उस खिड़की से दुनिया / नीला प्रसाद
दूसरों की तरह मैं भी, दफ्तर के उस हॉलनुमा कमरे में पहली बार घुसने पर हैरान रह गई थी। उस कमरे की तीन खिड़कियों से बाहर तीन ओर का बिल्कुल भिन्न नजारा दीखता था। मेरे आने से पहले,कमरे में तीन मेजें लगी हुई थीं। मेरे आने पर चौथी, फिर बाद में पांचवी मेज लगाई गई। धीरे-धीरे जब पता चला कि उन खिड़कियों के साथ लगी मेजों पर बैठने वालों-वालियों के दिमाग की खिड़की से भी जिंदगी और मुद्दों के बारे में बिल्कुल भिन्न नजरिया पेश होता है और कोई भी मुददा ऐसा नहीं जिसपर उनके विचार मिलते हैं तो इस संयोग से मेरी हैरानी कई हजार गुना बढ़ गई। फिर तो दिलचस्पी से उसी कमरे में बैठने की इच्छा जताना स्वाभाविक था। कमरे में रोज वाक-युदध की आशंका ने मुझे क्षणांश को घेरा जरूर था पर कमरे में बैठने वाले सभी व्यकितत्व जल्दी ही एक दूसरे के इस कदर आदी हो गए कि उनमें वैचारिक अलगपने का अहसास धुल गया और एक साथ बैठते हुए भी मुद्दों पर विचार व्यक्त करने से बचते हुए सब अपनी- अपनी तरह काम करते, सोचते और जीते रहे। मैं ऐन सुबह ,दफ्तर का समय शुरु होते ही, उस खाली कमरे में दाखिल होती और अपनी कुर्सी पर कठोर चेहरे वाली अपने अंदर के अफसर को बैठाकर, खुद ,चुपके से गायब हो जाती। फिर वह महिला तो प्रफेशनल बनी, दिन भर फाइलों में माथा खपाती रहती और मैं, कभी दूर और कभी बिलकुल पास से, कमरे में सबों को समीक्षागत भाव से देखती- परखती दिन गुजारती। मेरी मेज के ठीक सामने बैठने वाली मानिनी देर-से-देर करके दफ्तर आती, फिर अपनी देरी का कारण कभी अपनी खराब तबियत, कभी बिटिया संबंधी घोर व्यस्तता को बताती। दायीं ओर विराजमान त्रिपाठीजी, अपने बेटों के अतिरिक्त आधुनिक रवैये से परेशान, आज के जमाने को कोसते रहते और अग्रवालजी इन सबसे बेखबर, बच्चों की सफलता और दफ्तर के काम से उत्साहित होते रहते। आम तौर पर मानिनी बोलने और बाकी सब सुनने का काम करते और इस भूमिका में बदलाव की जरूरत किसी को महसूस नहीं होती। तो जैसे योग निद्रा में स्वामीजी सलाह देते हैं कि आप अपने एक- एक अंग को पहले शव की तरह शिथिल करें फिर ऊपर से ब्रह्मांड में तैरते हुए अपने शव को खुद ही निश्चल पड़ा देखें; उसी तरह मैं रोज सुबह अपने को दो हिस्सों में बांटकर दोनों को काम पर लगा खुद निस्पृह भाव से कमरे में सबों को देखती रहती थी। उस देखने में खुद अपने को ही नहीं, मानिनी, त्रिपाठीजी, अग्रवालजी -सबों को देखना शामिल रहता था। फिर शाम को जब मै दफ्तर छोड़ती, अपने अंदर के दोनों को घुलामिलाकर एक बना वापस अपने साथ घर ले जाती।
दूसरी खिड़की के पास बैठी मानिनी को इस रहस्य का पता नहीं था इसीलिए वह मेरे अफसर को संबोधित बातों का जवाब मुझसे पाकर अक्सर चिढ़ जाती थी। वैसे भी जब वह बोलती थी तो मेरे अंदर का बच्चा उसे कौतुक से देखता शैतानी भरे जवाब पेश करने की योजना बनाता रहता था,मेरे मन के अंदर बैठा अभिभावक उसे डांटने को उद्यत होता था पर परिपक्व बड़ा, जो कुसीं पर अफसर बन बैठा रहता था,चुपचाप सुनता रहता था। कुर्सी पर बैठी उस अफसर का नाम रीना श्रीवास्तव था जिसे मानिनी पीठ पीछे श्रीबैस्टर्ड कहा करती थी। मानिनी के अंदर का बच्चा कहीं खो या हमेशा के लिए सो गया था और वह सिर्फ उस अभिभावक की तरह ही सोच पाती थी जिसे चीजों को रेशे - रेशे करके देखने और उसकी निरंतर आलोचना करते रहने में बहुत मजा आता है... साथ ही जो परिपक्व दृष्टि से कभी- कभी बहुत पते की बात कह जाता है। मानिनी के अंदर का अभिभावक कभी -कभी तो ऐसी बातें कह जाता था कि उसे पचाते, बहुत तकलीफ होती थी। फिर भी मैंने अपने अंदर के अफसर को आदेश दे रखा था कि वह कुछ नहीं बोले। तो सब कुछ इसी तरह चल रहा था और जिंदगी अपने ढर्रे चल रही थी कि एक दिन मानिनी ने कुछ ऐसा कह दिया कि उसे पचाना मुश्किकल ही नहीं, असंभव हो गया। जब ऐसा हो गया तो उस सुने हुए की पीड़ा से मुक्ति की चाह में उसके विचारों को फेंटती-फेंटती, मैंने उस सब को आपके लिए लिख डालने का फैसला किया। उससे यह कथा बनी- उस मानिनी की कथा जो आपको अपने सोचने के तरीके से चाहे आकर्षित करे या विकर्षित, पर मजबूर जरूर करेगी कि आप भी सोचें कि आखिर इस समाज में जो हो क्या रहा है वो क्यों हो रहा है!! ...
.. तो हाल के दिनों में मानिनी को रिजर्वेशन के मुद्दे ने परेशान कर रखा था। प्रखर बु़द्धि बिटिया भारत के प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थानों में कहीं प्रवेश पा सकेगी या नहीं - इस चिंता ने मानिनी सिंह की रातों की नींद हराम कर रखी थी। वह जमींदारों और मंत्रियों के परिवार से ताल्लुक रखती थी। पिछली सभी पीढि़यां - जहां तक का इतिहास उसे मालूम था- शासन में ऊंचे पदों पर विराजमान थे। दफ्तर में राजनीति और राजनीति में कूटनीति की वह विशेषज्ञ मानी जाती थी। ये गुण उसमें अनुवांशिक थे। वह उच्चाधिकारियों ही नहीं, सहकर्मियों और मातहतों से भी मीठी बोली बोलती थी; भले ही उनके नजरों से ओझल होते ही अपशब्दों और तौहीनों की बारिश से उनकी इज्जत उतार कर रख दे। वह राजवंश की थी और इस नाते पूरा दफ्तर उसकी प्रजा की हैसियत रखता था। तीन पीढि़यों पहले तक, उसके पूर्वजों के सामने खड़े होते,'इन जैसों’ के पांव कांपते थे। वे 'राजाजी’ के सामने हाथ बांधे, सिर झुकाए खड़े रहते थे, नजरें मिलाते तक घबराते थे। 'राजाजी’ के खेतों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे मुफ्त में खटते थे और बदले में 'राजाजी’ उनकी पु़त्रियों का विवाह कर देते थे, घर में खाने भर अनाज भेज देते थे... और पुरस्कार स्वरूप उनकी बहुओं को गाहे-बगाहे पु़त्र तक प्रदान कर देते थे.... और अब इनकी हिम्मत देखो! ऊँचे अफसर क्या हो गए, मानिनी को सचमुच अपना मातहत समझने लगे! वह दो दिन दफ्तर न आए और हाजिरी बना दे तो इशारों में समझाने लगे कि वह ऐसा करती है तो उन्हें दूसरों को जवाब देना पड़ता है। वह घंटी बजाती है तो पिअन - वह पिअन जिसके दादा, मानिनी के दादा का दिया खाते थे- तीसरी बार घंटी बजाने पर ही हाजिर होता है। वह कोई व्यक्तिगत काम बता दे तो टाल जाता है - अपनी अफसर के लिए जेब से दस-बीस रुपये तक खर्च करने को राजी नहीं होता- जबकि वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन्हें पालती-पोसती आई है। अगर सरकार ने थोड़ी सी, बस थोड़ी सी अकल दिखाई होती तो मानिनी परिवार को ये दिन देखने नहीं पड़ते। राजा और प्रजा का स्टेटस जस-का-तस रहता और देश ज्यादा तरक्की कर रहा होता! तब न तो पिछड़े मूर्खों से इंजीनियरिंग,मेडिकल कालेज की सीटें भर रही होतीं, न ही अक्षम इंजीनियरों ,डाक्टरों और प्रशासकों से देश का कबाड़ा हो रहा होता। बुद्धिमान प्रजातियों की, और भी बुद्धिमान, होनहार अगली पीढि़यां अब तक देश को कहां-से-कहां पहुंचा चुकी होतीं और देश सर्वाधिक विकसित देशों की अगली कतार में होता.... पर दिक्कत यह है कि पढ़े-लिखे बुद्धिमान अगर दो बच्चे पैदा करते हैं तो ये मूर्ख पांच! दो शिष्ट शालीन बच्चे दो कदम आगे बढ़ना चाहते हैं तो पांच उजडड- गंवार उसे पांच कदम पीछे खींच लेते हैं। पढ़े- लिखे परिवारों का पॉपुलेशन दो प्रतिशत बढ़ता है तो बिन पढ़ों का दस प्रतिशत! अब ऐसे में क्या हो? आप दिल्ली के किसी भी बस अडडे या रेलवे स्टेशन पर जाइए- दुर्गंध फैलाते, फटे- पुराने कपड़ों से लैस, बदसूरत गंवारों की भीड़ आपको घेर लेती है। ये हजारों की संख्या में हर रोज दिल्ली आते हैं और उसे बदसूरत बनाने में अपना संपूर्ण योगदान देते हैं। अब अमेरिका का राष्ट्रपति आए तो उसे क्या दिखाएं- अब तो इन सालों की भीड़ एयरपोर्ट पर भी हमला बोलने लगी है। डोमेस्टिक एयरपोर्ट क्या, इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर भी ये उजड्ड, काले- कलूटे नजर आने लगे हैं। अब जिन्हें एटिकेट नहीं, अंग्रेजी भी भ्रष्ट है... वे भी विदेश जायेंगे, पैसे कमायेंगे और हमारे जैसे घरों में रहेंगे। उन्हीं स्कूलों में बच्चे पढ़ायेंगे जहां हम पढ़ाते हैं... पर क्या तब भी वे हमारी बराबरी कर पायेंगे? हमारे बच्चे फोर्ड में घूमेंगे तो उनके मारुति 800 में! हमारे वाले डिजाइनर ड्रेस पहनेंगे तो उनके, वैसे ही दीखते डुप्लीकेट,फुटपाथी माल- सारी जिंदगी उनकी तमन्ना हमसे और हमारे बच्चों से कंपीट करने की रहेगी और वे हमारी बराबरी नहीं कर पायेंगे तो हमारा माल चुरायेंगे, हमारा मर्डर करेंगे और हमारे बच्चों को पीछे से छुरा भोंककर उनसे आगे बढ़ने की कोशिश करते जियेंगे। पर कैसे बढ़ें आगे? ये आई.ए.एस बन भी जाते हैं तो भी क्या इन्हें विदेश भेजा जा सकता है? इन्हें तो विदेशियों के साथ उठने-बैठने, उनके साथ खाने की तमीज तक नहीं। इन्हें तो ये तक पता नहीं चलेगा कि विदेश में इन्हें जो डिश परोसी गई उनका नाम क्या था या उसे खाते कैसे हैं! अपनी फैमिली बैकग्राउंड से कोई कहां तक ऊपर उठ सकता है आखिर! हीन भावना से ग्रस्त ये पिछड़े जहां भी जाते हैं भारत का नाम बदनाम ही करते हैं कि भारत उजड्डों का देश है या फिर कुछ सीख-साख कर हम पर चढ़ जाने की कोशिश करने लगते हैं। आरक्षण है, इसीलिए नि:संकोच बच्चे पैदा कर लेंगे; भले ही हम- आप इस भय के मारे नि:संतान रह जाने का फैसला कर लें कि जब अच्छी शिक्षा तक नहीं दे पायेंगे, तो क्यों लाएं दुनिया में एक भी बच्चा? आखिर वह अच्छे घरों में रहता हुआ भी सूंघेगा तो वही हवा जिसमें सड़क किनारे झुगिगयों में रहने वाले बच्चों के टट्टियों की दुर्गंध मिली हुई है! संक्रामक रोगों से ग्रस्त इनके बच्चे अपनी मांओं के साथ हमारे घरों में बर्तन-पोछा करने घुसेंगे और संक्रमित होंगे हमारे बच्चे! फिर प्रतियोगी परीक्षाओं में साठ प्रतिशत पाने वाले ये पिछड़े; इंजीनियरिंग,मेडिकल कालेजों में पढ़ रहे होंगे और बानवे प्रतिशत पाने वाले हमारे बच्चे आत्महत्या कर रहे होंगे कि वे पंचानवे प्रतिशत क्यों नहीं ला पाए क्योंकि अगड़ों के लिए एडमिशन पंचानवे पर क्लोज हो गया होगा..... तो सिर्फ अक्षम या अर्धसक्षम पीढ़ी ही देश में उपस्थित रहेगी- डॉक्टर, इंजीनियर, एडमिनिस्ट्रेटर और जाने किस-किस रूप में ... और सक्षम, काबिल, युवा पीढ़ी लगभग गायब हो चुकी होगी क्योंकि या तो वह किसी विकसित, विकासशील देश में रोजी- रोटी कमा रही होगी या वहां तक पहुंच पाने की हैसियत न रखने की वजह से आत्महत्या कर चुकी होगी। ... अब ये पीढ़ी न तो स्वीपर, पिअन बन सकती है, न रिक्शा चला सकती है ,न अपने से कमअकल बॉसों के साथ तालमेल बिठाकर जी सकती है। छोटा बिजनेस भी प्रतिष्ठा के खिलाफ ही जाता है... तब वह क्या करेगी आखिर? क्या वह जबरन इन नीची जातियों में बच्चे ब्याहेगी ताकि अगली पीढ़ी 'रिजर्व कोटा’ में आ जाए? जैसे आज ये जातियां रची- रचाई साजिश के तहत हमारे बच्चों से प्यार करती, फिर शादी कर लेती हैं ताकि हमारे नाम, रुतबे और धन पर कब्जा जमा सकें ,उसी तरह हमारे बच्चे करेंगे? तब भी फायदा इन निचलों को ही होगा। अभी तो वे हमारे परिवार में आ भी जाते हैं तो जिंदगी भर आउट कास्ट बने रहते हैं क्योंकि वे हममें घुल-मिल ही नहीं पाते। उनके तौर-तरीकों, सोच, यहां तक कि उठने- बैठने तक में फर्क साफ दीखता है- इस कारण हम उन्हें अपना नहीं पाते पर, उनके बच्चों को मजबूरन अपनाते हैं क्योंकि उनमें हमारा खून भी बह रहा होता है और वे हमारे वंशज कहाते हैं। इसी तरह आज हमारे बच्चे उन लोगों में ब्याहे जाएं तो शुद्ध रक्त और जींस के कैरेक्टर की वजह से उनकी अगली पीढि़यों की नस्ल सुधरेगी और वंश हम जैसों से जुड़ा कहायेगा... वैसे तो राजा अपनी सोच में हमेशा राजा ही रहता है और उसे पता होता है कि राजा बने रहने के लिए कौन सी नीतियां अपनानी हैं; पर हाल में दो राजाओं ने अपनी गद्दी बचाने के लिए बड़े अजीब फैसले किए हैं। मति मारे जाने के जाने किस क्षण में- दो राजाओं- श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और श्री अर्जुन सिंह ने ह्यूज आरक्षण देने का फैसला कर लिया। माना कि इनके अपने बच्चे और बच्चों के बच्चे, पीढि़यों से विदेशों में रह रहे हैं और वहीं शादी- ब्याह कर रहे हैं, पर क्या राजा का साथी राजाओं के प्रति कोई कर्तव्य नहीं होता? और प्रजा के प्रति? दरबार के लोगों और प्रजा के प्रति उनका कुछ तो कर्तव्य होता है। राजा को मंत्री, महामंत्री ,राजमुंशी,राजज्योतिषी सबकी राय को नजर रखते हुए फैसला लेना पड़ता था। कौन थे ये सब? यही आज के ब्राहमण, कायस्थ, राजपूत ,भूमिहार.... पर आज के ये राजा? ये विश्वनाथ प्रताप और ये अर्जुन सिंह?? इनका विजन मर गया है,इनके सपनों को कीड़े खा गए हैं - वे सड़े हुए भारत का स्वप्न देख रहे है- अक्षम, अर्घसक्षम, बदसूरत, बर्दाश्तबाहर लोगों से भरे भारत का स्वप्न!! अगर इनमें हिम्मत होती, इनके दिमाग को कीड़ों ने खा नहीं लिया होता तो वे चमकदार भारत का स्वप्न देख रहे होते- सुंदर,स्वस्थ, सक्षम लोगों से भरे भारत का;जहां न इतनी भीड़भाड़ होती,न गंदगी ,न पुल टूटते, न राह चलतों को लूट लिए जाने का भय होता! बेरोजगारों की अराजक भीड़, हिंसा- आतंकवाद नहीं फैला रही होती; न ही, हर जगह बदसूरत, बदशक्ल चेहरे हमारी नियति होते... स्कूल कॉलेजों में एडमिशन के लिए इतनी मारा-मारी ही क्यों होती अगर सिर्फ पढ़े- लिखों की औलादों का मामला होता!—आखिर वे बच्चे पैदा ही कितने करते हैं-दो,एक या फिर एक भी नहीं! पर सरकार भी वैसी ही कायर और डरपोक है जैसे इस कमरे में बैठे बाकी चार अफसर। सिर्फ मैं ही नहीं,आप सब भी अगड़ी जातियों के ही हैं। दो ब्राह्मण,एक राजपूत,एक कायस्थ- पर कर्मों में क्या, आपलोग तो सपनों में भी बोल्ड होते डरते हैं। अगर अगड़ी जातियों की आम जनता चाहे तो हो क्यों नहीं सकता कि हम एक कानून बना दें, रिजाल्यूशन पास करवाकर उसे कानून का रूप दे दें कि अगले पचास सालों तक पिछड़ी जातियां बच्चे पैदा नहीं करेंगी- उनका पॉपुलेशन नहीं बढ़ाया जायेगा- जब तक कि उनकी नस्ल हमारे बराबर इवॉल्व नहीं हो जाती- तब तक वे धीरे-धीरे विकास करते और मरते रहेंगे। अगड़ी जातियां जिस तरह छोटे अनुपात में जनसंख्या बढ़ा रही हैं, बढ़ाती रहें... बलिक मैं तो यह सोचती हूं कि दुनिया भर में यह कानून लागू क्यों नहीं हो जाता कि ब्यूटीफुल कपल्स ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करें,ऐवरेज लुकिंग कम और बदसूरत कपल्स बिल्कुल ही नि:संतान रहें। दुनिया की शक्ल सुधारने का इससे बेहतर तरीका क्या हो सकता है? अब मान लीजिए कि खूबसूरत कपल्स के भी कम खूबसूरत,ऐवरेज या फिर खुदा-न-खास्ता बदसूरत से बच्चे हो गए... तो फिर नियमानुसार वे बच्चे पैदा नहीं कर सकेंगे-—बस्स! इस तरह दुनिया धीरे-धीरे सुंदर लोगों से भर जायेगी.. बेस्ट लुक्स,बेस्ट ब्रेन-—डेवलेपमेंट,खुशियां,सुख ... न दु:ख, न निराशा, न स्ट्रेस... तब आज के विपरीत दुनिया किस कदर जीने लायक हो जायेगी!! पेनेलोप क्रूज और ऐश्वर्या सुंदर बच्चों की मां बनेंगी तो पबिलक को चाहिए कि वे कैंपेन करें कि वे ज्यादा-से-ज्यादा बच्चे पैदा करें। मेरी बेटी सुहानी भी सुंदर है तो मैं उसे कहती रहती हूं कि सुंदर लड़के से शादी करना और कम-से-कम छह सुंदर-सुंदर बच्चे पैदा करना- मैं दिल्ली में बदसूरतों की बढ़ती भीड़ से परेशान हूं। पर देखो आजकल की लड़कियों को! सुहानी मुझे हां नहीं करती! जब मैं समझाती हूं कि लड़का राजवंश का हो या फिर विदेशी - तब भी बस मुस्कुराती रहती है। अब सोचिए कि पिछड़ी जाति का बदसूरत,काला- अपने साथ गंदगी,अभिशप्त जिंदगी का पूरा इतिहास लिए आपकी जिंदगी में शामिल होता है और उसमें कालिमा घोल देता है। पैच बनकर जीता है परिवार में- काला धब्बा,अपसगुनिया दाग- पर आप अपने बच्चे को त्याग नहीं सकते तो उस दाग को भी अपना लेने का नाटक करना ही पड़ता है। पर उससे रक्त तो दूषित होता है न! हमारे पूर्वज कृपा करके, बीच-बीच में अपनी प्रजा को संतानें प्रदान करते रहते थे ताकि उनका वंश भी कुछ सुधर सके! अगर पिछड़ों में कोई गोरा,सुंदर,थोड़ी-सी प्रतिभा से संपन्न भी दिखाई दे जाय तो तुरंत समझ लेना चाहिए कि उसमें राजाओं का रक्तबीज है कहीं-न-कहीं!!
मेरे परदादा की तीन शादियां थीं- पहली परदादी के तीसरी जचगी में गुजर जाने पर उन्होंने दूसरी शादी एक गरीब एवं औसत नाक-नक्श की राजपूतनी से की थी। उनके तौर-तरीकों से वे नाखुश रहते थे... पर फिर भी उनसे उन्हें दो संतानें हुईं। धीरे-धीरे वे उनसे एकदम ही आजिज आ गए। कुछ सालों के बाद एक खूबसूरत चमारिन से उनके संबंध हो गए तो वे एक अच्छे जमींदार की तरह उन्हें ब्याह कर घर ले आए। चमारिन परदादी बहुत अच्छी थीं- सलीकेदार,सुंदर,रौबीली... परदादा को पूरी तरह खुश करके रखने वाली। परदादा उन्हें बहुत प्यार करते और मायके से पूरी तरह काट कर रखते थे। परदादी भी मायके जाने की उत्सुकता नहीं दिखाती थीं। अपनी सौतों के चार बच्चों और अपने तीन- सबको परदादी बराबर प्यार से रखती थीं। खुद रानी की तरह गहनों से लदी घूमती थीं और किसी की मजाल नहीं थी कि उनके हुक्म के विरुद्ध महल में पत्ता भी खड़का ले। पर मेरे दादा,जो परदादा की पहली पत्नी की सबसे बड़ी संतान थे- कभी उन्हें मां नहीं बोल पाए- उम्र में वे उनके बराबर की जो थीं। वे उनसे नजरें चुराते फिरते थे। जब दादा की शादी तय हुई तब भी सारी रस्में उन्होंने अपनी बड़ी सौतेली मां से करवाईं। मेरी दादी सीधी-सादी गांव की महिला थीं। बाद में जब दादा आई.ए.एस हो गए तब, उन दादी के कहने पर ही, उन्होंने दूसरा विवाह एक पढ़ी-लिखी राजपूतनी से कर लिया। मेरे दादा ने कभी अपनी पहली पत्नी को बेइज्जत या उनके हकों से महरूम नहीं किया। मेरी दोनों दादियों में बहुत प्रेम है। यहां तक कि मेरी दादी, जो दादा की पहली गांव वाली पत्नी हैं,खुद कहती हैं कि छोटी को घर में लाकर मुझे बहुत संतोष है क्योंकि मैं कोई पढ़ी-लिखी तो हूं नहीं जो इनके साथ विदेश जाऊँ और यहां भी अगर विदेशी मेहमान आएं तो पार्टियां-शार्टियां करूं.... मुझे तो हवाई जहाज में बैठने तक की तमीज नहीं। यह तो मेरा भाग्य है कि शादी के पांच सालों के अंदर ही मेरे पति असली राजा हो गए। मेरे दादा भी इसे पहली दादी के भाग्य का प्रताप ही मानते हैं कि वे आई.ए.एस हो गए। अब भागवाली कहाकर दादी, अपने कर्मों से अपने पति का भाग्य क्यों खराब करतीं? कहां-कहां ढोते फिरते वे बिन पढ़ी-लिखी पत्नी को! तो खुद उन्होंने,अपनी सासूमां के साथ मिलकर दादा के लिए दूसरी पढ़ी-लिखी सजातीय पत्नी ढूँढी ताकि दादा भी,परदादा की तरह किसी चमारिन-वमारिन के चक्कर में न फंस जाएं। अब मेरी दादी कहती हैं कि जब छोटी को दिल्ली वाले घर में चुस्त-दुरुस्त कपड़े पहने, अंग्रेजी बोलते देखती हूं या हवाई जहाज से उतरते देखती हूं तो कलेजे को ठंढक पड़ जाती हैं। वह गांव आती है तो मैं उसका पूरा खयाल रखती हूं- कभी रात को ये मेरे कमरे में आ भी जायं तो हंसकर उन्हें छोटी के पास वापस भेज देती हूं। मैं भली और भला मेरा छोटा सा जहान- बस, मेरा सुहाग बना रहे!
गांव में राज करता- करता, कब मेरा बेटा शहर जाकर इतनी आसानी से आई.ए. एस अफसर बन गया, कब मेरी बेटी की इतनी अच्छी शादी हो गई - कुछ पता नहीं चला। सबकुछ तो छोटी ने ही संभाला। मेरी मां बताती हैं कि जब वे ब्याह कर आईं तो अपनी सास यानी गांव वाली दादी ने तो बस लाख रुपये के गहने ही दिए पर छोटी सास यानी दिल्ली वाली सास ने पांच लाख का सेट दिया। वे बोलीं कि मेरी बहू मुझसे ज्यादा पढ़ी-लिखी, सुंदर और होनहार है- इसका स्वागत सलीके से होना चाहिए। मेरे नाना भी जमींदार थे और मां उनकी इकलौती बेटी, तो उन्हें गहनों से लादकर ही भेजा गया था पर छोटी दादी के दिए गहने उन्हें सबसे ज्यादा पसंद हैं। हम बहनों की शादी में भी उन्होंने दादी के दिए गहनों में से कुछ नहीं दिया- बाद में भाभी को भले दे दिया। अब जब कभी गांव की हवेली में- जिसमें चालीस कमरे हैं- सब इकटठा होते हैं और अपने खानदान की तारें मिलाते है तो परदादा की तीसरी पत्नी से पैदा हुई संतानों की सफलता से सब चकित रह जाते हैं। चमारिन परदादी गजब की कुटिल थीं। उस जमाने में भी उन्हें पता था कि देश में सबसे अच्छे स्कूल कॉलेज कौन से हैं- वे अपने बच्चों को वहां भेजकर ही मानीं। परदादा के पहले चार बच्चे भले इसी देश में पढ़े, आखिरी तीन विदेशों में। आज उनके वे सब बच्चे अपने देश लौटना भी नहीं चाहते। हम ही कौन उनसे संपर्क रखना चाहते हैं! दूषित रक्त की संतानों को अपना नसीब मुबारक हो।
'मानिनीजी, मिश्रित रक्त की संतानों से परहेज का जमाना लद गया और वैसे भी राजपूतों में तो मिश्रित रक्त कोई मायने नहीं रखता... कितने ही राजपूत राजाओं की अन्य जातियों या धर्मों की पतिनयां, उप पतिनयां थीं’, त्रिपाठीजी मानिनी के एकालाप और तर्कों के तोड़मरोड़ भरे घालमेल से आजिज आ गए मालूम होते थे। मानिनी तमतमा गई। 'बकवास है सब! आप जैसे गपोड़ी ब्राह्मणों की कपोल कल्पित कथाएं,जिन्हें रीना श्रीवास्तव जैसी कायस्थ जातियों ने लिखकर पक्का कर दिया।... और अगर औरंगजेब के जमाने में एक रानी हिंदु थी तो क्या उसका रक्त आज तक मुसलमानों में बहता रहेगा? उसी तरह एक परदादी चमारिन थीं तो क्या उनके बच्चों में परदादा का रक्त नहीं था? उन सबों ने राजपूतों में ही शादियां कीं इसीलिए तरक्की कर पाए! चमारों में ब्याहते तो क्या इतने इंटेलिजेंट बन पाते? मिल पाता वह वातावरण जो आज मिला हुआ है?? विदेश में सेटल हो पाते? आज मानिनी सिंह की तरह रातों की नींद हराम कर रहे होते कि बिटिया का एडमिशन कहां होगा! पर विडंबना देखिए कि आज मेरे वही रिश्तेदार मेरी बेटी को स्पांसर करने को तैयार नहीं। स्पांसर करने के नाम पर तो उन्हें वे सब काल्पनिक फब्तियां याद आने लगती हैं जो परदादा के दूसरे बच्चों ने उन पर कसी होंगी! कॉम्प्लेक्स अपना रहा होगा और तोहमत दूसरे पर मढ़ेंगे.... भले ही उन्हें फूलों की तरह घर में पाला गया हो, वे बाहर गांव में निकलते होंगे तो लोगों की जुबान पर लगाम थोड़े रहता होगा... कुछ-न-कुछ सुनना ही पड़ता होगा! घर लौटकर अपनी मां से दुखड़ा रोते होंगे और समर्थ मां, उन्हें बाहर पढ़ने भेजने के बहाने उस वातावरण से दूर करती गई होगी। बाकी बच्चों,असली राजपूत बच्चों की ,घर पर रहकर पढ़ने की मजबूरी और आधे चमारों की ऐश... इस तरह करते हैं नीची जाति वाले तरक्की!! आज खानदानी राजपूत मेरी सुहानी, विदेशी युनिवर्सिटियों के फॉर्म भरती,वहीं जाने की जुगाड़ में लोन एप्लीकेशन भरती फिर रही है, जहां निचली जाति का रक्त लिए उसके थर्ड, फोर्थ कजिन, पहले से विराजमान हैं। अभी तो कह रही थी कि चमारिन परदादी का रक्त अबतक शुद्धिकरण की प्रक्रिया पूरा कर चुका है! मैंने मन में सोचा। पर इसके पहले कि मैं अपने अंदर के बच्चे को घुड़क पाती वह बोल उठा 'अरे! इतने जेनेरशन बाद भी तुम्हारे खानदान में निचली जाति का रक्त विराजमान है- रक्त शुदध हुआ नहीं अब तक? अब तो उन्हें मान लो अपना असली रिश्तेदार, जब तीन पीढि़यों से राजपूतों में ही बच्चे ब्याह रहे हैं! सुहानी टैलेंटेड है। किसी -न-किसी विदेशी युनिवर्सिटी में दाखिला पा ही लेगी...स्पांसर न भी करे,रिश्तेदार हैं वहां तो फर्क तो पड़ता ही है!' ‘ओह! वे कहते हैं कि उन्हें हमसे कोई मतलब नहीं। हमने उन्हें रिश्तेदार माना ही कब? अरे,ऐसे लक्षणों वाले को रिश्तेदार मानेगी हमारी जूती’ 'चलो चिंता छोड़ो। सुहानी भारत में कहीं-न-कहीं अच्छी जगह एडमिशन पा लेगी। टैलेंट कहीं छुपाए छुपता है?’अबकी मेरे अंदर के अभिभावक ने सुहानी को आशिर्वाद दिया। 'कहीं-न-कहीं मतलब? उसे या तो आई.आई.टी में पढ़ना है-वह भी अच्छे ब्रांच में, या फिर विदेश जाना है। चमारिन परदादी के पोते-पोतियों से आगे जाकर दिखाना है उसे! वह शुद्ध राजपूत है, मिश्रित नहीं है वह!’ मानिनी तमतमा गई और गुस्से में पैर पटकती बाथरूम की ओर चल दी।
कमरे में वातावरण भारी हो गया। पर कमरे के बाहर उपस्थित लोग अपनी मुस्कान पसरने से रोक नहीं पाए। 'क्यों छेड़ा उसे?’ मेरे अंदर अभिभावक ने, बच्चे को जोर से डांटा। अफसर सोचने लगा, अब क्या करें! कमरे में उपस्थित सब आशा भरी निगाहों से मेरी ओर देख रहे थे । आखिर मैं ही थी मानिनी के अलावा कमरे में उपस्थित एकमात्र महिला जो ऐसे अवसरों पर काम आ सकती थी।
अनर्गल बोलने,सुनने और सोचने की सीमा होती है आखिर! मैंने खुद को डिफेंड किया पर अफसर को अनुशासनहीनता कैसे पसंद आती!
मानिनी बाथरूम से लौट आई थी। वह स्पष्ट तौर पर रो रही थी।
मानिनी को कुछ भी बोलना गुस्ताखी है तो उसे चुप कराने को मुंह कैसे खोला जाय?
'इस कमरे में बैठने वाले सबों को मालूम है कि मैं अपने बूते बेटी को विदेश नहीं भेज सकती तो चिंता छोड़ो बोलने का मतलब? मैं नहीं तो क्या दूसरे लेंगे मेरी बेटी का जिम्मा? वे लेंगे उसके लिए लोन?? और मैं खुश होकर दे दूंगी दूसरे को अपनी बेटी का जिम्मा! ऐसे फेंके हुए ढंग से नहीं पली मेरी बेटी! सही है कि घर में अथाह संपत्ति है,पर जब कैश चाहिए होता है तो दिक्कत होती है। अब गिफ्ट में सोने की चेन आ जाय पर बैंक खाली हो तो क्या सोने की चेन खाएं? पर उस नाते किसी का मजाक उड़ाना अच्छी आदत नहीं है।‘
'सॉरी मानिनी! क्या तुम्हें मेरी बातों से चोट पहुंची?’ मैं अपने अफसर को आगे करके, हिम्मत दिखाके बोली।
'तुम्हारी या किसी की औकात ही क्या है मुझे चोट पहुंचाने की! राजा को कभी प्रजा चोट पहुंचा सकती है? एक राजा को दूसरा राजा ही चोट पहुंचा सकता है और मेरे साथ भी यही हो रहा है। आज न होते अर्जुन सिंह के खब्ती दिमाग से उपजे फरमान, तो नहीं होती एडमिशन की चिंता और मैं दिखा देती चमारिन परदादी के पोते- नातियों को कि सुहानी का टैलेंट क्या है... और वैसे भी...’ पर मानिनी का रोना थम ही नहीं रहा था। एक क्रिटिकल पेरेंट के रोल से वह अचानक उस अकेली बच्ची में तब्दील होती दीख रही थी जिसका दुनिया में सबकुछ खो गया है, या फिर एक ठूंठ मात्र जिसने अपने एक-एक पत्ते के गिरने का दर्द महसूसा हो और जिसे फिर से वसंत आने की कोई आशा शेष नहीं। वह सुहानी के लिए नहीं , शायद सिर्फ अपने लिए रो रही थी और उसे चुप कराने की औकात वाला कोई इस दुनिया में मौजूद नहीं था । ख्वाबों की जिस रची बसी दुनिया में वह जीना चाहती थी,वह दुनिया कहीं नहीं थी और वास्तविक दुनिया लगातार बदलती, खत्म होती, मरती और एक फिर से जनमती एक नई दुनिया में तब्दील होती जा रही थी...पर क्या मानिनी को इसका पता तक था??
मेरे अंदर के अभिभावक ने, मेरे अफसर और बच्चे को आदेश दिया- ‘उसे अकेला छोड़ दो क्योंकि यह अकेलापन उसने खुद अपने लिए, अपनी इच्छा से चुना है’ ‘यह ठीक नहीं है’- मेरे अंदर बच्चे ने इसका मचलकर विरोध करना चाहा। पर इस बारे में कोई निर्णय ले पाती उससे पहले ही अचानक मानिनी उठी,उसने अपने आंसू पोंछे और सबों को विस्मित करती, अपनी सिंहनी की चाल से कमरे से निकल गई।
मैं भी उठ गई और अंदर के बच्चे, अभिभावक समेत वहां से चल दी। नहीं, किसी को पता थोड़े चला कि वहां से तीन गए हैं क्योंकि वहां से तो रोज की तरह सिर्फ एक ही कमरे से निकलता उन्हें दीखा था।
(पुनश्च: इस कहानी में पात्रों के विचारों से कहानी लेखिका के विचारों का कोई मेल नहीं। पाठक कृपया इस कहानी को लेखिका के व्यकितगत विचारों का विस्तार न समझें।)