एकाकी नही है जीवन / नीरजा हेमेन्द्र
वह उठी और बालकनी की तरफ खुलने वाली खिड़की का पर्दा एक ओर सरका कर खिड़की खोल दी। बाहर से हवा का एक हल्का-सा झोंका कमरे में आया और उसके वस्त्रों, बालों, और अनुभूतियों को स्पर्श करता हुआ कमरे में विद्यमान प्रत्येक वस्तु को स्पर्श करने लगा। लगी। पेपरवेट से दबे कागज़ के पन्ने फड़फड़ाने लगे। हवा में हल्की-सी ठंड़क थी। यह ठंड़क उसे अच्छी लग रही थी। उसने खिड़की यूँ ही खुली छोड़ दी तथा कमरे को व्यवस्थित करने लगी। चीजों को ठीक करते-करते उसकी दृष्टि दीवार घड़ी की तरफ उठी। घड़ी प्रातः के छः बजा रही थी। कमरे को व्यवस्थित करने के उपरान्त उसके कदम शीघ्रता से रसोई की तरफ बढ़ चले। रसोई में जा कर सदा की भाँति वह पुनः सोच में पड़ गयी कि वह क्या करे? क्या भोजन बनाये? कुछ समझ नही पा रही थी। किन्तु कुछ न कुछ तो उसे बनाना ही पड़ेगा। वह अकेली है। अकेले खाने-पीने में उसकी विशेष रूचि नही होती है, किन्तु अनिच्छा से ही सही कुछ तो भोजन उसे बनाना पड़ेगा। शरीर को चलाने के लिए भोजन आवश्यक है, यह सोच कर स्वंय के लिए ही सही वह भोजन बनाने का उपक्रम करने लगी। कुछ ही क्षणों में काम वाली ने दरवाजे की घंटी बजाई और वह रसोई से मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ चली। दरवाजा खोलने के पश्चात् वह काम वाली को आवश्यक दिशा-निर्देश देते हुए ड्राइंग रूम को साफ करवाने लगी। घर की साफ-सफाई से ले कर घर गृहस्थी के प्रत्येक कार्य प्रतिदिन होते हैं। यद्यपि माह के अधिकांश दिनों में इस बड़े से घर में रहनें वाली वह अकेली होती है।
पति स्थानान्तरण के पश्चात् दूसरे शहर में नौकरी करते हैं तथा रविवार व अन्य अवकाश के दिनों में ही घर आ पातें हैं। उसके दो बेटे हैं। दोनों बेटे इस शहर से दूर बंगलुरू में पढ़ रहें हैं। बड़ा बेटा अंशुमान बी. टेक. कर रहा है तो छोटा मेडिकल की शिक्षा ग्रहण कर रहा है। दोनो बेटे पूरे वर्ष में एक या दो बार घर आ पातें हैं वो भी तब जब किसी पर्व पर अवकाश की अवधि कुछ लम्बी हो। बच्चे जब से बाहर शिक्षा ग्रहण करने चले गयें हैं, तब से वह अकेली ही रहती है।
घर के कार्यों को निपटाने के पश्चात् वह बैंक जाने की तैयारियों में व्यस्त हो गई। वह बैंक में नौकरी करती है। यह उसके लिए अच्छा है। दिन भर बैंक के कार्यों में व्यस्त रहने के कारण उसे अकेलेपन का आभास अधिक नही होता है, और जीवन के दिन अपेक्षाकृत सुगमता से व्यतीत होते जा रहे हैं।
आज शनिवार होने के कारण वह बैंक से कुछ शीघ्र घर आ गयी। घर आ कर फ्रेश हाने के पश्चात् वह ड्राइंग रूम में आराम से बैठ गयी। फुर्सत के इन पलों में उसकी इच्छा कॉफी पीने की हो गयी। ड्राइंग रूम से उठ कर वह रसोई में जा कर स्वयं के लिए कॉफी बनाने लगी। कुछ क्षणों पश्चात् उसका मोबाइल बज उठा। मोबाइल के घंटी के स्वर सुनते ह ीवह प्रसन्न हो गयीयह सोच कर कि कदाचित् यह बच्चों का फोन हो। वह तीव्र गति से फोन की तरफ बढ़ी। फोन उठाने पर ज्ञात हुआ कि यह फोन आॅफिस से बाॅस का था। उन्होने कुछ आवश्यक जानकारी हेतु फोन किया था। वह मायूस-सी ड्राइं्रग रूम में बैठ में बैठ कर धीरे-धीरे कॉफी पीने लगी। कॉफी पीते-पीते तीव्र होते विचारों के प्रवाह तथा फुर्सत केे ये चन्द पल उसे स्मृतियों के अथाह सागर में ले जाने लगे। जैसे ये अभी कल की बात हो। दोनों बेटे स्कूल जाते थे। उन दिनों वह वह कुछ अधिक व्यस्त रहती थी।सुबह उठ कर बच्चों का टिफिन तैयार करना उन्हे स्कूल भेजना। शाम को जब वे स्कूल से लौटते तो पसीने से लथ-पथ बच्चों की मासूमियत देख कर वह प्रसन्न हो जाती। सुबह बच्चे जो ड्रेस साफ-सुथरी पहन कर जाते शाम को लौटते समय तक वह अस्त-व्यस्त हो, धूल-मिट्टी से मैली हो चुकी होती। छोटा बेटा अंशुल अत्यंत मासूम था। उसकी खिसकती पैंट व टाई को देख कर उस पर बरबस स्नेह उमड़ पड़ता था।
पति व बच्चों के साथ आपा-धापी व व्यस्तता भरे उन्नीस वर्ष किसी परिन्दे की भाँति थे, जो पंख लगा कर उड़ गये। बच्चे कब इतने बड़े हो गये कि वह बाहर जा कर शिक्षा पूरी करने के बारे में चर्चा-परिचर्चा करने लगे। यह चर्चा-परिचर्चा यर्थाथ में जब तब्दील हुई तब उसे उस विछोह की अनुभूति हुई जो उसे विवाह के समय माता-पिता का घर छोड़ कर आने पर भी नही हुई थी। बड़े बेटे अंशुमान को ट्रेन में बैठा कर घर आने के पश्चात् वह खूब रोई रूदन के ये आँसू पति के सांत्वना व छाटे बेटे के दुलार-मनुहार से शीघ्र नही सूख पाये थे। अंशुमान को गये दो वर्ष भी न व्यतीत हुए थे कि छोटे बेटे अंशुल का भी दाखिला मेडिकल कॉलेज में हो गया। एक दिन मैं उसे भी ट्रेन में बैठा कर घर आयी, रोई। यह बंगलेनुमा बड़ा घर सांय-सांय करता हुआ मुझे अकेले होने की अनुभूति करा रहा था।
समय-चक्र अपनी गति से चलता है। वह हमारी अनुभूतियों से अनभिज्ञ निरन्तर आगे बढ़ता है। समय-चक्र के साथ-साथ ऋतुओं का आगमन व प्रस्थान भी होता है। सभी पर्व भी आतें हैं, जातें हैं। मानव हृदय भी इन सबमें शनै-शनै जीना सीख लेता है। यह अकेलापन मेरा अपना था। नितान्त नीजी, अभेद्य। इसको न तो किसी पर्व का उल्लास तोड़ पाता, न ये खुशनुमा ऋतुएँ। अकेलेपन की इस पीड़ा को किसी के समक्ष मैं व्यक्त भी नही कर पाती थी।
पति व बच्चों के बिना यह अधूरे से दिन कट तो जाते किन्तु हृदय के खलीपन को न काट पाते। मन में सदैव अच्छे-बुरे विचार आते रहते थे। एक माँ का हृदय यही सोचता कि “बच्चों ने भोजन किया या नही,....कहीं वह अस्वस्थ तो नही हैं।”वह अकेले ही चिन्ता करती व अकेले ही अपने हृदय को सांत्वना भी देती। पति जब रविवार को घर आते तो व्यस्तता बढ़ जाती। वह अपअी बचकानी अनुभूतियों को उनसे बाँट भी न पाती और वह चले जाते। हाँ! यह अनुभूतियाँ बचकानी ही तो थी। क्यों कि बच्चो से फोन पर उनका कुशलक्षेम पूछते हुए जब कभी वह अपनी चिन्ताओं से उन्हे अवगत कराती बच्चे हँस पड़ते तथा वे उसे अपना व अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखने का सुझाव दे ड़ालते।
आज फुर्सत के इन पलों में उसे पुनः बच्चों से बातें करने की इच्छा जागृत हो गयी। वह अंशुमान को फोन मिलाने लगी। अंशुमान कॉलेज से हॉस्टल लौट आया था।उसने फोन उठाया। वह बताने लगा कि “उसकी अन्तिम सेमेस्टर की परीक्षायें प्रारम्भ होने वाली हैं। अतः वह परीक्षा की तैयारियों में व्यस्त है। वह उसके खाने-पीने इत्यादि की फिक्र न किया करें। “
अंशुमान से बातें कर के उसे लगा कि व्यस्तता के कारण वह माँ से अधिक लम्बी बातें न कर कर के बातों को अति शीघ्र समाप्त कर देना चाहता हो। उसे भी बच्चों की कुशलता की जो जानकारी चाहिए थी वह प्राप्त हो गयी। तत्पश्चात् उसने छोटे बेटे अंशुल से भी दूरभाष से बातें की कुशलक्षेम पूछा। वह भी परीक्षा की तैयारियों में व्यस्त था, तथा सब कुछ ठीक था।
बच्चों से बातें कर के उसे यह अनुभव हुआ कि “बच्चे अब बड़े हो गये हैं। वह धीरे-धीरे आत्मनिर्भर हो रहें हैं एवं उसे उनकी फिक्र करने की आवश्यकता नही है।”
वह पुनः बैठ गयी जैसे अब करने को कुछ शेष न बचा हो। बच्चों से बातें कर के हृदय हल्का हो रहा था। किन्तु वह जानती हैकि इन बातों का प्रभाव कुछ देर ही रहेगा। वह पुनः अकेली बैठ कर सबके लिए सोचेगी। अच्छे -बुरे विचार पुनः हृदय में आने लगेंगे। वह माँ के इस हृदय को ,उसकी ममता को बच्चों से किस प्रकार प्रकार विलग होने दे।
कभी-कभी सब कुछ ठीक हाते हुए भी वह अस्वस्थता का अनुभव करने लगती। डॉक्टर को दिखाने पर उन्होने उसे उच्च रक्तचाप की समस्या बताई। तथा औषधियां भी दीं। वह उन औषधियों को नियमत रूप से लेने लगी है। कभी- कभी तो उसे अत्यन्त कमजोरी का अनुभव होता है। मानो शरीर से सम्पूर्ण स्फूर्ति सूख गयी हो। घर से कार्यालय कर्यालय से घर । यहीं तक उसकी जि़न्दगी सिमट कर रह गयी हो। जीवन में अकेलेपन के साथ-साथ नीरसता व्याप्त होने लगी है।
सर्दियाँ समाप्त होने वालीं हैं। मौसम धीरे-धीरे करवट ले रहा हैं। ऋतुएँ कब शनै-शनै परिवर्तित हो जाती हैं, यह हमें पता तब चलता है जब ऋतुओं का प्रभाव हमारी दिनचर्या पर पड़ता है। शाम कुछ विलम्ब से ढ़लने लगी है। प्रातः- सायं की हवाओं में कंपन कम हो गयी है, अच्छी लगने लगी हैं। वसंत ऋतु का आगमन हो चुका है। कोयल की कूक यदा-कदा सुनाई देने लगी है। कदाचित् आम के वृक्षों पर बौर अस गये होंगे। खेतों में भी पीले सरसों के फूल लहलहा रहें होंगे। नव पुष्प, नव पल्लव, सृष्टि का नव श्रंगार यही तो है वसंत। किन्तु यह वसंत उसे पतझड़ के सदृश क्यों आभासित हो रहा है। नव पल्लव तो विकसित हो रहें हैं किन्तु बहुतायत पुराने पत्ते भी गिर रहें हैं। हवाओं में भी रूखापन है। इस प्रकार की अनुभूति मेरी इस मनः स्थिति के कारण भी हो सकती है।
अगले माह होली का पर्व है। उसे इस पर्व की प्रतिक्षा है, क्यों कि बच्चे इस पर्व पर घर आ रहें हैं। इस पर्व पर उनकी छुट्टियों की अवधि कुछ लम्बी होती है। ये दिन.... ये चन्द दिन व्यस्तता भरेे व उल्लास पूर्ण होंगे। वह जानती है अवकाश के ये दिन भी व्यतीत हो जायेंगे। उल्लास के ये पल भी नही रहेंगे। सब चले जायेंगे अपनी-अपनी व्यस्तताओं के बीच, अपने ढ्रंग से अपना जीवन जीने।
बच्चों ने आत्मनिर्भरता की तरफ अपने नन्हे पग बढ़ा दिये हैं। हाँ, उनके पग नन्हें ही तो हैं क्यों कि वह अभी तक तो माँ-पिता की उँगली पकड़ कर चल रहे थे। अब दूसरे शहर में जा कर वह अपने अनुसार भी सोचने लगे हैं। शनै-शनै माँ-पिता की आश्रय की छाँव से दूर वो आत्म निर्भर होते जायेंगे । अपने जीवन की रूपरेखा वे स्वंय निर्धारित करेंगे। जैसा कि वह जानती है और देख भी रही है कि शिक्षा के उपरान्त भी बच्चे नौकरियों के लिये माता-पिता से दूर, अपने शहर से दूर जाने में भी संकोच नही करते। भूमंण्डलीयकरण के इस युग में किसी को सीमाओं में बाँध कर नही रखा जा सकता है। इस समय उसे अपनी ही कविता की कुछ पंक्तियां स्मरण हो आयीं-
नभ का वह सुनहरा क्षितिज
साँझ ढ़ल रही धीरे-धीरे
फ़ाख़्ता कर रही निर्माण
एक नव नीड़ का
उड़ने दो, बसने दो
परिन्दों को नव नीड़ में
उसने कभी पढा़ था कि मनुष्य जीवन की सार्थकता उसकी व्यस्तताओं में है। खाली मस्तिष्क चिन्ताओं का घर होता हैउसे प्रकृति से प्रेरणा लेनी होगी। नव-पल्लव, नव-निर्माण, नव-नीड़ यही तो है प्रकृति का शाश्वत् नियम। नव सृजन हेतु परिन्दों को नभ में उन्मुक्त उड़ने देने होगा। उसे स्वंय को एक नव-पथ पर ले जाना होगा। वह पथ होगा कुछ रचनात्मक व्यस्तताओं का। इस पथ पर चल कर वह समाज के वंचित लोगों के लिये कुछ करेगी। अपना वह समय जिसे व्यर्थ की चिन्ताओं में व्यतीत करती थी, उस बहुमूल्य समय को वह ऐसे लोगों के बीच व्यतीत करेगी।
इसके लिये उसने मार्ग चुना है वृ़़द्व आश्रमों में तिरस्कृत पड़े उन लोगों की सेवा का, जो समाज की नींव के पत्थर हैं, किन्तु उपेक्षित व अदृश्य हैं। उन्हे तो बस आवश्यकता है कि समाज को दिये उनके अमूल्य योगदान को समझा व सराहा जाय। दो शब्दों के माध्यम से उसे व्यक्त किया जाय न कि उन्हे अयोग्य व बेकार पड़ी कोई वस्तु समझा जाय।
अगले दिन कार्यालय से घर लौटते समय वह शहर के एक वृ़द्धाश्रम में गयी। वहाँ पहुँच कर उसने समझा कि संध्या की अवधि दिन की भाँति लम्बी कदाचित् न हो किन्तु प्रकाश के अभाव में यह अमावस की भाँति स्याह हो जाती है। संध्याकाल में भी इसी अमावस की अनुभूति यहाँ के वृद्धजन कर रहें हैं। उसने उन बुजुर्गों से बातें की। उसे वहाँ बहुत अच्छा लगा।उसने यह भी देखा कि उससे बातें कर के उन वृद्ध जनों के चेहरों पर एक आत्मीय मुस्कान फैल गयी थी। बाहर आ कर वह बहुत अच्छा अनुभव कर रही थी। उसने निश्चय कर लिया कि प्रति दिन कार्यालय से लौटते समय अपनी शाम के उन निरर्थक पलों को वह इन वृद्धजनों के बीच व्यतीत करेगी। उन व्यर्थ पलों को सार्थक व उद्देश्य पूर्ण बनायेगी। यह बात वह पति व बेटों कोें शीध्र बता देना चाह रही थी।
वृद्धाश्रम के गेट के बाहर आ कर गाड़ी में बैठते ही उसने सर्वप्रथम अपने पति को फोन मिलाया। उन्होने इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त की व प्रोत्साहित करते हुए कहा कि “तुम हम सबकी चिन्ता कर के अपना स्वास्थ्य खराब कर रही थी। यह तुम्हारे लिये भी अच्छा रहेगा।” बच्चे भी अत्यन्त प्रसन्न हुए और कहा कि, “ माँ आप उन वृद्धजनों की देखभाल कर के एक नेक कार्य कर रहीं हैं। आप अनुकरणीय हैं। हमें गर्व है माँ, आप पर।” ये बातें उसका उत्साहवर्द्धन कर रहीं थीं। उसे भी तो अपनी एकाकी शाम किसी उद्देश्य के लिये समर्पित करनी है।
उसने गाड़ी के शीशे से आसमान की तरफ देखा। कविता की पंक्तियों की भाँति क्षितिज सुन्दर, सुनहरा हो रहा था। संध्या का आगमन होने वाला था। परीन्दे आसमान में स्वच्छन्द विचरण कर रहे थे। उसके हृदय में भी आनन्द की अनुभूति आहिस्ता-आहिस्ता व्याप्त होती जा रही थी। वृद्धाश्रम से लौटने के पश्चात् उसे आभासित हो रहा था कि संध्याकाल भी उतना ही मनोहारी हो सकता है जितना कि सूर्योदय।