उस पार प्रिये तुम हो / संतोष श्रीवास्तव
कर्नल गौरव चौहान केजन्मदिन पर हर साल इसी तरह की दावत दी जाती है। जब से वे फ़ौज से रिटायर हुए हैंऔर सैनिक नगर की अपनी कोठी में आये हैं। अब वे सत्तर के हो चुके हैं। हालाँकि डायबिटीज उनकी रग-रग मेंधीमा ज़हर बनकर पैबिस्त है लेकिन दिखते वे वैसे ही रुआबदार हैं। गोरे दमकते चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूँछें उनके सदाबहार ठहाकोंके दौरान फूल पर पंख फड़फड़ाती तितली की तरह फड़कती है।
दावतका इंतज़ाम भी हर साल की तरह इक़बाल औरखुशवंतकी पत्नियों ने किया है। इक़बालऔर खुशवंत उनके बेहद लाड़ले फ़ौजी हैं जो हर वक़्तकर्नलकी और जब तक कर्नल केमाता-पिता ज़िंदा रहे उनकी सेवा में तत्पर रहते थे। दोनों की पत्नियों ने कर्नल की पसंद का डिनर तैयार किया है और फ़ौजी जवानदौड़-दौड़ कर मेहमानों को शराब सर्व कर रहे हैं। एक विदेशी ब्रांड की ऐसी शराब थी जो हलक को जलाते हुए पेट में उतरती थी। कर्नल ने उसका नाम धमाकारखा था। उनकी बटालियन बॉर्डर पर दुश्मन के छक्के छुड़ाने के लिये धमाके करती थी तो देर तक आसमान जलता हुआ नज़र आता था। बैंड की धुन पर फ़ौजी घरों की लड़कियाँ तो नाच ही रही थीं, ऑफ़ीसरों की पत्नियाँ भी थिरक रही थीं। आस-पासका शोर अचानक बैंड के रुकते ही थम गया। सबके गिलास भीहाथों में ठिठकगये। ख़बर थी कि पिछली रात एक पायलट कारगिल क्षेत्र के फ़ौजी कैंपों में रसद पहुँचाते हुए खराब मौसम के कारण हवाई दुर्घटना में मारा गया। वैसे भी कारगिल, ट्रास, मुश्की, बटालिक, नूबरा आदि क्षेत्रों में शांति के दौरान भी पाकिस्तान की तरफ़ से अकारण गोलीबारीहोती रहती है। एक-न-एक फ़ौजी जवान शहीद होता ही रहता है। सेना और आतंकवादियों की झड़पें भी चलती रहती हैं।
माहौल में मुर्दनी छा गई। सबने अपनी जगह खड़े होकर पायलट को श्रृद्धांजलि दी। कर्नलशून्य में ताकते रहे। यही है ज़िंदग़ी की हकीकत... कोई युद्ध में सीमा पर शहीद होता है, कोई जीवन संग्राम में हर पल लड़ते हुए आहिस्ता-आहिस्ता... जैसे सबा... सबा की याद और ग़मगीन माहौल ने कर्नल को बेचैन कर दिया। घबरा कर उन्होंने बैंड की ओर इशारा किया। बैंड फिर बजने लगा। दावत में रौनक बिखरने लगी। कर्नल पेग हाथ में लिये खिड़की के पास आ खड़े हुए। बगीचे में रातरानी महक रही थी। रातरानी के फूल सबा को बेहद पसंद थे। उन्होंने सबा के जज़्बातों को ज़माने के कँटीले जाल में उलझा दिया है। वे गुनाहगार हैं सबा के... ख़ुद को नकारने से क्या सबा के प्रति उनकी जिम्मेदारियों की इतिश्री हो गई? क्याफौज में जाना ही इसका विकल्प था? मन मसोस उठा उनका। उन्होंने पूरा पैग एक ही साँस से हलक में उँडेल लिया। भीतर तक चीरती आग ने उन्हें दबोच लिया।
सबा से उनके जुनूनी इश्कके किस्से उन दिनों कॉलेज के सभी विद्यार्थियों के बीच चर्चा का विषय थे। सबा सहमी-सी रहती थी-"घर वालों को पता चला तो मेरे टुकड़े कर डालेंगे गौरव।"
"तो तुम मरने से डरती हो? फिर मेरी ओर क़दम क्यों बढ़ाये? क्यों चलने के लिये तलवार की धार को चुना?" गौरव ने बेहद शिद्दत से कहा।
"मैं मरने से नहीं डरती गौरव, मैं तुम्हारे लियेडरती हूँ। हमारा इश्क़ कहीं हमारे परिवारों की बरबादी का कारण न बन जाये।"
"मुझ पर भरोसा करो सबा, उन्हें हमारे रिश्ते को मानना ही होगा।" कहते हुए लड़खड़ा गये थे गौरव के बोल। अपने पापा को वह जानता है... वे शायद ही हाँ कहें। हुआ भी वही। गौरव के मुँह से पूरी बात भी नहीं निकली थी कि उन्होंने आँखें तरेरकर उसे देखा। फिर ज़ोर से माँ को आवाज़ दी-" सुना तुमने, तुम्हारालाड़ला विधर्मी लड़की से शादी करना चाहता है। बरखुरदार... कुल जमा बीस की उम्र केहो तुम और...
"पापा प्लीज... हर बात को गुस्सेसे मत सुना करिये। सबाबेहतरीन लड़की है। फिर इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि वह मुसलमान है। ज़माना कहाँ से कहाँ पहुँच गया है और आप हैं कि...!"
पापातमतमाते हुए उसके इतने करीब आये कि उनकी साँसें गौरव को छूने लगीं-"फ़र्क पड़ता है... बहुत ज़्यादा फ़र्क पड़ता है।"
हमेशा की तरह माँ दोनों के बीच दीवार बनकर खड़ी हो गईं-"ऐसी बातें तैश में नहीं सुलझाई जातीं। बेटा जवान हो गया है। उसकी बात हमें गंभीरता से लेनी चाहिए।"
"क्यों नहीं, बड़ी समझ आ गई है इसे तो। अगर समझदार होता तो सोचता, अपना भविष्य सोचता, अपनी दोनों कँवारी बहनों का सोचता, समाज में हमारी इज्ज़त का सोचता।" कहते-कहते गौरव के पापा कावेरी शिक्षण संस्थान द्वारा संचालित तीन हायर सेकेंडरी स्कूल, जूनियर कॉलेज और डिग्री कॉलेज के एजुकेशन डायरेक्टर गजेंद्र चौहान की साँस फूल गई। छोटी बेटी मौली पानी ले आई, बड़ी बेटी उषा ने चौके में जाकर लगभग जल चुकी सब्ज़ी की कढ़ाई का ढक्कन खोलकर गैस बंद कर दी। सब्ज़ी छौंककर पापा की आवाज़ पर माँ चौके से चली गई थीं और बाप बेटे की तकरार में उलझ गई थीं।
मामला जहाँ के तहाँ अड़ा रहा। गौरव ने ख़ुद को कमरे में बंद कर लिया और सबा को फ़ोन किया। ज़िंदग़ी को बेहतर शक्ल न दे पाने की तकलीफ ने उसकी आवाज़ रुआँसी कर दी थी-"मेरा भरोसा टूट गया सबा... पापा ने इंकार कर दिया। इस वक़्त मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा है सिवा इस बात के कि हम सब कुछ भूल कर अपनी अलग दुनिया बसा लें।"
"नहीं गौरव, यह तो स्वार्थ हुआ। हम ख़ुद को माफ़ नहीं कर पायेंगे कभी... हम उनके गुनाहगार कहलायेंगे। गुनाह आदमी को कभी जीने नहीं देता।"
गौरव ने मोबाइल से आती सबा की आवाज़ को चूम लिया। मानो वह अपनी असाधारण महबूबा को इस बहाने सेल्यूट कर रहा हो। सेल्यूट? दिमाग़ के वॉल्व तेज़ी से जल उठे... गाढ़े अँधेरे में एक किरन रोशनी की चमकी और चमक उठीं गौरव की आँखें... आर्मी ने उसे हमेशा आकर्षित किया है। सरहद पर तैनात आर्मी जवान उसे किसी फ़रिश्ते से कम नहीं लगते जिन्हें किसी बात का मोह नहीं, जानतक का नहीं। उसने मन में संकल्प धारण किया... वह आर्मी ज्वाइन करेगा। पल के उस हज़ारवे हिस्से कीचाहतने उससे आर्मी का फॉर्म भर कर भिजवाने में कोईक़सर नहीं छोड़ी। और इंटरव्यू के बुलावे पर सिर्फ़ सबा को बताकर इंटरव्यू देने चला गया। सोचा था अन्य नौकरियों के इंटरव्यू की तरह एकाध दिन का हीइंटरव्यूहोगा। लेकिन आर्मी आम नहीं ख़ास है। आग में तपपायेगाया नहीं इस बात की पूरी तसल्ली कर ली जाती है। हफ़्ते भर से ऊपर चला इंटरव्यू। गौरव फिर भी दृढ़ इच्छाशक्ति से डटा रहा। पहले मौखिक फिर लिखित टेस्ट, फिर इंटेलीजेंट आईक्यू, मनोवैज्ञानिक टेस्ट देने पड़े। ग्रुप इंटरव्यू हुआ कि बंदे में टीम स्पिरिट है भी या नहीं। पूरे ग्रुप को प्रकल्प दिये गये। कई तरह की एक्टिविटीज कराई गईं, ग्रुपडिस्कशनहुए फिर रोंगटे खड़े कर देने वाला फिजिकल टेस्ट जिसमें हर अंग को ठोक बजाकर देखा जाता है। कहीं कोई ख़ामी तो नहीं। आदमी-आदमी नहीं रह जाता घोड़ा बन जाता है। चाबुक पड़ी और दौड़ा... भले सामने खाई हो या पहाड़... और अंत में मेडिकल टेस्ट। गनीमत थी गौरव में कोई ऐब नहीं निकला। वह ऑफीसर्स कैटेगरी की ट्रेनिंग केलिये उपयुक्त कैंडिडेट है। अब वक़्त था सोचने का कि उसका चुनाव होगा या नहीं। चुन लिये जाने पर वह आर्मी में चला जायेगा और सबा यहीं छूट जायेगी। क्या यही था उसका ख्वाब? यह तो उस पर ज़बरदस्ती थोपा हुआ ज़िंदग़ीका वह मोड़ है जहाँ से वह कालखंड जन्म लेता है और उस कालखंड को उसे सबा के बिना, ख़ुद को भूलकर जीना है। सबा के बिना सब कुछ खाली-खाली-सा और इस विराट खालीपन में, शून्य में रुकी साँस-सा उसका दम घुट रहा है। कितना भयानक है यह एहसास... आज तक वह ख़ुद को इस घर के लिये महत्त्वपूर्ण समझताथा लेकिन अचानक उसकी चाहत को नकार कर पापा, माँ ने उसकी अस्तित्वहीनता उसे समझा दी है और वह जान गया है कि उसे अपनी मर्ज़ी की ज़िंदग़ी जीने नहीं मिलेगी। माँ, पापा की मर्ज़ी में ख़र्च हुई ज़िंदग़ी का जमा हासिल भी तो नहीं मिलेगा उसे। वहनिरंतर तनाव, दुःख और अंदर तक बहते गर्म लावे में कैसे जी पाएगा? कोई तृप्ति, कोई सुख नहीं मिलेगा उसे। ख़ुद को लानत भेजता वह तमाम उम्र भ्रमों में जियेगा और फिर पायेगा कि अपनी बेशकीमती उम्र वक़्त केबेतरतीबी भरे उलझाव में गुज़ारने के सिवा कुछ भी तो हासिल नहीं हुआ।
सबा भी बिखर गई थी। उसे लगा जैसे उसके भीतर पंख फड़फड़ाता जज़्बातों का परिंदा गौरव के साथ खुले आसमान में उड़ान भरना ही चाहता था कि उसका दम घोंट दिया गया। जज़्बातों को घोंटना मौत है...नहींवह अपने इश्क़ को मरने नहीं देगी। इश्क़ तो उसकी निधि है, उसकी इबादत है जिसमें खुदा बसता है। वह इसे सम्हालकर रखेगी... जो गौरव सहेगा वह भी सहेगी। समंदर की लहरों के समान जो उठती हैं, गिरती हैं पर समंदर से जुदा नहीं होतीं। वे समंदर की हैं इसलिए जो वह सहता है, वे भी सहती हैं... उससे अलग होना खुशियों का विकल्प नहीं। ख़ुद पर काबू कियासबा ने-
"तुमपरफ़ेक्ट मैन हो गौरव, ज़रूर सिलेक्शन होगा तुम्हारा। लेकिन इतना कठोर क़दम क्यों उठाया तुमने?"
"तुम्हारे और मेरे परिवार की निरर्थक ज़िद्द के आगे अपने प्यार को कुर्बान करने से अच्छा है, देश के लिये कुर्बान हो जाऊँ।"
सबा अपने इस पागल आशिक के आगे नतमस्तक थी। प्यार की खातिर वह अपनी ज़िंदग़ी दाँव पर लगा रहा है। नहीं ये जुनूनी इश्क़ नहीं है, यह यथार्थ की कठोर चट्टानों पर बूँद-बूँद ओस से उगी दूब है जो सूरज का ताप अपने आसपास के चट्टानी माहौल में भी सह जाने की ताब रखती है। सबाहुलस कर गौरव के आलिंगन में समा गई। डबडबाई आँखें उसके सीने में मूँद लीं-"तुम मेरे सवाब हो, खुदाकीनेमत हो तुम। अब मुझे ज़िंदग़ी से कोई शिकायत नहीं।" देर तक दोनों की आँखें भीगती रहीं। गौरवने अपने आँसुओंकी लड़ी से सबा की माँग सजा दी। दोनों ने संकल्प लिया एक दूसरे के ही रहेंगे सदा। तन से भी, मन सेभी। पथरीले कंटक भरे रास्ते का चुनाव उनका ख़ुद अपना था... मंज़िल पाने की चाह नहीं थी। झौंक दिया दोनों ने ख़ुद को उन दुर्गम राहों पर जो ज़िंदग़ी सेजुड़ी नहीं होती। ईश्वर तुम हो न।
इंटरव्यू में उपयुक्तता की स्वीकृति के बावजूद गौरव बेचैन रहा। ट्रेनिंग की तारीख आते ही सबकेमुँह आश्चर्य से खुले के खुले रह गये। पापा के तो जैसे हौसले ही पस्त हो गये-"तो आर्मी ज्वाइन कर रहे हो तुम?"
"जी पापा... इसे मेरा दृढ़ निश्चय समझिये।"
पापा के बगल में माँ आकर खड़ी हो गई-"और हम... हमारे बारे में क्या सोचा है तुमने?"
"उसमें सोचना क्या है? मुझे तो कहीं दिक्कत नज़र नहीं आती...न आर्थिक... न हेल्थ सम्बंधी।"
चौंक गये दोनों-"दिक्कतें होतीं तो शायद तुम नहीं जाते न... या फिर भी अपनी उस विधर्मी प्रेमिका के लिये शहीद हो जाते?"
आहत हुआ गौरव... पापा क्या यही शिक्षा देते हैं अपने विद्यार्थियों को? धर्म, जाति, संप्रदाय की कट्टरता? इस से मनुष्यता लहूलुहान है और इसीलिएअपंग हो गया है समाज। अपनी ज़िंदग़ी के प्रति पापा, माँ के ऐसे बेरहमी भरे, रुख़ की वज़ह से उतनी ही बेरहमी से अपने शैक्षिक कॅरिअर को तिलांजलि दे गौरव आर्मी की कठोर ट्रेनिंग के लिए रवाना हो गया।
ट्रेनिंगकी कठोर दिनचर्या के बावजूद हताश नहीं हुआ था गौरव... जानता था अगर वह मात्र गौरव, एक आम नागरिक ही होता तो शायद हालात और कायनात की आँधियाँ उसे चकनाचूर कर भी सकती थीं लेकिन आर्मी की ट्रेनिंग के दौरान उसे इतना तपाया गया... नर्म मुलायम मिट्टी को कूटकर, रौंदकर जिस तरह ईंटें बनाई जाती हैं... आवाँ में लगातार पकाया जाता है... वह ऐसी कठोर चट्टान बन गया कि ज़िंदग़ी की कोई भी आँच अब उसे पिघलानहीं सकती। वह सिविलियन नहीं है मिलिट्री मेन है। गुज़रे वक़्त को याद करते हुए सोचा लेफ़्टिनेंट गौरव चौहानने जो आईने में अपना प्रतिबिंब देखकर रीझ गया था ख़ुद पर। मिलिट्रीकट बाल, लकदक वर्दी, कंधों पर चमकते स्टार, चेहरे पर रफ़ एंड टफ़ का दमकता तेज़... कहाँ गया वह मासूम, खिलंदड़ा गौरव जो सबा के बालों की लट फूँक से उड़ाकर उसके गालों पर बिखेर देता था और सबा तुनक जाती थी।
जगह-जगह की पोस्टिंग में ख़र्च होती ज़िंदग़ी। यूँ तो वह आगतके ठंडे-गरम हालात का अंदाज़ा लगाने की क्षमता रखता था और उससे निपटने का दम ख़म भी लेकिन सबा उसकी कमज़ोरी थी। जब भी छुट्टी मिलती वह घर के लिए डैनेंपसारकरउड़ जाता जैसे दिन ढले घोंसले की ओर लौटता पंछी हो।
घर अब उसके अनुकूल ढल गया था और विरोध की तमाम परतें पिघल गई थीं। अब पापा गर्व से सबको बताते-"गौरव आर्मी में ऑफ़ीसर हो गया है।" उसे भर नज़र देख मौली कहती-"माँ, भैया की नज़र उतारो, क्या लग रहे हो क़सम से।"
माँ झिड़क देतीं-"क्यों नज़र लगाती है मेरे बेटे को।"
उषा दीदी की शादी में मुश्किल से दो दिन के लिये आ पाया था गौरव। आते ही सबा को फ़ोन लगाया। बार-बार लगाने पर भी जब सबा ने फ़ोन नहीं उठाया तो वह अनिष्ट की आशंका से काँप गया। तुरंत मिलना चाहता था उससे पर माँ ने घर के कामों में उलझा लिया। आधे घंटे बाद सबा का फ़ोन आया-"अरे, अ गये तुम?"
"कहाँ थी यार? मेरीतो जान ही सूख गई थी।"
"नहा रही थी। कैसे फ़ौजी हो तुम? घबराना फौजियों की डिक्शनरी में नहीं होना चाहिए।"
"अब लैक्चर मतदो टीचर जी... फटाफट बताओ कितने बजे मिलोगी।"
"शाम को छै: बजे, गार्डन में... क्लीयर?"
"यस सर।"
"एनी डाउट?"
"नो सर।" खिलखिलाकर हँसी सबा। गौरव के मन के दरीचे पर चाँदनी बिखर गई। शाम को वहफौजी ड्रेस में... एक ज़िम्मेदार ऑफ़ीसर केरूप में सबा के सामने था। सबा मुग्ध हो उसे देखती ही रह गई। गौरव ने उसे गले लगाकर उसका चेहरा हथेलियोंमें भरकर कहा-"कैसी हो मेरी मलिका..."
"जैसी तुम छोड़ गये थे। अपनी सुनाओ... ट्रेनिंग, पोस्टिंग, रोमांच से गुज़र रहे हो तुम... एक पल को याद आई मेरी?"
"कमाल है, भूलूँ तो याद करूँ न?"
फिर पलटवार-"और मैं तुम्हें?"
सबा हँसी-"फौजी हो न, वार करने से चूकते नहीं।"
फिर गहरी साँस भरकर बोली-"मैंने बी. एड। में दाखिला लिया है। अम्मी ने अब शादी के लिए कहना छोड़ दिया है। दुबईमें मेरी चचाज़ात बहन है। बहुत बुलाती है मुझे। सोचती हूँ बी. एड। के बाद दुबई में नौकरी करूँ। मैंने अपनी ज़िंदग़ी से समझौता कर लिया है। मेरी हर साँस तुम्हारी अमानत है। मैं ताउम्र तुम्हारा इंतज़ार करूँगी गौरव..."
गौरव ने सबा के चेहरे पर ईश्वरीय नूर देखा। उसके क़दमों में बिछ जाने का दिल हुआ... दिल हुआ कि तोड़ डाले सारे बंधन और कुर्बान हो जाए अपनी महबूबा के लिए... पर कुर्बान होने से ज़्यादा चुनौती भरा उसकी गैर मौजूदगी में भी उसके संग जीना है और चुनौतियों से खेलना लेफ़्टिनेंट गौरव चौहान की आदत में शुमार है।
बाद में पापा, माँ बहुत पछताये। काश, गौरव की बात तब मान जाते तो आज बेटे बहू का सुख उठाते। सबा का गौरव के लिये अपनी ज़िंदग़ी को बरबाद कर डालना उन्हें गहरे कचोटता। उधरगौरवभी शून्य हो चुका था। उसके लिये बस आर्मी थी और देश के प्रति ज़िम्मेदारियाँ... गौरव अब आर्मी के सर्वोच्च शिखर पर था। कर्नल का ओहदा उसकी बरसों की मेहनत का नतीजा था। आर्मी में उसका लोकप्रिय होना उसके स्वभाव और व्यक्तित्व और ड्यूटी के प्रति समर्पण के कारण ही था। बरसोंबरसजंगल, नदी, पहाड़ और बीहड़ों में गुज़रे हैं उसके। चाहे पाकिस्तान से लड़ी जंग हो या चीन से... दुश्मन पर दूरबीन से नज़र रखते हुए... मैसेजओव्हर, ओ.के. आउट... जैसे वाक्यों की उसने ख़ुद भी तामील की है और अपनी बटालियन से करवाई भी है। पाकिस्तान से जंग के दौरान पूरी रात वह अजगर के बिल पर सोया था... रोंगटेखड़े कर देने वाले वाकिये को वह आज तक नहीं भूला। जंगल काफ़ी घना था लेकिन दुश्मन की नज़र सर्चलाइटहोती है... फ़ौजी कैंप में कैप्टन, मेजर और अन्य फौजियों के साथ वह शराब से ग़म ग़लत कर रहा था। किसी के हाथ में पाइप था तो किसी के सिगरेट लेकिन गौरव सिगार का शौकीन था। खुशवंत ने उसके जूते उतारे और जॉन ने शराब लाकर दी... इक़बालकैंप के बाहर खड़ी जीपको झाड़ियों सेढँक रहा था ताकि दुश्मन की नज़र फ़ौजी ठिकाने का अंदाज़ा भी न लगा पाये। मेजरघर से आई चिट्ठी पढ़ रहा था... "देखिए सर, माँ ने भारत की जीत के लिए सत्यनारायण की कथा कराई है औरये चुटकी भर प्रसाद भी भेजा है।" प्रसाद सबको दिया गया। गौरव भी घर की यादों में खो गया था कि अचानक उसका बटुआ लिए खुशवंत आया-"सर, आपका ये बटुआ जीप में छूट गया था।"
फिर नज़रेंझुकाकर पूछा-"सर, गुस्ताख़ी माफ़... इसमें किसी हीरोइन की फोटो भी है, मैं पहचान नहीं पाया।"
बटुए में सबा की फोटो थी। लेकिन गौरव की ख़ामोशी के कारण बात आई गई हो गई।
सुबह जब खुशवंत गौरव को जूते और यूनिफॉर्म पहना रहा था तो देखा उसके फोल्डिंग पलंग के नीचे अजगर कुंडली मारे बैठा था। "
"सर, आप रात भर अजगर के ऊपर सोते रहे।"
पलभर को गौरव काँपा लेकिन फिर मुस्कुरा कर बोला-"खुशवंत... शायद इसी वज़ह से बड़ी आरामदायक नींद आई। चलो, इसी बात पर कॉफी पिलाओ।"
खुशवंत मेस की ओर सरपट दौड़ा।
यादों में ग़म है गौरव। उसकी पोस्टिंग भारत पाकिस्तान बॉर्डर के सबसे संवेदनशील इलाके में हुई थी। दुश्मन की आतंकवादीगतिविधियोंसे पूरी बटालियन को सचेत किया था गौरव ने। कभी भी कुछ भी हो सकता है। पेट्रोलिंग के दौरान, जगहका जायजा लेते हुए गौरव समझ रहा है... "कहीं भी डायनामाइट को ऐसे पाटा गया हो कि नज़र ही न पड़े। इसलिए शरीर का हर हिस्सा जगाए रखो, हर हिस्से में आँखें जड़ दो... मानकर चलो कि दुश्मन हर ओर से हमें घूर रहा है।"
छावनी एरिया में आर्मी ऑफ़ीसर्स के घरों से थोड़ा अलग हटकर खूबसूरत रंगरोगन का घर था गौरव का। तीनों ओर ऊँचे-ऊँचे दरख़्तों से घिरा... गेट तक लाल रंग की मुरम बिछाई गई थी... दूर-दूर तक फ़ौजी कैंप फैला था। सब तरफ़ से चाक चौबंद... परिंदा भी पर मारे तो दिमाग़ के वॉल्व जल उठते हैं। पहरा, ताकीदसतर्कता... लेकिनशाम होते ही गौरव को ऑफ़ीसर्स और जवानों में फ़र्क रखना बिल्कुल पसंद नहीं... वह सबके संगदोस्तानाव्यवहार रखता है। देर रात तक शराब, गाने, चुटकुले, ठहाके... मेस में पकते भोजन की महक दूर पहाड़ियों पर बसे गाँवों के बीच हैरत भी जगाती, उत्सुकता भी और शायद ऐसी रंगीन रातों को लेकर ईर्ष्या भाव भी... वे नहीं जानते फ़ौजी जीवन जान हथेली पर और कफन सिर पर बाँधकर चलने का सौदा है। भूल जाना पड़ता है कि फ़ौजी भी इंसान हैं... ऐसे में अगर चंदलम्हेछोटी छोटी खुशियाँ बटोरकर वे जी लेते हैं... अगर गौरव सबा की याद में डूब जाता है और डूब जाना ही एक विकल्प है। आवाज़ वह उसकी सुन नहीं सकता। इस इलाके में मोबाइल नेटवर्क नहीं पकड़ता दूसरे सतर्कता भी बरतनी पड़ती है।
इक़बाल मद्धम सुरों में माउथॉर्गन बजा रहा था। उसकी आँखें बंद थीं और चेहरे पर सूफी भाव तैर रहा था।
"क्यों इक़बाल... लद्दाख की वह रात याद आ रही है?" गौरव ने चुटकी ली।
"सर।" इक़बाल ने होठों पर से माउथॉर्गन हटाया और अपनी जगह सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया। सब उत्सुकता से गौरव का चेहरा ताकने लगे। बाहर गहरा अँधेरा था। पेड़ों से गिरे सूखे पत्तेहवा को मुखर कर रहे थे।
"बताइए न सर!"
गौरव सुरूर में था। दो पैग ले चुका था, तीसरा हाथ में था।
" इक़बाल के लिए तो वह जश्न की रात थी। दिन भर सारे फ़ौजी जवान खरदुल्ला टॉप पर थे और सियाचीन में फ़ौजी कैंपों के लिए छै: महीने की रसद भर कर भेजे जा रहे ट्रकोंकी जाँच परख कर रहे थे, पहियों को चेन से बाँध रहे थे ताकि बर्फ की फिसलन में भी वे सही सलामत पहुँच जायें। माइनस पाँच डिग्री तापमान में जितना शरीर का वज़न नहीं, उससे दुगना ऊनी लबादों का वजन। खरदुल्ला टॉप से उतरते-उतरते शाम घिर आई, मौसम के मिज़ाज बिगड़ गये। वहीं वैली में टेंट लगाना पड़ा। नबरा गाँव नज़दीक था। हम सब टेंट में पुआल के बिस्तर में घुसे हुए थे। शराब और जलते अलाव ने कँपकँपाते मौसम को पछाड़ना शुरू ही किया था कि देखते क्या हैं-कि इक़बाल कंबल ओढ़े एक लड़की के साथ चला आ रहा है। लड़की के हाथ में रोटियों से भरी टोकरी और शोरबेदार गोश्त का बर्तन था। वह पहाड़ी लड़की इक़बाल के संग लद्दाख़ी भाषा में बात करती जा रही थी और हम सबको खाना भी परोस रही थी। खाना लज़ीज लेकिन ठंडा था। थकान, शराब और भोजन की वज़ह से सबकी आँखें मुँदी जा रही थीं। मेरी भी... लेकिन घंटे दो घंटे बाद लालटेन की रोशनी के कारण मेरी नींद खुल गई। लालटेन की बत्ती कम करने मैं ख़ुद ही उठा तो देखता क्या हूँ इक़बाल और लड़की एक ही कंबल...
"सर... प्लीज... वह मेरी पु..." इक़बाल के हक़लाने पर सभी ने ज़ोरदारठहाका लगाया।
"हमनेकुछ कहा क्या? मियाँ इक़बालअपनी सफ़ाई क्यों दे रहे हैं?"
तब तक मेस से खाना आ चुका था।
आर्मीके पैंतीस वर्षों के दौरान दिल में बहू देखने, पोते पोती खिलाने की हसरत लिये माँ चल बसीं। अंतिम दिनों में तो वे सो भी नहीं पाती थीं-"हमारा तो कोई नामलेवा भी नहीं... एक बेटा... वह भी बिन ब्याहा... नज़रों से कोसों दूर।" पापा समझाते-"ऐसामान लो न कि वह विदेश में है। विदेशगये बच्चों के माँ बाप भी तो अकेले बुढ़ापा काटते हैं।"
माँ के बाद पापा बिल्कुल अकेले हो गये थे। मौली की शादी के बाद उन्होंने ख़ुद को अपनी तनहाईयों में समेट लिया था। अब किसी अवरोध को तोड़ने की शक्ति उनमें न थी। गौरव इस बात से वाकिफ़ था। नौकरी के दौरान उसने माँ पापा को कोई तकलीफ नहीं होने दी। अपने भरोसेमंद इक़बाल और खुशवंत को वह उनकी सेवा टहल के लिए भेजता रहता था। लेकिन पापा की तनहाई का क्या करे? ख़ुद को भी तो उसने उनकी ज़िद्द की वज़ह से तनहा कर लिया था। ख़ुद भी कहाँ जी पाया पूरी ज़िंदग़ी। आधी-अधूरी ज़िंदग़ी के संग सिमटकर रह गया उसका वजूद सरहदों तक... सबा ने भी अपने आस-पास एक जाल बुन लिया था जिसमें वह सदा के लिये क़ैद हो गई थी।
वह आख़िरी ऑफ़ीशियल छुट्टी थी जब वह घर आया था। अब वह रिटायर होने वाला था। पचपन वर्षीय गौरव चौहान पैंतीस वर्ष आर्मी में बिता कर तपकर कुंदन हो गया था। सबा छै: साल दुबई में बिताकर लौट आई थी... हाँ, यही तय हुआ था दोनों के बीच कि वे महाराष्ट्रके अविकसित इलाक़े में सैनिक नगर बसायेंगे जहाँ शहीदों की विधवाओं को बहुत सस्ते में घर, नौकरी और उनके बच्चों को मुफ़्त शिक्षा दी जायेगी। सारे रिटायर्ड आर्मी ऑफ़ीसर मिलकर एक संस्था की स्थापना करेंगे और इन सारे कामों की ज़िम्मेवारी उठायेंगे। दोनों ने मिलकर प्रोजेक्ट तैयार किया। तय हुआ कि सैनिक नगर में ही एक शानदार कोठी बनेगी जिसके एक हिस्से में सबा रहेगी उर दूसरे में पापा के साथ गौरव। घर बेचने के लिए स्टेट एजेंट को फ़ोन भी कर दिया। सुनकर पापा का दिल टूट गया-"इस घर को मेरे लिये रहने दो। इस घर के कोने-कोने में तुम्हारी माँ बसी हैं... बुढ़ापे में मुझे क्यों उनसे दूर कर रहे हो?"
"ओ.के., रिलेक्स... नहीं बेचेंगे, आप इत्मीनान रखिये। लेकिन उन्होंने इत्मीनान नहीं रखा। जाने कौन-सी बात चुभ गई थी उन्हें कि गौरव की छुट्टियों के दौरान ही उन्होंने अंतिम साँस ले ली।"
और जब कर्नल गौरव चौहान रिटायर होकर लौटे तो उजड़ चुके घर में उनका रह पाना कठिन हो गया। सबा इन दिनों दिल्ली में थी। फ़ोन पर बताया-"भाई जान के घर रहूँगी कुछ दिन... अम्मी भी साथ में हैं। तुम इत्मीनान से सैनिक नगर वाले प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दो, मुझे वक़्त लगेगा।"
"तुम्हारे बिना कैसे सबा? हमेशा के लिए आर्मी को अलविदा कहकर आया हूँ... सिविलियन लाइफ़ को अपनाते थोड़ा वक़्त तो लगेगा।"
"मेरे कर्नल... वक़्तदे कहाँ रही है ज़िंदग़ी? मैं भूमि पूजन में शामिल होना चाहती हूँ।"
गौरव चौंका-"बताओ, क्यों कह रही हो ऐसा? तुम छुपा रही हो कुछ मुझसे।"
सबा की हँसी में वह खनक नहीं थी... "क्यों परेशान हो रहे हो, कुछ नहीं हुआ है मुझे। पंद्रह दिन से बुखार पीछा नहीं छोड़ रहा है इसलियेअस्पताल में एडमिट होना पड़ा। भाईजानभाभीरख रहे हैं ख़बर मेरी।"
"शाम की फ्लाइट से आ रहा हूँ।" उसने उतावला होकर कहा और फ़ोन रख दिया।
यह सबा को क्या हुआ? सफ़ेद चेहरा आँखों के नीचे काले घेरे, सिरपर वह रेशमी, घनेबालों की खूबसूरती की जगह उजड़ापन... कट कर रह गयागौरव। अस्पताल में तब भाभी भर थीं। गौरव ने परवाह नहीं की... सबा को सीने से लगाकर रो पड़ा गौरव... कर्नल गौरव चौहान जिन्होंने जंग के दौरान कितने ही जवानों का लहू बहते देखा है। अंग-भंग हुए शरीरों को देखा है। धीरे-धीरे दिल की धड़कनें बंद होते देखा है... नहीं काबू कर पाया सबा का गौरव उस शाम ख़ुद को।
"रिपोर्ट्स दिखाईये भाभी।"
कैंसर की आख़िरी स्टेज! तड़प उठा गौरव... "ये क्या कर डाला ईश्वर।"
"मैं रहूँगी, ज़िंदा रहूँगी गौरव। अपने सैनिक नगर को बसते देखूँगी। शहीदों के बच्चों को पढ़ाऊँगी। हमारी कोठी के बगीचे में रातरानी फूलेगीऔर तुम्हारा मनपसंद मोगरा भी।"
गौरव ने अपनी थरथराती ऊँगली उसके होठों पर रख दी। डबडबाई आँखों में न जाने कितने बादल घुमड़ आये-"हाँ सब... सब कुछ करेंगे हम। हैना भाभी?"
उसने भाभी की ओर देखा... अविरल अश्रुधार वहाँ भी थी। बीत चुके वक़्त को लौटा पाना नामुमकिन था। सब कुछ खो चुकी थी सबा और... गौरव।
गौरव ने सैनिक नगर बसाने में जी जान लगा दिया। डॉक्टरों के मुताबिक सबा की ज़िंदग़ी का कुल एक माह बचा था और गौरव को भूमि पूजन की उसकी इच्छा पूरी करनी थी। सैनिक नगर के लिए टीम जुटाकर वह अपने प्रोजेक्ट को साकार करनेकी धुन में जुट गया। लेकिन सब कुछ इतना आसान नहीं होता है वरना ज़िंदग़ी की सोच मखमली होती। गौरव ख़ुद नहीं जानता कि आख़िर ज़िंदग़ी ने उसे इस तरह छलाक्यों? क्यों वह सरहद से ज़िंदा लौटा? लेकिन मौत मुकर्रर समय में ही आती है यानी कि मौत भी छलतीरही उसे। न जाने कौन-सी स्याही से सबा और गौरव ने जुदा-जुदा रहकर भी संग जीने का वादा लिखा था कि वाक्यमिटा भी नहीं और दिखा भी नहीं।
पंद्रह साल बीत गये। सबा अब नहीं है। भूमि पूजन के हफ़्ते भर बाद सबा चल बसी और सबा के साथ गौरव भी... अब ज़िंदा है तो कर्नल... कर्नल ने सैनिक नगर का सबा का सपना पूरा किया। कोठी भी बनी, मोगरा भी महका और रातरानी भी। है कोई मुकाबला इस प्यार का? मिटा पाये क्या मज़हब के रखवाले इस प्यार को?
अचानक इक़बाल चीख पड़ा-"सर, सर क्या हुआ आपको?"
सब स्तब्ध थे... गौरव के दोनों हाथ खिड़की की चौखट पकड़े थे और सिर बाहर की तरफ़ झूल रहा था। आँखें आसमान में कुछ खोजती सी... निश्चय ही सबा को। आर्मी के डॉक्टर ने उनकी मृत्यु की घोषणा कर दी। मृत्यु जो बिना आहट आई और प्रेम के परिंदे को ले उड़ी उस पार... उस पार प्रिये तुम हो।