उस साल बर्फ जनवरी में पिघली थी / प्रताप दीक्षित
किसी दूसरी जगह होता तो वह न भी जाता, लेकिन यहाँ ऐसा संभव नहीं था। उसके बचपन के मित्र प्रकाश की बहन की शादी थी। प्रकाश और उसकी पत्नी सावित्री कार्ड देने स्वयं आए थे। सावित्री भाभी सब कुछ जानती थीं। उन्होने ज़ोर देकर कहा था, ‘देखो कोई बहाना नहीं चलेगा। सुबह जल्दी ही आना होगा।‘ फिर कुछ रुक कर कहा था, ‘जैसा तुम जानते ही हो कि वहाँ नीलिमा तो होगी ही।‘
‘भाभी - - -’ उसने कुछ कहने का प्रयास किया था।
‘‘मुझे कुछ नहीं सुनना है।’’ उन्होने अपना अंतिम निर्णय सुना दिया था।
वह मजबूर हो गया था। वैसे भी गिने चुने लोगों से उसकी निकटता थी। इतना समय बीत जाने पर भी
उसका अंतर्मुखी स्वभाव वैसे का वैसा ही रहा। स्वभाव और प्रवृत्ति बदल भी कहाँ पाते है। स्मृतियों के रिमोट ने, उसके मन के पर्दे पर, बीते हुए दिनो की छाया, ज्यों की त्यों स्पष्ट कर दी।
वह शहर पढ़ने के लिए आया था। गाँव में स्कूल उन दिनो भी नहीं था। पूर्व परीक्षा में मिले अंको के आधार पर उसका प्रवेश एक प्रतिष्ठित महाविद्यालय में हो गया था। काॅलेज के अधिकांश विद्यार्थी अभिजात्य परिवारों के थे। उनके हिसाब से उसे उजबक ही कहा जा सकता था। छोटे कटे हुए बालों, सफेद, लेकिन पुराने होने से पीले मालूम होते, रंग का कुरते-पैजामे में वह उपहास का पात्र नहीं बना, यही क्या कम था। उसके लिए ही यही किस तरह से हो सका था, वही जानता था। बदलते ज़माने के आने की आहट की बात सुनी ज़रूर जाती थी, लेकिन उन जैसे लोगों के दरवाजों पर उसकी दस्तक, उसने तो नहीं सुनी थी। कुछ ही दिन बीते होंगे कि उस सीधे-सादे से लड़के की चर्चा कालेज में होने लगी।
लड़कियों के कामन रूम में चर्चा होती- हाय, उसके नोट्स की अंग्रेज़ी वाले सर कितनी तारीफ कर रहे थे। अंग्रेज़ी ही नहीं, हिस्ट्री वाले भी। राइटिंग भी कितनी सुन्दर है। फिर खुसफुस बातें उसके चेहरे के भोलेपन को लेकर होतीं। स्कूल से निकल कर सह-शिक्षा वाले कालेज में आई लड़कियों की आपसी वार्ता का यह प्रारंभिक ज्वार होता। शुरुआत में लड़के भी भौंचक्के रहते। लड़कियों के पीठ पीछे उनके सम्बंध में कमेंट किए जाते, खिंचाई होती। अंततः सबकुछ सामान्य हो जाता। आख़िर कोई दो-चार दिन तो वहाँ काटने नहीं थे।
आरंभ के दिनो में प्रभात हीनभावना से ग्रस्त रहा। अधिकांश छात्र मंहगे फैशनेबल कपड़ों में आते, लड़कियाँ ही नहीं, लड़के भी। कालेज में कारों और मोटर-सायकिलों की लाइन लग जाती। उसके जैसे गिने-चुने छात्र अपने में सिमटे रहते, लेकिन धीरे धीरे वह सहज होने लगा था। अपने खर्चो के लिए उसने कुछ ट्यूशने कर ली थीं। एक वर्ष होते होते उसका पुराना आत्मविश्वास लौट रहा था। उसके मित्रो की संख्या भी बढ़ी थी। वह दूसरों की मदद को तत्पर्य रहता। रात-रात जाग कर दूसरों के लिए नोट्स बनाता। एक मित्र परीक्षाओं के पहले, बीमारी के कारण, एक माह कालेज नहीं आ सका था। वह रोज़ शाम को उसके घर जाकर तैयारी कराता। किसी सहपाठी के परिवार में कोई कार्यक्रम होता या व्यक्तिगत समस्या, वह सहायता को तैयार रहता। दरअसल गाँव में उसने बचपन से ही -अपना या निजी जैसा कुछ-देखा सुना नहीं था। इस सबके बाद भी वह क्लास में अव्वल आया था।
कालेज में छात्र संघ का चुनाव होना था। अन्य पदों पर प्रत्याशी तय हो गए थे। उपाध्यक्ष पद के लिए कोई सर्वमान्य समझौता नहीं हो पा रहा था। छात्रों की कई बार बैठकें हुईं। आख़िर विवादों से परे प्रत्याशी के रूप में उसका नाम सामने आया। उसने तो इस ओर कभी सोचा भी नहीं था, अतः उसने मना कर दिया। परंतु मित्रो के ज़ोर देने और अपने एकांतिक स्वभाव से इसी बहाने निजात पाने के लिए उसको एक रास्ता नज़र आया था। प्रतिस्पर्धा के इस युग में बहिर्मुखी बनने के लिए पूर्वाभ्यास ही सही। वह सहमत हो गया।
उन दिनो छात्र संघों के चुनाव में आज जितनी गहमा गहमी नहीं होती थी। न ही वे राजनीतिक पार्टियों के रिमोट से संचालित होते थे। प्रत्याशी काॅलेज में, गेट पर दो चार बैनर लगवा देते। छोटी रंगीन महकती हुई पर्चियों में उनके नाम, पद-जिस पर वे प्रत्याशी होते, छपवा ली जातीं। स्वयं वह या उनके मित्र कालेज के गलियारों, लाइब्रेरी अथवा गेट पर छात्रों को पर्चियाँ बांटते अथवा इसी बहाने दिन में कई बार लड़कियों के कामन रूम में प्रचार के लिए जाते। मुस्करा कर अपने प्रत्याशी के लिए वोट मांगते। वे भी प्रत्युत्तर में मुस्करातीं और सिर हिला कर हामी भर लेतीं। कालेज प्रशासन की ओर से कुछ दिनो के लिए अघोषित अनुमति रहती।
नामांकन के बाद वह व्यस्त हो गया। बैनर टंगवाने का काम हो गया था। पोस्टर भी छप गए थे। उसे सबसे कठिन लग रहा था जनसंपर्क वह भी लड़कियों से। इतने समय में झिझक खुल सकी थी तो इतनी ही कि वह पढ़ाई-लिखाई से सम्बंधित औपचारिक बातचीत कर पाता। वह भी केवल जब उससे कुछ पूछा जाता। छात्रों से संपर्क कालेज परिसर में ही नहीं बल्कि रास्ते, कैंटीन और जहाँ भी छात्र एकत्रित मिलते, चल रहा था। वह भी कोशिश तो कर ही रहा था।
उस दिन वह घर जा लौट रहा था। दो सहपाठी साथ थे। रास्ते में उसने नीलिमा को देखा। नीलिमा उसी कालेज में फायनल ईयर में थी। रहती भी वह उसी मोहल्ले में कहीं, जहाँ प्रभात ने कमरा किराए पर ले रखा था। नीलिमा उसे देखते हुए निकल जाती। प्रभात को उसकी आंखों में पहचान का भाव महसूस होता। शायद एक ही जगह रहने और पढ़ने के कारण लगता। उसके मन में नीलिमा के प्रति आकर्षण का एक अहसास जैसा ज़रूर रहा होगा। लेकिन उसने उसे पैदा होने के पहले ही उसे दबा दिया था। कालेज में इस तरह की कहानियाँ शुरू होतीं, अंतिम वर्ष तक चलतीं भी। फिर अपने आप ख़त्म हो जातीं। परंतु प्रभात अपनी स्थिति और सीमाएँ जानता था। वह तो इस ओर सोच भी नहीं सकता था। नीलिमा के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था कि वह हीनता बोध से ग्रस्त हो जाता। ग़ौर वर्ण, लंबा कद, बड़ी भाव प्रवण आंखे। उसके चेहरे पर हमेशा एक गरिमापूर्ण गंभीरता रहती।
नीलिमा को आते देख उसके मित्रो ने उससे कहा कि वह नीलिमा से अपने समर्थन के लिए कहे। नीलिमा के समर्थन से प्रभात को पूरी साइंस फैकल्टी के वोट मिल सकते थे। वह पहले तो झिझका लेकिन साथियों के ज़ोर दिए जाने पर आगे बढ़़ कर नीलिमा के पास गया। उसने शब्द संजोए, ‘‘मैं--मुझे आपसे कुछ कहना है। कालेज में यूनियन के इलैक्शन में - -आपका सपोर्ट- -’’ वह अपनी बात भी पूरी नहीं कर सका था।
‘‘यहाँ रास्ते में इस तरह! दिस इज नाट द वे! हाऊ यू - -?’’ नीलिमा की आवाज़ में कठोरता थी।
वह हतप्रभ रह गया। उसे इस तरह के जवाब की ज़रा भी आशंका नहीं थी। उस पर घड़ों पानी पड़ गया था। वह रोने को हो आया। उसने चारो ओर देखा-कोई देख तो नहीं रहा है। उसकी नज़र अपने मित्रो पर पड़ी। वे उसकी स्थिति देख हंसे जा रहे थे। वह समझ गया। उन्हे हंसता हुआ देख नीलिमा ने अपने को बेवकूफ बनाए जाने की उनकी सम्मिलित साज़िश समझी होगी। नीलिमा पैर पटकते हुए चली गई थी। प्रभात की रुचि चुनाव में समाप्त हो गई। नाम वापस लेने की अंतिम तिथि निकल जाने से नाम वापस नहीं लिया जा सकता था। परंतु वह पूरी तरह चुनाव से विरत हो गया था। साथियों के लाख समझाने के बाद भी वह तैयार नहीं हो सका। इसके बाद जैसा होना था उसका विरोधी प्रत्याशी जीत गया था। वह तो कालेज ही छोड़ देता लेकिन अंतिम वर्ष होने के कारण जैसे तैसे रुका रहा। इस घटना के कारण आत्मग्लानि में डूबा वह बीमार पड़ गया। कई सप्ताह तक बुखार में पड़ा रहा। अब वह पूरी तरह आत्मकेन्द्रित हो गया था। कक्षाओं के बाद एक क्षण भी कालेज में न रुकता। वह निकट के गिने चुने मित्रो तक से कट चुका था। रास्ते में नीलिमा अब भी मिलती परंतु प्रभात की हिम्मत उसकी ओर देखने तक न पड़ती। इससे वह समझ नहीं पा रहा था कि नीलिमा की आंखों में अब भी घृणा के भाव मौजूद हैं या नहीं। वह रास्ता बदल कर निकल जाने की कोशिश करता लेकिन कालेज में यह संभव न था। कभी कभी अपरिहार्य स्थितियाँ आ जातीं। एक दिन लायब्रेरी में सेल्फ से किताबें निकाल कर वह बैठने की जगह तलाश रहा था। सभी टेबिलें भरी थीं। उसने देखा नीलिमा जहाँ बैठी हुई है, उसने बगल की कुर्सी पर रखा अपना बैग उठा कर उसके लिए जगह की थी, लेकिन प्रभात किताबें वापस सेल्फ में रख बाहर निकल गया। पीछे से उसे लगा कि नीलिमा ने गर्दन घुमा कर उसकी ओर देखा था। चाहे वह कैंटीन में चाय के लिए टोकन ले रहा होता या कुछ और यदि नीलिमा दिखाई दे जाती, वह वापस लौट जाता।
एक दिन प्रकाश के यहाँ एक कार्यक्रम में नीलिमा भी आई हुई थी। अनचाहे ही उसकी नजरे उससे मिलीं। प्रकाश, उसकी पत्नी और नीलिमा उसकी ओर देख मुस्कराए तो उसे ऐसा लगा जैसे उनको सब मालूम हो चुका है। उसने मन ही मन सोचा ज़रूर नीलिमा ने सब कुछ बताया होगा। उसे नीलिमा की ओछी मानसिकता पर क्रोध आया-ऐसा मैने क्या कह दिया जो सबसे गाती फिर रही है। यह गंभीरता, गरिमा सब दिखाने के लिए ही है। प्रकाश ने उससे पूछना चाहा लेकिन वह टाल गया।
‘‘नीलिमा तो कह रही थी - -’’सावित्री ने कहना चाहा।
‘‘बस भाभी, जाने भी दें इस बात को।’’ वह पहली बार उनकी बात काटते हुए झुंझलाया था।
भाभी हंस पड़ीं थीं। उसने उस दिन की घटना को भुलाने की पूरी कोशिश की थी परंतु बीच सड़क पर हुआ अप्रत्याषित अपमान और उसकी उपेक्षापूर्ण दृष्टि वह भुला नहीं सका था। ख़ास तौर से उसके व्दारा जिसके प्रति उसके मन के किसी कोने में अप्रकट कोमल भावनाएँ छिपी होने का एहसास रहा था।
उसका प्रयास था कि विवाह समारोह में नीलिमा से सामना न हो, लेकिन ऐसा न हो सका। भंडारघर की जिम्मेदारी नीलिमा पर थी। वह परिवार के ज़िम्मेदार सदस्य की तरह व्यस्त थी। उसने साड़ी का पल्ला पलट कर कमर में खोंस लिया था और काम में व्यस्त थी। वह बीच बीच में मेहमानो के लिए नास्ता लेने आता। ट्रे पकड़ते समय, बहुत बचाने के बाद भी, उसकी उंगलियाँ नीलिमा की उंगलियों से छू जातीं। उंगलियाँ झनझना उठतीं। भागने, दौड़ने के कारण उसके चेहरे पर थकावट के भाव स्पष्ट आने लगे थे। बीमारी से उठने के बाद वह कमजोर तो हो ही गया था। स्टोर में काफ़ी गर्मी थी। नीलिमा बार बार हाथ के उल्टी तरफ़ से माथे का पसीना पोछती। उसने प्रभात की पस्त हालत देख कर कहा, ‘‘बहुत हो गया। यहीं बैठकर थोड़ा आराम कर लो। कुछ खा लो और सभी तो टाई लगाए मेहमान बने घूम रहे है।’’
नीलिमा ने सामान हटाते हुए उसके लिए स्टूल खाली किया। उसके स्वर में अपनत्व था। उसने बड़ी निरीहता से नीलिमा की ओर देखा, बिना कुछ कहे वापस चल दिया। इस पर ने आगे बढ़ कर उसका रास्ता रोकते हुए कहा, ‘‘प्रीवियस में फर्स्ट आने पर बहुत गरूर आ गया है। मैं कब से कह रही हूँ। न कुछ सुनना, न बोलना’’
प्रभात फट पड़ने को था, लेकिन संयत रहते हुए उसने कुछकहने की कोशिश की। शब्द स्पष्ट नहीं निकल सके थे, ‘‘आप- - तुमने ही तो बात करने से मना किया था।’’ उसका स्वर रुँधा-बिंधा हुआ था। गुस्से और अपमान की खीझ से उसके शब्द थरथरा रहे थे। जेब से रूमाल निकालने का अवसर नहीं था। आँख छिपाने के लिए उसने चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया।
नीलिमा जैसे इसी का इंतज़ार कर रही थी, ‘‘अच्छा तो इस बात पर गुस्सा हो।’’ नीलिमा ने हंसी रोकने की पूरी कोशिश की थी परंतु चेहरे पर हंसी उसकी आंखों और चेहरे से झलक रही थी, ‘‘बड़े आज्ञाकारी बच्चे हो!’’
प्रभात रुकने को विवश हो गया था। भला इसके पहले जनवरी की सर्दियों में बर्फ कभी पिघली थी!