एक अड्डे का पलायन / गिरीश तिवारी गिर्दा
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लेखक: भगत दा
‘गुल हुई जाती है अफसुर्दा सुलगती हुई शाम।
धुल के निकलेगी अभी चश्म ए महताब से रात . . .’
नैनीताल क्लब चौराहा, पाँगर के विशाल पेड़ों के ठीक नीचे बहते गधेरे से सटे व्यावसायिक भवन के अंदरुनी हिस्से का एक छोटा सा कमरा, जिसकी विशालकाय खिड़की से बहते नाले का स्वर रात के सुनसान माहौल में किसी पहाड़ी गाँव की बसासत का आभास कराता, ताला विहीन यह, वह कमरा ठैरा। इसमें गिरीश चन्द्र तिवारी उर्फ गीराबल्ल्भ, उर्फ गिर्दा /गिरदा ने अपनी ऊर्जावान सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के विभिन्न आयामों को सृजनात्मकता के चरम तक पहुँचाया और अपने कई-कई शागिर्दां को दीक्षित किया।
उन दिनों अक्सर नैनीताल समाचार से लौटते हुए हमारा इस कमरे में जाना होता। कमरा तमाम तरह के चिन्तकों का अड्डा था, जिसमें चर्चाओं-परिचर्चाओं का दौर देर रात तक चलता। संगीत व नाटक की कार्यशालायें लगतीं, आन्दोलनों की रूपरेखायें, चिन्तन-मनन के साथ हमारी भूमिका, दैनिक आवृत्ति के कारण अक्सर श्रोता व दर्शक की होती।
कमरे का एक पार्टनर और भी था… राजा। गिरदा उसे राजा बाबू नाम से सम्बोधित करते। राजा बाबू के साथ उनका बच्चा भी था पिरम। पिरम की मौजूदगी ने गिरदा के फक्कड़/फकीरी को धकियाया। नतीजतन गिरदा पिरम के मायामोह के मोहिलेजाल में फँसते चले गये और अपना पु़त्रप्रेम पिरम पर न्योछावर करते गये। यही गिरदा के पारिवारिक रिश्ते की कार्यशाला बनी।
यह कमरा, जहाँ दो अदद पटखाटों के अलावा कुछ नहीं था, गिरदा की कार्यशाला रहा। दिन भर अपनी व्यस्तताओं, यथा गीत नाटक विभाग, नैनीताल समाचार, शहर में हो रही सांस्कृतिक, सामाजिक, आन्दोलनकामी गतिविधियों में अभिव्यक्ति, चिन्तन-मनन के बाद ही गिरदा इस कमरे में पहुँचता। थका माँदा गिरदा का बतियाने के मूड में सब्जी काटने का कलात्मक सिलसिला शुरू हो जाता। इसी बीच कमरे मे आने वालों का दौर शुरू होता। आने वालो में मजदूर नेता, प्रखर राजनैतिक जनवादी चिन्तक एवं कार्यकर्ता, लेखक, गीतकार, पत्रकार, नाटककार, कुमाऊँ गढ़वाल के संस्कृति गीतों परम्पराओं आदि पर कार्य कर रहे शोधकर्ता या प्राध्यापक या छात्र आदि होते। ….ये तमाम लोग एक चर्चा को जन्म दे जाते और चर्चा का सिलसिला आगन्तुकों के जाने के बाद भी चलता रहता ।
शाम का अंधियारा गहराते ही गिरदा का विशेष अन्दाज में बाबू शब्द का सम्बोधन होता। प्रतिक्रियास्वरूप पटखाट के पास एक दो अदद गिलास, शराब की बोतल, नींबू, चाकू, एक जग पानी के साथ राजा बाबू के सौजन्य से हाजिर हो जाता। यहाँ आत्मसंयम भी काबिले तारीफ रहा। नशा नहीं रोजगार दो आन्देालन के दौरान यह मजदूर साथी इतना उत्साहित हो गया कि उसने कमरे में आई बोतल बाहर फेंक दी थी और स्वयं अपने गुरू के साथ शाकाहारी हो गया।
लोगों के आने जाने का क्रम मौसम के हिसाब से बदलता रहता। कभी आन्दोलनों का दौर हुआ, चाहे वह मजदूरों का हो या कर्मचारियों का या कोई और जन आन्दोलन, नाटकों का मंचन, मौजूदा सामयिक ज्वलन्त समस्या……चलक….पहाड़ का धँसना, खेत खलियान का बगना आदि आदि…..पत्रकारों, लेखकों, राजनैतिक कार्यकर्ताओं आदि के माध्यम से चर्चा. परिचर्चा की शुरूआत करवाने में यह कमरा अग्रणी रहा। राजा बाबू एक सक्रिय श्रोता की तरह बहसों में भागीदार बने रहते। गिरदा के सान्निध्य मे सुनी गिरदा या फैज आदि की कुछ कविताओं का वाचन भी कर बैठते। इन पक्तियो को तो राजा बाबू विशेष लगाव से गाते . . .
हमको भी पाला था, माँ बाप ने दुख सह सह कर . . .
जन आन्दोलनों के दौर में राजनैतिक दबाव झेलने की लम्बी चर्चायें होतीं। तब मोबाइल फोन नहीं था। ‘हलो, नम्बर प्लीज’ शैली वाले टेलीफोन से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती थी। ऐसे में उन लोगों की उपस्थिति और महत्वपूर्ण होती जो बहस चर्चा करने में नहीं थकते थे। इनमे अधिकांश शराब तो दूर, चाय तक का सेवन नहीं करते थे । इस कमरे का सौभाग्य रहा कि यह हर बात को सेमीनार में बदलता रहा । इन चर्चाओं में महिला शक्ति भी पीछे नहीं रही । आज के ‘मैत्री’ या ‘महिला मंच’ की तमाम सदस्य कमला पंत, उमा भटट, बसन्ती पाठक, मुन्नी तिवाड़ी आदि तमाम लोग जिन्हें हम आज भी आन्दोलनों से जुड़ा देखते हैं, इस कमरे की चर्चाओं के भागीदार बनते। डॉ. शमशेर सिह बिष्ट, पी.सी.तिवारी, निर्मल जोशी, प्रदीप टम्टा, बिपिन त्रिपाठी, राजेन्द्र रावत ‘राजू’, वीरेन्द्र डंगवाल, बालमसिह जनौटी, गिरिजा पाठक, राजा बहुगुणा, ओंकार बहुगुणा, शरत अवस्थी, विश्वंभर नाथ ‘सखा’, हेमन्त बिष्ट, कमल जोशी आदि इन चर्चाओं में भाग लेने वालो में होते। ऐसे तमाम नाम हैं जिन्हें हम नहीं गिना पा रहे है, कुछ अपनी याददाश्त के कारण तो कुछ उस कमरे में अपनी अनुपस्थिति के क्षणों में चली चर्चाओं से बेखबर होने के कारण ।
रंगमच और नाटक संगीतकारों, साहित्यकारों का सिलसिला भी चलता रहता। क्षेत्र की जागर, आश, भिनेर, एस.के.सी. जैसी तमाम संस्थाओं के संचालक इस कार्यशाला से लाभान्वित होते। इन कलाकारों में मुख्य भूमिका गीत नाटक विभाग के कलाकारों की होती, जिनमें धर्मवीर परमार, वाचस्पति ड्यूँडी, राजकिशोर मिश्र, अनूप साह, प्रमोद साह, चन्दन रीठागाड़ी आदि सहकर्मी होते। जहूर आलम की अध्यक्षता मे चल रहे युगमंच के अधिकांश कलाकार इस कमरे से अपना सान्निध्य बनाये रखते। इन कलाकारों की सूची बहुत लम्बी है। नैनीताल से लेकर फिल्म नगरी मुम्बई तक इसका विस्तार है। यहाँ पर साहित्यिक, सांस्कृतिक संगठनों के मतभेद भी उभरते। लोग उन पर चर्चा की माँग करते परन्तु, गिरदा इन शिकायती अभिव्यक्तियों को एक विशेष अन्दाज से टरका जाते।
कभी डी.एस.बी. कालेज में हिन्दी के प्राघ्यापक रहे डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय इस फकीर कलाकार को तलाशते हुए उनके कमरे तक पहुँच गये। तमाम बातों के बाद उनका मजाकिया लहजा था कि यहाँ तो मुझे गिलास दिख रहा है, कलाकार तो घड़े से ही काम चला लेते हैं। कुल मिलाकर उन्होंने व्यक्त किया कि यह महान कलाकार पहाड़ के संगीत को हिमालय से बाहर पहुँचा रहा है। मुझे अपने पूर्व कार्यक्षेत्र नैनीताल से बहुत प्यार है। यहाँ हिमालय जैसी विशाल पत्रिकायें छप रही हैं। उनका इशारा ‘पहाड़’ पत्रिका की तरफ था।
इस कमरे को कवि सम्मेलन करने जैसा सौभाग्य भी मिला। बाबा नार्गाजुन ने ऐसा किया। ‘कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास’।…..इस कमरे में अंधे कलाकार हरदा सूरदास के हुड़के व बाँसुरी के स्वर भी गूँजते। गली मुहल्लों में हुड़का बजा कर जीवनयापन करने वाले हरदा सूरदास का आश्रय स्थल यही कमरा बना। बकौल गिरदा, हरदा हुड़का विधा में तो पारंगत है ही वह खाली कण्टर बजा कर भी अद्भुत संगीत की लय पैदा करने की क्षमता रखता है। इस प्रतिभा को गिरदा ने पहचाना और आकाशवाणी तक पहुँचाया और संगीत की पारंगतता की ओर सरकार का ध्यान खींचा।
यह कमरा सम्पादकीय कार्यों में गिरदा की रुचि के पन्ने खोलता रहा। नैनीताल समाचार, पहाड़, बनरखा, उत्तराखण्ड नवनीति, जंगल के दावेदार जैसे अखबारों-पत्रिकाओं की सामग्री चयन का साक्षी बना रहा। परिचर्चाओं में आधारित विषय की छपी सामग्री के सम्पादकीय के हिस्से होते। लगभग एक दशक की अवधि में इस कमरे ने जिन आगन्तुकों का स्वागत किया, उनकी सूची काफी लम्बी है। तमाम चरित्र वहाँ आते। मसलन कैलाश जोशी कमरे में आते। गिरदा से समलैंगिकता की आवश्यकता पर चर्चा करने-करवाने की माँग करते। कहने का मतलब यह कमरा हर विषय की चर्चा के लिये फिट बैठा।
वैवाहिक जीवन शुरू होते ही यह कमरा गिरदा से छूट गया और हम तमाम तमाम लोगों का यह अड्डा हमेशा के लिये खत्म हो गया। चर्चाओं, सेमीनारो, कवि सम्मलनों, संगीत की ध्वनि पैदा करने वाला यह अड्डा सदा के लिये पलायन कर गया । इस अडडे के छूटने के दशकों बाद जब गिरदा हमारे बीच नही रहे। यह अड्डा चाइना बाबा मन्दिर के पास से, उन तमाम तमाम चिन्तकों की ओर से, गिरदा को श्रद्धांजलि दे रहा हैः-
क्यों मेरा दिल शाद नहीं है,
क्यों खामोश रहा करता हूँ।
छोड़ो मेरी राम कहानी,
मैं जैसा भी हूँ अच्छा हूँ।
मेरा दिल गमगीन है तो क्या,
गमगीन है ये दुनिया सारी।
ये दुख तेरा है न मेरा,
हम सबकी जागीर है प्यारी।
क्यों न जहाँ का गम अपना लें,
बाद में सब तदबीर सोचें।
बाद के सुख के सपने देखें,
सपनो की ताबीरे सोचें।
नैतीताल समाचार से साभार