ऋतुराज बसंत / निमिषा सिंघल

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मुख्य छ: ऋतुओं,बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर में... श्रेष्ठ, बसंत को ऋतुओं का राजा कहा जाता है।माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि से इस ऋतु का आगमन माना जाता है। फरवरी से मार्च तक बंसत ऋतु रहती है।

सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जीने जब सृष्टि का सृजन किया जब यह सृष्टि निर्जन,सुनसान दिखाई देती थी और कहीं भी किसी भी प्रकार की ध्वनि सुनाई नहीं देती थी तब उन्होंने विष्णु भगवान की आज्ञा लेकर अपने कमंडल से जल छिड़का जिससे छ: भुजाओं वाली माॅं सरस्वती प्रकट हुई। माॅं सरस्वती के हाथों में पुस्तक, फूल ,कमंडल, वीणा और माला थी ब्रह्मा जी ने माॅं सरस्वती से अनुरोध किया कि वह कुछ बजाकर सृष्टि को दिव्य स्वरों से भर दें जैसे ही देवी ने वीणा बजाई चारों दिशाएँ वेद मंत्रों से गूॅंजने लगीं। माता सरस्वती का नाम वीणा वादिनी कहा जाने लगा। बसंत पंचमी माता सरस्वती का प्राकृट्य दिवस माना जाता है इस दिन माॅं सरस्वती की पूजा का विधान है। माॅं को पीला रंग प्रिय है इसलिए इस दिन पीले रंग का विशेष महत्त्व है पीले रंग को बृहस्पति से भी जोड़ा जाता है।

वैज्ञानिकों की माने तो पीला रंग तनाव दूर करने और दिमाग़ को सक्रिय रखने में मददगार होता है और आत्मविश्वास में भी वृद्धि करता है।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पीला रंग समृद्धि व ऊर्जा का प्रतीक है ऐसा माना जाता है कि इस दिन पीले वस्त्र धारण करने से हमारी कुंडली में बृहस्पति की स्थिति मज़बूत हो जाती है पीला रंग पहनने से माता सरस्वती प्रसन्न होती है इस दिन शिक्षा और संगीत से सम्बंधित वाद्य यंत्र पुस्तकों की पूजा की जाती है। पीले सरसों के फूलों से माता सरस्वती की पूजा की जाती है।

ऐसा माना जाता है कि इस दिन माँ सरस्वती की पूजा करने से माँ की विशेष कृपा प्राप्त होती है और शिक्षा और संगीत के क्षेत्र में लाभ और प्रसिद्धि मिलती है।

बंसत पंचमी...ज्ञान का उत्सव मनाने का दिन है।

बसंत पंचमी को प्राचीन समय में ‘ऋषि पंचमी’ भी कहा जाता था ऐसा माना जाता है कि पुराने समय में ऋषि वेदव्यास जी का आश्रम सरस्वती नदी के किनारे था इसी नदी के किनारे उन्होंने वेद, उपनिषद और अन्य धर्म ग्रंथो की रचना की।बसंत पंचमी को दक्षिण भारत में श्री पंचमी व पूर्वी श्रेत्रों में सरस्वती पूजा, कहीं कहीं पर ज्ञान पंचमी के नाम से जाना जाता है।

इस ऋतु में पूरी सृष्टि जैसे बसंती चोला पहन लेती है।

पृथ्वी नवीन व सुंदर प्रतीत होती है।ऐसा लगता है जैसे नवयुग का संचार हो रहा हो। बसंत पंचमी का दिन जीवन में नए कार्य शुरुआत करने के लिए भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है नए घर में प्रवेश नए व्यापार का शुभारंभ भी लोग इस दिन करते हैं इस त्यौहार को समृद्धि सौभाग्य से जोड़ा जाता है फसलों की कटाई के लिए भी है उत्तम समय माना जाता है।

प्रकृति भी जैसे टेसू,पलाश व अन्य सुगंधित फूलों,आम की बौंरों की सुगंध ,कोयल की कूक,पपीहे के शोर व मयूर के नृत्य से जागकर मादक अंगड़ाई ले रही हो।

इस समय मौसम बड़ा ही संतुलित, सुहावना रहता है।

पेड़ पौधों पर नए गुलाबी पल्लवों का खिलना,बर्फ का पिघलना, तितलियाँ, भंवरों का उड़ना, आसमान में रंग बिरंगी पतंगों का उड़ना हर तरफ़ रंग बिरंगी छटा मन को अद्भुत आनंद से भर देती है। राग रंग और उत्सव मनाने के लिए यह ऋतु सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। बसंत को कामदेव का पुत्र माना जाता है कहा जाता है कि इस दिन उन्हें बसंत... पुत्र रूप में प्राप्त हुआ था और चारों तरफ़ फूल खिल उठे थे। शिव पार्वती का विवाह भी इसी ऋतु में हुआ था और फिर कार्तिकेय का जन्म हुआ था। कार्तिकेय भगवान ने ताड़कासुर राक्षस का वध किया था।

यह भी मान्यता है कि बसंत पंचमी के दिन श्री राम गुजरात और मध्य प्रदेश में फैले दंडकारण्य इलाके में माँ सीता को खोजते हुए आए थे यहीं पर माँ शबरी का आश्रम भी था इस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं उनका मानना है कि श्री राम उस शिला पर आकर बैठे थे माता शबरी का मंदिर भी वहाँ पर है।

बसंत ऋतु से होली को भी जोड़ा जाता है बसंत पंचमी के दिन ही होलिका दहन के लिये लकड़ियाँ रखनी शुरू हो जाती है बसंत पंचमी से 40 दिन बाद होलिका दहन किया जाता है।

बसंत पंचमी का त्यौहार हमारे देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तरह से मनाया जाता है।

पंजाब में पतंग उत्सव मनाया जाता है मक्के की रोटी, साग,पीले चावल का प्रसाद चढ़ाया जाता है सिख पीली पगड़ी बाँधते हैं महाराष्ट्र में नए शादीशुदा जोड़े पहली बसंत पंचमी पड़ने पर पीले वस्त्र पहनकर मंदिर दर्शन करने जाते हैं‌। राजस्थान के लोग इस दिन जैसमिन के फूलों की माला पहनते हैं। बंगाल में बूंदी के लड्डू, मीठा भात चढ़ाया जाता है।बिहार में सूर्य भगवान की मूर्ति को नहलाकर सजाया जाता है खीर, मालपुआ, बूंदी का भोग लगाया जाता है। उत्तर प्रदेश में पीले फूलों से घर सजाया जाता है और माॅं सरस्वती की पूजा की जाती है ...मीठे पीले चावल का भोग लगाया जाता है।

जगद्गुरु रामभद्राचार्य द्वारा 1950 में लिखित संस्कृत महाकाव्य ‘गीत रामायण’ में बसंत ऋतु में सीता माँ से राम के झूला झूलाने का आग्रह का वर्णन है।

महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में बसंत का जैसा वर्णन किया है, वैसा कहीं नहीं दिखाई देता।

द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदम,

स्त्रीय सकामा: पवन: सुगंधी:।

सुखा: प्रदोषा: दिवसाश्च रम्या:,

सर्व प्रिये चारुतरं वसंते॥

अलका! यह नाम लेते ही नयनों के सामने एक चित्र उभरता है उस भावमयी कमनीय भूमि का, जहाँ चिर-सुषमा की वंशी गूंजती रहती हो, जहाँ के सरोवरों में सोने के कमल खिलते हों, जहाँ मृण-तरू पात चिर वसंत की छवि में नहा रहे हों। अपार यौवन, अपार सुख, अपार विलास की इस रंगस्थली ने महाकवि कालिदास की कल्पना को अनुप्रमाणित किया।

सृष्टि की आदि श्रुति ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में रचनाओं से लेकर वर्तमान साहित्यकारों ने भी अपनी सौंदर्य-चेतना के प्रस्फुटन के लिए प्रकृति की ही शरण ली है।

शस्य श्यामला धरती में सरसों का स्वर्णिम सौंदर्य, कोकिल के मधुर गुंजन से झूमती, सघन अमराइयों में गुनगुनाते भौरों पर थिरकती सूर्य की रश्मियाँ, कामदेव की ऋतुराज ‘बसंत’ का सजीव रूप कवियों की उदात्त कल्पना से मुखरित हो उठता है।

मालिक मोहम्मद जायसी का नागमती विरह बसंत की मादकता को और भी उद्दीप्त करता है। नागमती उपवनों के पेड़ों के नीचे रातभर रोती-फिरती है। इस दशा में पशु-पक्षी, पेड़-पल्लव जो कुछ सामने आता है, उसे वह अपना दुखड़ा सुनाती है। वह पुण्यदशा धन्य है जिसमें ये सब अपने सगे लगते हैं और यह जान पड़ने लगता है कि इन्हें दु:ख सुनाने से भी जी हल्का होगा।

प्रियतम के बिना बसंत का आगमन अत्यंत त्रासदायक होता है। विरह-दग्ध हृदय में बसंत में खिलते पलाश के फूल अत्यंत कुटिल मालूम होते हैं तथा गुलाब की खिलती पंखुड़ियाँ विरह-वेदना के संताप को और अधिक बढ़ा देती हैं।

महाकवि विद्यापति कहते हैं-

मलय पवन बह, बसंत विजय कह, भ्रमर करई रोल, परिमल नहि ओल।

ऋतुपति रंग हेला, हृदय रभस मेला। अनंक मंगल मेलि, कामिनि करथु केलि।

तरुन तरुनि संड्गे, रहनि खपनि रंड्गे।

पलाश, गुलाब, अनार और कचनार फूल रहे हैं। खेतों में पीली सरसों भी नहीं फूली समा रही है। बन-उपवन में कोयलें कूक रही हैं। चारों ओर काम के नगाड़े बज रहे हैं किंतु प्रियतम परदेश में बसे हैं। दुष्ट बसंत सिर पर आ पहुँचा है। अब बेचारी विरहिणी किसका सहारा ले।

कवि श्री हरिश्चन्द्र के शब्दों में-

हरिश्चंद्र कोयलें कुहुकी फिरै बन बन बाजै लाग्यों फेरिगन काम को नगारो हाये,

क्रूर प्रान प्यारो काको लीजै सहारो अब आयो फेरि सिर पै बसंत बज्र मारो हाय।

कवि श्री पद्माकर की विरह विदग्धा विरहिणी गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं-

ऊधौ यह सूधौ सो संदेसो कहिदो जो भलो,

हरि सो हमारे हयाँ न फूले बन कुंज हैं।

किंशुक, गुलाब कचनार और अनानर की,

डालन पै डोलत अंगारन के पुंज हैं।

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ प्रगतिवादी/ प्रगतिशील/ जनवादी कविता के अग्रदूत माने जाते हैं। उन्होंने अपनी कविता ‘जूही की कली’ में विरही बसंत का वर्णन करते हुए लिखा है।

वासंती निशा थी;

विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़

किसी दूर देश में था पवन

जिसे कहते हैं मलयानिल।

आई याद बिछुड़ने से मिलन की वह मधुर बात,

आई याद चांदनी की धुली हुई आधी रात,

आई याद कांता की कम्पित कमनीय गात,

राजस्थानी लोक संगीत में भी बसंत के विरह का बड़ा मार्मिक वर्णन मिलता है। अपने राग-विराग, घृणा-प्रेम, दु:ख की जिन भावनाओं को नारी स्पष्ट नहीं कह पाती, उन्हें उसने लोकगीतों द्वारा गा-गाकर सुना दिया है। -

‘सूती थी रंग महल में, सूती ने आयो रे जंजाळ,

सुपना रे बैरी झूठो क्यों आयो रे।

कुरजां तू म्हारी बैनडी ए, सांभळ म्हारी बात,

ढोला तणे ओळमां भेजूं थारे लार।

कुरजां ए म्हारो भंवर मिला देनी ए।‘

केदारनाथ अग्रवाल जी की लिखी ‘बसंती हवा’ कविता के कुछ अंश:

हवा हूँ, हवा मैं

बसंती हवा हूँ।

सुनो बात मेरी –

अनोखी हवा हूँ।

बड़ी बावली हूँ,

बड़ी मस्तमौला।

नहीं कुछ फिकर है,

बड़ी ही निडर हूँ।

जिधर चाहती हूँ,

उधर घूमती हूँ,

मुसाफिर अजब हूँ।

इसके अलावा अनेक प्रसिद्ध कवि और कवित्रियों ने बसंत पर रचनाएँ लिखी हैं।

सुभद्राकुमारी चौहान ने:

जलियाँवाला बाग़ में बसंत,

वीरों का कैसा हो वसंत

सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” जी ने

वसन्त की परी के प्रतिसखि,

वसन्त आया रँग गई पग-पग धन्य धरा,

सुमित्रानंदन पंत:

कोयलवसन्त-श्रीवन-वन,

उपवनलाई हूँ फूलों का हास।

सोहन लाल द्विवेदी:

बसन्ती पवनआया वसंत आया वसंतअलि रचो छंद

गोपालदास नीरज:

बसंत की रात

रामधारी सिंह ‘दिनकर’’

राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी,

वसन्त के नाम पर

भारतेंदु हरिश्चंद्र:

सखि आयो बसंत रितून को कंत,

कूकै लगीं कोइलैं कदंबन पै,

बसंत होली

मलिक मुहम्मद जायसी:

बसंत-खंड,

षट्-ऋतु-वर्णन-खंड

भक्त सूरदास जी:

वसंतोत्सव

महाकवि बिहारी:

है यह आजु बसन्त समौ,

बौरसरी मधुपान छक्यौ

दुष्यंत कुमार:

वसंत आ गया

अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’:

वसंत

हरिवंशराय बच्चन;

बौरे आमों पर बौराए,

कोयल

जयशंकर प्रसाद:

नव वसंत

महादेवी वर्मा;

वसन्त

गिरिजा कुमार माथुर;

आज हैं केसर रंग रंगे वन

गोपाल सिंह नेपाली;

वसंत गीत

मनोहर लाल ‘रत्नम’ सहदेव;

जब वसंत आकर मुसकाया

पूर्णिमा वर्मन;

एक गीत और कहो

कुँवर नारायण;

बसंत आ,

वसन्‍त की एक लहर,

बहार आई है।

फणीश्वर नाथ ‘रेणु’;

यह फागुनी हवा

स्वागता बसु

वसंत को आने दो,

वसन्त

सेनापति;

वसंत ऋतु वर्णन

अज्ञेय;

बसंत,

बासंती,

बसंत

नागार्जुन;

वसंत की अगवानी

श्याम सिंह बिष्ट;

वसंत गीत

माखनलाल चतुर्वेदी;

स्मृति का वसन्त

आदि।

बसंत, काव्य के सौंदर्य को चमत्कारिक रूप से आकर्षक बना देता है इसीलिए बसंत ऋतु और उसपर रचनाओं का सृजन कवियों को विशेष प्रिय है। वसंत हमारे भीतर का कलुष मिटाकर मन में उल्लास भर प्रेम का संचार करता है। तो आइए प्रकृति के साथ मिलकर अपने हृदय में भी बसंत उत्सव मनाएँ।