एक अदबी दौर की आखिरी आवाज / जयप्रकाश चौकसे

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एक अदबी दौर की आखिरी आवाज
प्रकाशन तिथि :16 नवम्बर 2015


विगत कुछ दिनों से शबाना की मां शौकत आज़मी अस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष में हैं। शौकत आज़मी हैदराबाद के एक धनाढ्य परिवार की शिक्षित युवा कन्या थीं और एक मुशायरे में कैफी आज़मी की शायरी से प्रभावित हुईं और परिवार की इच्छा के विपरीत उन्होंने कैफी से निकाह किया। उन दिनों कैफी साहब कम्युनिटी हॉल में अपने वैचारिक हमसफर लोगों के साथ रहते थे। उनका हनीमून वहीं गुजरा। उन्हीं दिनों शौकत आज़मी ने पृथ्वी थिएटर में काम शुरू किया और शबाना के जन्म के बाद भी वे थिएटर से जुड़ी रहीं तथा पृथ्वीराज ने शबाना की देख-रेख के लिए आया भी नियुक्त की। शौकत आज़मी ने कैफी के साथ अपने जीवन के संस्मरण लिखे हैं और यह अत्यंत पठनीय व रोचक किताब रही। शौकतजी की जिद थी कि किताब का विमोचन शशि कपूर ही करें, क्योंकि प्रकाशन के समय पृथ्वीराज के अन्य दो पुत्रों की मृत्यु हो चुकी थी। कैफी साहब एक समर्पित वामपंथी थे और उन्हें जेल भी जाना पड़ा। इन अदीबों का जीवन संघर्ष बहुत कठोर था। कैफी आज़मी ने अनेक फिल्मों के गीत लिखे 'प्यासा' के बाद साहिर लुधियानवी की जिद थी कि उनका पारिश्रमिक संगीतकार के बराबर हो, इसलिए गुरुदत्त ने 'कागज के फूल' के गीत कैफी साहब से लिखवाए। इसके सभी गीत लोकप्रिय हुए और 'बुन रहे हैं ख्वाब दम ब दम' तथा 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है' आज भी दोहराए जाते हैं।

कैफी आज़मी और फिल्मकार चेतन आनंद के बीच खामोश और गहरी समझदारी का रिश्ता था। एक बार चेतन आनंद और कैफी एक-दूसरे के सामने खामोश बैठे थे। शौकत ने आकर चाय के लिए पूछा तो कैफी ने नहीं कहते हुए कहा कि वे गीत के लिए बैठक कर रहे हैं। शौकत ने कहा, 'आप दोनों ने पिछले एक घंटे से एक शब्द भी नहीं बोला है, यह कैसी बैठक है?' कैफी साहब ने कहा कि हम साथ बैठे हैं तो यह सृजन की ही बैठक है। इसमें बात करने की क्या जरूरत, खामोशी की भी जुबां होती है। चेतन अानंद और कैफी के रिश्तों में शब्दों की किफायत होती थी परंतु वे एक-दूसरे को इतना समझते थे कि बिना बोले ही दिल की बात समझ लेते थे। चेतन आनंद की 'हीर रांझा' में संवाद पद्य में थे और कैफी आज़मी ने ही फिल्म लिखी थी। इसी तरह उनकी 'हकीकत' में कैफी साहब और मदन मोहन के सारे गीत यादगार बन पड़े हैं। 'कर चले हम फिदा जान-ओ-तन साथियों, अब वतन तुम्हारे हवाले साथियों' आज भी हर राष्ट्रीय पर्व पर देशभक्ति का यह गीत बजाया जाता है। इसमें एक पंक्ति है, 'जिंदा रहने के मौसम बहुत है मगर, जान देने की ऋत रोज आती नहीं, फर्ज और इश्क दोनों को रिसवा करे, जवानी जो खून में नहाती नहीं।' इस फिल्म का जुदाई गीत भी कमाल था, 'मैं यह सोचकर चला था कि वापस बुला लेगी मुझको, न उसने पुकारा न उसने बुलाया, मैं आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता ही आया।' चेतन आनंद की अनेक फिल्मों में कैफी आज़मी के गीत थे। दरअसल, उनका परिचय तो स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में ही हो गया था, जब दोनों इंडियन पीपुल्स थिएटर के लिए काम करते थे।

कैफी आज़मी ने सावन कुमार टाक की सितारा विहिन कम बजट की 'नौनिहाल' के लिए गीत लिखे थे। बच्चों के जीवन पर केंद्रित इस फिल्म में पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के पश्चात का गीत तो नेहरू की वसीयत की तरह एक दस्तावेज ही माना जाता है। गीत इस तरह है, 'मेरी आवाज सुनो, प्यार का राज सुनो, मैंने एक फूल जो सीने पर सजा रखा था, उसके परदे में तुम्हें दिल से लगा रखा था, था जुदा सबसे मेरे इश्क का अंदाज सुनो..जिंदगी भर नफरत-सी रही अश्कों से, मेरे ख्वाबों को तुम अश्कों में डुबाते क्यों हो, जो मेरी तरह जिया करते हैं, कब मरते हैं, थक गया हूं मुझे सोने दो, रोते क्यों हो, सोके भी जागते रहते हैं जांबाज, सुनो, मेरी आवाज सुनो..नौनिहाल आते हैं अर्थी को किनारे कर लो, मैं जहां था, इन्हें जाना है वहां से आगे, इन्हें कलियां न कहो, ये हैं चमनसाज सुनो, मेरी आवाज सुनो… क्यों संवारी है यह चंदन की चिता मेरे लिए, मैं कोई जिस्म नहीं कि जला दोगे मुझे राख के साथ बिखर जाऊंगा मैं दुनिया में, तुम जहां खाओगे ठोकर, वहीं पाओगे मुुझे हर कदम पर है नए मोड का अागाज, सुनो, मेरी आवाज सुनो…' शौकत आजमी फिल्म और अदब की दनिया के एक सुनहरे दौर की निशानी है और आज तो आवाज ही गुनाह बन गई है।