एक्वेरियम / एक्वेरियम / ममता व्यास
उसे खुद को छिपाने के सौ हुनर आते थे। न वह कभी खुल के हंसता था किसी बात पर, न कभी अपनी मन की बात कहता था। बस उसे दूसरों को सुनना-जानना पसंद था। जब वह किसी से बात कर रहा होता तो मैं चुपके से उसका किताबी चेहरा पढ़ती थी। उसका चेहरा एक्वेरियम जैसा लगता था मुझे। जिसके पार अनेक मछलियाँ डूबती-उतरती दिखती थीं मुझे। कभी दर्द की नीली मछली, कभी अवसाद की, अपराधबोध की काली मछली, कभी उत्साह की सुनहरी मछली तैरती दिखती थी। उसके प्रेम की गोल्डफिश अक्सर कोने में न जाने क्यों छिपी रहती थी। जब-जब भी वह किसी बात पर नाराज होता मुझे उसके चेहरे पर पिराना मछली उभरती दिखती थी और जब वह अपनी झूठी जिद में आकर कोई दु: ख देता तो मुझे उसमें झगड़ालू शार्क नजर आती, मैं अपने इस मछली प्रेम पर मन ही मन मुस्काती और फिर उसके चेहरे में खो जाती। कभी-कभी मुझे वह पूरा ही एक्वेरियम नजर आता था। भीतर से पानी से भरा-भरा-सा लेकिन क्या मजाल है एक बूंद भी पानी बाहर छलके. बस उसके भीतर उसकी इच्छाएँ बहती थीं। हम सभी के भीतर बहती हैं लेकिन जो पारदर्शी कांच के बने होते हैं न, उनके भीतर झांक लेना आसान होता है। मैं तो पत्थर की बनी थी न, इसलिए वह कभी झांक नहीं सका, लेकिन मैंने उसके भीतर समंदर बहता देखा। कभी-कभी उसके भीतर स्नेह का ऑक्टोपस देखा, जो मुझे अपनी आठ भुजाओं से घेर लेता था, तो कभी उसे संकोच से कछुए की तरह खुद को छिपाते और पत्थर होते भी देखा मैंने।
वो कई जन्मों तक कछुआ ही बना रहा। इस बीच मैंने तो उसे मरा हुआ ही मान लिया था। कई बार आवाज देने पर भी जब वह नहीं हिलता, तो उसे हौले से छूना पड़ता था। तब कहीं जाकर वह ज़रा हिलता था। उसके जरा-सा हिलने से उसके जिन्दा होने की तसल्ली कर लेती थी। जब वह अपने काम पर जाता और संसारभर के दुखों को अपनी गठरी में भर लाता तो मुझे वह सकरफिश-सा नजर आता था। जब मैं उसे कहती "हमने देखी है इस चेहरे पर तैरती मछली" , तो वह झट से अपने चेहरे के भाव बदल लेता और हैरान होता। उसे कभी समझ नहीं आया उसकी मन की मछलियों की परछाइयों को मैं कैसे देख लेती हूँ। उसे कभी पता नहीं चला कि मैंने मन पढऩे की तालीम हासिल की थी कभी... हाँ, वह कांच का एक अनमोल एक्वेरियम था, जिसे बहुत ही प्यार से संभालने की ज़रूरत थी।
मैं जानती थी, अगर ये एक्वेरियम टूटा तो उसकी सारी मछलियाँ बाहर गिरकर मर जायेंगीं। मछलियाँ उस एक्वेरियम के भीतर जिन्दा थीं, पर मैं उन्हें छू नहीं सकती थी; एक कांच की दीवार थी हमारे बीच और मैं उन सुन्दर मछलियों को पानी से बाहर लाकर हथेली पर रखकर बहुत पास से देखना चाहती थी, लेकिन मुझे वह नर्सरी में पढ़ी कविता आज भी याद थी (मछली वाली) बाहर निकालो मर जाती है। मछली के मर जाने के ख्याल से ही मैं कांप जाती थी। अब मैं उसे चाहते हुए भी कम देखती थी। हम दो अलग-अलग दुनिया में रहने वाले लोग थे। एक पानी के भीतर जिन्दा और दूसरा पानी के बाहर जीवित। मैं कभी नहीं चाहती थी कि वह एक्वेरियम टूटे या छूटे। इसलिए मैंने उसे एक सुरक्षित स्थान पर उसकी मछलियों के साथ छोड़ दिया था। उस दिन से जब अपनी इच्छाओं को छिपाना सीखा तो अपने भीतर एक एक्वेरियम उगता पाया और मछलियों को जन्म लेते।