एक 'हिला हुआ' आदमी / सुशांत सुप्रिय

Gadya Kosh से
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मेरा एक मित्र है — सुधाकर। बहुत ही संवेदनशील है। वक्र-रेखाओं के इस युग में वह एक सीधी रेखा-सा है। हालाँकि उसे जानने वाले बहुत से लोग उसे 'हिला हुआ' मानते हैं।

एक दिन मैं उससे मिलने उसके घर गया तो देखा कि वह कुछ लिख रहा था। मुझे जिज्ञासा हुई। पूछने पर पता चला कि उसे डायरी लिखने का शौक़ है। बातचीत के दौरान उसने स्वयं ही अपनी डायरी मुझे पढ़ने के लिए दे दी। मैंने कहा भी कि क्या उसकी व्यक्तिगत चीज़ का मेरे द्वारा पढ़ा जाना उचित होगा? पर वह नहीं माना। कहने लगा — "तुझे नहीं, तेरे भीतर जो मेरा लेखक मित्र है, उसे दे रहा हूँ।" हालाँकि अपनी डायरी मुझे देते समय उसने यह भी कहा — "मेरी डायरी पढ़ने के बाद तू भी मुझे 'हिला हुआ' समझेगा।" इस पर मैंने हँसकर कहा —"वह तू मुझ पर छोड़ दे।"

घर जा कर मैंने उसकी डायरी पढ़ी। उसमें अजीब-सी बातें लिखी थीं। एक बात और थी। कहीं भी तिथियों का कोई ज़िक्र नहीं था। केवल अलग-अलग रंगों के बॉल-पेन के इस्तेमाल से ही पता चलता था कि उसने ये बातें अलग-अलग दिन लिखी होंगी।

मैं उसकी सहमति से उसकी डायरी के कुछ अंश यहाँ आप पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।

(1)

कल रात मेरे यहाँ चोर आए। उन्हें लगा, मैं बहुत धनी हूँ। उन्होंने मेरे मन की तलाशी ली और उसे ख़ाली पाया। "यह तो बहुत ग़रीब है। इस बेचारे के पास तो सपने भी नहीं हैं।" उन्होंने एक-दूसरे से कहा और मुझ से सहानुभूति व्यक्त करते हुए वे ख़ाली हाथ लौट गए। ग़रीब आदमी के यहाँ आए चोर भी कितने अभागे होते हैं।

(2)

अब सूरज तो निकलता है पर चारो ओर घुप्प अँधेरा छाया रहता है। दिन की आँत में एक काला फोड़ा उग आया है। दिशाओं में काली आँधियाँ भरी हैं। इस इंसानी जंगल की सड़कों पर नरभक्षी घूम रहे हैं। वे मुस्करा कर आपसे हाथ मिलाते हैं। आप उनकी मुस्कान में छिपे ख़ंजरों और छुरों को नहीं देख पाते हैं। वे आपकी पीठ थपथपा कर आपको रीढ़-हीन बनाते हैं। आपको अपना 'छोटा भाई', अपना 'ख़ास यार'बताते हैं। फिर आप उन पर भरोसा करके उनके क़रीब आ जाते हैं। और तब किसी वासंती शाम कुछ' पेग ' लगा लेने के बाद अपने इंसानी खोलों में से निकल कर वे भेड़िए अपनी औक़ात पर आ जाते हैं। उस दिन आप बहुत पछताते हैं।

(3)

आज सुबह से मेरी आँखों में से ख़ून गिर रहा है और मुझे दुनिया केवल लाल रंग में रंगी दिखाई दे रही है। ऊपर लाल, सूजी आँखों वाला आकाश है। नीचे ख़ून के रंग में रँगी धरती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, बच्चे-बूढ़े — सब लहुलुहान नज़र आ रहे हैं। इंसानियत की चिता धू-धू कर जल रही है। मन के भीतर तक कड़वा धुआँ भर गया है। सड़क पर इंसान के भेस में नरभक्षी भेड़िए घूम रहे हैं जिनकी दहकती लाल आँखें देखकर मैं सिहर उठता हूँ। दिशाओं में चीख़ें हैं और सायरन की आवाज़ें हैं। सभी हँसते-खिलखिलाते रंग-ग़ुस्सैल-लाल रंग में बदल गए हैं। लगता है, गुजरात से लेकर फ़िलिस्तीन तक, अफ़ग़ानिस्तान से लेकर इराक़ और सीरिया तक जो निर्दोष लोग प्रतिदिन मारे जा रहे हैं, उन सब का ख़ून मेरी आँखों में उतर आया है। मेरे जीवन से बाक़ी सभी रंग चले गए हैं।

(4)

आज मैंने दो पेड़ों को आपस में बातें करते हुए सुना। वे इंसानों को भला-बुरा कह रहे थे। एक पेड़ दूसरे पेड़ से कह रहा था — "लोग कितने एहसानफ़रामोश होते हैं। वे हमारी छाया में आराम करते हैं। हमारे ही फल खाते हैं। फिर भी काटकर हमें ही जलाते हैं।"

(5)

आजकल मेरे साथ अजीब-बातें हो रही हैं। रात में मुझे काटने से पहले खटमल और मच्छर मुझसे मेरा धर्म पूछने लगे हैं। वे जानना चाहते हैं कि मैं हिंदू हूँ या मुसलमान। हवा मेरे आँगन में बहने से पहले मुझसे मेरी जाति पूछने लगी है। धूप मेरे घर के दालान में उतरने से पहले मुझसे मेरी नस्ल पूछने लगी है। आकाश में घिर आई काली घटा मेरे आँगन में बरसने से पहले मुझसे यह जानना चाहती है कि मैं किस राज्य का हूँ और कौन-सी भाषा / बोली बोलता हूँ। आजकल मैं बहुत परेशान हूँ। मैं आइने में देखता हूँ तो मेरी छवि मुझे देखकर अपना मुँह मोड़ लेना चाहती है। अँधेरा अपने क्रूर हाथों से मेरी आँखें ढँक लेता है। मरी हुई हवा में तनहा मैं बंजर आसमान तले उस उड़न-तश्तरी की प्रतीक्षा करता हूँ जो कभी नहीं आती।

(6)

हैरानी की बात है। लोगों के पास निगाहें हैं पर वे असलियत नहीं देख पा रहे हैं। उनके पास कान हैं पर वे बहरे बने हुए हैं। उनके पास दिमाग़ है पर वे सोचने-समझने में असमर्थ हैं। अपने हाथ-पैरों का इस्तेमाल वे केवल मार-पीट और लूट-खसोट के लिए कर रहे हैं। अपने से आगे वालों को लोग धक्का दे कर, लंघी मार कर गिरा रहे हैं। अपने से ऊपर वालों को लोग घसीट-घसीट कर नीचे उतार रहे हैं। जीवन के इस गला-काट खेल में कोई नियम नहीं हैं। जीतने के लिए सभी 'फ़ाउल' कर रहे हैं, सभी 'चीटिंग' कर रहे हैं, पर कहीं कोई अम्पायर नहीं है, कोई रेफ़्री नहीं है जो बेईमानी और धोखेबाज़ी को रोकने के लिए सीटी बजाए। जो फ़ुटनोट हैं वे शीर्षक बनना चाह रहे हैं, चाहे उनमें इसकी क़ाबलियत है या नहीं। जो बीच के पन्नों के शीर्षक हैं, वे मुख-पृष्ठ पर आना चाह रहे हैं। यहाँ कोई अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं है। चीख़ें फुसफुसाहटों में बदल जाना चाह रही हैं। फुसफुसाहटें चीखें बनना चाह रही हैं। लोग दूसरों के चेहरों में अपनी शक्ल के लिए आइना ढूँढ़ते फिर रहे हैं।

(7)

यदि यही हालत रही तो एक दिन भाषा लोगों को चेतावनी दे देगी कि मेरा दुरुपयोग बंद कर दो नहीं तो मैं तुम सब को छोड़कर चली जाऊँगी। लोग भाषा का इस्तेमाल करके एक-दूसरे को ठग रहे हैं। भाषा के जाल में फँसा कर एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं। शब्दों, भाषा का इस्तेमाल करके एक-दूसरे से धड़ल्ले से झूठ बोल रहे हैं, एक-दूसरे को छल रहे हैं। वे भाषा की आड़ में सच को झूठ, झूठ को सच बना रहे हैं। हमारी इन ओछी हरकतों से तंग आ कर यदि एक दिन भाषा हमसे रूठ गई तो हम क्या करेंगे?

(8)

आज दिन फटे हुए दूध-सा बेकार लग रहा है। चारो ओर से एक भयावह बदबू आ रही है। प्रार्थनाएँ अशक्त हो गई हैं। हवा में सड़ाँध भरी हुई है। दुर्गन्ध की एक मोटी परत जैसे पूरे शहर पर बिछी हुई है। आकाश से भी जैसे दुर्गन्ध की मूसलाधार बारिश हो रही है। हवा में चीज़ों के सड़ने-गलने की तेज़ गंध है। क्या यह दोगलेपन की गंध है? क्या यह शैतानियत की गंध है? यह दमघोंटू दुर्गन्ध इतनी सघन है कि दुनिया की बची-खुची पवित्र आत्माएँ छटपटा रही हैं और इसमें डूबकर मरती जा रही हैं। यह दुर्गन्ध मिलावट करने वाले दुकानदारों, लालची डॉक्टरों-इंजीनियरों और मुखौटे लगाए घूम रहे मध्य-वर्ग — सब में से आ रही है। सारी दुनिया की अगरबत्तियाँ, धूप-बत्तियाँ, इत्र और रूम-फ़्रेश्नर इस दुर्गन्ध को नहीं मिटा पाएँगे, क्योंकि यह हमारे भीतर की दुर्गन्ध है। यह बदनीयती की गंध है। यह मक्कारी और जालसाज़ी की गंध है। यह गंध नहीं, एक पूरी जीवन-शैली है। यह एक ऐसी गंध है जिसे परे धकेलना चाहो तो यह उँगलियों में चिपकती है। जैसे यह गंध नहीं, किसी ज़हरीली मकड़ी का जाला हो। यह एक ऐसी मनहूस, काली गंध है जिसे सूँघना एक नारकीय-यातना से गुज़रना है, जिसे सूँघना कई-कई मौतें मरना है। मैं ताज़ा हवा में साँस लेने के लिए छटपटा रहा हूँ। मेरे फेफड़ों में सड़ रही इंसानियत की यह दुर्गन्ध घुसती चली जा रही है। दुनिया वालो, मुझे थोड़ी-सी ताज़ा हवा दो। या फिर मुझे ज़िंदा दफ़्न कर दो। मैं इस बदबूदार हवा में अब और साँस नहीं लेना चाहता...

प्रिय पाठको, क्या सुधाकर वाकई 'हिला हुआ' है? इस का फ़ैसला मैं आप पर छोड़ता हूँ।