उसे विदा होता देखना असहनीय है / प्रमोद आर्य
बचपन से जिस लेख को पढ़कर जो सिनेमा संस्कार पनपा, जो कुछ भी अपने आप को बना पाया हूँ उसे विदा होता देखना असहनीय है। गुरु श्री जयप्रकाश चौकसे जी के लेख “पर्दे के पीछे” ने सिनेमा के साथ जीवन की भी शिक्षा दी है। मुझे याद है मैं 9वी कक्षा में था जब से चौकसे जी का ये लेख पढ़ना प्रारम्भ किया था तब से उनको गुरु द्रोण माना। बिना मिले पढ़ता रहा सीखता रहा, इस लेख को पढ़ कर ही भारतीय और विश्व सिनेमा को देख और जान पाया। आकर्षण का सिद्धांत था की 2011 में पहली मुलाक़ात जयपुर में और फिर जयपुर-मुंबई में मिलता ही रहा 2017 में आख़िरी बार मिला तब उनके केन्सर की गंभीरता को को देखते लगा की शायद ये लेख ज़्यादा दिन ना पढ़ने को मिले लेकिन ईश्वर ने कृपा की और 80 साल की उम्र में भी आप लिखते रहे। 2,3 साल करोना ने वियोग रखा और आज अख़बार पढ़ा तो पता लगा की आज आख़िरी लेख… सभी लोगों को ये लेख पढ़ना चाहिए था ख़ासकर फिल्म निर्माण से जुड़े लोगों को तो अवश्य ही।
फिल्म निर्देशन में आपकी वजह से हूँ, अब पता नहीं कहाँ से ऊर्जा आ पाएगी इसलिए आपके ही पुराने लेखों को पढ़ता रहूँगा वहाँ तो सब कुछ है ही। मन तो कहता है आप स्वस्थ हो और फिर से लिखने लगें। पता नहीं ये कैसी उम्मीद है। शेष जीवन आपका आनंद में गुजरे मन ये बार बार कह रहा है।
इतना कुछ देने के लिए आपका कोटि कोटि आभार।