एक अदृश्य होने वाली स्याही से लिखा इतिहास / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :26 सितम्बर 2017
चौबीस सितंबर को इंदौर में खेले गए क्रिकेट मैच का 'आंखों देखा हाल' सुनाने वालों और वहां मौजूद हजारों लोगों में किसी एक व्यक्ति ने भी इंदौर के कर्नल सीके नायडू एवं मुश्ताक अली को स्मरण नहीं किया। यहां तक कि क्रिकेट बोर्ड से जुड़े मेजर जगदाले के सुपुत्र संजय जगदाले ने भी इन महान खिलाड़ियों को कोई आदरांजलि नहीं दी। मेजर जगदाले को भी स्मरण किया जाना चाहिए था। इसी मैदान पर उनके लिए पसीना बहाने वाले राजसिंह डूंगरपुर को भी स्मरण नहीं किया। मुश्ताक अली तो एक दिवसीय शैली में ताबड़तोड़ बल्लेबाजी उस दौर में करते थे जब खेल के इस स्वरूप का आकल्पन भी नहीं किया गया था। भारत की हर संस्था में टुच्ची एवं घिनौनी राजनीति तो हर दौर में बलवती रही है। इस टुच्चेपन के चलते कोलकाता में खेले जाने वाले एक मैच में कैप्टन मुश्ताक अली का चुनाव नहीं किया गया तो कोलकाता की सड़कों पर आक्रोश से भरे क्रिकेट प्रेमियों ने उग्र प्रदर्शन किया और नारा था 'नो मुश्ताक, नो क्रिकेट'। इस उग्र प्रदर्शन से डरे हुए अधिकारियों ने आनन-फानन में मुश्ताक अली को टीम में शामिल किया।
चयन कमेटी की धांधलियों के कारण महान सीके नायडू को अपना एक मैच उत्तर प्रदेश की टीम की ओर से खेलना पड़ा था, क्योंकि उनके अपने रक्त से सिंचित मध्यप्रदेश टीम में उन्हें स्थान नहीं दिया गया। अपने उस अंतिम मैच में भी उन्होंने सैकड़ा जड़ा था। यह भी संभव है कि पूर्वजों के स्मरण का श्राद्ध पक्ष समाप्त हो गया, इसलिए उन्हें विस्मृत किया गया। हमने तो अपनी श्रद्धा को भी एक पखवाड़े में सीमित कर दिया है। यह संभव है कि स्वर्ग के पैवेलियन से नायडू एवं मुश्ताक की दृष्टि पंड्या पर पड़ी और उनके प्रहार में इस आशीर्वाद से धार आ गई। मैच के बाद रात में स्टेडियम में सन्नाटा छाया था। तीस हजार दर्शकों के शरीर के सम्मिलित ताप से तब भी वहां रात गरमा रही थी। यह संभव है नायडू, मुश्ताक, मेजर जगदाले, राजसिंह डूंगरपुर की आत्माओं ने स्टेडियम की यात्रा की हो और अभ्यास भी किया हो। गति से संचालित मति के कारण राजसिंह की गेंदबाजी दिशा खो देती थी। सभी लोगों ने अफसोस जाहिर किया कि भारतीय गेंदबाजों ने मैच में पंद्रह वाइड गेंदें फेंकी जिस कारण ऑस्ट्रेलिया को पचास के बदले तिरेपन ओवर बल्लेबाजी का अवसर मिला अन्यथा वे 250 तक ही स्कोर कर पाते।
नायडू साहब वाइड बॉल और नो बॉल करने वाले गेंदबाज को खूब दंडित करते थे। बापू नाडकर्णी ने कई बार साठ ओवर गेंदबाजी की जिसमें पचास ओवर में एक भी रन नहीं बना। अभ्यास के समय वे पिच पर एक सिक्का रखते थे और उनकी गेंद दस में से नौ बार उसी सिक्के पर टप्पा खाती थी। वह सिक्का तब भी बाजार में स्वीकारा जाता था। खरे सिक्के तो बापू नाडकर्णी थे। उस समय करेन्सी बदले जाने का सनकीपन भी होता तब भी बापू (नाडकर्णी) का सिक्का ऊंचे दाम में बिकता। भारतीय मुद्रा पर अंकित बापू (गांधी) की आत्मा लहूलुहान हो रही होगी। दोनों टीमों के सभी खिलाड़ियों, एम्पायर एवं कमेंटेटरों ने रनों से गर्भवान पिच की प्रशंसा की परंतु एक भी महानुभव ने क्यूरेटर का नाम तक नहीं लिया। एक दौर में खिलाड़ी मेनन पिच बनाते थे। किसी भी व्यक्ति ने सुबोध सक्सेना का भी स्मरण नहीं किया, जिनकी बल्लेबाजी से एक अंतरराष्ट्रीय मैच जीता गया था। हम लोग आदतन शुकराना अदा करने वाले लोग नहीं हैं। जिस नेहरू ने अनगिनत संस्थाओं की स्थापना की, आज उन्हें गाली देने की अघोषित स्पर्धा जारी है।
हमारी इसी प्रवृति को साहिर लुधियानवी ने बखूबी जाहिर किया था 'मैं पल दो पल का शायर हूं, पल दो पल मेरी हस्ती है.. मसरुफ जमाना मेरे लिए क्यों वक्त अपना बरबाद करे।' जाने कैसे हम यह भी भूल जाते हैं कि हर वर्तमान पल में बीते पल और आने वाले पल का एक कण मौजूद होता है। यादों के बही-खाते जिस स्याही से लिखे जाते हैं, प्राय: वह पल दो पल में अदृश्य हो जाती है।