एकमात्र परिचित / सिद्धार्थ सिंह 'मुक्त'
बचपन में वो बहुत पास था| उसके कारण सब ओर सौंदर्य ही दिखता था, छोटे-छोटे पत्थर भी हीरे-मोती से कम न थे| मैं अबोध था इसलिए लगभग अनभिज्ञ था उससे| लेकिन कभी-कभी अचानक वो बहुत स्पष्ट हो उठता था| ह्रदय को सहज ही लुभाने वाले हर रंग का समावेश था उसमें| वो मेरी तरफ देखता रहता था| वो मुझे जब भी चाहता छू लेता लेकिन मैं उसे नहीं छू पाता था... मेरी प्रश्नसूचक दृष्टि के उत्तर में वो मुस्कुराता था| कभी कभी मेरी पलकें बोझिल हो उठती और वो मुझ पर छाने लगता, ऐसे में मैं खुद को भूल जाता था| मैंने उसका परिचय जानना चाहा तो लगा कि वही तो सबसे अधिक परिचित है| उसके सानिध्य से एक मौन और गहरा परिचय मिल गया था| अब हम साथ-साथ रहने लगे, नभ में दूर तक उड़ते, मिट्टी में लोटते और विहगों के गीत सुनते| मुझे तो जैसे सब कुछ मिल गया था| लेकिन उसके साथ रहने से और लोगों की अपेक्षाओं पर खरा नही उतर पा रहा था, मैं लापरवाह और अनियमित हो गया था| कई लोगों ने मुझसे कहा कि उसका साथ छोड़ दो क्योंकि वो मीठा जहर है| मेरे मन में संदेह उत्पन्न हो गया| अब मैं उसे दूसरी निगाह से देखने लगा| मुझे दिखा कि उसके हर लुभावने रंग के पीछे एक डरावनी कालिमा छिपी थी| अब मैं उससे डरने लगा| मैंने अपना मुंह फेर लिया और चल दिया| बहुत दूर आकर पीछे मुड़कर देखा तो उसका कहीं कोई चिन्ह नहीं था| मैंने लम्बी सांस ली और अपनी नयी जिंदगी के बारे में सोचने लगा| यहाँ बहुत से लोग थे जो तरह तरह के कामों में व्यस्त थे| मैंने भी एक काम चुन लिया और व्यस्त हो गया| मैंने नये-नये दोस्त बनाये उनसे ढेर सारी बातें की लेकिन मुझे वो सब अपरिचित से लगते, उनके बारे में बहुत कुछ जानकर भी लगता कि मैं उनको नहीं जानता| यहाँ का जीवन बड़ा अजीब था, हर जगह लड़ाई-झगड़े, षड़यंत्र और घृणा का वातावरण था| लोगों की आँखों से आग बरसती थी और आवाज से रूखापन| इस माहौल में रहते रहते मैं थक गया| जिंदगी बेरंग लगने लगी| एक दिन मैं जब मैं सोया तो बहुत डरावने स्वप्न देखे| उठा तो देखा चारों ओर अँधेरा था, भयावह आवाजें और रहस्यमयी चीत्कारें सुनाई दे रही थीं| मैं डरकर उठा और भागा, बेतहाशा भागता रहा... एक ठोकर लगी और लुढ़कता हुआ एक नदी में जा गिरा| उसकी धारा मुझे अज्ञात दिशा में बहा ले चली| एक किनारे से से मेरा सर टकराया और मैं मूर्क्षित हो गया| आँख खुली तो सुबह हो गयी थी और तभी मुझे लगा कोई मेरे पास है, कोई बहुत परिचित सा| ध्यान से देखा तो मेरी आँखों में आंसू आ गए| इतने दिनों के बाद फिर से लुभावने रंग और मधुर संगीत... ये वही था, मेरा एकमात्र परिचित जिसे बहुत से लोग प्रेम भी कहते हैं| मन किया कि पैरों पर गिरकर क्षमा मांग लूँ, किन्तु उसके पैर थे ही कहाँ ? बस ह्रदय ही ह्रदय था , मुझे लगा जैसे वो कह रहा हो कि, "यदि पैर होते तो हर जगह तुम्हारे पीछे आता, आवाज होती तो पुकार लेता... बस मौन ही है मेरे पास, इसी में डूब जाओ|"