एक अनूठी धरोहर- मेरी पसंद- 4 / उपमा शर्मा
इस युग को लघुकथा का स्वर्णिम युग कहें, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांक आ चुके हैं। कथादेश की लघुकथा प्रतियोगिता 2006 से अनवरत चल रही है। लघुकथा के उत्थान और विकास के लिए लघुकथा डॉट कॉम निरन्तर समर्पित है।
'मेरी पसंद' इसका निरन्तर आने वाला कॉलम है, जिसके अन्तर्गत पाठक अपनी पसंद की दो लघुकथाओं पर अपने स्पष्ट विचार रखते हैं। इसी क्रम में अब तक 'मेरी पसन्द' पर केन्द्रित तीन पुस्तकें आ चुकी हैं। यह कॉलम कितना सराहा गया, यह इसी से स्पष्ट है कि इसी क्रम में अब तक मेरी पसंद-4 और 5 प्रकाशित हो चुकी हैं। 'मेरी पसंद-4' मेरे सामने है। यह बेहद प्रासंगिक पुस्तक है। इसकी प्रासंगिकता इसलिए भी बढ़ गई है कि इसमें रचनाकार, पाठक एवं समीक्षक तीनों की दृष्टि से गुजरते हुए रचना के आर-पार चले जाते हैं। मेरी पसंद के अन्तर्गत जितनी सहजता से कोई रचनाकार या समीक्षक अपनी बात रख सकते हैं, उतनी ही सहजता से पाठक के लिए अपनी बात रखने के लिए यह उपलब्ध है। इसे पढ़ते हुए रचना के साथ एक अतरंगता का रिश्ता जुड़ने लगता है और सोच की नई-नई परतें खुलने लगती हैं। आज जब हम रचनाधर्मिता की अहमियत को लेकर बहुत सारे सवालों से दरपेश हैं, हमारे वरिष्ठ लेखकों ने एकजुट होकर अपने समय की मुश्किलों को झेला और एक दस्तावेज की विरासत तैयार की। उसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए हमारे वरिष्ठ इस रचनाधर्मिता को आगे ले जा रहे हैं और वर्तमान पीढ़ी के लिए एक सुखद परिवेश की नींव तैयार कर रहे हैं। मेरी पसंद की लघुकथाओं में रचनाकार की रचना पर बात करने का एक अनूठा कॉलम है जिसमें आम पाठकों से लेकर गहन समीक्षक लघुकथा पर अपनी बात स्पष्ट और बेबाक राय रखते हैं। मेरी पसंद के अन्तर्गत नए लेखकों की बहुत-सी ऐसी रचनाओं से रू-ब-रू हुए जो कथ्य के साथ शिल्प की दृष्टि से भी बहुत मारक और परिपक्व हैं।
लघुकथा विधा परंपरा और आधुनिकता के आवरण से विभूषित नए तथ्यों की सम्पोषक है जो साहित्य की नई मंजिलों को छूने में समर्थ है। इस समय के लघुकथाकार अपने मूलाधार से जुड़कर आम दुनिया में प्रविष्ट होते गए, जिससे रूढ़ियाँ, व्यवधान और सीमाएँ स्वत: ध्वस्त होते गए। अलग-अलग विषय, वैविध्य और विमर्श ने साहित्य और साहित्यकार के लिए सर्जन के नए आयाम का अन्वेषण किया।
इस समय में अनेक संपादित / संकलित और एकल लघुकथा-संग्रह ख़ूब प्रकाशित हुए हैं। इन दिनों लघुकथा लेखन पर लघुकथाकार ख़ूब कलम चला रहे हैं। बहुतायत में लिखने का यह परिणाम होता ही है कि कच्चा-पक्का दोनों तरह का लेखन होता है लेकिन समय की आँधी में थोथा-थोथा उड़ जाता है। इतिहास में सदैव गम्भीर लेखन ही दर्ज होता है।
कहानियाँ और उपन्यास लिखने के बाद भी लेखक को लघुकथाएँ लिखने की आवश्यकता महसूस हो रही है, तो इसका निष्कर्ष यही निकलता है कि बहुत कुछ ऐसा है जो लघुकथा के माध्यम से अधिक सघनता के साथ अभिव्यक्त किया जा सकता है। लघुकथा साहित्य के अलाव की एक ऐसी प्रस्फुटित चिंगारी है, जिसकी तपिश देर तक प्रभाव छोड़ती है। अलाव से सुकून मिलता है, लेकिन चिंगारी एक तड़प उत्पन्न करती है। अच्छी लघुकथाओं में यह तड़प बार-बार महसूस की जा सकती है।
साहित्य समुद्र में तरह-तरह की चीजें बिखरी पड़ी हैं। एक अच्छा लघुकथाकार / पाठक / समीक्षक एक कुशल गोताखोर के समान इस समुद्र से मोती ढूँढ ही लेता है। मेरी पसंद कॉलम में भी चुनी हुई रचनाओं का संकलन एक जगह है जिसे पढ़ पाठक को विशेष अनुभूति होती है। इन लघुकथाओं में विविधता, गहरे मानवीय सरोकार तथा आसपास के परिवेश के यथार्थ चित्र परिलक्षित होते हैं। इन लघुकथाओं पर आम पाठकों के विचार भी हैं तो उत्कृष्ट समीक्षक दृष्टि भी इन लघुकथाओं पर गुज़री है। कोई-कोई लघुकथा कई-कई व्यक्तियों द्वारा पसंद की गई है जिससे हमें यहाँ एक ही लघुकथा पर विभिन्न दृष्टिकोण देखने को मिलते हैं। लघुकथा यथार्थ की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। यहाँ लघुता और कलात्मकता का कौशल स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। साहित्य की कोई भी विधा प्रत्यक्षतः सामाजिक परिवर्तन नहीं कर सकती, परन्तु इस परिवर्तन की साहित्यिक मनोभूमि तैयार करती है। लघुकथा लेखक कल्पना की उड़ान न भर यथार्थ की खुरदरी जमीन पर लिखता है। पाठक के समीप जब सच उजागर होता है तो उसका कल्पना से मोहभंग हो जाता है। यही परिवर्तन की एक बारीक शुरुआत है। हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है। भले ही बेटियों को यहाँ लक्ष्मी, देवी कहकर पुकारा जाता हो, लेकिन जो महत्त्व बेटे का है, वह बेटी का नहीं। पुत्र प्राप्ति पर ढोल बजते हैं, मिठाइयाँ बाँटी जाती हैं। पुत्री प्राप्ति पर अजीब—सी मायूसी का माहौल हो जाता है। गाँव-देहात में आज भी यह कहावत सुनने को मिलती है-बेटे होने की धमक चार गाँव तक गूँजती है, पैर सवाया उठता है और बेटी होने पर पृथ्वी भी तीन कदम भार से दब जाती है। रामेश्वर काम्बोज की लघुकथा 'नवजन्मा' इस मिथक को तोड़ नए आयाम गढ़ती है। जब बेटी होने पर दादी रोती है; लेकिन पिता ढोल बजवाता है, परिवर्तन की सुखद बयार पाठकों को बड़ी सुखद लगती है। आज हमारा समाज टूटते-बिखरते सम्बन्धों, लगातार गिरते हुए जीवन-मूल्य, राजनीतिक पतन, भ्रष्टाचार, भय, भूख से ग्रसित है। श्याम बिहारी श्यामल की लघुकथा 'हराम का खाना' सामन्तवाद पर तीखा प्रहार है। गरीब को बेनाप जूते, बढ़ती उम्र, कृशकाय शरीर कुछ नहीं व्यापता; लेकिन रोजी छिनने पर कैसे वह लड़खड़ाता है, श्याम सुंदर अग्रवाल की 'संतू' इसका सशक्त उदाहरण है।
शानदार शीर्षक से सजी सुकेश साहनी की लघुकथा 'अथ विकास कथा' भ्रष्टाचार को न सिर्फ उजागर करती है; बल्कि इसकी चुभन देर तक पाठकों के मस्तिष्क पर अंकित रहती है। हमारा समाज किस ओर जा रहा है। नैतिकता, मानवीय मूल्यों का ह्रास, शोषण चहुँओर यही व्याप्त है। जलसे, आंदोलन किसी गरीब के जीवन को कितनी बुरी तरह प्रभावित करते हैं अनवर शमीम की लघुकथा 'और हाथी रो रहा था' में उजागर होता है। आर्थिक विपन्नता से उपजी विवशता, अक्षमता की दास्तान पर इस लघुकथा में पाठकों के आँसू गिरने लगते हैं, जब बेटे को हाथी की सवारी कराने में अक्षम पिता खुद हाथी बन बेटे को बहलाने की कोशिश करता है लेकिन इस कोशिश में वह स्वयं इतना बिखर जाता है कि पूरी झोंपड़ी उसके आँसुओं से गीली हो जाती है।
आज मानवीय संवेदना और मूल्यों का इतना ह्रास हो चुका है कि पहले जिन बुजुर्गों के हाथ आशीर्वाद लगते थे, अब उनसे डर लगने लगा है। सुभाष नीरव की लघुकथा 'बाय अंकल' में बस स्टॉप पर छूटी बच्ची को सँभालते-दुलारते, सांत्वना देते दादाजी बच्ची की माँ को खतरा लगते हैं। एक बुजुर्ग की उपेक्षा से पाठकीय संवेदना कराह उठती है। लघुकथा सुखद मोड़ लेती है, जब बच्ची स्नेहसिक्त हो बाय अंकल कहती है।
सचेत लघुकथाकार के बिम्ब, रूपक, प्रतीक, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, आंचलिकता ऐसे औजार होते हैं जिनसे वह अपनी रचना को तराशकर एक नई चमक देता है। बिम्ब एवं प्रतीक संक्षिप्त अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। प्राचीनकाल से ही थोड़े में अधिक कहने की प्रवृत्ति के लिए मानव संकेतों का उपयोग करता आया है। लघुकथाकार अपने शब्द बहुत सोच-समझकर खर्च करता है। सुगठित कथ्य के साथ सटीक प्रतीक और बिम्ब जैसे औजारों का इस्तेमाल रचना को और मारक बनाता है। बिम्ब का कार्य पाठक की हृदयस्थ संवेदनाओं को उद्बुद्ध करना है। साहित्य में बिम्ब का उद्देश्य भावों की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति करना ही है। सुकेश साहनी की लघुकथा 'मेढ़कों के बीच' , महेश वर्मा की 'निशानी' , पारस दासोत की 'धूल' , प्रिंयका गुप्ता की 'भेड़िए' , अभिमन्यु अनत की 'अपना रंग' ऐसी ही लघुकथाएँ हैं। सुकेश साहनी की लघुकथाओं के बिम्ब और शीर्षक बड़े सटीक होते हैं। शीर्षक लघुकथा का मुख्य अवयव है। कई बार शीर्षक में ही पूरी लघुकथा का सार निहित होता है। लघुकथा 'मेढ़कों के बीच' में लघुकथाकार ने मेढक को बिम्ब बना भावी पीढ़ी को निरर्थक कार्यों से दूर रहने का सटीक संदेश दिया है। यह लघुकथा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। महेश शर्मा ने पुराने समय के गोदना जो आज टैटू के नाम से प्रचलित है, का रूपक ले आज की पीढ़ी की बदलती संवेदनाओं को बखूबी दिखाया है। आज की पीढ़ी बेहद प्रैक्टिकल है। वह रिलेशनशिप को भी प्रैक्टिकली ही हैंडिल करती है। लघुकथा की पात्र पिंकी कुछ दिन पहले बनवाए टैटू को हटा देती है। उसे इस ब्रेकअप का कोई दर्द भी नहीं होता। दूसरी तरफ उसकी नौकरानी कम्मो आंटी आज तक उस प्यार के निशान को यादों में सहेजकर रख उस दर्द से गुजर रही है।
मेरी पसंद के अन्तर्गत विभिन्न विषयक लघुकथाएँ न केवल संवेदना के धरातल पर मन को छूती हैं, बल्कि वैचारिक दृष्टि से भी पाठक को सम्पन्न बनाती हैं। इन अधिकतर लघुकथाएँ में विचार, संवेदना, शिल्प और भाषा का कलात्मक संयोजन है। पसंद व्यक्ति की बहुत निजी अभिव्यक्ति है। किसी की पसंद का आधार कथ्य है, किसी का शिल्प। कुछ अनुभवजनित रचनाएँ इसलिए बहुत पसंद आती हैं कि उनके कथ्य पाठकों के निजी अनुभव से इतने मिलते-जुलते होते हैं कि वह नितांत अपने से लगते हैं; इसलिए इस संकलन की सारी लघुकथाएँ शिल्प की कसौटी पर खरी उतरें यह बिल्कुल आवश्यक नहीं। यहाँ आलोचक, समीक्षक और आम पाठक तीनों को ही अपने विचार रखने की समान स्वतंत्रता है। मेरी पसंद-4 पुस्तक रचनाकार और पाठकों को जोड़ने के अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल हुई है।
लघुकथा डॉट कॉम: मेरी पसन्द-4 (लघुकथा-विमर्श) , ISBN-978-81-19299-87-4, प्रथम संस्करण: 2024, मूल्य: 550 रुपये (सज़िल्द) , पृष्ठ: 200, सम्पादक: सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , प्रकाशक: अयन प्रकाशन, जे-19 / 139, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059