एकल सिनेमा का वित्तीय संकट और निदान / जयप्रकाश चौकसे

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एकल सिनेमा का वित्तीय संकट और निदान
प्रकाशन तिथि :07 जुलाई 2017


आज मुंबई के 'सन एंड सैंड' होटल में पूरे भारत की विभिन्न फिल्म संस्थाओं के चुने हुए प्रतिनिधियों की एक बैठक हो रही है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण मुद्‌दा यह है कि भारत में घटते जा रहे एकल सिनेमाघरों को कैसे बचाएं। जीएसटी से भी सिनेमाघर मुक्त नहीं है। इस बैठक में दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग के सदस्य भी आ रहे हैं। ज्ञातव्य है कि भारत में अधिकतम एकल सिनेमाघर दक्षिण भारत में है, जबकि जनसंख्या उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान में अपेक्षाकृत अधिक है और इन्हीं प्रांतों में एकल सिनेमाघरों की संख्या कम है तथा वे भी निरंतर बंद हो रहे हैं। प्रांतीय सरकारों को केवल यह आदेश जारी करना है कि एकल सिनेमा टिकट के दाम से मात्र दस रुपए अपने रखरखाव के लिए निकाले। यह दर्शक का धन है और दर्शक ही एकल सिनेमा को बचा सकता है। अनेक एकल सिनेमाघर घाटे में चल रहे हैं और जमीन के दाम बढ़ रहे हैं परंतु इनके मालिक केवल इसलिए इन्हें जारी रखे हुए हैं कि ये उनके पूर्वजों द्वारा बड़े शौक से बनाए गए। रजत कपूर अभिनीत फिल्म 'बुरे फंसे ओबामा' में न्यूयॉर्क में आर्थिक मंदी से त्रस्त कर्ज में डूबा एक व्यक्ति अपना पैतृक मकान बेचने के लिए आता है परंतु उसमें अनेक गरीब परिवार बस गए हैं और उनकी मजबूरी को देखते हुए वह मकान नहीं बेचता। यह अत्यंत मनोरंजक फिल्म थी और सारे कलाकारों ने सजीव अभिनय किया था। इस फिल्म के अंत में एक संवाद था, 'आप अपने अमेरिकन प्रेसीडेंट से निवेदन करें कि वे अपने देश की समस्याओं में दुनिया के सारे देशों को न उलझाएं।' अमेरिका में हथियार बनाना बड़ा व्यवसाय है और युद्ध को निर्यात करने में उनके हुक्मरान सिद्धहस्त रहे हैं। बेचारे जॉन एफ कैनेडी राजनीतिक आदर्श के प्रतीक थे तो डलास में उनकी हत्या कर दी गई। असल अपराधी कभी पकड़ा ही नहीं गया परंतु वहां के फिल्मकार अोलिवर स्टोन का ही साहस था कि उन्होंने अपनी फिल्म 'जेएफके' में उच्चतम पद पर बैठे व्यक्ति की ओर स्पष्ट संकेत किया कि यह हत्या उसी ने करवाई थी। वह फिल्म सारी दुनिया में दिखाई गई और अमेरिकी सरकार ने उसे रोकने की कोई चेष्टा नहीं की, क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति वे समर्पित हैं। भारत में इस तरह की साहसी राजनीतिक फिल्म कभी नहीं बन सकती। सरकार अपनी उदारता का मुखौटा धारण किए रहते हैं, क्योंकि उनके प्रश्रय में शक्तिशाली हुए हुड़दंगी ये काम उनके लिए कर देते हैं। हुड़दंगी हमारे यहां समानांतर सरकार की हैसियत रखते हैं।

ज्ञातव्य है कि फिल्मकार दीपा मेहता ने 'फायर' और 'अर्थ' के बाद 'वॉटर' फिल्म की शूटिंग बनारस में करने का प्रयास किया, जिसके लिए वे केंद्रीय एवं प्रादेशिक सरकारों से आवश्यक अनुमति पहले ही प्राप्त कर चुकी थीं परंतु एक हुड़दंगी ने गंगा में कूदकर प्राण दे दिए। यह शूटिंग के खिलाफ उसका विरोध था। बाद में दीपा मेहता ने फिल्म की शूटिंग श्रीलंका में की और उसी को बनारस दिखा दिया। इस घटना के कुछ वर्ष बाद गंगा में छलांग लगाकर मरने वाले व्यक्ति को फिल्मकार ने दिल्ली में देखा और उससे बातचीत की। उसने उन्हें बताया कि इस तरह के विरोध करना उसका व्यवसाय है। उसे एक राजनीतिक दल ने उस विरोध के लिए पैसा दिया था। उसने छलांग लगाने के बाद पानी के भीतर कुछ दूरी तय की और एक निर्जन स्थान देखकर किनारे पर आ गया। दीपा मेहता की सुपुत्री ने 'मैकिंग ऑफ वॉटर' नामक किताब में सारी बातें सप्रमाण प्रस्तुत की हैं। इस फिल्म में एक अमेरिकी कंपनी ने पूंजी निवेश किया था। अगर बनारस में शूटिंग होती तो वहां निर्माता द्वारा खर्च की गई राशि से कई लोगों का भला होता। हमारे हुड़दंग के कारण यह धन श्रीलंका में खर्च किया गया। इस तरह राम के भूखंड पर हुड़दंग के कारण यह धन रावण की लंका में गया। एक किताब में यह विवरण भी है कि अयोध्या भारत में नहीं कहीं और थी तथा श्रीलंका भी वह देश नहीं है, जिसे हम जानते हैं। हमारे यहां ज्ञान के कुछ क्षेत्र पवित्र माने जाते हैं और तर्क वहां प्रतिबंधित है। किसी अन्य संदर्भ में निदा फाज़ली ने लिखा है, 'जो बीत गया वह इतिहास है तेरा, अब जो काटना है वह वनवास है तेरा, तेरे घर-आंगन में जो खिला नहीं वह तुलसी की रामायण है, राम नहीं तेरा ।'

बहरहाल, सुभाष घई की फिल्म 'विधाता' मेंसेवक की भूमिका में संजीव कुमार अपने मालिक (दिलीप कुमार अभिनीत पात्र) से कहते हैं कि 'आप क्या मुझे बर्खास्त करेंगे, मैं आपको बर्खास्त करता हूं।' संवाद का सार यही है, शब्दों में अंतर हो सकता है। याददाश्त का हिरन इसी तरह छलांग लगाता है। यह चंद्रकांत देवताले की एक कविता से प्रेरित वाक्य है। आजकल उज्जैन निवासी चंद्रकांत देवताले अस्वस्थ हैं और सरकार को उनके इलाज का खर्च उठाना चाहिए। कवि राष्ट्रीय संपत्ति है।