं।

मैंने भी चाहा था कि कहं, स्वाति जी आप भी बहुत अच्छी हैं। मैं भी आपको बहुत पसंद करता हूं। मैं आपसे....लेकिन कुछ नहीं कह पाया था. नीचे से मुझे कोई बुलाने आ गया था। और मैं नीचे आकर अपने काम में लग गया।

अगले दिन सुबह मैं उसके कमरे में पहुंच गया। कमरे में वह अपनी सीट पर बैठी थी। मुझे खुशी हुई। और सब भी अपनी- अपनी सीटों पर बैठे थे। मैं अपने मित्र से बातें करता रहा। मैं सोचता रहा शायद अब वह नमस्ते करेगी...अब करेगी। लेकिन वह गरदन नीची किये अपान काम करती रही। मुझे आश्चर्य हुआ। हार कर मैंने ही कहा, नमस्ते स्वाति जी, क्या बात है आज बहुत गंभीर लग रही हैं।

नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है, उसने इस तरह जवाब दिया कि और कोई बात करने का मेरा साहस ही नहीं हुआ। मन में एक अजीब सी खिन्नता छाती गयी और हम दोनों के बीच दूरियां बढ़ती गयीं। उसका जन्मदिन बारह मार्च करीब आ रहा था। उसने मुझे अपने जन्मदिन पर पार्टी देने का वादा किया था। वह भी मुझे अब टूटता दिखाई दे रहा था।

एक दिन वह सीढि़यों पर मुझे मिली। वह ऊपर जा रही थी और मैं नीचे आ रहा था। उसका ध्यान शायद कहीं ओर था। संयोग से वह मेरे एकदम करीब आकर ठिठक गयी। मैंने पूछा, परसों आपका जन्मदिन है?

हां, उसने कहा।

देखिये स्वाति जी, मैं आप पर इस बात के लिए कोई दबाव नहीं डालूंगा कि आप मुझसे पहले की तरह ही बात करें। लेकिन एक इच्छा है। आपके साथ बैठकर एक कप-आखिरी कप चाय पीने की, आपके जन्म दिन पर। जब आपसे दोस्ती थी तब आपने वादा किया था। मैं अपनी बात खत्म करके उसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए उसकी ओर देखने लगा।

उसने गरदन ऊपर की, उसकी दोनों आंखें मेरे चेहरे पर टिक गयीं। मैंने साफ देखा, उसकी आंखों में एक दुविधा थी। फिर भी उसने ज्यादा देर नहीं लगाई और कहा, आप लंच में मेरे रूम में आ जाना-एक बजे।

दरवाजा किसी ने बहुत तेजी से खोला। मेरी तंद्रा भंग हो गयी। लंच का वक्त हो गया है। एक बजे का समय है। बारह तारीख, बारह मार्च, आज वह मुझे पार्टी देगी। आज मैं बहुत खुश हूं।

मैंने दरवाजा खोला। वह हमेशा की तरह अपनी सीट पर बैठी है। मेहंदी कलर का सूट पहने, आंखों में एक अजीब सी दुविधा, पूर्णतः संकोचग्रस्त, रंग उसका आज भी गुलाबी हो आया है, पता नहीं क्यों?

नमस्ते स्वातिजी,

नमस्ते, उसने कोशिश की कि कम से कम शब्द बोले जाएं।

जन्मदिन मुबारक हो, मैंने उसके सामने वाली कुरसी पर बैठते हुए कहा।

थैंक्यू, उसने उसी तटस्थता से कहा।

कुरसी पर बैठते हुए मेरा ध्यान मेज पर गया तो मैंने देखा, मेज पर चाय के दो कप पहले से ही मौजूद थे। मैं चुपचाप कुरसी पर बैठ गया। कमरे में मेरे और उसके सिवाय कोई नहीं है। एकदम शांति है, मैं एकदम खुश हूं, मेरी प्रेमिका मुझे पार्टी दे रही है। मैंने उसकी ओर देखा, वह उसी तरह बैठी है, कप में पड़ी चाय को देख रही है। पता नहीं क्या सोच रही है। उसने चाय का एक घूंट भी नहीं पिया, मैंने भी नहीं पिया। मैंने सोचा कि उससे पूछ कर देखते हैं कि दुनिया यदि यहीं समाप्त हो जाए तो क्या होगा? पर नहीं पूछा, पता नहीं क्या जवाब दे दे।

मैंने सोचा, क्या इस समय हिरोशिमा की तरह ही कोई बम नहीं गिर सकता। फिर उसी तरह कोई बम गिरे और सारी दुनिया खत्म हो जाए। और उसी तरह हम दोनों की, मेरी और उसकी इमेज इस पत्थर पर अंकित रह जाए। आने वाला युग याद करेगा कि जिस वक्त बम गिरा, उस वक्त मेज पर एक प्रेमी युगल बैठा था।

मैंने उसकी ओर देखा। वह एकदम खामोश बैठी है। उसकी आंखें, मेरे और उसके बीच पैदा हुए शून्य में ना जाने क्या तलाश कर रही हैं। चाय उसने भी नहीं पी। चाय के ऊपर मलाई जम गयी है। मैंने सोचा, शायद वह कहेगी कि चाय पी लो, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। मुझे खुशी हुई। यानी वह भी चाहती है कि चाय कभी खत्म ना हो। हम दोनों यूं ही इसी तरह बैठे रहे, पता नहीं कब तक। एक दूसरे को देखते हुए, चाय का कप हाथ में पकड़े हुए। धीरे धीरे मुझे पूरा विश्वास हो गया कि यही दुनिया का अंत है...एक सुखद अंत।