एक्शन, सितारे, सेक्स या कथा ? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 30 सितम्बर 2013
मुंबई के पुलिस कमिश्नर साहब ने फिल्मकारों से अपील की है कि वे अश्लील फिल्में या अभद्र संवाद वाली फिल्में नहीं बनाकर विशुद्ध मनोरंजन तथा सामाजिक सोद्देश्यता की फिल्में बनाएं क्योंकि देश में हो रहे दुराचारों को रोकने के लिए स्वस्थ समाज की रचना करनी होगी। उन्हें बताया गया था कि हाल ही में प्रदर्शित एक फिल्म में अभद्र संवाद हैं और उन्हें समय नहीं था, अत: उन्होंने अपने सहायक को फिल्म देखने भेजा, जिसने कहा कि फिल्म सचमुच में अभद्र संवादों से भरी है और आश्चर्य है कि सेंसर ने इसे प्रमाण-पत्र दिया। यह कोई कम आश्चर्य की बात नहीं है कि युवा लड़कियां भी यह फिल्म देख रही हैं। इसके साथ पुलिस कमिश्नर साहब को यह भी जानना चाहिए कि उनके भूतपूर्व मुख्यमंत्री महोदय का सुपुत्र ही इस फिल्म का नायक भी है। सिनेमा और समाज के रिश्तों पर गौर करने वालों को विशेष चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि कमसिन उम्र में चेहरे पर मुंहासे आने और जाने की तरह ही है ये अश्लील फिल्में। यह भारतीय सिनेमा का 'स्थायी' भाव नहीं है।
अपराध और दुष्कर्म सिनेमा के आविष्कार के बहुत पहले से होते आ रहे हैं और यह अलग सामाजिक शोध का विषय है, परंतु फिल्मकार भी अपनी जवाबदारी से मुंह नहीं फेर सकते। फिल्मकार की अपनी रुचियों की बात हम छोड़ दें और उनकी व्यावहारिक परेशानी को समझने का प्रयास करें। आज के मु_ीभर सितारे सभी फिल्मकारों की पहुंच में नहीं हैं, परंतु वे अपने इतने वर्षों से चले आ रहे व्यवसाय का क्या करें? उन्हें कोई और काम आता भी नहीं। उदारवाद और मल्टीप्लैक्स आने के बाद टिकट की बढ़ी हुई दरों को देने के लिए दर्शक को आकर्षित करना अत्यंत कठिन है, अत: अश्लीलता के माध्यम से दर्शकों को लुभाने के अतिरिक्त उन्हें कोई रास्ता नहीं दिखता। एक्शन और सितारे के आकर्षण का पर्याय उन्हें अश्लीलता ही नजर आती है, क्योंकि भारत के सामूहिक अवचेतन में अश्लीलता का तंदूर हमेशा सुलगता रहा है और प्रच्छन्न सेक्स की धारा समाज की निचली सतह में सदैव ही प्रवाहित रही है।
ज्ञातव्य है कि राज कपूर सांप और रस्सी के माध्यम से भय और भय के हव्वे को दिखाने के लिए एक प्रेमकथा गढ़ रहे थे, परंतु उस दौर में मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा की अमिताभ बच्चन अभिनीत एक्शन फिल्में चल रही थीं और इसके खिलाफ राज कपूर ने अपनी अत्यंत साधारण सितारों वाली 'सत्यम शिवम सुंदरम' में नारी शरीर के प्रदर्शन का सहारा लिया, जिसका प्रायश्चित भी उन्होंने 'प्रेमरोग' बनाकर किया। यह मनोरंजन जगत में स्थापित सत्य है कि सेक्स आकर्षण बॉक्स ऑफिस पर जादू करता है। गौरतलब बात है कि आधा दर्जन उन्माद जगाने वाले सितारों के साथ वर्ष की १५० फिल्में तो बनाई नहीं जा सकतीं। कुछ लोग नए सितारों की खोज में लगे हैं, परंतु यह सीमित प्रयास यथेष्ट नहीं है। अब अगर सेक्स मजबूरी है तो फिल्मकार अजय बहल, जिन्होंने सिताराविहीन 'बीए पास' बनाई, इसी की तरह ऐसी कथा चुनें, जिसका आवश्यक अंग ही सेक्स हो। इस फिल्म में नारी का अकेलापन और समाज में व्याप्त सड़ांध के साथ ही देश की राजधानी में चल रही विडंबनाओं के संकेत भी थे।
यह भी सत्य है कि सितारों के अभाव में कथा को ही सितारा बनाएं जैसे 'पानसिंह तोमर', 'विकी डोनर', 'अ वेडनेसडे' 'फंस गए रे ओबामा', 'कहानी' इत्यादि फिल्मों में हमने देखा है। दर्शक में आकर्षण एवं उन्माद संगीत द्वारा भी जगाया जा सकता है। गौरी शिंदे की तरह एक सेवानिवृत्त सितारे श्रीदेवी को लेकर 'इंग्लिश विंग्लिश' जैसी सार्थक फिल्में भी गढ़ी जा सकती हैं। बॉक्स ऑफिस की मंजिल तक पहुंचने के लिए अनेक रास्ते और पगडंडियां हैं तथा सेक्स ऐसी ही संकीर्ण पगडंडी है, परंतु सशक्त कथा के पंख लगे हों तो आप उड़कर मंजिल तक पहुंच सकते हैं। आर्थिक उदारवाद के बाद समाज में तेजी से परिवर्तन आए हैं और आज के दर्शक की पसंद का आकलन नहीं किया जा सकता, परंतु जब अंधेरा अधिक गहरा हो तो कहानी की नौका पर बैठकर ही बॉक्स ऑफिस वैतरणी पार की जा सकती है। आम जनता के उन्माद के कारण सितारे निर्माता और निरदेशक से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं और हमारा यही उन्माद राजनीति में भी सितारे गढ़ता है, जिसका परिणाम हम सब भुगत रहे हैं। हम सभी सितारे बनाते हैं, नेता बनाते हैं और अश्लील फिल्में भी देखते हैं तथा हममें से ही कुछ लोग दुष्कर्म जैसे अपराध को अंजाम देते हैं। इसलिए जरूरी यह है कि आम आदमी स्वतंत्र विचार-शैली को विकसित करे और प्रचार के अंधड़ में सत्य को समझने का प्रयास करे।