उस देश का यारो क्या कहना! / मनोहरश्याम जोशी
उस देश का यारो क्या कहना? और क्यों कहना? कहने से बात बेकार बढ़ती है। इसीलिए उस देश का बड़ा वजीर तो कुछ कहता ही नहीं था। कहना पड़ जाता था तो पिष्टोक्तियों में ही बोलता था। पिष्टोक्तियों से कोई नहीं पिटता। पिष्टोक्तियाँ हजम भी आसानी से होती हैं। सच, कहने में कोई अर्थ नहीं है, कहना पर व्यर्थ नहीं, कहने पर मिलती है एक तल्लीनता और एक पारिश्रमिक का चेक (कई बार फोन करने और चिट्ठी भेजने पर)।
तो मैं उस देश के बारे में कुछ कहने बैठा हूँ जो दुनिया का सबसे अधिक सफाई-पसंद देश है। यह सही है कि वहाँ कीचड़ से भी होली खेली जाती है, लेकिन यह भी सही है कि वहाँ के वातावरण में ही सफेदी लानेवाले कुछे ऐसे विशिष्ट रसायन पाए जाते हैं कि सारी होली के बाद बेचारे ढूँढ़नेवाले कीचड़ के दाग ढूँढ़ते ही रह जाते हैं। वहाँ के आमोद-प्रिय निवासी एक-दूसरे पर कीचड़ जमकर फेंकते हैं लेकिन कीचड़ किसी पर लगता या जमता नहीं है। हर कोई, हर क्षण बेदाग सफाई का, हँसता हुआ नूरानी विज्ञापन बना रह पाता है।
गैर-सफाई-पसंद देशों में मानो सारा महत्व ही कीचड़ का है। जिस पर जरा-सी कीचड़ उछलती है, उसे घबराकर पद से, और कभी-कभी तो जीवन से ही त्यागपत्र दे बैठने की सूझती है। मगर उस सफाई-पसंद देश में कीचड़ कमल का कुछ बिगाड़ नहीं पाता है। बल्कि पंक जितना ही ज्यादा उछले-गिरे, पंकज उतना ही देदीप्य होता जाता है। उस देश के समझदार लोग इसीलिए कीचड़ महज शौकिया उछालते हैं, एक शगल के नाते उछालते हैं। इस मामले में वे कभी सीरियस नहीं होते। सीरियसली तो वह कमल की प्रार्थना ही करते हैं।
उस सफाई-पसंद देश के निवासी अपना दिमाग बार-बार साफ करते रहते हैं। इससे उन्हें सिर्फ काम की ही बातें याद रहती हैं। शहर के अंदेशे उनके दिमाग पर बोझ नहीं बनते हैं। इतिहास की स्मृति सहज उत्साह की राह में बाधा नहीं डाल पाती है। उस देश के निवासी अपना दिल भी साफ करते रहने के बारे में बहुत सजग हैं। इसीलिए वे अपनी सारी भावनाएँ अपने पर और अपनों पर केंद्रित रख पाते हैं। रो लेने की विधि, चीखने-चिल्लाने की विधि से बेहतर समझते हैं। वे जानते हैं कि चीखने-चिल्लाने से तो रक्तचाप ही बढ़ना है। रो लेने से और कुछ नहीं तो मन की शांति तो मिलेगी। और वह मिलेगी तो फिर शांत मन से अपनी और अपनों की समस्याओं का विचार कर सकेंगे। चित्त शांत होने से रक्तचाप भी नीचे आएगा। नित्य नियम से रोकर दिल की सफाई करते रहनेवाले उस देश के निवासी हार्ट अटैक और स्ट्रोक जैसी उन बीमारियों से बचे रह पाते हैं जो चीखने-चिल्लानेवाले देशों में बहुत व्यापक रूप से फैल गई हैं।
जहाँ तक पेट साफ रखने का सवाल है, इस मामले में तो उस देश के निवासी जगदगुरु सिद्ध हुए हैं। उनके यहाँ की एक कब्जहर भूसी का तो आज उन्नत देश के निवासी तक सुबह-सुबह जय-घोष करते पाए जाते हैं।
उस सफाई-पसंद देश में छोटे-से-छोटा अनुष्ठान भी बाहरी और भीतरी शुचिता के बारे में पूरी तरह आश्वस्त हो जाने पर ही करने की स्वस्थ परंपरा रही है। उस देश में उस बाहरी और भीतरी शुचिता के बारे में केवल एक मंत्र पढ़कर और तीन बार आचमन करके आश्वस्त हो सकने की सुविधाप्रद परंपरा भी रही है। उस सफाई-पसंद देश के नागरिक हिसाब साफ रखने में यकीन करते हैं और जब हिसाब साफ कर दिया जाता है तब वे स्वयं हमेशा लेनदार साबित होते हैं, प्रतिपक्ष देनदार। उस देश के निवासी साफ बात कहने और करने का आग्रह करते हैं और बहुत सफाई से बात कहना और करना बखूबी जानते हैं। वे अपने शत्रुओं तक को मारते नहीं, बस साफ कर देते हैं। उनके सफाई-पसंद होने का इससे बड़ा क्या प्रमाण होगा कि वे झूठ तक साफ-साफ बोलते हैं।
इन सफाई-पसंद नागरिकों को बराबर प्रेरणा देते रहने के लिए संसार की सबसे पवित्र नदी उसी देश में बहती है जो मैल को ही नहीं, पाप को भी काट देती है। सबसे पवित्र पर्वत-माला उसी देश के केशों में लिपटी है। और उस देश की मिट्टी तो इतनी पवित्र है कि उससे तिलक करने की सलाह दी जाती है। आज भी वहाँ की जनता अपने नेताओं के चरणों से लिपटी हुई इस पवित्र धूल को माथे से लगाकर धन्य होती है। उस देश की माटी स्वयं तो पवित्र है ही, अपने स्पर्श मात्र से शुचिता प्रदान करने की अद्भुत क्षमता रखती है।
तो क्या आश्चर्य जो उस देश की बहुसंख्यक आबादी सदा धूलि-धूसरित रहती आई है और अपने बच्चों को धूल में लोट लगाता देखकर पुलकित होती रही है। यही नहीं, हाथ धोने के लिए वह इस माटी को महँगे और महकते विदेशी साबुनों से बेहतर समझती आई है। इधर जब से उस देश में टेलीविजन ने उपभोक्ता संस्कृति के नाम पर विदेशी साबुनों का विज्ञापन शुरू किया है, कुछ कमजोर कलेजेवाले लोग घबरा उठे हैं और अपने देश की पवित्रता पर आँच आने का खतरा देख रहे हैं। सौभाग्य से उस देश में नेतृत्व हमेशा ऐसे ही लोगों के हाथ में रहता आया है, जो उस देश को ठीक-ठाक जानते हैं। न ज्यादा, न कम। बस इतना कि कम जाननेवालों से कह सकें कि आप नहीं जानते हैं, इसलिए आपके हितों के संरक्षण और संवर्द्धन का काम हम अपने हाथों में लिए ले रहे हैं। और जो ज्यादा जानते हों, उन्हें बता सकें कि जिस देश में यह पवित्र नदी विशेष बहती है, उसमें ज्यादा जाननेवाले अपने देश को ठीक से न पहचानने के लिए अभिशप्त रहे हैं।
तो विदेशी साबुनों का आक्रमण होने पर इन नेताओं ने कहा कि जिस देश में पवित्र नदी विशेष बहती है, उस देश के निवासी आज भी देश की माटी से जुड़े हुए हैं। उसी को जोत-बोकर अपना पेट पाल रहे हैं। उसी से बने हुए घरों में वे रहते हैं। रात को उसी पर सुख की नींद सोते हैं। और सुबह उसी पर निवृत्त होकर, उसी से शौच करते हैं, किसी सिने-तारिका के सौंदर्य साबुन से नहीं। तमाम पश्चिमी प्रभाव के बावजूद, टी.वी. से फैलती सांस्कृतिक टी.बी. के बावजूद, हमारे देश की असली आबादी को न ग्लैमररूम माने जा सकनेवाले बाथरूम में कोई आस्था हुई है, और न टायलेट पेपर से सफाई करने में कोई श्रद्धा। सच तो यह है कि वह आज भी इन पश्चिमी चोंचलों से अपरिचित है।
यह ठीक है कि गाँव के लोग शहरों की तरफ भागने लगे हैं। दूसरों की क्यों कहें स्वयं हम भी गाँवों से शहर में आ बसे हैं। लेकिन इसका यह अर्थ हरगिज नहीं लगाया जाना चाहिए कि देश पश्चिम के प्रभाव में आ रहा है या कि उसका शहरीकरण हो रहा है। इससे तो केवल यह संकेत मिलता है कि देश में लोकतंत्र स्वस्थ है, सबल है। शहरों पर, सत्ता पर, उच्चवर्गीय शहरियों की बपौती नहीं रह गई है। झोंपड़ेवाले भी सरकारी बँगला-कोठी के दावेदार बन गए हैं।
नेताओं ने यह भी कहा कि गाँववालों के शहर में आने के बावजूद गाँवों की आबादी घट बिलकुल नहीं रही है। जनसंख्या के आँकड़े बताते हैं कि हमारे देश की अधिकतर आबादी अब भी गाँवों में ही रहती है। परमात्मा हमारे देश की पवित्र छवि को बनाए रखने के लिए इतना चिंतित है कि उसने देश-माता को एक अद्भुत वरदान दे डाला है। चाहे विकास के कितने भी पंचवर्षीय आयोजन पूरे हो जाएँ, चाहे तेरे कितने भी बेटों के लिए कितना भी आरक्षण कर दिया जाए, चाहे तेरे कितने भी बेटे शहरों को चले जाएँ, तू जहाँ है वहीं रहेगी, पवित्र धूल से धूसरित गाँव में। और जब देश की माता ग्रामवासिनी रहेगी, तब देश भी ग्रामवासी ही रहेगा।
जरा ये भी देखिएगा कि गाँव से शहरों में आई हुई यह आबादी अपने नित्य कर्म में अपनी जमीन से, अपनी माटी से अपना यह पवित्र संबंध बराबर जोड़े हुए है। गाँव से आई जनता को तो शहर में रेल पटरी के आसपास या फिर सरकारी बँगले में बँधी हुई अपनी-अपनी भैंस की पीठ पर हाथ फेरते हुए इन नेताओं ने शंकालुओं को यह भी समझाया कि जो लोग हमारी तरह गाँव से शहर आ गए हैं, वे भी अपने नित्य कर्म में अपनी जमीन और माटी से अपना वह पवित्र संबंध बराबर जोड़े हुए हैं। गाँव से आई जनता को तो शहर में रेल पटरी के आसपास या फिर पार्कों में अपनी जमीन से संपर्क साधे देखते ही होंगे आप, कभी हमारे सरकारी बँगलों और निजी शहरी फार्म हाउसों में सुबह-सुबह कोई आएँगे तो पाएँगे कि विदेशी कमोड हमारे लिए कब्जकारी है और हमारे ग्लैमररूम जैसे बाथरूम में लिक्विड सोप से अधिक सम्मान देश की माटी को प्राप्त है।
जब कुछ संवाददाताओं ने देश की बहुसंख्यक आबादी के माटी से जुड़े इस संबंध को ही देश के गंदे होने का प्रमाण बताया और एक हाथ की तर्जनी और अँगूठे से दोनों नथुने बंद करके दूसरे हाथ की तर्जनी सफाई-पसंद देश की तथाकथित गंदगी की ओर उठाते हुए हैरान होकर पूछा कि यहाँ लोग साँस भी कैसे ले पाते हैं? तब नेता बोले, काश कि कभी आप अपने नथुने खोलते और स्वयं अनुभव करके देखते कि और तमाम चीजों के साथ-साथ हमारे देश का पवन भी पावन है और उनके जैसे पतितों का भी उद्धार कर सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी नाक के साथ-साथ आप फिरंगी और फिरंगीवत आलोचकों ने अपनी आँखें भी बंद कर रखी हैं अन्यथा आप निश्चय ही ये देख पाते कि हमारे देश की बहुसंख्यक आबादी, इसी हवा से निर्मित हमारे चुनावी वादों पर जीती आई है।
नेताओं ने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि सफाई-पसंद देश को आकंठ गंदगी में डूबा हुआ बताने के दुस्साहस को कभी व्यंग्य-विडंबना में तो कभी मानवीय चिंता में छिपा जाने की कोशिश करते हैं। सफाई-पसंद देश में गंदगी देखने-दिखानेवाले इन लोगों को उन्होंने 'नाबदान के नायब इंस्पेक्टर' और 'गंदे चहबच्चे के बच्चे' ठहराकर अपनी ग्रामवासिनी माता की तथाकथित गंदगी की सफाई में ऐसे-ऐसे तर्क दिए कि आलोचकों के मुँह खुले रह गए और बोलती बंद हो गई। उदाहरण के लिए उस देश के नेताओं ने कहा कि अलग-अलग देशकाल में गंदगी की परिभाषा अलग-अलग तरह की होती आई है क्योंकि सौंदर्य-बोध देशकाल सापेक्ष है। अस्तु जैसे आपको हमारी अपनी नाक अपनी जमीन पर सिनक देना गंदा लगता है, उसी तरह हमें आपका नाक रूमाल में सिनककर रूमाल को अपनी जेब में रख लेना गंदा लगता है। अगर आप तटस्थ होके देखें तो इस मामले में ही नहीं और तमाम बातों में भी आपकी गंदगी, हमारी गंदगी से कुछ ज्यादा ही गंदी ठहरेगी।
नाबदान के नायब इंस्पेक्टरों से उस देश की नेता बिरादरी यह कहती थी कि गंदगी दरअसल आपके दिमाग में है। इसीलिए आप हमारी तथाकथित गंदगी में ही अटके रह जाते हैं। हमारी सफाई आपको नजर ही नहीं आती है। अरे आपको हमारा गलियों में कूड़ा फेंकना तो नजर आता है लेकिन इससे पहले जब हम घर की सफाई करके वह कूड़ा जमा कर रहे होते हैं तब आप आँखें मींच लेते हैं। अजी सच तो ये है कि जब आप हमारी गंदगी का मजाक उड़ा रहे होते हैं तब आप वस्तुतः हमारी गरीबी का मजाक उड़ा रहे होते हैं और यह भूल जाते हैं कि इस गरीबी के लिए आप ही पूरी तरह जिम्मेदार हैं। हम इस देश के नेता जरूर हैं मगर इस देश का बेड़ा गर्क कर सकनेवाले तो आप विदेशी ही थे, हैं और रहेंगे। अगर सच्चे मन से हिसाब लगाएँगे तो पाएँगे कि हमारी विराट आबादी को देखते हुए हमारी गंदगी कुछ भी नहीं है। आप लोगों की प्रति व्यक्ति आय ही नहीं, प्रति व्यक्ति गंदगी भी हमसे सौ-गुनी है।
उस देश को ठीक-ठाक जाननेवाले लोग उस देश की गंदगी की ही नहीं, हर कमजोरी की तसल्लीबख्श सफाई देते रहे। इसीलिए सारी दुनिया अंततः यह मानने को मजबूर हुई कि तमाम गरीबी और गंदगी के बावजूद वही दुनिया का सबसे ज्यादा सफाई-पसंद देश है। वहाँ हर कोई सफाई मॉंगता है और हर कोई सफाई दे सकता है।
"इस बारे में मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता" जैसी कायर उक्तियाँ उस देश के कायर-से-कायर नेता तक के लबों पर कभी नहीं आतीं।
उस सफाई-पसंद देश में सफाई माँगने के नाम पर गंदगी फैलाना, खोदखाद कूड़ा सबके सामने बिखरा देना अच्छा नहीं समझा जाता है, इसलिए एक अलिखित-सा समझौता है कि सफाई माँगी जरूर जाए, मगर जो सफाई दी जाए, उसे जहाँ तक हो सके, स्वीकार कर लिया जाए। सफाई हमेशा बहुत साफ और सरल दी जाती है ताकि कोई ऐसा न कह सके कि गोलमाल बात करके कुछ छिपाने की कोशिश की जा रही है। सबसे साफ और सरल सफाई वह मानी जाती है जिसमें आरोप को बिलकुल बेबुनियाद बताया गया हो। उदाहरण के लिए एक बार वहाँ छोटे वजीर पर यह आरोप लगा कि उसने अपने भाई की मदद से विदेशों में घूस खाई है। उसने पहले सफाई दी कि मैंने कोई घूस नहीं खाई है। मेरे पास जो भी पैसा आया है, जायज तरीकों से ही आया है। इस पर आरोप लगानेवाले ने सिद्ध करना चाहा कि भाई ने पैसा नाजायज तरीके से कमाया और नाजायज तरीके की कमाई में छोटे वजीर ने हिस्सा लिया है। छोटे वजीर ने बयान दिया कि इस बारे में मैंने अपने भाई से सफाई माँगी है और उसका कहना है कि आरोप बेबुनियाद है। मैं मानवीय भाईचारे में विश्वास करता हूँ। आप न करते हों तो आगे बात मेरे भाई से कीजिए।
किसी की सफाई को देर-सवेरे न मान लेना उस सफाई-पसंद देश में शिष्टाचार के विरुद्ध समझा जाता है। फिर भी विदेशी प्रभाव में आए कुछ लोग किसी भी सफाई से संतुष्ट न होकर आरोप लगाते चले जाते हैं। ऐसी दशा में उस देश में पुलिस का एक पूरा विभाग ही सत्यासत्य की जाँच के लिए खोल दिया गया है। सफाई-पसंद देश के निवासी अनिवार्य रूप से उसकी जाँच के नतीजों के बारे में भी सफाई माँगते हैं। इसीलिए उस देश में जाँच कमीशन और प्रवर समिति बैठाकर गंभीर कांडों की गहराई तक जाने का प्रावधान है।
किनारे पर बैठकर पानी में पाँव डाले हुए वह कमीशन, गहराई के विषय में पूर्वानुमान करते हुए काफी समय लेता है। इस बीच वह मामला सफाई-पसंद देश की स्मृति से साफ हो चुका होता है। कमीशन उस नतीजे पर पहुँचता है कि गहराई तो ऐसी है कि सारी व्यवस्था को ले डूबे लेकिन अब उसमें जाने से कोई फायदा नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि आइंदा सावधानी बरती जाए ताकि गंदे-गंदे आरोप लगने से इस सफाई-पसंद देश में गंदगी न फैले। गंदे आरोप लगानेवाले स्वयं इस विषय में बहुत सजग रहते थे कि कहीं हमारी वजह से हमारे देश का वातावरण गंदा न हो। इसीलिए वे सत्तारूढ़ व्यक्ति के पीछे हमेशा हाथ धोकर ही पड़ते थे। मगर जैसे ही सत्तावान मेहरबान होकर उन्हें कुछ दे देता है, वे उसके समक्ष हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं।
गंदे आरोपों के बीच भी देश को स्वच्छ रखने के विषय में उस देश की नेता बिरादरी कितनी सजग है इसका एक अत्यंत सुंदर उदाहरण 'नीले होंठ कांड' में मिलता है। हुआ यह कि एक बार उस देश के किसी बड़े वजीर की घर से दूर अकस्मात मृत्यु हो गई। उसके पुत्र ने अपने पिता के शव के नीले होंठों की ओर जनता का ध्यान दिलाते हुए यह आशंका व्यक्त की कि मेरे पिता की हत्या की गई है। उसके चमचों ने नए बड़े वजीर पर परोक्ष ढंग से आरोप लगाया कि उसने सत्ता हथियाने के लिए पिछले बड़े वजीर की हत्या करा दी। लेकिन अंततः सफाई-पसंदी के हित में पिछले बड़े वजीर के पुत्र ने नए बड़े वजीर की यह सफाई मान ली कि पिछले बड़े वजीर दिल का दौरा पड़ने से पहले जामुन खा रहे थे और इसीलिए उनके होंठ नीले हो गए थे। पिछले बड़े वजीर के पुत्र ने न केवल यह सफाई मान ली बल्कि अपने चमचों के लगाए आरोपों से फैली गंदगी को दूर करने की खातिर नए बड़े वजीर का यह अनुरोध भी स्वीकार कर लिया कि वह अपने पिता का अधूरा काम पूरा करने के लिए फिलहाल छोटा वजीर बन जाए।
तो उस सफाई-पसंद देश में आरोप जितना ही गंभीर होता है, सफाई उतनी ही सरल होती है। आरोप को संगीन बनाने के लिए नित नए सबूत जुटानेवाले, उस देश में यह देखकर बहुत हैरान होते हैं कि संगीनी के साथ-साथ बढ़ती सफाई की सरलता आखिरकार बहुत सादगी से उनका ही सफाया कर देती है। सफाई-पसंद नागरिक सफाई देनेवाले की मासूमियत के कायल होते हैं और वही-वही आरोप दोहराए चले जानेवाले को सनसनी के नाम पर बोरियत फैलानेवाला ठहराते हैं।
उदाहरण के लिए एक बार वहाँ किसी विदेशी तोप की खरीद में कमीशन के पैसे खुद खा जाने का गंभीर आरोप बड़े वजीर पर लगाया गया। वह अपने को निर्दोष बताते रहे। उन्होंने कहा कि सर्वविदित है कि हम डायटिंग कर रहे हैं। इसलिए यह कल्पनातीत है कि हमने पैसे जैसी गरिष्ठ चीज खाई होगी। किसी और ने खा ली हो तो उसकी भी हमें कोई जानकारी नहीं है। जानकारी मिलेगी तो बताएँगे और आप निश्चित रहें, पैसा खाने के दोषी देश के कानून के अनुसार अवश्य दंड पाएँगे। आरोप लगानेवाले कहते रहे कि आप पूछेंगे, तभी तो जानकारी पाएँगे। जवाब में उन्हें यही सफाई सुनने को मिलती रही कि हम तमाम नियम-कायदों का पालन करते हुए पूछताछ कर रहे हैं। वही आरोप और वही सफाई का क्रम इतना लंबा चला कि उस सफाई-पसंद देश की पब्लिक झुँझला उठी और बोली कि जिन लोगों को उस तोप के सिवा कुछ नहीं सूझता है, उन्हें उसी तोप से उड़ा दिया जाए।
उस सफाई-पसंद देश में सफाइयाँ भी दो तरह की होती हैं, एक सार्वजनिक और एक निजी। सार्वजनिक रूप से ऐसी कोई सफाई नहीं दी जाती है जिससे देश के वातावरण की स्वच्छता को आँच पहुँच सकती हो। निजी सफाई भी दो तरह की होती है। एक वह जो विश्वस्त मित्र के कान में कही जा सके और दूसरी वह जिसके बारे में कहा जा सके कि या तो मैं जानता हूँ या मेरा परमात्मा जानता है, और हाँ आरोप लगानेवाला भी। और चूँकि आरोप लगानेवाला उस बात को कहकर पहले ही वातावरण काफी गंदा कर चुका होता है इसलिए जिस पर आरोप लगा हो उसका यह कर्तव्य हो जाता है कि सफाई देकर उस गंदगी को साफ करे, यह नहीं कि स्वयं उसमें लोट लगाने लगे। यही कारण है कि सफाई के मामले में उस देश के सत्तावान लोग सार्वजनिक और निजी को हर हालत में अलग ही रखते थे।
एक बार को आप उन्हें सरकारी गाड़ी का घर की सब्जी लाने के लिए इस्तेमाल न करने के लिए मजबूर कर सकते थे। एक बार को आप उन्हें वजीर पद क्या, संसार भी छोड़ देने के वर्षों-वर्षों बाद तक सरकारी कोठी अपने ही नाम रखे रहने के लिए राजी कर सकते थे, लेकिन मजाल है जो आप उनसे किसी सार्वजनिक मंच से वह सफाई बुलवा देते, जो वे एक-दूसरे के कान में बोल दिया करते थे।
कोई साहब आपत्ति कर रहे हैं कि उस सफाई-पसंद देश का नाम क्यों नहीं ले रहा हूँ, इस बारे में तुरंत सफाई दूँ। लगता है ये भी उसी सफाई-पसंद देश के नागरिक हैं। तो साहब, मेरी सार्वजनिक सफाई ये है कि सठिया जाने के कारण मैं उस देश का नाम भी भूल गया हूँ। अब आपसे क्या छिपाऊँ, मैं तो अपने तीन बेटों के एक ही अक्षर से शुरू होनेवाले नामों तक में बुरी तरह गड़बड़ाने लगा हूँ। मेरे सामने इसके अलावा अब कोई रास्ता ही नहीं रह गया है कि उनमें से कोई भी सामने आए, मैं क्रम से तीनों के नाम लेता चला जाऊँ। कहना न होगा कि इससे जहाँ पहले बेटे को बहुत सुविधा हुई है, वहीं तीसरे को इतनी असुविधा कि अब उसने अपने कोट या कमीज पर अपनी नाम-पट्टी लगानी शुरू कर दी है। दिक्कत यह है कि मेरी निगाह भी सठिया गई है और मैं उस नाम-पट्टी को तभी पढ़ सकता हूँ जब वह मेरी निगाह से चौथाई मीटर की दूरी पर हो। जहाँ तक मेरे दूसरे बेटे का सवाल है उसने अपनी इस स्थिति को स्वीकार कर लिया है कि मेरा नाम, मेरे पिता द्वारा दूसरी कोशिश में ही सही पुकारा जाएगा।
अब आप अपने कान मेरे होंठों के करीब ले आए हैं तो निजी सफाई भी दे डालूँ। उम्र बढ़ने के साथ-साथ मेरा साहस घटता चला गया है। अब कौन इस उम्र में नाम लेकर झमेले में पड़े।