उस तरह की औरतें / डॉ. रंजना जायसवाल
हर तरफ त्यौहार का चहल पहल थी। दुकानें पिचकारियों, टोपियों और रंगों से भरे पड़े थे। कभी-कभी सोचती हूँ ये त्यौहार क्यो आते है पीठ और कमर की हालत खराब हो जाती है। फिर भी कुछ न कुछ रह ही जाता है। झाड़ू-पोछा तो रोज ही होता था पर विधिवत सफाई तो बाकी ही रह जाती थी। ऊपर से खाने में जरा भी देरी हो जाती तो हर्ष सर घर पर उठा लेते,
"तुम औरतों का समझ नहीं आता रोज कुछ न कुछ लेकर बैठ जाती हो, त्योहार आ रहा है इसका मतलब क्या है। अरे भाई! लोग तुमसे मिलने आते हैं कोई तुम्हारे घर से नहीं... किसी को इतनी फुर्सत नहीं है कि तुम्हारा घर देखे। वैसे भी दस साल हो गए को घर को बने अब क्या देखना-दिखाना।"
मधु चुपचाप हर्ष की बात सुनती रही, क्या कहती जब से आँख खोली है तब से यही सब तो करते देखा तो उसने अपनी माँ और दादी को...ससुराल आई तो सासु माँ भी तो यही करती आई थी। सासु माँ मुँह से कुछ कहती तो नहीं थी पर अक्सर तिरछी नजर से कह ही देती,
"हमारा तो मानना है सजी-धजी मेहरिया और लिपी-पुती डेहरिया ही शोभा देती है।"
पर्दे, कुशन, चादर धुलना-बदलना ये सब इतना आसान नहीं था। ऊपर से कामवालिया भी मौके पर भाग ही जाती है। मधु काम-करते-करते खीझ जाती थी, ऊपर से बच्चों के फरमाइशें खत्म होने का नाम नहीं लेती।
मधु दर्द से कराह उठी, स्पॉन्डिलाइटिस का दर्द इधर ज्यादा तकलीफ़ दे रहा था। हर्ष गहरी नींद में सो रहे थे, मधु बहुत देर तक दर्द से करवटें बदलती रही। चिंता और डर के मारे उसे नींद नहीं आ रही थी। कल सब सूखा नाश्ता बनाना है। गुझिया, मठरी, नमक पारे, शक्कर पारे, लड्डू, नमकीन उफ्फ...इस दर्द को भी अभी उठना था। दो दिन से वह पेन किलर खा रही थी, उसकी आवाज़ से अगर हर्ष की नींद टूटी गई तो...शाम को बच्चों के लिए कपड़े और पिचकारी लेने भी तो जाना था। कल ही सुबह जब वह अपनी अकड़ी हुई गर्दन को घुमा-घुमाकर आराम देने की कोशिश कर रही थी तो हर्ष ने झट से पकड़ लिया था।
"कितनी बार कहा गर्दन की एक्सरसाइज किया करो, अभी स्पॉन्डिलाइटिस बढ़ गया तो पिछले साल की तरह डॉक्टर के पास लेकर दौड़ना पड़ेगा। तुम औरतों का समझ नहीं आता, डॉक्टर को पैसे देने के लिए तैयार हो पर खुद के लिए वक़्त नहीं निकाल सकती।"
गलत तो नहीं कहा था हर्ष ने ...वक्त ही तो नहीं था उसके पास, दिन भर बच्चों और पति के पीछे भागते-भागते बीस साल निकल गए थे। दिन भर मधु-मधु की ही पुकार लगी रहती।
मधु का गला प्यास से सूख रहा था, अंधेरे में ही उसने सिरहाने पर रखी बोतल को टटोलने का प्रयत्न किया। बोतल धप्प से जमीन पर गिर गई, मधु ने घबराकर हर्ष की तरफ देखा कही...हर्ष करवट बदल कर सो गये। मधु चुपचाप कमरे से बाहर निकल आई, मधु ने चौके की बत्ती जलाई और गिलास में पानी डालकर स्लेप का सहारा लेकर खड़ी हो गई। दर्द अब बर्दाश्त से बाहर हो रहा था, वह याद करने की कोशिश कर रही थी कि कल दोपहर में दवा खा कर पत्ता कहाँ रख दिया था पर दर्द से दिमाग भी काम नहीं कर रहा था। उसने निराश होकर पानी को गले से उतार दिया, इन दिनों गर्मी बहुत बढ़ गई थी। पानी में भी स्वाद नहीं आ रहा था, मधु ने फ्रिज से ठंडी बोतल निकालने के लिए हाथ बढ़ाया और ठंडा पानी गिलास में मिला कर फ्रिज को जैसे ही बन्द किया। फ़्रिज के ऊपर रखा पेन किलर का पत्ता उसके पैरों के पास आकर गिर गया। मधु के चेहरे पर एक मुस्कुराहट आ गई। मधु को न जाने ऐसा लगा मानो वह दवा का पत्ता भी उससे आँख-मिचौली कर रहा था... "तुम मुझे ढूँढ रही थी न और देखो मैं यहाँ हूँ।" दर्द दूर करने वाले दोस्त ही तो कहलाते हैं वह भी तो इन दिनों उसका दोस्त ही बना हुआ था।
मधु मुँह अंधेरे ही उठ गई थी, काश त्यौहार के समय 24 घण्टे की जगह 26 घण्टे होते या फिर रात ही नहीं होती। बचपन में माँ की इस बात को सुनकर वह कितना हँसती थी, आजकल वह भी ऐसा ही सोचने लगी थी। मधु के चेहरे पर न जाने क्यों एक मुस्कुराहट आ गई। उसने जल्दी-जल्दी गुझिया का पूरन बनाया और मठरी और नमक पारे बेलकर रखने लगी, बर्तनों की खटर-पटर से माँ जी की नींद खुल गई।
"इतनी सुबह-सुबह क्या कर रही हो मधु ...सारी नींद खराब कर दी। एक तो बुढ़ापे में वैसे ही नींद नहीं आती ऊपर से तुम..."
मधु माँ जी की बात पर मुस्कुरा दी, जब बच्चे छोटे थे तब माँ जी ही कहती थी कि बच्चों के उठने से पहले काम निपटा लो वरना उनको कौन सम्भालेगा। दिनभर रोते रहेंगे। हँसते हुए बच्चे को तो हर आदमी सम्भाल लेता था पर रोते... हर्ष भी कितनी आसानी से पल्ला झाड़ लेते थे। "अरे यार तुम ही संभालो मेरे बस का ये सब रोग नहीं है।"
माँ जी वही मचिया खींचकर बैठ गई,
"ला मधु मुझे मैदा और घी दे मैं शक्कर पारे का आटा गूथ देती हूँ। इन सब चीज़ों में घी की कंजूसी थोड़ी की जाती है, अरे भाई साल भर का त्यौहार है मन का खाया नहीं तो किस बात का त्योहार...पूरे त्यौहार भर हर्ष कहता फिरेगा। अम्मा वह बात नहीं जो तुम्हारे हाथ में है।"
अम्मा का चेहरा दर्प से चमक गया, मधु की शादी के बीस साल हो गए थे पर आज भी माँ और बेटे की नजर में वह अम्मा के हाथों का स्वाद नहीं ला पाई थी। मधु सर झुकाए मठरी तलती रही। गर्म तेल में डूबी मठरी को छोटे-छोटे बुलबुलों ने अपने आगोश में ले लिया था और मठरी छटपटाती अपने अस्तित्व को तलाश रही थी। कही न कही उस गर्म तेल में उसका दम घुट रहा था आखिरकार उसने उन वर्जनाओं से लड़ते हुए अपने अस्तित्व को ढूँढ लिया और अपनी परिस्थितियों से जूझते तपकर सुनहरे रंग में तब्दील हो कर ऊपर आ गई। मधु का जीवन भी कुछ ऐसा ही तो था। उम्मीद की आंच पर सीजते सपनों को वह मायके की देहरी पर कब का छोड़ आई थी। मन की अटरिया की अलगनी पर उसने खवाबों को कब का टाँग दिया था और वह ख्वाब वक्त के साथ गिरते-टूटते रहे और वह उन खवाबों की किरचों को इकट्ठा कर फिर एक नया ख्वाब बुन लेती।
चौके की खटर पटर से धीरे-धीरे सबकी नींद खुल गई,
हर्ष आँख मलते-मलते चौके तक आ गए।
"क्या यार चैन से सोने भी नहीं देती, अम्मा तुम भी न..."
"अरे कुछ नहीं बहू अकेले कर रही थी सोचा हाथ बँटा दूँ।"
मधु ने झट से चाय चढ़ा दी, धीरे-धीरे बच्चे भी जग जायेगे...उनका दूध-नाश्ता अभी तो पूरा दिन बचा था। दिन भर कोई न कोई फरमाइशी कार्यक्रम लगा ही रहेगा।
"...और अम्मा क्या-क्या बन रहा है।"
"वही हर साल की तरह छोला, कस्टर्ड और दही बड़ा..."
मधु चुपचाप बड़ी देर से माँ-बेटे का वार्तालाप सुन रही थी, उससे रहा नहीं गया।
"माँ जी! इतना सब कुछ तो बना रही, वैसे भी आजकल कोई आता-जाता भी नहीं।"
"आता-जाता नहीं! ...इसका क्या मतलब हम लोग हैं... बच्चे है, नौकर-चाकर है। साल भर का त्यौहार है ऐसे ही थोड़े किसी को खाली हाथ विदा कर देंगे। आजकल जरा-सा काम बढ़े तो लड़कियों का हाथ-पैर फूल जाता है। हमारे जमाने में तीन-तीन देवरानी-जेठानी का परिवार, कनस्तर भर का गुझिया बनती थी। भगोना भर-भर के दही बड़ा...यहाँ तो वही बन रहा जो हम बनाते थे। कौन-सी नई चीज बन जाती है।"
मधु आश्चर्य से माँ जी का चेहरा देख रही थी, डेढ़ हफ्ते से पापड़, चिप्स और बड़ियाँ बना रही थी ...फिर भी उनकी आँखों में उसके लिए एक संदेह, एक प्रश्न तैर ही रहा था। मन न जाने क्यों खट्टा हो गया...
"भाभी-भाभी! कहाँ है आप...?"
ये तो अनुषा की आवाज़ है, इतनी सुबह... क्या हो गया सब ठीक तो है न... मधु अभी सोच ही रही थी कि अनुषा चौके की खिड़की तक पहुँच गई।
"भाभी! विनीत आज ऑफिस से जल्दी आ जाएंगे, मुझे शायद थोड़ी देर हो जाये ये चाभी रख लीजिए। आ जाये तो दे दीजियेगा..."
मधु के चेहरे पर एक सहज मुस्कान आ गई
"क्या कर रही भाभी...?"
"बस वही सब... होली की तैयारी... गुझिया बन गई तुम्हारी?"
"बाप रे! ये सब मेरे बस का नहीं है भाभी...वैसे भी समय कहाँ है मेरे पास, नौकरी से फुर्सत ही नहीं।"
"फिर भी... कुछ तो, कोई आएगा-जाएगा तो क्या खिलाओगी।"
"मार्केट में सब कुछ मिलता है, कौन करेगा ये सब झंझट...अच्छा भाभी मैं चलती हूँ, ऑफिस के लिए देर हो रही है।" अनुषा मधु को उसके विचारों के साथ जूझने के लिए अकेला छोड़कर आगे बढ़ गई। माँ जी की बड़बड़ाहट से मधु की तन्द्रा टूट गई, "इस तरह की औरतों से भगवान बचाये अपना घर तो ठीक से बसा नहीं पाती, दूसरों का न जाने कब तोड़ दे।"
इस तरह की औरतें...अनुषा एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती थी तेज तर्रार और बिंदास, घर और घरवालों को उसने अपनी सहूलियत के हिसाब से ढाल रखा था, ऐसा माँ जी का मानना था..."जोरू कमा के लाती है तो क्या सर पर बैठाकर रखेंगे। अरे रोज न सही कम से कम तीज-त्योहार के दिन तो ढंग के कपड़ें पहन लें। साल भर का त्यौहार है कम से कम कुछ तो पकवान बना ले, इन जैसी औरतों के कारण ही बाज़ार वालों की चाँदी है, कुछ करना ही नहीं चाहती।"
मधु सोच रही थी घर की खुशी के लिए वह अपनी खुशी कब का भूल चुकी थी पर फिर भी वह किसी को खुश नहीं कर पाई थी। कम से कम कोई तो अपनी खुशी के साथ जी ले। दिल में घुमड़ते विचारों को उसने नल के तेज धार में बहा दिया और हमेशा की तरह सब कुछ भूलकर काम में लग गई। सुबह से एक पल की भी फुर्सत नहीं मिली थी, हर्ष गुस्से में चौके में दो-तीन बार चक्कर मार चुके थे।
"मैडम! आप शायद भूल गई है, आज ही बाज़ार जाना है पर आप को तो फुर्सत ही नहीं। तुम औरतों का समझ नहीं आता। पहले से ही तय था पर फिर भी..."
हर्ष से बहस करने का कोई फायदा नहीं था, मधु ने जल्दी से साड़ी की प्लेट्स ठीक की और शीशे पर एक भरपूर नजर डाली। दर्द में गुजरी रात की झलक चेहरे पर साफ दिख रही थी। वह चुपचाप गाड़ी में आकर बैठ गई, चारों तरफ नर मुंड ही नर मुंड थे ...ऐसा लग रहा था मानों सारा शहर ही घरों को छोड़कर सड़क पर उतर आया हो। हर्ष लगातार बड़बड़ा रहे थे,
"कह रहा था समय से निकलो पर नहीं, देखो कितनी भीड़ हो गई है। सड़क पर गाड़ी चलाना तक मुश्किल हो गया है..."
मधु चुपचाप सुनती रही, जब इंसान सब कुछ समझ कर भी न समझे उसे समझाने से क्या फायदा। गाड़ी सड़क पर रेंग रही थी...चौराहा पार करते-करते दो बार लाल बत्ती हो गई। मधु की नजर बाज़ार की तरफ ही चिपकी हुई थी कही न कही घर से बाहर निकलकर वह राहत महसूस कर रही थी। कुछ देर के लिए ही सही वह घर-गृहस्थी से दूर खुले आसमान में सांस ले पा रही थी। चौराहे से कुछ पहले रंग-बिरंगे कपड़ों में कई सुंदर लड़कियाँ खड़ी थी, नए फैशन में कटे हुए बाल, चेहरे पर भारी मेकअप और सुडौल काया किसी का भी ध्यान खींचने के लिए पर्याप्त थी। मधु बड़े ध्यान से उन्हें देख रही थी...
"हर्ष! उन लड़कियों को देखिये कितनी सुंदर है।"
न जाने क्यों हर्ष के चेहरे पर एक झुंझलाहट आ गई।
"तुम भी न... कुछ समझती नहीं।"
मधु आश्चर्य से हर्ष को देख रही थी, इसमें समझने जैसा क्या है।
"मधु ये उस टाइप की औरतें है..."
"उस टाइप! मतलब..."
"तुम तो कुछ समझती नहीं... दुनिया से छुपाने के लिए कही नौकरी कर लेंगी और फिर...? इनके पैंतरेबाजी तुम नहीं समझोगी।"
हर्ष जैसे समझदार व्यक्ति की इस तरह की सोच, सच कहा है किसी ने...सभी को स्त्री सीता जैसी ही चाहिए पर क्या उसे बुद्ध जैसा नहीं होना चाहिए पर स्त्री बुद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि अगर वह बुद्ध की तरह अपने दुधमुंहे सन्तान और पति को छोड़कर आधी रात को घर से निकल जाए तो वह कुलक्षणी कहलाएगी। तब कभी समाज ये जानने का प्रयास नहीं करता कि हो सकता है वह खुद की तलाश करने निकली होगी। बुद्ध वन से लौटते हैं तो वह महात्मा हो जाते हैं और स्त्री लौटे तो कलंकित...खुद को पवित्र साबित करने के लिए उसे न जाने कितनी अग्निपरीक्षा देनी होती है।
मधु बाज़ार से लौट आई, हाथों में सामान के पैकेट के साथ खुद को संभालती...मधु सोच रही थी कितना फर्क था हर्ष और मधु के लौटने में, हर्ष लौटे थे बैठक में, डायनिग टेबुल की मेज पर फिर नींद के कमरे में पर वह लौटी थी पूरे घर के लिए, बच्चों की भूख में, माँ जी की रात की दवाई में ।बस नहीं लौटी थी अपनी आँखों में भर पेट नींद लेकर...आखिर उसे सुबह के ढेर सारे अधूरे कामों की चिंताओं के लिए लौटना ही था। पूरा घर गहरी नींद में सो रहा था और वह चौके में सधे हाथों से काम निपटा रही थी कि कही उसकी एक आवाज से किसी की नींद न टूट जाये। मधु चुपचाप आँखे बन्दकर जमीन पर बैठ गई, वो सोच रही थी स्त्री अपने एकांत में ही स्त्री होती है बाकी समय वह केवल सम्बन्ध होती है।
चारों तरफ होली का हुड़दंग मचा हुआ था, उसने जल्दी-जल्दी नहा-धोकर भगवान को भोग लगाया और माँ जी के पैरों में चुटकी भर अबीर लगा कर होली की शुभकामनाएँ दी। बच्चे बड़े सवेरे ही उठ गए थे, हर्ष बॉलकनी में बच्चों के लिए बाल्टी में रंग घोल रहे थे।
मधु ने पीछे से आकर हर्ष के गालों पर गुलाल लगा दिया और अपनी इस उपलब्धि पर वह खिलखिला कर हँस पड़ी। बचपन में कितना पसन्द था उसे ये त्यौहार पर वक्त और जिम्मेदारी ने उसकी पसन्द-नापसंद को कही पीछे धकेल दिया था। हर्ष की आँखों में फगुआ छाया हुआ था, उसने मधु को पकड़कर अबीर से सरोबार कर दिया। न-न करते हुए भी वह पूरी तरह रंग में डूब चुकी थी, अबीर के रंग में या शायद हर्ष के प्रेम के रंग में...
तभी पड़ोस से किसी के खिलखिलाने की आवाज सुनाई पड़ी, अनुषा की साथी कर्मचारियों की टोली लाल-हरे रंग में डूबी अनुषा को रंग लगाने की कोशिश कर रहे थे और अनुषा तितली-सी इधर-उधर भागने की नाकाम कोशिश कर रही थी। अंत में अनुषा ने उनके आगे आत्मसमर्पण कर दिया और वह साधु-सन्यासी की तरह आँख मूदकर पालथी मारकर बैठ गई। किसी ने बाल्टी भर रंगीन पानी उसके शरीर पर उड़ेल दिया और वह जमीन पर बैठे-बैठे ही नाचने लगी। कॉलोनी के सभी लोग बॉलकनी से अनुषा और उसकी साथी मित्रो की होली का आनन्द ले रहे थे। चुस्त जींस और टॉप में तितलियों से उड़ती-फिरती लड़कियाँ ज़िन्दगी से भरपूर थी। तभी सामने वाले चौबे जी पान से भरे मुँह को गुलगुलाते हुए अपनी छत से चिल्लायें
"और हर्ष बाबू फगुआ का मजा ले रहे हो।"
न जाने क्यों मधु को ऐसा लगा मानो उनके कहन और कथन में बहुत अंतर था, उनकी आँखें अनुषा और उसकी सखियों को ही लगातार घूर रही थी। बगल वाली मिश्रा भाभी अनुषा की टोली की आवाज को सुनकर छत पर आ गई। मधु छत की मुंडेर से आकर चिपक गई और लाल अबीर मिश्रा भाभी के गालों पर मल दिया।
"होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ भाभी!"
"तुम्हे भी..."
मिश्रा भाभी उम्र में मधु से थोड़ी बड़ी थी पर मधु से उनकी अच्छी पटती थी। अनुषा अपनी ही दुनिया में मस्त थी...कौन उसे कब, कहाँ और किस निगाह से देख रहा, उसे बिल्कुल भी परवाह नहीं थी। तभी न जाने विनीत कही से आ गया और अनुषा ने उसकी शर्ट में मुट्ठी भर गुलाल मल दिया और उसकी पैंट में मग्गे से रंगीन पानी डाल दिया। विनीत हो-हो कर हँस पड़ा, अनुषा विनीत की हालत देखकर ताली पीट-पीट कर हँस रही थी, जैसे किसी बच्चे को उसका पसंदीदा खिलौना मिल गया हो। मिश्रा भाभी ने मधु को कुहनी मारते हुए कहा...
"तुम भी जाओ न, भैया को ऐसे रंग लगाओ।"
उनकी आँखों में एक शरारत उभर आई,
"आप भी न भाभी! ...कुछ भी कहती है।"
"अरे अपनी पड़ोसन से कुछ तो सीखो...यहाँ तो काम-काम करते-करते हालत खराब हुई जा रही। अभी पूड़ी और पुलाव बनाना बाकी ही है, इन मैडम को देखो मौज ही मौज है।"
मिश्रा भाभी की बात सुनकर मधु सोच में पड़ गई। शादी के पहले वह भी तो ऐसे ही होली खेलती थी, सारे जतन करने के बाद भी हफ़्तों तक रंग नहीं छूटता था। माँ कितना नाराज होती थी और नन्ही मधु कितनी मासूमियत से कहती..." माँ! सालभर का त्यौहार है, इस उम्र में नहीं खेला तो क्या बुढ़ापे में खेलूँगी और माँ खिलखिला कर हँस पड़ती। आज शादी के बीस साल हो गए थे और वह आज भी बचपन की उस होली के लिए तरसती थी, अगर कोई ज़िन्दगी को भरपूर जीना चाहे तो उसमें गलत क्या है। हम जीवन भर दूसरों की खुशियों के लिए जीते रहते हैं पर कभी खुद के लिए जीना हम कब शुरू करेंगे।
"मधु क्या कर रही हो, अरे जल्दी से रंग धो लो। वरना सारी पूरी-कचौड़ी खराब हो जाएगी।"
माँ जी की आवाज सुनकर उसकी तन्द्रा टूट गई, अनुषा की आवाज़ को सुनकर माँ जी भी बॉलकनी में आ गई थी। अनुषा ने अपने लॉन से ही चिल्लाकर कर कहा...
"आँटी! हैप्पी होली..."
माँ जी के चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान आ गई, वो धीरे से भुनभुनाई..."इस तरह की औरतें कभी सुधर नहीं सकती..."