एकता कपूर और इम्तियाज अली की 'लैला मजनू' / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 08 सितम्बर 2018
इम्तियाज प्रतिभाशाली हैं और परिश्रम भी करते हैं। वे दार्शनिक रूमी से प्रभावित हैं। वे शूटिंग पर बहुत खर्च करते हैं और लंबा समय भी लेते हैं। एकता कपूर किफायत से काम करती हैं और किसी किस्म की फिजूलखर्ची उन्हें नागवारा गुजरती है। इम्तियाज अली और एकता कपूर ने मिलकर पहाड़ों से पुरानी प्रेम कथा लैला-मजनू पर फिल्म बनाई है। यह तो तय है कि इम्तियाज अली ने अपनी शैली में परिवर्तन किया है और थोड़ी एकता भी झुकी अन्यथा यह फिल्म संभव नहीं हो पाती।
आधिकारिक तौर पर इसका निर्देशन इम्तियाज अली के भाई साजिद अली ने किया। ज्ञातव्य है कि रीमा जैन के सुपुत्र के साथ साजिद अली एक निहायत ही असफल फिल्म बना चुके हैं। अतः उनके लिए अपने दूसरे प्रयास में सफल होना उनके फिल्म उद्योग में बने रहने के लिए जरूरी है। लैला-मजनू दास्तां पर फिल्में बनी हैं। 'मुग़ल-ए-आज़म' के फिल्मकार के. आसिफ ने भी लैला-मजनू पर फिल्म बनाई थी।
मजनू की भूमिका करने वाले अभिनेता गुरुदत्त की मृत्यु के बाद यह फिल्म नए सिरे से संजीव कुमार के साथ बनाई गई परंतु पूरी होने से पहले ही के.आसिफ का निधन हो गया। बाद में कस्तूरचंद बोकाड़िया ने किसी तरह फिल्म पूरी करके प्रदर्शित की। दर्शकों ने उसे अस्वीकार किया। के. आसिफ की परिकल्पना कुछ इस तरह थी कि लैला और मजनू जन्नत में मिलते हैं। उन्होंने जन्नत के लिए सात परतें बनानी की सोची थी। नर्क और स्वर्ग की कल्पनाएं भी अलग-अलग ढंग से की जाती हैं। आख्यानों में रौरव नर्क है, कुम्भी पाक नर्क है। उसी तरह स्वर्ग की भी कई सतहें मानी गई हैं।
कम्युनिस्ट रुझान के कवि शैलेन्द्र तो कहते हैं- 'तू आदमी है आदमी की जीत पर यकीन कर अगर कहीं है स्वर्ग तो उसे उतार ला जमीं पर' हमारी अन्याय व असमानता आधारित भ्रष्ट व्यवस्था ने तो पृथ्वी पर ही नर्क बना दिया है। इम्तियाज अली और एकता कपूर ने अपनी फिल्म की अधिकांश शूटिंग कश्मीर में की है, जिसे कभी धरती पर स्वर्ग की तरह माना जाता था परंतु कश्मीर तो लंबे अरसे से दहक रहा है और चिंगारियों ने दोनों पड़ोसी देशों को हिलाकर रख दिया है। बहराल, लैला-मजनू की प्रेम कथा को फिल्मकार एचएस रवैल ने ऋषि कपूर और रंजीता के साथ बनाया था और फिल्म सफल भी रही थी। उसी दौर में यह माना जाता था कि लैला देखने में सुंदर नहीं थी परंतु लैला को मजनू की निगाह से देखें तो वह आपको सुंदर लगेगी। प्राय: प्रेम कथाओं का आरंभ ही ऐसा होता है कि लड़के को साधारण से दिखने वाली लड़की संसार की सबसे सुंदर लड़की लगती है और लड़की को लड़का संसार का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति लगता है। प्रेम के विषय में विज्ञान यह कहता है कि मानव शरीर में लिम्बिक सिस्टम डोपामाइन हार्मोन का प्रवाह प्रारंभ करता है और प्रेम हो जाता है। हार्मोन प्रेमियों को निकट लाता है। मानव मस्तिष्क में अमिगडाला उसे अपने तर्क को खारिज करने पर बाध्य करता है। तर्क त्याजने पर प्रेम हो जाता है।
हमारे महाकवि जायसी कहते हैं, 'रीत प्रीत की अटपटी जनै परे न सूल, छाती पर परबत फिरै, नैनन फिरे ना फूल'। और सर्वकालीन महाकवि कबीर कहते हैं, 'प्रेम न बड़ी उपजी, प्रेम न हात बिकाय। राजा प्रजा जोही रूचे, शीश दी ले जाय।' अमीर खुसरो कहते हैं- 'खुसरो दरिया प्रेम का सो उल्टी वाकी धार! जो उबरा सो डूब गया; जो डूबा वो पार।'
बहरहाल, बाजार शासित वर्तमान काल खंड में युवा वर्ग के लिए प्रेम करना फैशन के तहत आता है। हर युवा को लगता है कि प्रेम नहीं किया तो कुछ नहीं किया। यह जीवन ही अकारथ हो जाएगा। वह युवा ही क्या जिसका दिल कम से कम एक बार प्रेम में टूटा न हो। यह फैशनेबल प्रेम प्लास्टिक के फूल की तरह हो जाता है, जिसके चटक रंग भले लगते हैं परंतु इन फूलों में सुगंध नहीं होती। आप शिक्षा परिसर में टूटा दिल हाथ में लिए घूमते युवा देख सकते हैं। 'संगम' का गीत है 'हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गाएगा.. दीवाना सैकड़ों में पहचाना जाएगा'।
असमानता और अन्याय आधारित व्यवस्था में हालात को सुधारने के प्रति प्रेम जन्मे तो जीवन में सार्थकता आ सकती है। प्रेम का यही स्वरूप भगत सिंह को भाया था और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। 'घोड़ी चढ़ कर तो सभी लाते हैं दुल्हन, फांसी हंसकर चढ़ेगा नहीं कोई' दरअसल इस रुग्ण समाज में ऐसे युवा चाहिए जो हालात में परिवर्तन लाने से प्रेम करें। ज्ञातव्य है कि शहीद भगत सिंह समाजवादी विचारधारा के हामी थे। किसी के लिए मार्क्स व एंजिल्स पढ़ना जरूरी नहीं है परंतु साधनहीन व्यक्ति के प्रति मन में करुणा का भाव पैदा होना आवश्यक है।