ऊँचे पहाड़ों के अंचल में / गणेशशंकर विद्यार्थी

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जेल के कैदी जेल को जेल और जेल के बाहर के स्‍थान को 'दुनिया' के नाम से पुकारते हैं। इसी प्रकार पहाड़ के रहने वाले लोग अपने देश को 'पहाड़' और नीचे के देश को 'देश' के नाम से पुकारते हैं। या, यों कहिए कि जो स्‍थल उनकी दृष्टि से 'देश' के नाम से पुकारे जाने योग्‍य है, उमसें पहाड़ नहीं होना चाहिए। हमारे प्रांत में नैनीताल प्रसिद्ध पहाड़ी स्‍थान है। काठगोदाम स्‍टेशन पर ही नैनीताल के लिए देश और पहाड़ की सीमा अलग-अलग बँट जाती है। प्रांत की ग्रीष्‍म राजधानी होने के कारण नैनीताल की इतनी ख्‍याति है। पहाड़ के बहुत-से लोग उसे गुण में बहुत बढ़ा-चढ़ा मानने के लिए तैयार नहीं हैं। अलमोड़ा के किसी आदमी से बातचीत कीजिये, वह यही कहेगा कि यह अंग्रेजों की परख है, नहीं तो कहाँ अलमोड़ा और कहाँ नैनीताल! अलमोड़ा के जलवायु और पहाड़ों को वह दिव्‍य कहेगा और नैनीताल की उन चीजों को बहुत साधारण बतलावेगा। नैनीताल समुद्र तल से लगभग साढ़े छह हजार फीट ऊँचा है, अलमोड़ा इतना ऊँचा नहीं। एक मित्र का कहना है, अलमोड़ा साढ़े पाँच हजार फीट की ऊँचा है। किंतु अलमोड़ा का ना‍गरिक इस बात से अपने नगर की हार मानने के लिए तैयार न होगा। वह छूटते ही कहेगा कि इन्‍हीं पर्वतों पर यह घमंड! नैनीताल की पहाड़ियाँ कच्‍ची और बोदी हैं, बरसात में गिरती-पड़ती और जान की गाहक बनी रती हैं। बात बहुत कुछ सच भी है। आँधी-पानी में नैनीताल की पहाड़ियाँ टूटा-फूटा करती हैं। जून के तीसरे सप्‍ताह में, दो-तीन-दिन खूब पानी गिरा। सड़कों पर पहाड़ियों के ढोंके टूट-टूटकर आ गिरे। रास्‍ता तक रूक गया। यदि किसी राह चलते पर ये ढोंके गिरते-संतोष की बात इतनी ही है कि यहाँ राह चलना उतना नहीं होता जितना 'देश' के रास्‍तों में होता है - तो बेचारे बटोही की खैरियत न होती।

मस्‍तानी चाल से, आराम के साथ चलने वाली, रुहेलखंड-कुमायूँ रेलवे की रेलगाड़ी, यात्री को बहुत प्रात:काल अपने अंतिम स्‍टेशन काठगोदाम पर पहुँचा देती है। आधी रात को बरेली स्‍टेशन की चपटी भूमि और उसकी चहल-पहल में, आप अपना बिस्‍तरा, आप से आप रिजर्ब्‍ड रहने वाली, तीसरे दरजे की सीट पर बिछा लीजिए, और यदि आप रेल पर सो सकें, तो बस, सवेरे चिड़ियों के चहचहाने और भगवान अंशुमाली की लालिमा के उदय के साथ ही, आख्‍योपाख्‍यान के अलादीन के चिराग द्वारा किये गये आश्‍चर्य-कांड के सदृश, एक दृश्‍य आँख खोलते ही समाने आ जायेगा। ट्रेन से सिर निकालते ही मालूम पड़ेगा कि ऊँचे पहाड़ों की गोद में आ गये। मानों उनके लंबे हाथ आह्वान के लिए बढ़कर सामने से अगल-बगल की ओर फैल गये। चपटी जमीन से उठकर फैली हुयी ऊँची शिखाओं पर दृष्टि का पड़ना, हृदय और नेत्रों को आह्लाद का एक चमत्‍कारपूर्ण सामान प्रदान करना है। स्‍टेशन से बाहर होते ही सामने मोटर और लारियाँ दिखायी देती हैं। आज से 8-10 वर्ष पहले यदि आप इसी यात्रा के लिए आते, तो आपको इतनी मोटर और लारियाँ न दिखाई देतीं और न ये सब लोग। 15 मील के रास्‍ते को छोड़कर मोटर के 22 मील के रास्‍ते से नैनीताल जाया करते थे। वीर चट्टी तक तो एक ही रास्‍ता था - लगभग 13 मील तक-उसके बाद मोटर वाले 9 मील के रास्‍ते को पकड़ते थे, और दूसरे प्रकार के यात्री, कच्‍चे रास्‍ते को, जो सीधा था, केवल दो-ढाई मील था, किंतु था कुछ ऊँची चढ़ाई पर। पहले काठगोदाम पर ताँगे, इक्‍के और कुली काफी तादाद में मिला करते थे। अब वहाँ उनका नाम भी नहीं मिलता। पहाड़ी कुली ईमानदारी के पुतले थे, और अब भी, 'देश' के आदमियों की इतनी सोहबत पा चुकने के पश्‍चात् भी, उनका हृदय अभी तक बहुत नहीं बिगड़ा है। पहले तो यह हालत थी कि आप अपना कीमती से कीमती सामान उन्‍हें दे दीजिये, जहाँ उसे पहुँचाना होता, उसका पता लिखकर दे दीजिये, बस, इतना ही काफी होता, आप निश्चिंतता से चलिये। धीरे-धीरे भारी बोझ को लादकर पहाड़ की सीधी ऊँचाई को पार करता हुआ यह भारवाहक अधिक से अधिक संख्‍या तक आपका समस्‍त सामान आपके ठिकाने पर ज्‍यों-का-त्‍यों पहुँचा देगा। अतीत काल से चले आने वाले उसके इस काम और इस आचरण को देखकर, और इस समय भी, जहाँ मोटर और लारियों ने अपना धुआँ और अपने साथ ही अपना दुराचार नहीं पहुँचाया है, वहाँ अब भी सतयुगी बदरी-केदार से लेकर मसूरी के कलियुगी मार्ग तक, पहाड़ी मजदूर का वही सतयुगी रंग-ढंग है। उसे देखकर आप यही कहेंगे कि ईमानदारी की यह कितनी सजीव मशीन है! कहते हैं कि पहाड़ों में सर्वत्र सदाचार का यही पैमाना है। इस पैमाने में कहीं-कहीं घुन लग गया है, और वह लगा है, नीचे से जाकर, अपनी कलुषता के रंग में पहाड़ियों को रँगने वाले नीचे के आदमियों द्वारा।

मोटरों और लारियों से यात्रा तय तो होती है बहुत सुविधा के साथ और कम समय में, किंतु यदि संसार के सारे कामों की कीमत आने-पाई और घंटों और मिनटों ही के भाव से कूती न जाये, तब तो यह कहना अत्‍युक्ति न होगा कि इन मोटर और लारियों ने 'देश' को जो हानि पहुँचायी, सो तो पहुँचायी ही, हमारे पहाड़ों को उन्‍होंने बहुत भारी हानि पहुँचायी। निस्‍संदेह यात्रा जल्‍द कट जाती है। एक आदमी पर उतना खर्च नहीं पड़ता। दो रुपये में 22 मील की यात्रा आनंद से कर लीजिये! किंतु यह भी तो देखिये कि कितनों के मुँह से सुख का ग्रास छिन गया! एक दिशा की ओर और भी संकेत किया जाता है। मोटर और लारियों के प्रवेश ने पहाड़ों में कुटिल वर्ग के कुछ बड़े ही अनर्थकारी लोगों को उस सीधे-सादे प्रदेश में लूटने, खाने और व्‍यभिचार करने के लिए खुला छोड़ दिया है, किंतु इस हानि के संबंध में यदि आप यही समझ लें कि मोटर और लारियाँ न चलतीं, तो भी वह होती ही! 16 आना न होती, तो 15 आने से कम भी न होती। किंतु तो भी, दूसरी हानि और बड़ी हानि है, बहुत-से गरीब आदमियों के मुँह से रोटियों के छिन जाने की। कितने ताँगे और इक्‍केवाले थे, कितने टट्टू वाले और कुली थे! मेरे पास कोई निश्चित अंक नहीं, किंतु इन लोगों की तादाद कई सौ तक पहुँचती थी। एक-एक आदमी के पीछे एक-एक परिवार था। ताँगे के बनाने वाले लोहार और बढ़ई थे। घोड़ों के नालबंद थे। इस प्रकार हजारों का पेट चलता था। सब नहीं तो करीब-करीब अधिकांश, मोटर लारी की माया के सामने उड़नछू हो गये। उनका पता नहीं। मोटर लारी इनी-गिनी कुछ तो कानपुर की अंग्रेज कंपनी ब्रिटिश इंडिया कारपोरेशन की हैं और कुछ देशी और पहाड़ी लोगों की, जिनमें मुश्किल से सौ-डेढ़ सौ आदमी ही लगे हुए! उनका लाभ भी दस-पाँच आदमियों को मिलने वाला! देश में, यदि मोटर और लारियाँ बनती हों, तो भी कुछ संतोष हो कि इस प्रकार कुछ आदमियों का पेट कारखाने से तो चलता ही है। किंतु यह भी कहाँ, यहाँ तो मोटर और लारी के नाम पर जितने रुपये अलग हुए, वे सदा के लिए अलग हुए। सात समुद्र-पार इंग्‍लैंड और अमेरिका जा पहुँचे और उनसे अपने आदमियों का नाता सदा के लिए टूटा।

पहाड़ की शान देखते ही बन पड़ती है। हमारे लिए वे नयी चीज हैं और उनके लिए हमारी आँखें नयी चीज है। नीचे के आदमी और विशेषतया हाता के आदमी, जिनकी दृष्टि के सामने सदा चौपट भूमि रहती है, जिन्‍हें बाग-बगीचे चाहे जितने दिखायी दें और गंगा और यमुना की धारें चाहे जितना मन मोहती रहें, किंतु कभी ऊँचे टीले और गहरी खाइयों, आकाशचुम्‍बी गगन-चोटी और पाताल तक मुँह बाये हुए घाटियों के देखने का अवसर कभी नसीब ही नहीं होता, उनके लिए तो यह सब नया ही नया है। आकाश का सिरा जोड़ने वाले पहाड़ी 'नोक' से सफेद लकीर की शक्‍ल में खिंचे हुए आते झरने की उस तेज धारा से लेकर, जो आकर नीचे घाटी में उतर जाने वाले जल-स्रोत का जीवन-अंग बन जाती है और चलने वाले, हारे-थके प्‍यासे पथिक के कलेजे को शीतल और उसके श्रम को हर तरह हरने वाली है, उससे लेकर चारों ओर की, आँखों को रिझाने वाली हरियाली और छोटे-बड़े, टेढ़े-सीधे, तने हुए और झुके हुए अगणित वृक्षों तक, सभी नये ही नये हैं। तने हुए सीधे चीड़ के वृक्षों के अनंत समूह और पंक्तियाँ और एक कोने से निकलकर एकदम किसी विशाल पर्वत की ऊँची चोटी के सामने आ जाना और पार्श्‍व में गहरी, जहाँ तक आँख जाए वहाँ तक का पता न देने वाली, किसी गरी खंदक का निकल पड़ना मन पर एक ऐसे विचित्र रोमांचकारी हर्ष का प्रादुर्भाव करता है कि थोड़ी देर के लिए तो साधारण आदमी तक की सुध-बुध बिसर जाए। पहाड़ी दृश्‍य की निर्जनतायुक्‍त यह भैरव-विशालता शुष्‍क हृदय तक में कविता का स्रोत बहा सकती है! हिमालय की यह प्रारंभिक सूत्रावली ही जब इतनी सुंदर और मनोहारिणी है, तो आगे का कहना ही क्‍या। इस वैभव को देखकर मन सद्प्रेरणाओं से और उल्‍लास से जितनी उड़ान मारता है, पहाड़ी प्रदेश की दशा देखकर उसे उतने ही नीचे भी आना पड़ता है। अकुलाकर कह उठता है कि तुम इतने ऊँचे होते हुए भी आज इतने नीचे, इतने दीन क्‍यों? इतनी दबी हुई गति क्‍यों? यही नहीं, पहाड़ों के निवासियों की दूर तक यही दशा है। कहते हैं, शिमला की पहाड़ियों के लोगों का भी यही हाल है और कश्‍मीर के सुंदरता के टुकड़ों की भी यही बुरी दशा है। सभी दबे हुए हैं। सभी पशु के समान हाँके जा सकते हैं। घोर दरिद्रता ने उन्‍हें पीस ही रखा है, किंतु शताब्दियों की दासता और पराधीनता भी उन्‍हें मनुष्य से कीड़े बनने के लिए विवश किए हुए है। पराधीनता एकांगी नहीं होती। वह चौमुखी बनकर देशों और जातियों को हड़पती है। सब तरफ की पराधीनता ने पहाड़ वालों को पेट के बल रेंगने वाला बना दिया। जब इनकी इस दीन अवस्‍था पर ध्‍यान जाता है और जब ऊँचे उठे हुए पर्वत-शिरों पर उनके वर्तमान वैभव और उनके द्वारा बैठाए जा सकने वाले आतंक पर विचार जाता है, तब मन यही पूछने के लिए विवश होता है कि इस प्रदेश ने अपना शिवाजी क्‍यों नहीं पैदा किया? पश्चिमी घाट के छोटे-छोटे टीलों ने जंगल की आग की तरह बढ़ती हुयी बादशाही सत्‍ता को ठंडा कर देने तथा अपने भीतर अपने आदमियों की सत्‍ता और उनके भारी भविष्‍यत् की रक्षा के लिए, अपने उत्‍साह और शौर्य के पुतले के रूप में शिवाजी के अस्तित्‍व को ऊपर उठा दिया, जिसने किले मारे और मैदान मारे, देश फतह किए और साम्राज्‍य की बुनियाद डाली और यह सब कुछ किया अपने छोटे-छोटे पर्वतों की आड़ में, उनकी सहायता से, उनके दर्रे और वृक्षों की सहायता से। तब फिर, ऐसा ही काम, हिमालय के उच्‍च श्रृंगों की आधारशिला के प्रदेश में क्‍यों नहीं हुआ? यहाँ के ऊँचे श्रृंगों पर से शत्रुओं की सेनाओं के मार्ग रोकने के लिए पत्‍थर के ढोंके क्यों नहीं गिराए गये? क्‍यों नहीं उनका रास्‍ता रोका गया? क्‍यों नहीं उन्‍हें खंदकों में, ऐसे गड्ढों में जो आज तक मुँह बाए पसरे हुए हैं और जिनकी क्षुधा अभी तक नहीं मिटी, उन्‍हें गिराया गया? क्‍यों नहीं उनमें शिवाजी और दुर्गादास, राणा प्रताप और तात्‍या टोपे की तरह वीर पैदा हुए? इन प्रश्‍नों का कोई उत्‍तर नहीं मिलता। पर्वत की ये चोटियाँ इन्‍हें सुनती हैं, गुनती हैं और मूक रहती हैं। राह चलता यात्री यदि उनसे ये प्रश्‍न बारंबार करता है, तो ऊँची चोटियों से उसकी वाणी टकराकर केवल प्रतिध्‍वनि उठाती है और भासित होता है कि मानों वह चिढ़ाती-सी है।

(2)

लगभग 11 बजे रात को नैनीताल नगर की अट्टालिका के बीच के खंड में बैठे हुए कई पहाड़ी मित्र प्रदेश की सामाजिक और आर्थिक अवस्‍था पर विचार कर रहे थे, बाहर सन्‍नाटा था। केवल पीछे बहने वाले नाले की कल-कल ध्‍वनि इस सन्‍नाटे को भंग करती थी। भीतर वाद-विवाद का जोर था। वह पक्ष जो पहाड़ों में अधिक बुराई न पाता था, परास्‍त होता जाता था। मुक्‍त कंठ से अपनी हीन दशा और आँसू बहाने वाले उन्‍हें कदम-कदम पर दबाते जाते थे। हम देश वाले श्रोता थे। 'देश' में कुरीतियों और कुकर्मों की कमी नहीं हैं। किंतु, पहाड़ों की दशा, ऐसा मालूम होता है और भी गिरी हुयी है। दरिद्रता का वहाँ बहुत जोर है। गरमी के दिनों में कुछ कमाई हो जाती है। जाड़े में तो सिकुड़ना और ठिठुरना ही होता है। खेती की कमी है। व्‍यापार और व्‍यवसाय है ही नहीं। दो काम यहाँ खूब हो सकते हैं। एक तो फलों की खेती और दूसरे ऊन का व्‍यवसाय। किंतु दरिद्रता और सीधेपन ने पहाड़ियों को इधर बढ़ने ही नहीं दिया। फल की खेती का अधिकांश भाग गोरे लोगों के हाथों में है। उन्‍होंने पहाड़ी देश में लंबी-चौड़ी जमीन ले रखी है। उनमें उनके बड़े-बड़े बगीचे हैं, जिनमें फल होते हैं और बाजारों में जाकर बिकते हैं। ऊन का काम कुछ तो होता है, किंतु उसके लिए बहुत व्‍यापक क्षेत्र हैं।

पहाड़ों में इतनी प्राकृतिक विभूति और पहाड़ी लोगों के अंदर इतनी अधखुली शक्ति अभी दबी पड़ी है कि थोड़े ही समय में उद्योग द्वारा वे स्विट्जरलैंड के सदृश इतने सुखी और संपत्तिवान हो सकते हैं कि उनके ऐश्‍वर्य पर सभी का मन ललकने लगे।

अति की दरिद्रता अति की धनाढ्यता ही की भाँति पापों का मूल है। पहाड़ों में जो कुछ मन को बहुत बुरा लगने वाला मिलता है, उसका जन्‍म अति की दरिद्रता के कारण ही है। बहुत वर्ष हुए, एक दुर्भिक्ष के समय गढ़वाल का वर्णन लिखते हुए कांगड़ी के गुरूकुल के एक स्‍नातक के बड़े भोलेपन के साथ 'सद्वर्म प्रचारक' में कहा था कि यहाँ तो लड़कियाँ पेड़ के पके फल की भाँति हैं, हाथ बढ़ाइये और तोड़ लीजिये। इस बात पर उस समय कुछ कोलाहल भी मचा था। किंतु यही बात किसी-न-किसी रूप में अभी तक कही और सुनी जाती है। किंतु भला और बुरा, दोनों कहाँ नहीं है? किसी जगह नितांत बुरा ही बुरा देखना कुछ अपनी तबीयत की प्रतिछाया देखना है। प्रसिद्ध रूसी उपन्‍यासकार मैक्सिम गोर्की ने ऐसे ही लोगों के लिए कहा है कि विदेशों में जाने पर, जो जैसा होता है, वह वैसी ही चीजों को ढूँढने और देखने लग जाता है। क्‍या पहाड़ों के बाहर पैसे के बल पर उतना ही दुराचार नहीं होता? पहाड़ों की नायक जाति बहुत बदनाम है। उनकी लड़कियाँ वेश्‍या का पेशा करती है। वे समझती है, और उनकी जाति के पुरुष भी यही समझते हैं कि विधि ने उनकी रचना ही इस काम के लिए की है। वे किन्‍नरी हैं, अप्‍सरा हैं। पहले देवलोकवासियों की सेवा करती थीं, अब भू-लोकवालों की। समाज की पुरानी व्‍यवस्‍था ने उन्‍हें अपने क्षेत्र में एक स्‍थान दे रखा था। न तो, वे काई और काम करती थीं और न दूसरी स्त्रियाँ उनके काम को। वे अपने को 'क्षत्रिय' कहती हैं। उनके अपने आचार-विचार हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि मनुष्य की विकार-वृत्ति-ऐसे अनिवार्य और बलवान वेग के अच्‍छे नियंत्रण के लिए यह यथासंभव स्‍पष्‍ट, सुरक्षित और आपदा शून्‍य व्‍यवस्‍था-सी है। अब समाज-सुधारक पैदा हो गये हैं। कहते हैं, नायकों की इस बात को उड़ा देने के लिए कानूनों की रचना भी होने वाली है। संभव है, नायक और नायिकाएँ समाप्‍त हो जायें, परंतु उनका स्‍थान समाप्‍त नहीं होने का। समाज की दरिद्रता और पाप-वृत्तियाँ उसका अंत न होने देंगी। इसीलिए तो पहाड़ की अन्‍य जातियों में भी यही दुराचार उसी प्रकार देखने में आता है, जैसा 'देश' में दिखाई देता है।

'डोम' पहाड़ों में बहुत व्‍यापक शब्‍द है। उसमें अनेक छोटी-छोटी जातियाँ शामिल हैं। वे सब अछूत समझी जाती हैं। पहाड़ों के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍य उन्‍हें पास नहीं फटकने देते। एक बार पूछने पर मालूम हुआ कि जितने 'शिल्‍पकार' हैं, जैसे बढ़ई, ठठेर आदि, वे भी अछूत ही माने जाते हैं। हाथ से परिश्रम करके न केवल अपना पेट भरने, किंतु बड़े आदमियों के लिए सत-खंडों को खड़ा करने वाले लोगों की यह दुर्गति, हिंदुओं के इस भयंकर पतन का एक बहुत बड़ा कारण है। किंतु, अब भी आँखें नहीं खुलतीं। पहाड़ों में तो और भी दुर्दशा है। इन छोटी जातियों में, किसी प्रकार की कोई कमी नहीं है। हाथ-पैर वैसे ही, नाक-कान वैसे ही, सुडौलता में भी कमी नहीं, रूप और लावण्‍य भी कहीं अच्‍छे स्‍वास्‍थ्‍य के कारण और कहीं प्रकृति की देन से फटा पड़ता है। परंतु ऊँच और नीच का भेद पहाड़ी खाइयों से भी गहरा है, जो किसी प्रकार भी पार नहीं होता और एक ही प्रदेश के कुछ प्राणियों को इधर रखता है और कुछ और को उधर। अलग ही रहें, तो भी अधिक हानि नहीं। वहाँ तो होता यह है कि बड़े छोटों को धक्‍के मारते हैं। लालकुआँ से लेकर काशीपुर तक एक पहाड़ी में क्षत्रिय से बातें होती रहीं, जहाँ उसने यह खुशी की बात सुनायी कि पहाड़ों में क्षत्रिय और वैश्‍यों में विवाह-संबंध हो जाया करता है - उसने कई उदाहरण भी दिये - वहीं वह छोटी जातियों और विशेषतया डोमों को 'साले' ही के शुभ नाम से बार-बार याद करता रहा। 'भाई, वे भी तो अपने ही भाई हैं।' यह वाक्‍य उसे नहीं रुचा। उसकी कुलीनता इन 'सालों' के साथ बराबरी के लिए तैयार न थी। ये 'साले' केवल उसके मजदूर ही बनकर रह सकते थे। कोई 'बहनोई' इन 'सालों' का किसान तक बन जाना पसंद नहीं करता।

जाति-पाँति और धनाधिकार की प्रभुता से दबे हुए 'डोम' पहाड़ के अनाथ हैं। वे शिक्षा धारण करते हैं। राम और कृष्‍ण का नाम लेते हैं। हिंदुओं की-सी उनकी वेशभूषा है। किंतु हिंदुओं की उच्‍च जातियों का अभिमान उन्‍हें अपना मानने और उन्‍हें आगे बढ़ने के लिए रास्‍ता देने के लिए तैयार नहीं है। एक अत्‍यंत सभ्‍य और परम सहृदय पहाड़ी सज्‍जन से जब यह कहा गया कि अमुक लड़की को दो मुसलमान पकड़ ले गये, उसे उन्‍होंने जबर्दस्‍ती भ्रष्‍ट किया, बड़ी मुश्किल से एक हिंदू युवक ने उनको पकड़ा, ऐसी घटनाएँ प्रतिदिन सुनने में आती है, आपको उद्योग करना चाहिए कि ऐसा अनाचार न हो, तो उनके मुँह से यह वाक्‍य निकला - और, लेखक को ऐसा भासित होता है कि यह वाक्‍य अनाज में, एकदम निकला पड़ा - कि, अजी, वह लड़की नीच जाति की होगी। मैंने तो उसी दिन एक अत्‍यंत शिक्षित आदमी के मुँह से जाना कि नीच जाति की कोई इज्‍जत नहीं, और वह तो लावारिस माल है। हम कई आदमी उस रात को उसी नैनीताल की अट्टालिका में पहाड़ की सामाजिक विषमता पर चर्चा कर रहे थे। रोटी और पूड़ी के छूत-छात की व्‍याख्‍या हो रही है। इस भारतीय महाविज्ञान के पहाड़ी संस्‍मरण में भात बहुत छूतदार वस्‍तु है। उसके बाद रोटी और उसके बाद पूड़ी। किंतु सब हालातों में पहाड़ी ब्राह्मण किसी दूसरे का छुआ हुआ कदापि न खायेगा। डोम की छाया तक से परहेज। दार्शनिक तबीयत के एक सुशिक्षित पहाड़ी ब्राह्मण युवक ने बड़ी गंभीरता से फरमाया कि ब्राह्मणों की इस प्रभुता पर किसी को आश्‍चर्य ही क्‍यों हो! जो लोग पद दलित हैं, वे इसी योग्‍य हैं। ब्राह्मण यदि आज शीर्ष स्‍थान पर हैं, तो इनके वहाँ होने का हक उनकी योग्‍यता और बल के आधार पर स्थित है। कैसी भोली बात है और साथ ही कैसी बहकी हुयी भी! ब्राह्मण इस समय शीर्ष स्‍थान पर है! इस देश में तो शीर्ष स्‍थान अंग्रेजों का है, जिनके जूते के बक्‍सुए अधिकांश ब्राह्मण से लेकर सब कोई जीवन के सब क्षेत्रों में सदैव खोलने के लिए तैयार रहते हैं। तबेले में लतिहाव करते हुए यदि ऊँची जाति के लोग छोटी जाति के लोगों को आज पैरों तले कुचल सकते हैं, तो न तो यह उनके बल का प्रदर्शन है और न उनकी रुचि और समझ ही है।

डोमों का दलन और दरिद्रता द्वारा पहाड़ों में हिंदुओं के भयंकर सर्वनाश की तैयारी हो रही है। गरीबी के कारण, उनकी बहुत-सी स्त्रियाँ, खुल्‍लमखुल्‍ला वेश्‍यावृत्ति आख्तियार करती जा रही हैं। देश के दुराचारी, पैसे के बल पर, उन्‍हें कुमार्ग की ओर ले जाते हैं। वे सीधी-सादी होती हैं। बातों और पैसों के फेर में आ जाती हैं। नीचे से कुमार्गी लोगों का एक बड़ा भारी दल पहाड़ों पर जमा है। इनमें छोटे दर्जे के मुसलमानों की तादाद बहुत अधिक है। वे इन स्त्रियों को खूब फुसलाते हैं। आज आप जिस मुर्गी बेचने वाले को बिना बीवी के देखें, दस दिन बाद ही वह बीवी वाला हो जाता है और कुछ दिन बाद उसके बाल-बच्‍चे खेलते दिखायी देते हैं। डोम पुरुष भी इसे बुरा नहीं मानते। उनके अंदर उपेक्षा और धक्‍के सहते-सहते हिंदू होने का कोई विशेष अभिमान ही बाकी नहीं रहा। पहाड़ों की सड़कों को बनाने वालों में अब बहुत-से काबुली दिखायी पड़ते हैं। आप राह चलते देखिए कि सड़क बनाने वाला काबुली, पहाड़ी कुली स्‍त्री से, जो डलिया भर-भरकर इधर से उधर लेकर आती-जाती है, हँसी-मजाक करता है, हद को पार कर जाता है। उसके आस-पास के पहाड़ी मजदूरों को इस प्रकार एक पहाड़ी स्‍त्री का छेड़ा जाना और अंत में उसका बहका लिया जाना तक इतना भी बुरा नहीं लगता कि उनके माथे पर उसके कारण सिकुड़न तक पड़े। उँची जाति के पहाड़ी तो अपनी कुलीनता पर फरेफ्ता है। उन्‍हें इधर ध्‍यान देने की फुरसत कहाँ? स्त्रियों का तो वे भी अच्‍छा शिकार खेलते हैं। बहु-विवाद पद्धति उनके बहुत जोरों पर है। एक-एक आदमी कई-कई विवाह कर सकता है। इससे बहुत लाभ है। स्त्रियों के रूप में सस्‍ते मजदूर मिल जाते हैं। पतिराम आराम करते हैं। उनकी दो या तीन या चार स्त्रियाँ खेती के काम से लेकर मीलों दूर से लकड़ी लाने और भोजन बनाने और बच्‍चों के लालन-पालन के काम में पिसी रहती हैं। इसीलिए तो परमात्‍मा ने इन स्त्रियों को बनाया है। उच्‍चता का अभिमान निर्दयता और निर्ममता भी उत्‍पन्‍न कर देता है। पत्नियों पर अत्‍याचार होता है, वे घर से निकाल तक दी जाती हैं।