ऋतिक-कंगना : कटी हुई पतंग की दास्तां / जयप्रकाश चौकसे

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ऋतिक-कंगना : कटी हुई पतंग की दास्तां
प्रकाशन तिथि :18 फरवरी 2016


कुछ फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धन बरसाने या कोई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीतने के कारण याद की जाती हैं परंतु कुछ फिल्में असफल होने के बाद भी गैर-फिल्मी कारणों से याद की जाती हैं। औसत से अधिक सफलता प्राप्त करने वाले राकेश रोशन की असफल फिल्म 'काइट्स' अनेक गैर-फिल्मी कारणों से बार-बार याद आती है। अनुराग बसु जैसे निष्णात निर्देशक ने 'गैंगस्टर' के बाद राकेश रोशन को 'काइट्स' सुनाई और उनकी सिफारिश के कारण ऋतिक के साथ कंगना रनोट को नायिका लिया गया, जो उस समय तक 'क्वीन' नहीं बनी थी। फिल्मों में अलग किस्म का जातिभेद या कहें वर्गभेद होता है। ऋतिक भव्य सितारा था और कंगना रनोट के खाते में उस समय महज 'गैंगस्टर' थी। अत: 'काइट्स' की घोषणा के साथ कंगना रनोट का दर्जा बदल गया, क्योंकि राकेश रोशन अौर उनका पुत्र तीन सफल फिल्में दे चुके थे और श्रेष्ठि वर्ग के सदस्य बन चुके थे परंतु कंगना उस समय तक 'विशिष्ट' नहीं बन पाई थीं।

जब विदेश में 'काइट्स' की शूटिंग हो रही थी तब अफवाह थी कि ऋतिक व कंगना के संबंध अंतरंग हो चुके हैं। प्रदर्शन पूर्व विदेश में फिल्माए दो गीतों को अमेरिका से आए एक फिल्मकार ने भी देखा और जी भरकर सराहा। उन गीतों की ख्याति ऐसी फैली कि राकेश रोशन से आग्रह करके अनेक फिल्मकारों और सितारों ने संपादन कक्ष में गीत देखे और कंगना की चात्र मात्र देखकर कई उसके दीवाने हो गए। स्वयं राकेश रोशन हैरान थे कि उनके लंबे कॅरिअर में एक गीत के इतने दीवाने उन्होंने पहले कभी नहीं देखे थे। बहरहाल, ये प्रदर्शन पूर्व अत्यंत 'गरम' फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कटी पतंग सिद्ध हुई और इस तरह की बातें भी फैलीं कि फिल्म के निर्देशन में बसु के साथ निर्माता पिता-पुत्र की दखलंदाजी काफी रही है, इसलिए फिल्म चूं-चूं का मुरब्बा बन गई। इस कटी हुई पतंग के बाद अनुराग बसु ने 'बर्फी' बनाकर अपनी काबिलियत को दोबारा स्थापित किया और राकेश रोशन तथा ऋतिक ने भी सफल फिल्में बनाईं। फिल्म निर्माण कोई सीधा गणित नहीं है कि इसमें दो और दो चार ही हों या कोई मजाकिया उन्हें बाईस कहे। इस क्षेत्र में पहली फिल्म का अनुभव दूसरी फिल्म में काम नहीं आता, क्योंकि हर फिल्म के अपने कई आयाम और समस्याएं होती हैं।

कोई तीन दशक बाद राकेश रोशन की सृजन शक्ति अस्थायी अनऊर्जक स्थिति में है, जिसे साहित्य में 'राइटर्स ब्लॉक' कहते हैं। इस तरह के बांझ पीरियड सभी सृजनशील लोग भुगतते रहे हैं। गैर-हिंदी भाषी लेखक रांगेय राघव का नियम था कि वे तड़के चार बजे लिखने बैठते थे और विचार के अभाव में कोरे कागज पर राम-राम लिखते थे। कुछ पन्नों के राम नाम जाप के बाद विचार कौंधता था। उन्होंने विविध विषयों पर रचनाएं की हैं और कहते हैं कि दिवाली के पूर्व वे अपने लिखे पुलिंदों को लेकर दिल्ली पहुंचते और दुनियादारी से अनभिज्ञ वे कौड़ियों के दाम अपने अमूल्य रत्न बेच देते थे। रांघेय राघव ने मोहनजोदड़ो पर काल्पनिक उपन्यास 'मुर्दों का टीला' लिखा है, जिसका कोई संबंध आशुतोष गोवारिकर की इसी नाम की ऋतिक रोशन अभिनीत फिल्म से नहीं है।

पुरातन सभ्यताओं के विकास और पतन पर रोचक फिल्में अमेरिका में दशकों से बनती रही हैं, क्योंकि इन विषयों पर प्रामाणिक जानकारी की कमी के कारण फिल्मकार को खुलकर खेलने का अवसर मिलता है। एक बार विश्राम बेडेकर पृथ्वीराज-सुरैया अभिनीत 'रुस्तम सोहराब' बना रहे थे। उनके अमेरिका में पढ़ने वाले बेटे ने सेट और शूटिंग देखकर असंतोष व्यक्त किया कि फिल्म में कुछ पात्र मुगल परिधान में हैं तो कुछ रोमन सैनिकों की तरह दिख रहे हैं। बेटे ने पूछा, 'आखिर यह किस कालखंड की फिल्म है?' विश्राम ने जवाब दिया कि ये अपनी साधनहीनता के कालखंड की फिल्म है। जहां से जो मुफ्त में मिलता है, उसका उपयोग हम करते हैं। बहरहाल, यह ऋतिक-कंगना प्रसंग इसलिए ताज़ा हुआ है कि हाल ही में ऋतिक ने क्वीन कंगना के साथ एक फिल्म करने से इनकार कर दिया है। क्या वे भयभीत हैं कि कंगना के साथ नई फिल्म करने पर राख के नीचे दबे शोले फिर दहक उठेंगे? इस बीच ऋतिक व उनकी पत्नी सुजैन का भी अलगाव चल रहा है और सुजैन ने इंटीरयर डेकोरेशन का अपना व्यवसाय जमा लिया है। सुजैन की मां भी इस काम में पारंगत रही हैं। आज भावना के सारे रिश्तों में आर्थिक स्वतंत्रता की निर्णायक भूमिका रहती है। महिलाओं की सामाजिक स्वतंत्रता उनकी आर्थिक स्वतंत्रता पर आधारित है। यह निर्णायक स्तंभ है।