एकल सिनेमा संस्था विघटन की शिकार / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 12 दिसम्बर 2018
जयपुर फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित की जाने वाली दो लघु फिल्मों को देखने का अवसर मिला, जिसकी शूटिंग मध्य प्रदेश के बागली सिनेमाघर में हुई है। फिल्म का प्रमुख पात्र अपने परम्परावादी पिता से संघर्ष करता है और अपनी जमीन पर अपनी सारी जमा पूंजी लगाकर सिनेमाघर बनाता है। कुछ समय सब कुछ ठीक चलता है। टेक्नोलॉजी की एक करवट उसके पैर के नीचे से जमीन खींच लेती है। मोबाइल पर फिल्म देखी जाती है और टेलीविजन पर सारा दिन फिल्में दिखाई जाती हैं। अब सिनेमाघर में भूले-भटके दो चार लोग ही आते हैं। अपने पिता से संघर्ष करके सिनेमाघर बनाने वाले उम्रदराज व्यक्ति से उसका बेटा कहता है कि सिनेमाघर को गोडाउन बनाने से चार पैसे मिलेंगे। अपने पिता से डांट खाने वाले अभागे को अपने पुत्र द्वारा भी लताड़ा जाता है। एक दिन वह पूरे कस्बे में प्रचार करता है कि उस रात 9:00 बजे सिनेमाघर में अनोखा तमाशा मुफ्त में दिखाया जाएगा।
'माले मुफ्त दिल-ए-बेरहम' के लतियल लोग सिनेमाघर में जमा होते हैं। भारी भीड़ सिनेमाघर के बाहर जमा हो गई। नियत समय पर सिनेमाघर का मालिक सरेआम फांसी लगा लेता है। इस दृश्य के पार्श्व में 'जोकर' का गीत बजता है 'कल खेल में हम हो ना हो, गर्दिश में तारे रहेंगे सदा, भूलोगे तुम भूलेंगे वो, पर हम तुम्हारे रहेंगे सदा....' आत्महत्या के पूर्व वह प्रोजेक्टर पर ऐसे हाथ फेरता है मानो अपने शिशु को दुलार कर रहा हो। सिनेमा के परदे पर वह कुछ इस अदा से चिपकता है जैसे सलीब पर क्राइस्ट लटके हों। एक संवाद है कि 'जोकर' राज कपूर की श्रेष्ठतम फिल्म थी परंतु असफल रही थी और उन्होंने कर्ज अदायगी के लिए अपनी पत्नी के जेवर भी बेच दिए थे। उन्होंने 'बॉबी' द्वारा शानदार वापसी की थी। बागली के लक्ष्मी नामक एकल सिनेमाघर पर फिल्म निर्देशित की है अनिरुद्ध शर्मा ने और निर्माता पवन जयसवाल बधाई के पात्र हैं। यह इत्तेफाक भी देखिए कि विगत दिनों ही राज कपूर का स्टूडियो उनके वारिसों ने बेच दिया। उन्होंने किसी कर्ज अदायगी के लिए नहीं बेचा है। अगर उनके सुपुत्र फिल्म निर्माण जारी रखते तो स्टूडियो नहीं बेचते।
उस स्टूडियो के कुछ उपकरण शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं। ज्ञातव्य है कि शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर फिल्म विरासत को अपने मुंबई स्थित तारदेव के संग्रहालय में सहेजते हैं। इस कार्य के लिए उन्हें केंद्र सरकार कोई आर्थिक सहायता नहीं देती। बहरहाल, भारत में एकल सिनेमा की संख्या निरंतर घटती जा रही है। मल्टीप्लेक्स के निर्माण में भारी पूंजी लगती है। दर्शक संख्या घटती जा रही है- मात्र 30% रह गई है। मल्टी का अर्थशास्त्र यह है कि वे पॉपकॉर्न व शीतल पेय बेचकर ही धन कमा पाते हैं। एकल सिनेमाघरों को भी अपने कैंटीन में स्वादिष्ट व्यंजन बनाना चाहिए, क्योंकि भारतीय दर्शक खाने-पीने का शौकीन है। बहरहाल, विश्व में सबसे अधिक सिनेमाघर चीन में हैं। वहां की सरकार सिनेमाघर से प्राप्त कमाई फिल्म उद्योग के विकास में निवेश करती है। यह अजीबोगरीब दौर है कि किसान आत्महत्या कर रहे हैं, छात्रों पर लाठियां बरसाई जा रही हैं और एकल सिनेमाघर का मालिक सरेआम आत्महत्या कर रहा है। 1930 में दार्शनिक लिऑन दादेन ने कहा था कि आदमी को रोजगार, रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता होती है। उसकी एक और आवश्यकता आत्महत्या का अधिकार भी है। मनुष्य को समाज बनाता है। इस तरह आत्महत्या समाज की भी आवश्यकता बन जाती है। दरअसल लिऑन दादेन के बयान को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए कि आत्महत्या के प्रयास में विफल होने वाले व्यक्ति को पुलिस हिरासत में लेती है। आत्महत्या गैरकानूनी है। बादल सरकार के महान नाटक 'बाकी इतिहास' के तीसरे अंक में आत्महत्या कर लेने वाला पात्र मंच पर आकर कहता है कि निरर्थक जीवन ढोने से बेहतर है कि आत्महत्या कर ली जाए। यह अजब-गजब विरोधाभास और विसंगतियों का दौर है कि किसान आत्महत्या कर रहे हैं। छात्रों पर लाठियां बरसाई जा रही है। भीड़ दिनदहाड़े पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या कर देती है। पूरी व्यवस्था ठप हो चुकी है। सरकार के अपने लोग नोटबंदी और अनुचित ढंग से जीएसटी लादे जाने की आलोचना कर रहे हैं। रिजर्व बैंक का उच्चतम अधिकारी त्यागपत्र दे चुका है। अपने प्रचार तंत्र को मजबूत बनाने के लिए हुक्मरान चाहता था कि रिजर्व बैंक और अधिक धन उपलब्ध कराए। हुक्मरान के कान स्वयं के द्वारा किराए पर जुटाई भीड़ की तालियों की इतनी अभ्यस्त हो गई है कि अवाम की कराह उसे सुनाई नहीं देती। ताजा आए चुनाव परिणाम उसके अपने दल के लोगों को उस पर अंकुश लगाने का साहस प्रदान कर सकते हैं। आम आदमी की मूलभूत आवश्यकताएं मात्र रोटी, कपड़ा, मकान ही नहीं है वरन् मनोरंजन भी है और एकल सिनेमा अवाम को कम दरों में मनोरंजन उपलब्ध कराता है, इसलिए इस फिल्म का महत्व बढ़ जाता है। सबसे बड़ी आवश्यकता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है जिसे गहरी हुड़दंगी साजिश से सीमित कर दिया गया है। इस बाजार युग में यह बात शायद हुकूमत को पसंद आए कि एकल सिनेमाघर के इर्द-गिर्द बाजार विकसित हो जाता है।
ग्वालियर की शायरा रेनू शर्मा की कविता का अंश इस दौर को समझने में सहायता कर सकता है- 'मितवा यह दौर सवाली है, आसमान के पोस्ट बॉक्स में हमने चिट्ठी डाली है।