ऋचा / भाग-1 / पुष्पा सक्सेना
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कॅालेज-डिबेट के लिए छात्र-छात्राएँ मेन हाल में जमा थे। 'कॅालेज में प्रवेश के लिए लड़कियों के लिए 25 सीट आरक्षित की जानी चाहिए', विषय को लेकर लड़के-लड़कियों में भारी उत्तेजना थी। एक-दूसरे को पराजित करने के लिए जोरदार तर्क दिए जा रहे थे। आशा ने लड़कियों की स्थिति की जो मार्मिक तस्वीर प्रस्तुत की, उसके आधार पर लड़कियों की विजय निश्चित थी, पर ऋचा ने मंच पर पहुँचकर पासा ही पलट दिया। एक लड़की होकर वह विषय के विपक्ष में बोलेगी, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.
मंच पर पहुँच, सधी आवाज में ऋचा ने अपनी बात कही थी -
"साथियों, मुझे दुःख है, विषय के पक्ष में बोलकर मेरी सहपाठिनें अपने पैरों पर स्वंय कुल्हाड़ी मार रही हैं।"
ऋचा के पहले वाक्य पर ही लड़कियों के बीच सुगबुगाहट शुरू हो गई। लड़के आगे सुनने को तैयार हो गए। ऋचा ने बात आगे बढ़ाई -
"........ जी हाँ, मैं फिर अपनी बात दोहराती हूँ। दान में दी गई सीट-ग्रहण करने की अपेक्षा, मैं दूसरी बारी की प्रतीक्षा करूँगी। स्वाभिमानपूर्ण जीवन ही सच्चा जीवन है। आरक्षण का ठप्पा लगे सिंहासन पर बैठने की जगह अपने प्रयासों और योग्यता से प्राप्त स्थान श्रेयस्कर होता है। कम-से-कम मेरी अन्तरात्मा तो मुझे नहीं धिक्कारेगी कि आरक्षण की बैसाखी के सहारे मुझे कॅालेज में स्थान मिला है। आरक्षण की बैसाखी हमें अपंग बना देगी। मैं स्पष्ट शब्दों में कहती हूँ, हमें कॅालेज में प्रवेश के लिए आरक्षण की बैसाखी नहीं चाहिए। हमें अपनी योग्यता के आधार पर प्रवेश चाहिए। हमें सिद्ध कर दिखाना है, लड़कियों को आरक्षण की सहायता नहीं चाहिए। धन्यवाद।
लड़को ने जोरदार तालियाँ बजाकर अपनी विजय घोषित कर दी। विशाल ने उठकर ऋचा के वक्तव्य की मंच से सराहना की। आशा ने विशाल को आड़े हाथों ले लिया -
"वाह, विशाल जी। यूनियन की बैठकों में तो लड़कियों के हित की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, पर आज पाला बदल लिया।"
"नहीं, आशा। लड़कियाँ दया की पात्री नहीं होतीं। उनके हित के लिए हर सम्भव प्रयास करूँगा, पर ऋचा की बातों की सच्चाई से क्या तुम्हें ऐतराज़ है ?"
"अगर लड़कियों को कोई सुविधा दी जाए तो क्या यह गलत बात है ? हमेशा हमें दबाया ही तो गया है।"
"तो अब दूर्वा की तरह विरोध के लिए तनकर खड़ी हो जाओ, आशा। जानती हो, अनगिनत पाँवों-तले कुचली जाने के बावजूद, दूर्वा जमीन से फिर सिर उठाकर खड़ी हो जाती है। लड़कियों को हरी दूब की तरह जीना सीखना चाहिए।"
ऋचा और स्मिता के पास आते ही आशा के चेहरे पर नाराज़गी आ गई।
"क्यों ऋचा, आज तो तुम विपक्षियों की आँख का तारा बन गई। अपनी टीम छोड़कर शत्रुओं से जा मिलीं।"
"बात दोस्ती या दुश्मनी की नहीं है, आशा। भीख में मिली वस्तु मुझे नहीं सुहाती। मैंने अपने मन की बात कही थी।"
"बातें बनाना बहुत आसान होता है, ऋचा। वक्त आने पर सच्चाई का पता लगता है। आरक्षण के सहारे अगर तुम्हें अच्छी आॅपारच्यूनिटी मिले, तब देखेंगे, तुम चांस लोगी या छोड़ोगी।"
"अरे... रे... रे, लगता है, अब यहाँ दूसरी डिबेट शुरू होनेवाली है। आशा जी, हार-जीत तो जीवन का सत्य है। इसे लेकर व्यर्थ झगड़ा नहीं बढ़ाना चाहिए। विशाल ने बीच-बचाव करना चाहा।"
"ठीक है, मैं झगड़ालू हूँ। आप ऋचा से बात करें, हम जाते हैं।" आशा रूष्ट हो गई।
आशा के जाने के बाद विशाल ने ऋचा को दुबारा बधाई दे डाली-
"सच ऋचा जी, मैं तो आपके विचारों का कायल हो गया। वैसे आगे क्या करने का इरादा है ?"
"मैंने भविष्य की तैयारी अभी से ही शुरू कर ली है, विशाल जी। 'दैनिक बन्धु' में पार्ट. टाइम रिपोर्टर का काम सम्हाल रही हूँ।"
"ओह, तो आप पत्रकार बनेंगी। वैसे एक सफल पत्रकार बनने के सारे गुण आपमें मौजूद हैं। मेरी बधाई !"
"धन्यवाद! आप तो शायद लाॅ फाइनल-इअर में हैं न ?"
"लगता है, काफी बदनाम हो गया हूँ। वैसे सही फ़र्माया। कानून की पढ़ाई पूरी होने में एक महीना बाकी है। उसके बाद आपका मुकदमा लड़ सकता हूँ।" विशाल हॅंस रहा था।
"अपने लिए न सही, पर दूसरी लड़कियों को अन्याय से मुक्ति दिलाने के लिए आपकी मदद ज़रूर लूँगी।"
"चलिए इसी बात पर एक-एक कम कॅाफ़ी हो जाए। जीत के लिए आप ही तो जिम्मेदार हैं। भले ही आपकी टीम फ़स्र्ट आई, पर फ़ायदा तो लड़कों को पहुँचा है न ?"
"ऋचा, तू कॅाफ़ी के लिए जा, हमें घर जाना है।" इतनी देर से चुप खड़ी स्मिता बोल पड़ी।
"अरे वाह ! आप तो बोलती भी हैं। मैंने तो समझा, आप ऋचा की जुबान ही बोलती हैं।"
"आपने गलत समझा, स्मिता बात भले ही कम करे, पर कई बातों में हम सबसे आगे है। क्यों ठीक कहा न, स्मिता।"
"जाओ हम तुमसे नहीं बोलते।" स्मिता का चेहरा लाल हो उठा।
"तो हम तीनों कॅाफ़ी-हाउस चलें ?"
"नहीं, विशाल जी, आज एक रिपोर्ट देनी है। आपकी कॅाफ़ी उधार रही। चल, स्मिता।"
स्मिता का हाथ पकड़ ऋचा चल दी। विशाल मुग्ध-दृष्टि से देखता रह गया।
"ऐ ऋचा, तू कैसे सबके सामने अपनी बात कह लेती है ? तुझे डर नहीं लगता ?" ऋचा के साथ चलती स्मिता सवाल पूछ बैठी।
"वैसे ही, जैसे नीरज के साथ प्यार करते तुझे डर नहीं लगा, मेरी स्मिता।" ऋचा ने परिहास किया।
"वो, हमने कुछ थोड़ी किया, हमें तो पता भी नहीं लगा।" बड़ी मासूमियत से स्मिता ने जबाव दिया।
"वैसे क्या प्रोग्रेस है ? सच कहूँ तो तेरी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। भला तेरे मम्मी-पापा क्या नीरज को स्वीकार करेंगे ?"
"नहीं करेंगे तो हम मर जाएँगे, ऋचा।"
"मरें तेरे दुश्मन, अब ओखली में सिर दिया है तो मूसल की चोट से क्या डरना ?" ऋचा ने हिम्मत दी।
"तू अभी घर नहीं लौटेगी, ऋचा ?"
"सुना नहीं था, प्रेस में एक रिपोर्ट देनी है। बड़ी ज़ोरदार ख़बर है। कल का न्यूज-पेपर देखेगी तो जान जाएगी। मैं चलती हूँ, स्मिता।"
"एक बात कहूँ, ऋचा, तू बड़ी हिम्मत वाली है। न जाने किस-किस से पंगा लेती रहती है। दुनिया को ठीक करने का ठेका क्या तूने ही लिया है। हमे तो डर लगता है।"
"डर-डर के जीना होता तो पत्रकार बनने का सपना नहीं देखती, स्मिता। तू भी घर जा वरना तेरी मम्मी पुलिस में रिपोर्ट लिखा देगी।" बात खत्म करती ऋचा हॅंस पड़ी।
प्रेस जाती ऋचा सोच में पड़ गई। धनी माॅ-बाप की बेटी स्मिता का नीरज के साथ विवाह कैसे सम्भव होगा। माना, नीरज मेधावी छात्र है, चरित्रवान् होने के साथ ही वह स्मिता को बेहद चाहता है, पर विवाह के लिए इतना ही तो काफ़ी नही। एक कार्यालय में बड़े बाबू का बड़ा बेटा, नीरज ही घर भर की आशा का केन्द्र है। दो विवाह-योग्य छोटी बहिनों, सुधा और रागिनी के लिए भी नीरज का कुछ दायित्व बनता है। स्मिता के घरवाले अब जल्दी-से-जल्दी स्मिता का विवाह करने के लिए व्यग्र हैं। नीरज अभी एम.काम. की फाइनल परीक्षा दे रहा है। नौकरी एक दिन में तो नहीं मिल जाती। ऐसी स्थिति में स्मिता के साथ विवाह कैसे सम्भव होगा ?
प्रेस में ऋचा का इन्तज़ार किया जा रहा था। कल सुबह के लिए ऋचा की रिपोर्ट ज़रूरी थी। धमाकेदार खबरें न हों तो समाचार-पत्र की माँग कैसे बढ़ेगी। पिछले पाँच महीनों से ऋचा अपनी क्लासेज के बाद प्रेस का काम करती थी। अपनी बेबाक रिपोर्टिग की वजह से कार्यालय वाले ऋचा को सम्मान देते। आज भी उसके पहुँचते ही सीतेश ने आवाज लगाई-
"लो भई, ऋचा जी आ गई। कहिए, आज क्या ख़बर है ? आप ही के लिए पहले पेज पर जगह खाली रखी है।"
"हाँ, यह ख़बर पहले पेज पर ही जानी चाहिए। बड़ी कंपनियों के चीफ़ अपने को क्या समझते हैं। उनकी नजर में तो कम्पनी में काम करने वाली लड़कियों की कोई इज्ज़त ही नहीं होती।" वाक्य समाप्त करती ऋचा का चेहरा तमतमा आया।
"अरे अरे अरे, लगता है, कोई गम्भीर मामला है। किसकी इज्जत लुट गई।" न चाहते हुए भी सीतेश के ओठों पर व्यंग्य की रेखा खिंच गई।
"लो खुद ही देख लो।" गुस्से में ऋचा ने पर्स से कागज निकाल सीतेश के सामने रख दिए।
कागज़ों पर सरसरी निगाह डाल, सीतेश चुप-सा पड़ गया।
"क्यों, अब चुप क्यों हो गए ? देखो, यह खबर ज्यों-की-त्यों हमारे अखबार में छपनी चाहिए।"
"ऋचा जी, ऐसी ख़बरों के लिए हमारे पास सबूत होना जरूरी है।"
"लड़की का खुद का बयान क्या किसी सबूत से कम है ?"
"क्या वो लड़की कोर्ट में बयान देने को तैयार होगी, ऋचा जी ?"
"क्यों नहीं, मुझे पूरा विश्वास है। मैंने उस लड़की से खुद बात की है, तुम इस रिपोर्ट को लेकर परेशान मत हो, सीतेश।"
"अच्छा होता, आप सम्पादक जी से बात कर लेतीं।" सीतेश हिचक रहा था।
"देखो सीतेश, सम्पादक जी ने हमेशा सच्ची रिपोटर्स को बढ़ावा दिया है। यह रिपोर्ट भी उनमें से एक है। अच्छा, अब चलती हूँ। बाय !"
"जरा रूकिए। एक बात बता दूँ, अक्सर लड़कियाँ कोर्ट में सच्ची बात न कहने को मजबूर हो जाती हैं। स्वंय माता-पिता बदनामी के डर से लड़की से झूठा बयान दिलवा देते हैं।" सीतेश ने अपनी राय दे डाली।
"ठीक कहते हो, सीतेश, पर कामिनी से पक्की बात कर ली है। वह सिर्फ़ सच्ची बात ही बताएगी।" पूरे विश्वास के साथ ऋचा बोली।
"कह नहीं सकता, समपादक जी आपकी इस रिपोर्ट को कैसे लेंगे। एनीहाउ, रिपोर्ट उनके सामने रख दूँगा।" सीतेश ने हार मान ली।
"हूँ, यह हुई न बात। अरे पत्रकार होने का दम भरते हो तो सच्चाई का डट कर सामना करना सीखो, सीतेश। हॅंसती ऋचा के चेहरे पर परिहास था।"
"काश, तुम्हारी तरह हिम्मत और विश्वास मुझमें भी होता।" सीतेश मायूस दिखा।
"कम आॅन, मैंने तो मज़ाक किया था। अरे, तुम तो हमारे समाचार-पत्र के एक अति महत्वपूर्ण संवाददाता हो, सीतेश। अच्छा, अब चलूँ, वरना अम्मा पत्रकारिता से मेरी छुट्टी करा देंगी।"
हॅंसती ऋचा घर की ओर चल दी।
साइकिल रखकर ऋचा ने जैसे ही घर में प्रवेश किया, छोटे भाई आकाश ने माँ की नाराज़गी की खबर दीदी को दे दी।
"बड़ी देर कर दी, दीदी। माँ बहुत नाराज हैं।"
"अच्छा-अच्छा, माँ को मना लूँगी। बता, तेरा रिज़ल्ट कैसा रहा ?"
"बस पास हो गया, दीदी। क्या करूँ, कितनी भी मेहनत करूँ, नम्बर अच्छे नहीं मिलते। तुम हमेशा फ़स्र्ट आती हो और एक मैं हूँ .........।" आकाश उदास हो आया।
"घबरा नहीं, मेरे भाई। माँ तुझे इन्जीनियर बना देखना चाहती हैं, उनका सपना तुझे ही सच करना है। मेहनत करने से सफलता जरूर मिलती है।"
"अच्छा होता, मेरी जगह माँ तुम्हें इन्जीनियर बनातीं। ठीक कहा न ?"
"अच्छा, अब तो तू बड़ी बातें बनाने लगा है। लगता है, अपनी दीदी से कुछ चाहिए। वैसे एक सच जान ले, हमारे समाज में लड़के से ही सारी अपेक्षाएँ की जाती हैं। लड़की को तो पराई अमानत कहकर नकार दिया जाता है।"
"तुम पराई नहीं हो, दीदी।"
"सच, तू ऐसा सोचता है ? वैसे हम बातें कर रहे हैं, पर अभी तक माँ की फटकार नहीं सुनी। माँ कहाँ हैं, आकाश ?"
"मेरी कामयाबी की खुशी में मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने गई हैं।" आकाश हॅंस पड़ा।
"अच्छा, तो महारानी जी को याद आ गया, इनका कोई घर भी है। ये ले, बेटा प्रसाद ले।" माँ ने आते ही ताना दिया।
"पहले दीदी को प्रसाद दो, माँ। दीदी बड़ी हैं।"
"क्यों, तेरी दीदी ने कौन-सा कमाल किया है जो पहले उसे प्रसाद दूँ।"
"कमाल तो किया है, माँ। पूरे कॅालेज में हमारे लेक्चर की तारीफ़ हो रही है। हमारी वजह से हमारी टीम जीत गई।" ऋचा ने खुशी से बताया।
"बस-बस, तेरे कारनामे सुनते-सुनते कान पक गए। लाख बार समझाया, लड़की है तो लड़की की तरह रहना सीख। ससुराल में तेरे लेक्चर नहीं, तेरे गुण काम आएँगे।"
"अरे, वाह दीदी, हमें बताओ, तुमने अपने लेक्चर में क्या कहा ?"
"लड़कियों की खिलाफ़त की थी, आकाश।"
"तुझसे और उम्मीद भी क्या कर सकते हैं! सारे दिन साइकिल लिए न जाने कहाँ-कहाँ घूमती फिरती है। इतना मना किया था लड़की को साइकिल न दिलाएँ, पर तेरे पापा की तो मत ही फिर गई। घर में काम करने को यह माँ जो बैठी है।" माँ का स्वर ऊंचा हो आया।
"ऐसा क्यों कहती हो, माँ ? घर में सबसे पहले उठकर नाश्ता-खाना तैयार करने के बाद ही तो कॅालेज और अखबार के दफ्तर जाती हूँ। अगर मेरी जगह आकाश होता तो ......"
"अरी, आकाश के साथ बराबरी करे है ? आकाश से तो हमारा वंश चलेगा।" किसने कहा, अखवार के दफ्तर में काम कर। लोग सोचते होंगे, हम लड़की की कमाई खाते हैं। बड़ी नेकनामी कराई है हमारी। अच्छी लड़कियों के क्या यही ढंग होते हैं ?
"अच्छा माँ, मैं अच्छी लड़की नहीं हूँ। प्लीज अब शान्त हो जाओ !" हॅंसकर ऋचा ने बात टालनी चाही।
"मेरी बात याद रखना, अगर तेरे ऐसे ही लच्छन रहे तो तेरा बियाह होने से रहा। रात-बिरात घर के बाहर रहना क्या अच्छे घर की लड़कियों के ढंग होते हैं ?"
"अब जाने भी दो, माँ। दीदी कितना थककर आई हैं। चलो दीदी, खाना खा लें।"
"मुझे भूख नहीं है, भइया। तू खाना खा ले।"
"हाँ-हाँ, भूख क्यों होगी, लेक्चर से ही पेट भर गया होगा।" गुस्से में माँ कमरा छोड़कर चली गई।
दो-चार कौर मॅुह में डाल ऋचा उठ गई थी। रात में देर तक नींद नहीं आई। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म लेकर भी ऋचा आकाश की ऊंचाइयाँ छूने के सपने देखती। माँ का आक्रोश अकारण ही नहीं था। प्राइमरी स्कूल में अध्यापक पिता ने किताबों से भले ही यह जाना कि लड़के और लड़कियों में भेदभाव करना ठीक नहीं, पर वास्तविकता किताबों में पढ़ी बातों से सर्वथा अलग थी। सामान्य बुद्धि वाली इला दीदी के मैट्रिक पास करते ही माँ ने उनकी शादी के लिए पापा को परेशान करना शुरू कर दिया था। पत्नी की ज़िद पर पापा ने दीदी के लिए वर की तलाश शुरू कर दी। हर जगह दहेज की माँग ने पापा को सच्चाई स्वीकार करने को मजबूर कर दिया। स्कूल के प्राॅविडेंट फन्ड से उधार लेकर दीदी की शादी कर दी गई। इला दीदी के पति एक कार्यालय में छोटे बाबू थे। घर में भाई-बहनों की लम्बी जमात में एक दीदी भी जुड़ गई। सास-ससुर, देवर, ननदों वाले भारी कुनबे में दीदी मुफ्त की नौकरानी बन गई थीं। झाडू-पोंछा, बर्तन-धोना, खाना पकाना, न जाने इतना काम दीदी कैसे अकेले निबटाती होंगी ! शायद माँ की ट्रेनिंग उनके काम आई हो। काश ! माँ ने दीदी को पढ़ने दिया होता तो आज वह भी आत्मनिर्भर बन, घर की आय बढ़ा पाने में मदद दे पातीं। माँ के दबंग स्वभाव के सामने पापा ने हमेशा अपने को निरीह पाया। हाँ, इतना जरूर था, ऋचा के समय उन्होंने उसकी शादी की जल्दबाजी नही की। माँ के लाख सिर पटकने के बावजूद ऋचा को कॅालेज भेजा। आने-जाने की सुविधा के लिए साइकिल खरीदवाई। इतना ही नहीं, अखबार के दफ्तर में काम करने की इजाज़त देने पर तो माँ ने खासा हंगामा खड़ा कर दिया, पर पापा नहीं झुके। माँ ने दलील पेश की थी-
"अखबार के दफ्तर में काम करेगी तो क्या हम मुँह दिखाने लायक रहेंगे ? नाक न काट जाएगी ? "
"नहीं, अब ज़माना बदल गया है। हमारी बेटी के काम करने से नाक नहीं कटेगी, बल्कि हमारा सम्मान बढ़ेगा।"
"तुम्हारी तो मत मारी गई है। बियाह लायक उमर वाली लड़की की सोचकर तो मैं सो भी नहीं पाती।"
"माँ, तुम आराम से सोया करो। खराब काम करने से नाक कटती है, नौकरी करने से नाक ऊंची होती है। हमें अभी शादी नहीं करनी है।" ऋचा दृढ़ थी।
"क्यों, तेरी दीदी की शादी हो गई तो क्या गुनाह हो गया ? आराम से अपने घर में है।"
"हमें दीदी वाला आराम नहीं चाहिए। एक बार अपने पाँवों पर खड़ी हो जाऊॅं, उसके बाद शादी की बात करना।"
"ठीक ही तो कहती है ऋचा। हमेशा इसके पीछे पड़े रहना ठीक नहीं। हमारी ऋचा बड़ी समझदार लड़की है। वह ऐसा कोई काम नहीं करेगी, जिससे हमारी बदनामी हो।"
"हाँ-हाँ, दुनिया में बस दो ही तो समझदार हैं, एक तुम और दूसरी तुम्हारी यह लाडली बेटी। जो मन में आए करो, पर अगर कोई ऊंच-नीच हो जाए तो हमें दोष मत देना।" माँ हथियार डाल देती।
माॅ भी गलत नहीं थी। मध्यमवर्गीय मानसिकता बेटी को बोझ ही तो मानती है। विचारों में डूबी ऋचा को कब नींद आ गई, पता ही नहीं लगा। सुबह माँ की पुकार पर ही नींद टूटी थी। सबको चाय देकर ऋचा ने अखबार खोला। पहले पेज पर उसकी दी गई रिपोर्ट गायब थी। तीसरे पेज पर एक छोटी-सी घटना की तरह खबर छापी गई थी। खबर में कम्पनी का नाम जरूर दिया गया था, पर अधिकारी का नाम गायब था। रोज घटनेवाली घटनाओं की तरह बस इतना ही छापना जरूरी समझा गया था कि अमुक कम्पनी के एक अधिकारी द्वारा एक कर्मचारी लड़की के साथ छेड़छाड़ की गई। रिपोर्ट देने वालों में ऋचा के साथ सीतेश का नाम भी छपा था। ऋचा का मन खट्टा हो गया। उसकी मेहनत पर कितनी आसानी से पानी फेर दिया गया था। सम्पादक से बात करने का निर्णय ले, ऋचा जल्दी-जल्दी घर के काम निबटाने लगी।
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