उस पार की आवाज़ें / कमल

Gadya Kosh से
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लोहे के विशाल जेल-गेट की छोटी खिड़की से भीतर घुस कर हवलदार जगता प्रसाद ने जैसे ही फोन उठाया, उस पार से आवाज आयी, “आपका कनेक्शन अस्थायी रूप से सेवा वंचित है । कृपया दूरभाष लेखा पदाधिकारी से संपर्क करें। लगता है फिर इसका बिल पेमेंट नहीं किया गया है, झल्लाते हुए उसने फोन रख दिया।

“फोनवा ठीक हो गया क्या, हवलदार साहब ?” गेट पर पहरा दे रहे सिपाही की जिज्ञासा ने उनके जले पर नमक छिड़कने का काम किया।

“सब साले मादर... हो गये हैं।” जगता प्रसाद ने टेलिफोन विभाग को एक भददी-सी गाली दी और इंकार में सर हिला दिया,”बिल बकाया हो गया है, तो क्या हुआ ? अरे, इन फोन वालों को सरकारी फोन के साथ तो ऐसा नहीं करना चाहिए न। सरकारी कामों से बजट आने में देर-सबेर हो ही जाता है, ऐसा थोड़े न है कि पैसा डूब जाएगा। उ लोग तो फोनवे डेड कर दिये हैं ।”

“आप ठीके बोल रहे हैं।” सिपाही ने खैनी ठोक कर जगता प्रसाद की ओर बढ़ाते हुए कहा, “ दूरभाष मद में अतिरिक्त आबंटन के लिए जेलर साहब मुख्यालय चिटठी भेजवा दिये हैं।”

खैनी होंठों में दबा हवलदार बाहर वाले गेट की ओर बढ़ा तो अपनी कमर पर मोटे रस्से से लटक रहे बड़ी-बड़ी चाबियों के गुच्छे को संभालता सिपाही, छोटे गेट का ताला खोलने लगा।

जेल में घुसने के लिए एक के बाद एक लोहे के दो विशाल गेट होते हैं। बाहर से नजर आने वाले गेट के ठीक पीछे वैसा ही दूसरा गेट भीतर की तरफ होता है। दोनों गेटों में एक-एक छोटा गेट भी बना होता है ताकि हर वक्त बड़ा ही गेट खेलना जरूरी न रहे। उनमें लगे विभिन्न तालों की सब चाबियाँ डयूटी पर तैनात एक ही सिपाही के पास रहती हैं, ताकि एक समय में एक ही गेट खुले। खुला हुआ वह गेट बंद करने के बाद ही दूसरा गेट खोलने का नियम है। एक साथ दोनों गेट नहीं खोले जाते। एक साथ दोनों गेटों को खोलना सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक होता है। दोनों गेटों के बीच पर्याप्त दूरी रहती है, लगभग बीस-पच्चीस लोगों के बैठ सकने लायक जगह। उस जगह के दांये-बांये कारा अधीक्षक तथा जेल कार्यालय होते हैं। जेल कार्यालय में कारापाल, उप-कारापाल, बड़ा बाबू आदि के बैठने की व्यवस्था होती है। भीतर वाले जेल गेट के ठीक पीछे ही वह इलाका होता है, जिसे आम आदमी जेल के नाम से जानता है।... शरीफों के लिए नर्क और अपराधियों के लिए तथाकथित ससुराल।

जगता प्रसाद न जाने क्या-क्या बड़बड़ाता बाहर निकल गया था। बाहर गेट के बायीं तरफ विशाल बरगद की घनी छांव में थोड़ी जगह छेंक कर एस्बेस्टस की छत डाल दी गयी है, वह जेल-गुमटी कहलाती है। जगता प्रसाद जा कर वहीं बैठ गया। एक तरफ मुलाकातियों (बंदियों से मिलने आये लोगों) की लार्इन लगी थी। सभी मुलाकातियों को कागज की पुर्जी पर उस बंदी का नाम आदि दर्ज करवाना होता जिससे वे मिलने आये थे। उस पुर्जी के बगैर उनका बंदी से मिलना संभव नहीं और वह पुर्जी हासिल करने के लिए दस का नोट लेना जेल वालों ने दस्तूर बना रखा है।

“उ झोला में का है रे ? “ सिपाही ने नोट व पुर्जी का आदान-प्रदान करते हुए एक मुलाकाती सेपूछा।

“आज मंगल है न हुजूर, भार्इ जी के लिए हनुमान जी का प्रसाद लाया हूँ।” सहज भाव से उत्तर आया।

“पहले इधर लाओ, चेक कराओ।” कहते हुए सिपाही ने झोला झपट लिया, “तुमने इसमें कुछ मिला तो नहीं दिया। अगर बंदी मर-मरा गया तो गर्इ हमारी नौकरी।”

उसने झोले से मिठायी का डब्बा निकाल हवलदार की ओर बढ़ाया। डब्बा खुलते ही शुद्ध घी से बनी मिठायी की खुशबू गुमटी में फैल गर्इ। हवलदार के बाद सिपाही ने घी के दो लडडू अपने मुँह में दबाये और डब्बा वापस लौटा दिया। मुलाकाती के लिए वह सब बिल्कुल भी अप्रत्याशित न था। भार्इ जी के लिए वह जब भी मिठायी लाता, पूरे हिसाब से लाता है। भार्इ जी तक आधा किलो मिठायी पहुँचे इसके लिए वह एक किलो का डब्बा लेता है। उस जेल के नियमानुसार उसका लाया डब्बा तीन जगहों पर चेक होता। पहला बाहरी गुमटी पर, दूसरा गेट पर चाबियाँ लटकाये सिपाही द्वारा और तीसरा चेक भीतर वाली गुमटी पर। इस तरह भार्इ जी तक पहुंचते-पहुंचते एक किलो मिठायी घट कर आधा किलो हो जाती है।

भीतर पहुंचाने के लिए यदि कोर्इ ऐसी चीज होती जिसे खा कर चेक न किया जा सके, तब उसके लिए अतिरिक्त शुल्क लेने का प्रावधान था। वकालतनामा, बेल-बाँड, रिलीज आर्डर...आदि सबके लिए अलग-अलग शुल्क जो मौके की नज़ाकत व देने वाले की हैसियत के अनुसार तय किये जाते।...खैर अभी तो वहां जगता प्रसाद गंभीर रुप से चिन्ताग्रस्त बैठा था।

“क्या बात है हवलदार साहब, कुछ परेशान लग रहे हैं ?” पर्चियाँ बनाते सिपाही ने उससे पूछा।

जगता प्रसाद ने एक ठंडी सांस छोड़ी, “हां, चिन्ता की ही बात है। बोकारो से हमारा एक अर्जेंट फोन आने वाला है और यहां जेल का फोन ही डेड है ।”

“यहां वाला फोन तो जब से आप गाँव गये हैं तभी से डेड है ।”

“तभी तो हमको मालूम नहीं हुआ। वर्ना हरिहर बाबू को यहां का नंबर नहीं बोलते। अब वे खबर कैसे करेंगे ? फोन करने पर उनको केवल फाल्स रिंग ही सुनार्इ दे रहा होगा। फिर कुछ सोचते हुए बोला, “लगता है, कारा अधीक्षक के घर वाला फोन का बिल फिर ज्यादा आ गया होगा। उसी का बिल देने में आबंटन खत्म हो गया, जैसा कि पहले भी कर्इ बार हो चुका है। अब घर वाला फोन तो ठीक रखना ही पड़ेगा न, मेम साहब का गुस्सा कौन झेले ? फोन पर उनका बोलना-बतियाना बंद नहीं हो जाएगा ? कितना तो वे टी.वी.कार्यक्रमों में ट्रार्इ करती रहती हैं इस उम्मीद में कि न जाने कब उनका नंबर लग जाए और वे भी करोड़ों में खेलने लगें। अब तो कारा महानिरीक्षक से अतिरिक्त आबंटन प्राप्त होने तक जेल-गेट का फोन डेड ही रहेगा।”

“बोकारो वाला समाचार बहुत खास है का ?” सिपाही ने सांत्वना देते हुए पूछ लिया।

“हां खासे है। बेटवा का शादी का बात है। लड़की वाला तीन लाख दे रहा है लेकिन हम पाँच का डिमांड रखे हैं। बोकारो वाले हरिहर बाबू को ही बात फाइनल कर के खबर देने का जिम्मा है। समय पर खबर नहीं आने से काम गड़बड़ा जाएगा।”

“भला गड़बड़ा काहे जाएगा ?” बात बिगड़ने की बात सिपाही को समझ न आयी।

“वो ऐसे कि इधर एक और लड़की का बाप हमरा लड़का के लिए एप्रोच किया है। और र्इ अपने से पाँच लाख का आफर दिया है। र्इ वाला पशुपालन विभाग में नौकरी करता है और ऊ वाला बोकारो में। है तो दोनों पार्टी सरकारी नौकरी वाला लेकिन स्टील प्लांट का नौकरी में सूखे वेतन से कितना कमाया होगा? जबकि पशुपालन विभाग वाला चार्इबासा में पोस्टेड था, चारा- घोटाला में कस कर कमाया होगा। गड़बड़ र्इ है कि वो शादी के लिए जल्दी में है। हमको डर है कहीं अपना लड़की का बात कहीं और न सेट कर ले। लेकिन जब तक हरिहर बाबू का फोन न आ जाए हम इसको हां भी नहीं बोल सकते। उधर से न हो तो हम तड़ से इधर हां कह दें। पशु-पालन घोटाला वाला कुछ लक्ष्मी तो हमरा घर में भी आ जाए।”

“...मगर ऊ घोटाला वाला पैसा से कोर्इ लफड़ा में न फंस जाइए। हम सुने हैं, घोटाला वालों का हालत कुछ ठीक नहीं है।” सिपाही ने शंका प्रकट की।

“...अरे नहीं, वैसा कोर्इ बात नहीं है।” जगता प्रसाद ने उसकी बात काटते हुए कहा,”जिसकी लाठी उसकी भैंस, समझे! उन लोगों के पास इतना काला धन है कि कोर्इ उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। तुम्हीं बताओ इतना दिन हो गया, उन लोगों का क्या बिगड़ा है ? सब लोग मजे में हैं।”

“हां, र्इ बात तो आपका बिल्कुल ठीक है...।”

अभी सिपाही की बात अधूरी ही थी कि चार-पांच कारों तथा जीप का काफिला आ कर गेट पर रुका। जगता प्रसाद जल्दी-जल्दी बाहर निकले, कहीं कोर्इ इंस्पैक्शन टीम तो नहीं आ गर्इ। पर्चियां बनाता सिपाही का हाथ भी रुक गया। वह जल्दी-जल्दी पैसे एक तरफ रखने लगा। लेकिन भीतर ही उन्हें पता चला, चिन्तित होने का कोर्इ कारण नहीं है। पुलिस जीप से सदर थाना के बड़ा बाबू और साथ की कारों से एक वकील के साथ कुछ पदाधिकारी जैसे लोग उतर कर गेट की तरफ बढ़ गये।

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भीतर कारापाल उन्हें अपने साथ ले कारा अधीक्षक के कक्ष की ओर चल दिये । जाते भी क्यों न जि़ला दूरभाष अभियंता अर्थात टी.डी.एम. जैसे विशेष बंदी जेल में रोज-रोज तो नहीं आते ! यह बात जगता प्रसाद भी अच्छी तरह जानता था। वैसे भी शहर के अखबारों में छप रही खबरों के कारण वह ऐसी ही किसी सिथति का पूर्वानुमान लगा चुका था। शहर के लगभग हर अखबार ने पौश इलाके में बन रहे टी.डी.एम. के करोड़ों रुपये वाले उस विशाल बंगले की सचित्र रपट, उनकी काली कमार्इ के प्रमाणस्वरूप छापी थी। और यह भी कि उसकी रिपोर्टिंग करने गये पत्रकार की टी.डी.एम ने कस कर पिटार्इ करवाने के साथ ही उसका कैमरा आदि भी तोड़ डाला था। लेकिन पिटार्इ कुछ ज्यादा ही हो जाने के कारण पत्रकार उस समय भी अस्पताल के आर्इ.सी.यू. वार्ड में भर्ती था । काले धन और पद के मद में चूर टी.डी.एम. ने सपने में भी न सोचा था कि एक अदना से पत्रकार की पिटार्इ उसे वो दिन दिखाएगी। उस पिटार्इ का उददेश्य तो था कि दूसरा पत्रकार फिर वैसा करने का दु:साहस न करे। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है ! स्थिति नियंत्रण से बाहर चली गर्इ । शहर का समूचा मीडिया उस घटना के खिलाफ इस कदर गोलबंद हुआ कि आर्इ.सी.यू. में पड़े पत्रकार, बढ़ते हुए जन-दबाव और एफ.आर्इ.आर. में धारा 307 लगने के बाद जेल पहुंचने के सिवा उनके पास कोर्इ और रास्ता न बचा था। अब जमानत की प्रतीक्षा में कुछ दिन तो लगने ही हैं ।

“सर, आप बिल्कुल भी चिन्ता न करें। यहां आपके आराम का पूरा-पूरा ख्याल रखा जाएगा । क्यों जेलर साहब ?” साथ आये वकील ने कारापाल से अपनी बात की पुष्टि करवाते पूछा।

“हां सर, किसी बात की चिन्ता न करें। लेकिन जरा इस आशय में कारा अधीक्षक महोदय से बात कर लेते तो हमें भी सुविधा होती।” कारापाल ने स्थिति स्पष्ट की, “अभी-अभी वे लंच के लिए घर गये हैं।”

“अच्छा-अच्छा उनसे भी बात कर लेते हैं।” वकील ने फोन की ओर हाथ बढ़ाया, लेकिन डायल टोन नदारद देख उसकी प्रश्नवाचक दृष्टि जेलर की ओर घूम गर्इ।

“...वो नन पेमेंट के कारण डेड है।”

“क्या फोन डेड है ?” टी.डी.एम. ने अपने साथ आये पदाधिकारियों पर कड़ी नज़र फेंकी।

“सर, मैंने चलने से पहले ही ठीक करने को कह दिया था...” अभी उसका वाक्य समाप्त भी न हुआ कि फोन की घंटी बजने लगी। उसने चैन की सांस ली।

वकील ने लपक कर चोंगा उठाया, “हां, हां ठीक है।” उसने चोंगा वापस रख कर फोन कारपाल की ओर बढ़ाया, “लीजिए आपका फोन ठीक हो गया। अब जरा अधीक्षक महोदय से बात कर ली जाए।”

कारापाल ने फोन मिलाया, थोड़ी देर बातें करने के बाद चोंगा वकील साब को थमाते बोला, “लीजिए आप भी बात कर लें।”

“प्रणाम सर...जी सर...अच्छा सर।” वकील तत्परता से बातें कर रहा था।”

“.... “

“आप उसकी चिन्ता बिल्कुल न करें। हमारी तरफ से कोर्इ कमी न होगी।”

“.... “

“ अब टी.डी.एम. साब तो कुछ दिन आपकी ही छत्र-छाया में रहेंगे।”

“.... “

“जी बहुत अच्छा। थैंक्यू सर !” वकील प्रसन्नता से फोन रख पुलकते हुए बोला, “मैंने कहा था न सर, जेल में सभी लोग बहुत अच्छे हैं। जेल अधीक्षक ने भी पूर्ण सहयोग का वादा किया है। वे आपके रहने की व्यवस्था सेल में करने को कह रहे थे।”

परन्तु सेल का नाम सुन टी.डी.एम. साहब घबराये, “सेल में तो बड़ी तकलीफ होती है।”

उनकी घबराहट देख वकील और कारापाल दोनों मुस्कराये।

“सर, अब सेल वैसी नहीं होती जैसी अंग्रेजों के ज़माने में खतरनाक बंदियों को रखने के लिए हुआ करती थी। अब तो सेल चंद खास बंदियों को ही मिलती है। वहां आपको हर तरह की सुविधाएं मिलेंगी। फिर आपके लिए तो स्पेशल सेल की व्यवस्था की जानी है। क्यों जेलर साब ठीक है न ! “

कारापाल ने सहमति में गर्दन हिलार्इ, “बिल्कुल! आप को हर सुविधा कायदे से मिलेगी। पहले हम आपका चेक-अप जेल-डाक्टर से करवायेंगे, जो आपको हेल्थ ग्राऊंड पर विशेष सुविधा देने की बात लिखेगा। उसके आधार पर हम आपके लिए खास इंतजाम करेंगे। आपको जैसी सुविधाएं चाहिए, वैसी ही सेल आपके लिए तैयार करवायी जाएगी।”

वास्तविकता जान लेने पर टी.डी.एम. आश्वस्त हुए। फोन अपनी तरफ खिसकाते हुए बोले, “पहले ज़रा घर पर बात कर लूँ, सब वहां चिंतित होंगे। उसके बाद दिल्ली भी बात करनी है।”

“सर, घर तो आपकी बात हो जाएगी, लेकिन दिल्ली आप बात नहीं कर सकेंगे। कारापाल ने उन्हें टोकते हुए बताया, “इसमें एस.टी.डी. नहीं है।”

“कोर्इ बात नहीं जेलर साब आप लोग इतना सहयोग कर रहे हैं, मैं क्या इसे एस.टी.डी. भी नहीं करवा सकता ? “ कहते हुए वे साथ आये एस.डी.ओ. की ओर मुड़े, “इस फोन पर एस.टी.डी., आर्इ.एस.डी आदि सारी सुविधाएं दे दीजिए और हां, ध्यान रहे ये फोन डेड न होने पाये, समझे ! “

उनके निर्देशानुसार एस.डी.ओ. तुरंत एक्सचेंज की ओर कूच कर गये। वे बातें सुन कारापाल बड़ा हर्षित हुआ। खास कर आर्इ.एस.डी. की बात सुन उसकी नज़रों के आगे विदेशी चैनलों पर डबल जीरो से प्रारंभ होने वाले नंबर चमकने लगे। जहां तीखी मुस्कानों और चंचल चितवन वाली कामुक लड़कियां चौबिसों घंटे दोस्ती तथा मज़ेदार बातें करने का आमंत्रण देती रहती हैं।

इधर टी.डी.एम. फोन पर झुके और उधर वकील कारापाल से सट कर जेल में दी जाने वाली सुविधाओं का मोल- भाव करने लगा। कि सेल में टेबल फैन रहेगा या कूलर, मिनरल वाटर रहेगा या जेल का पानी, टी.वी., वी.सी.डी....। हर सुविधा और हर एक का हिस्सा। उनकी बातें तेजी से निपटती जा रही थीं।

“जेलर साहब आप पैसों की चिन्ता मत कीजिए। कोर्इ कमी न होने दी जाएगी।” वकील ने कारापाल को आश्वस्त करते हुए एक आंख दबा दी।

“आपने तो दिल खुश कर दिया। कारापाल ने प्रसन्नमुद्रा में कहा, “टी.डी.एम. साहब को अगर कोर्इ कठिनार्इ हो जाए तो मेरे जेलर होने पर धिक्कार है।

तब तक उन सबके लिए कोल्ड डि्रंक्स व नमकीन का जोरदार प्रबंध हो चुका था।

“मैं अभी एक घंटे में सारे प्रबंध कर लौटता हूँ। तब तक आप लोग नाश्ता कीजिए।” कहते हुए कारापाल अपनी बड़ी सी जेब संभालता बाहर निकल गया।

“वकील साहब, आपने तो कमाल कर दिया !” टी.डी.एम. बड़े प्रसन्न थे।

“हें...हें...सर असली कमाल तो आप ही का है। मैंने तो केवल सेटिंग की है।” वकील के होंठों पर पेशेवर मुस्कान थी।

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अंदर बजती फोन की घंटी के साथ रिस-रिस कर टी.डी.एम. की जो कहानी जेल गेट से बाहर आयी, उसने सबसे ज्यादा सुकून जगता प्रसाद को प्रदान किया। भले ही अब तक उसका फोन न आया हो परन्तु वह अब पूर्व की भाँति बेचैन न था। फोन चालू हो गया है।

दिन बीतने लगे। जब दो-चार दिन बीतने के बाद भी बोकारो से फोन न आया तो एक दिन सिपाही ने उनकी चिन्ता बढ़ाते हुए कहा, “कहीं ऐसा तो नहीं कि इस बीच लगातार फाल्स रिंग मिलने से हरिहर बाबू थक कर चुपचाप बैठ गये हों ? दो दिन छुटटी लेकर आप बोकारो हो काहे नहीं आते ? कहीं ऐसा न हो, उधर तो बात नहीं बने इधर प शुपालन वाला पार्टी भी हाथ से निकल जाए ! “

देखा जाए तो सिपाही की बात गलत न थी। परन्तु दो दिन छुटटी लेने के पक्ष में जगता प्रसाद कदापि न था। छुटटी जाने से ऊपरी आमदनी जीरो हो जाती है।...और कथा सम्राट प्रेमचंद के शब्दों में, 'ऊपरी आमदनी तो बहता हुआ श्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। बार-बार छुट्टी ले बहते श्रोत से दूर जाना भी कहीं की बुद्धिमानी है भला! लेकिन ये बात वह सिपाही पर जाहिर नहीं करना चाहता था।

“अरे भार्इ, अभी पिछले पखवारे ही तो छुट्टी ली थी। इतनी जल्दी कारा अधीक्षक छुट्टी नहीं देंगे। फिर अब तो फोन भी ठीक हो गया है। हरिहर बाबू ज़रूर कन्फर्म करेंगे।” जगता प्रसाद ने सिपाही और स्वयं, दोनों को आश्वस्त करना चाहा।

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...और फिर प्रारंभ हुआ था दूरभाष पर दूर-दूर तक बातें करने का वो रोमांचक दौर जिसका रोमांच कारापाल, उप-कारापाल, बड़ा बाबू स भी उठा रहे थे। और तो और अपनी कमर पर चाबियों का गुच्छा लटकाए सिपाही ने भी डबल ज़ीरो वाले अंतर्राष्ट्रीय नंबर पर सेक्सी लड़कियों से दोस्ती करने का मज़ा उठा लिया था। अगर प्यासा रहा था तो केवल जगता प्रसाद, जिसका बोकारो वाला फोन अ भी तक न आया। वह कुढ़ रहा था, उसने हरिहर बाबू का फोन नंबर क्यों न ले लिया ? वह इस बात पर भी कुढ़ रहा था कि इस बीच रिंग कर रहे हरिहर बाबू को पहले सुनार्इ दे रही फाल्स रिंग की जगह अब केवल इंगेज टोन सुनार्इ दे रहा होगा।

जेल वालों के साथ-साथ टी.डी.एम. के भी काम होते रहे थे । नहीं हुआ तो केवल जगता बाबू का काम । इस खुमारी में दिन बीतते पता न चला और जल्द ही वह दिन भी आ पहुंचा, जब टी.डी.एम. को जमानत मिल गर्इ। उनके जेल से जाने के साथ ही फोन का सारा रोमांच जाता रहा। वह पुन: डेड हो चुका था। रिसीवर उठाने पर फिर से झल्ला देने वाला, वही संगीतम वाक्य सुनार्इ पड़ता, “आपका कनेक्शन अस्थायी रुप से सेवा वंचित है, कृपया दूरभाष लेखा पदाधिकारी से संपर्क करें।”

...और लोग तो पिछले दिनों का जि़क्र चटखारे ले लेकर करते, परन्तु हवलदार जगता प्रसाद के लिए निराशा और दुविधा का दौर पूर्ववत जारी था।