एक अमर ग्रंथ जो मैनीफेस्टो नहीं है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 08 अप्रैल 2014
चुनाव के मौसम में सभी राजनैतिक दलों के घोषणा-पत्र जारी हो चुके हैं और आम जनता में संभवत: चंद मुठ्ठी भर लोग ही इन्हें पढ़ते हैं। हमने चुनावी घोषणा-पत्र को गणतंत्र की एक रस्म की तरह कर दिया है। कुछ सनकी लोग इन मसविदों को अफसाना ही मानते हैं। बहरहाल इस मौसम में यह शुभ है कि सुप्रीम कोर्ट के वकील और पर्यावरण की रक्षा के लिए प्रयास करने वाले महेन्द्र व्यास ने प्रदीप कृष्ण की लिखी रची 'जंगल ट्रीज ऑफ सेंट्रल इंडिया' की समीक्षा प्रस्तुत की है। प्रदीप ने गहन सघन दौरे किए हैं और वृक्षों का अध्ययन मनुष्यों की तरह किए जाने में उन्हें दीक्षित किया है निशिकांत जाधव ने। पेंगुइन द्वारा 400 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य 1499 रुपए है और इसमें वृक्षों के अद्भुत चित्र निहायत ही करीने से संजोकर प्रकाशित किए गए हैं। हमारे समाज की तरह जंगल की भी श्रेणियां होती है, एक ही तरह के दो दरख्त भी मनुष्यों की अलग-अलग होते हैं। लेखन न केवल जंगल व वृक्षों का विवरण देता है उनके इतिहास की जानकारी देते हुए उनकी वर्तमान दारुण दशा का वर्णन भी करता है और जंगलों का पोषण और रक्षण कैसे किया जा सकता है, इसके तर्कसम्मत उपाय भी बताता है। याद आता है कि कैमरान की 'अवतार' में किसी अन्य ग्रह पर वृक्षों के नाश को रोकने का प्रयास करने वाला पात्र कहता है कि इस ग्रह पर नष्ट किए गए हर वृक्ष की पीड़ा का अनुभव धरती पर लगे वृक्ष भी करेंगे गोयाकि गैलेक्सी में वृक्षों का एक दूसरे से गहरा रिश्ता है।
प्रदीप कृष्ण ने वृक्षों के स्थानीय प्रचलित नामों के साथ उनके विज्ञान द्वारा दिए गए नाम भी दिए हैं। इसके साथ प्रकाशित चित्रों में रंगों का चयन योजनाबद्ध ढंग से किया गया है और पृष्ठ पलटते-पलटते घर बैठे आप जंगल विचरण का अनुभव कर सकते है। हकलू, अनजान, बहेला इत्यादि वृक्षों के नाम में भी स्वाभाविक संगीत है। इस किताब के लेखन, चित्रों के संयोजन इत्यादि में श्री प्रदीप की सांस्कृतिक गहराई दिखाई पड़ती है। प्रांतीय और राष्ट्रीय सरकारों ने जनता वाचनालयों के महत्व को समझते हुए जिला स्तर तक पर वाचनालयों की रचना की है परंतु वहां अव्यवस्था की दीमक ने बहुत हानि पहुंचाई है। सभी जानते हैं कि भोपाल के सरकारी वाचनालय में गालिब के दीवान का विरल संस्करण उपलब्ध हुआ जो जाने कैसे पाकिस्तान में लाखों में बिका। हमारी निकम्मी संस्थाएं जिनके लिए जितना दोष हम सरकारों के माथे मढ़ते है, उतना ही दोष आम आदमियों का भी है। ऐसी कीमती किताब हर आम आदमी नहीं खरीद सकता परंतु जिला वाचनालयों में उपलब्ध प्रति का लाभ उठाया जा सकता है परंतु इस विषय में सरकार, अफसर, आम आदमी सभी उदासीन हैं।
इस लेख के प्रारंभ में चुनावों घोषणा-पत्र का जिक्र इसलिए किया है कि संभवत: किसी भी दल के घोषणा पत्र में पर्यावरण की रक्षा और हमारे स्वार्थ तथा लोभ द्वारा नंगे किए गए जंगलों को उनका स्वाभाविक रूप देने का कोई संकल्प नहीं है और हो भी क्यों, वृक्षों को मताधिकार नहीं है और जंगलों पर आधारित जीवन जीने वाले मनुष्यों की चिंता कभी किसी ने नहीं की है। तमाम वृक्षारोपण की योजनाओं के परिणाम आशा जनक नहीं निकले क्योंकि हजार रुपए का ट्री गार्ड वन पर निर्भर रहने वाले और आसपास के गांवों के लोग उखाड़कर ढाई सौ रुपए में बेचते है और आश्चर्य नहीं अगर वही ट्री गार्ड अगले वर्ष फिर हजार में खरीदा जाता हो।
हमने बहुत बेदर्दी से धरती को लूटा है, वृक्षों को काटा है, जंगलों को श्रीहीन किया है, नदियों को प्रदूषित किया गया है और किसी भी राजनैतिक दल को सत्ता पाने की होड़ में इसकी चिंता नहीं है, यह उनके लिए भारत नहीं है। हमसे बेहतर अंग्रेजों और मुगलों ने वनों की रक्षा की थी। बादशाह अकबर ने ताउम्र हरिद्वार में एकत्रित गंगा जल पिया क्योंकि वह जानता था कि अपने उद्गम से हरिद्वार तक हजारों मील का फासला तय करते समय यह जल वृक्षों की जड़ों से कितने मूल्यवान खनिज अपने में समहित करके लाया है।
हमने जंगलों में उन वृक्षों को बोया जिनकी लकड़ी हमारे इस आयात किए गए दूषित विकास मॉडल के लिए आवश्यक रही है। एक देशज सर्वांगीण विकास के मॉडल में न वृक्षों की हानि होती है, न जंगल श्रीहीन होते हैं और विकास में जनजातियों को शामिल किए बिना कोई शुभ और स्थायी विकास नहीं हो सकता। हमने विगत तीन हजारों सालों में धरती के खनिज का दोहन जितना दोहन किया, वह उसकी सम्पदा का मात्र दस प्रतिशत था परंतु विगत सौ वर्षों में पचास प्रतिशत दोहन किया है क्योंकि इस विनाशकारी विकास के इंजन का वहईंधन है। हमारी प्रकृति की रक्षा नेताओं के बस की बात नहीं है।