एक अदद ग़ज़ल मेरे आगोश में भी / संतलाल करुण
साहित्य सरताज कॉन्टेस्ट के आमंत्रण में लघु-कथा की भी श्रेणी है। मेरा कथा-कहानी का अनुभव बिलकुल नहीं है। बड़ी उधेड़-बुन के बाद विषय ज़ेहन में आया। कथा सीधे कम्प्यूटर पर लिखने बैठा तो छह सौ शब्दों से अधिक चली गई। संवाद कई जगह जमे नहीं तो उन्हें दुरुस्त करना पड़ा। क्लाइमेक्स की समस्या अलग से परेशान कर रही थी। बामशक्कत बड़ी मुश्किल से बात बनी, शब्दों को अपेक्षित सीमा में ला पाया और कथा के चरमोत्कर्ष को व्यवस्थित कर पाया। फिर ‘सबसे बड़ा दर्द और कई मृत्युदण्ड की सज़ा’ को ‘जागरण जंक्शन’ के हवाले किया। अब मैं भी एक लघु-कथा के बल पर क़िस्सा-गो होने का दंभ भर सकता हूँ।
इधर ग़ज़ल कटेगरी में फ़िरदौस ख़ान ने बड़ी प्यारी-सी ग़ज़ल कही है। उसके पहले सरिता सिन्हा भी कॉन्टेस्ट में एक वज़नदार ग़ज़ल पोस्ट कर चुकी हैं। उन दोनों की वजह से मुझ में भी जैसे ग़ज़लगोई के सुर-सा कुछ होने लगा। तुरंत कलम सँभाली और नोटबुक लेकर बैठ गया। दिल को ख़ूब नरम किया, अच्छे-अच्छे ख़याल लाने की कोशिश की, बहुत से तुक्के भी सेट किए, पर ग़ज़ल थी कि कड़ाके की ठण्ड में दिलोदिमाग का कमरा छोड़ने को हरगिज तैयार न हुई। पता नहीं वह कमरे में है भी या नहीं ? कौन बताए ? आखिर किससे पूछूँ ! कहाँ-कहाँ हाँक लगाऊँ ? या टॉफी देने के बहाने से फुसलाऊँ ! या फिर उसके लिए कोई और साजिश रचूँ ! कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वह भी ग़ज़ल ठहरी, रील-लाइफ़ की कोई बहकी हुई लड़की नहीं कि मनचले हीरो ने सीटी मारी और वह कमरे से निकलकर घर के छज्जे पर मुस्कराती हुई खड़ी हो गई। इस तरह मेरा देर से दिमाग पर ज़ोर देना बेकार जाता रहा। ग़ज़ल ने अच्छा ख़ासा झाँसा दिया था। फिर हारे को हरिनाम भी सूझा– ‘जागरण जंक्शन’ ने भजन की कटेगरी क्यों नहीं रखी ? अब तक कुछ लाइनें तो जुड़ ही गई होतीं। मन में तरह-तरह के ख़याल आ रहे थे। यह विचार भी आया कि अगर खोपड़ी पर हथौड़ी मारने से ग़ज़ल निकल आए, तो वह जोख़िम भी ग़ज़ल-सुन्दरी के लिए मँहगा नहीं है। फिर सोचने लगा कि इस उमर में ग़ज़लें मुझे चारा क्यों डालेंगी। एड्स के बावजूद दिल-दिल्लगी का उम्र से वास्ता आधुनिकों की खुली आशिक़ी ने भले ही किनारे लगा दिया हो, पर ग़ज़ल ने मेरी उम्र को जैसे अच्छी तरह नाप-जोख लिया है। इसलिए मेरा दाना-चारा वह चुगने से रही ! वैसे भी ग़ज़ल का मेरा अनुभव कहानी की तरह न के बराबर है। इसलिए अच्छी तरह समझ में आ चुका था कि ग़ज़लों को फाँसना नहीं आसां, उसके लिए तो ग़ालिब-हुनर चाहिए।
मेरा मानना है कि ग़ज़ल के शे’र और दोहे के चरण कागज़-कलम देखकर बिदकते हैं। इन्हें बैठकर डायरी, नोटबुक आदि में नहीं सँभाला जा सकता। ये तो सोते-जागते, उठते-बैठते, आते-जाते, जगह-बेजगह जैसे ही कुलबुलाएँ उठाकर पोटली में डाल लीजिए। देर मत कीजिए, नहीं तो नामुराद मिसरे ख़रगोश की तरह ऐसे बेहाथ हो जाते हैं कि बस हाथ मलते रहिए। कलम-दवात से जो ग़ज़लें कही जाती हैं, वे ग़ज़लें नहीं पैबंद होती होगीं, उनमें वह नज़ाकत, वह हसरतें नहीं होती होगीं। यही शर्तें दोहे पर भी लागू होती हैं। तभी तो महाकवि बिहारी पूरे जीवन में केवल सात सौ दोहे रच पाए। यही वजह है कि घंटों माथा-पच्ची करने तथा दिमाग पर खरोंच डालने के बाद भी ग़ज़ल मुझ नोट-बुक वाले नौसिखिये से आँख-मिचौनी के लिए कतई तैयार नहीं हुई। फ़िल्मी गानों को अगर दो कटेगरी में बाँटना हो तो एक कटेगरी अच्छे गानों की होगी, दूसरी सड़क छाप की। इसी तरह एक ओर ‘कामायनी’ के छंद और ‘राम की शक्ति-पूजा’ की काव्य-पंक्तियाँ हैं तथा दूसरी ओर मनोरंजक किस्म की ख़ालिस तुकबन्दियाँ। इसलिए आज मेरी ग़ज़लगीरी से जो चंद लाइनें पकड़ में आई हैं, वह दुशासन-सा ज़बरन पल्लू पकड़कर खींचना ही तो हुआ। उसमें ग़ज़ल कहाँ और ग़ज़ल की आब कहाँ ?
पर लघु-कथा की तरह एक अदद ग़ज़ल भूले-भटके मेरे आगोश में भी कभी आ गई थी। मेरे साथ उसकी गलबाँही का भी एक क़िस्सा है। बात लगभग 14 साल पहले, जून 1999 की है। उस समय मैं प्रशिक्षण-कोर्स के लिए सागर ( म.प्र. ) में था। श्री अटल बिहारी बाजपेयी मिस्टर नवाज़ शरीफ़ से गले लगकर स्वदेश क्या लौटे, कुछ आस्तीन के साँप उनके पीठ पीछे ही आ गए थे और जहाँ सरहदों के सिर नंगे दिखाई दिए, वहीं फन फैलाकर फूत्कार भरना शुरू कर दिया था। यानिकि घुसपैठियों के भेष में पाकिस्तानी सैनिक अपने षड्यंत्र को अंजाम दे चुके थे। फिर क्या था, आगे की कहानी जग-ज़ाहिर है। किस प्रकार पाकिस्तान की सरकार और सेना अमानवीय व्यवहार के साथ अपने ही सैनिकों की लाश पहचानने और लेने से मना करती थी और हमारे जाँबाज़ अपने शहीदों के साथ-साथ पाकिस्तानी सैनिकों की लाशें भी ढोते थे, पूरी दुनिया ने जाना। जब कि हमारे यहाँ शहीदों के शव घरों तक ससम्मान आते और सम्मान सहित उनकी अंतेष्टि में पूरा हुजूम शामिल होता, घर-परिवार के लोगों का रोना देख छाती फट-सी जाती।
मैं सुबह उठते ही अख़बार की सुर्ख़ियों और ख़ास कवरेज को देखता था। सम्पादकीय पृष्ठ पर भी काफी सामग्री होती थी। लंच के समय मैं जल्दी से लंच करके टीवी की ओर दौड़ पड़ता था। ट्रेनिंग पीरियड के बाद शाम को भी टीवी समाचारों में सब की दिलचस्पी होती थी। वह पहला मर्तबा था कि हम अपने सैनिकों की देशभक्ति और और बलिदान को टेलीविजन के माध्यम से देख रहे थे। देर रात तक चर्चा और बहस का दौर चलता था। इस तरह जो तथ्य, दृश्य, विचार, चर्चाएँ आदि मेरी संवेदनाओं से गुजरे उन्होंने कुछ रचनाओं का रूप ले लिया। उन्हीं में से एक छोटी-सी ग़ज़ल जो उन दिनों अनायास मेरे जेहन में सुबुगाती रही, ग़ज़ल का अनुभव न होते हुए भी मेरी रचनाधर्मिता में शामिल हो गई। ऐसा कब और कैसे हुआ मुझे पता न चला। क़ुदरती तौर पर कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो बादल की तरह उठती हैं और बारिश की तरह बरस जाती हैं। उनके लिए किसी ताम-झाम की ज़रूरत नहीं होती। कविकर्म कृत्रिमता से दूर वैसे ही सहज प्रवाह से तात्विक तथा प्रभाशाली स्वरूप ग्रहण करता है। कहाँ आज की मेरी ग़ज़ल को लेकर ज़ोर-आज़माई और कहाँ उस ग़ज़ल की बेपनाह आमद ! इसीलिये वह आज बहुत-बहुत याद आई और उसकी याद ताज़ा हो गई। उस ग़ज़ल में देश की रक्षा के लिए मर-मिटने के संकल्प के साथ आगे बढ़ते सैनिकों की उत्कंठा अभिव्यंजित हुई है। उस ग़ज़ल-ए-शहीदाँ का एक शे’र कारगिल के लिए आगे बढ़ रहे जवानों के बेइंतिहा हौसले को कुछ इस कदर बयाँ करता है—
“हमज़बाँ देखा ग़ज़ब लगते शरीफ़ों को गले
ज़ह्रागीं मारे-आस्तीं को ख़ुद मिटाने चल पड़े।”