एक अर्द्ध साहित्यिक इण्टरव्यू / गोपाल बाबू शर्मा
पंखे के नीचे कुर्सी पर बैठ मैंने कमीज़ के दो बटन खोले, "मैंने आपका सम्पादकीय 'जब लिया उधार, दोस्तों से लिया' पढ़ा है। स्पष्ट ही उसके मुख्य पात्र विनोद आप ही हैं। लेख के अन्त में आपने आश्वस्त किया है कि आप अपने लड़कों की शादी करेंगे, सौदा नहीं। तब तो आपके दोनों बच्चे विद्यार्थी थे, अब तो उनके बच्चे भी हैं। कृपया बताएँ कि क्या वाकई आपने उनकी शादियों में सौदा नहीं किया? सौदे से मेरा तात्पर्य दहेज लेने से है।"
रोशनलाल सुरीरवाला ने धीरे-धीरे गम्भीर स्वर में कहना आरम्भ किया, "हमारे घर की फाइल कभी गुप्त नहीं रही। आपके सामने यह पृष्ठ खोलता हूँ। आपके इस प्रश्न का उत्तर मात्र 'हाँ' या 'ना' में देना ग़लत होगा और भ्रमोत्पादक भी। बड़े बेटे की शादी में हमने छोटे-छोटे काम तो दृढ़ता से किए, जैसे सगाई-लगुन नहीं ली, भात और खेत नहीं लिए, बहू की 'मुँह दिखाई' नहीं ली, बाद में सादों से भी इन्कार कर दिया, किसी बड़ी रकम से हाथ नहीं लगाया; किन्तु एक बात में चूक गए।"
"किस बात में?"
"दहेज में स्कूटर आ गया।" रोशनलाल सुरीरवाला ने आसन मुद्रा बदली, "हुआ यों कि विदा के समय लड़की की दादी अड़ गई। बहुत कहा-सुनी की, समझाया, किन्तु हमारे सम्मानित समधी जी बिना किसी छोटे-बड़े और अपने पराये का लिहाज़ किए भावावेश में हमारे पैरों से लिपट गये," माँ की यह भेंट तो आपको स्वीकार करनी ही पड़ेगी। "शर्मा जी, उस क्षण हमें बड़ी शर्म आई और अन्ततः हार माननी ही पड़ी। स्कूटर ने पौरी में खड़े होकर साँस ली ही थी कि हमारे सिर पर जूते पड़ने लगे, 'आप तो कहते थे कि कुछ नहीं लेंगे, फिर यह स्कूटर कैसे आ गया?' और सच कहें शर्मा जी, हमारे मन के भी एक कोने में यह खुशी थी कि छोटी-छोटी चीजें किस्तों में लेने वाले हमने एक समूचा नया स्कूटर एक बार में ही मुफ़्त मार दिया था।"
"और दूसरे बेटे के विवाह में?"
'"बड़े बेटे के विवाह में सावधान और सतर्क रहते हुए भी हम मात खा गये थे, अतः छोटे बेटे के विवाह में हम' रैड एलर्ट' थे; किन्तु इसकी नौबत ही नहीं आई, क्योंकि लड़की और उसके पिता ने दहेज न देने की पहले ही कसम खा ली थी, अतः दहेज के नाम पर हमारे पास मात्र एक दीवाल-घड़ी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। पलंग तक नहीं; न हमने माँगा, न उन्होंने दिया और यह उचित ही था। हमें कोई शिकायत नहीं है। असल में यह कसम ही हमारी विवाह-स्वीकृति का आधार बनी।"
"फिर भी लड़की इन्जीनियर है और विवाह पूर्व से ही सर्विस में है, अतः उसका एकत्र किया हुआ पैसा तो मिला ही होगा।"
"वह तो हमारे समधी-मित्र के पास सुरक्षित है।"
"तब भी आपको हजारों रुपये की मन्थली रैकरिंग इनकम तो हुई ही।"
रोशनलाल जी किंचित् हँसे, "आप भी औरों की तरह रहे, शर्मा जी लड़की की योग्यता और सर्विस क्या छिपी थी? फिर किसी ने कन्या-जनक की शर्तों पर शादी क्यों नहीं की? शादी के बाद तो हमारे बहू-बेटे अपनी गृहस्थी का दायित्व मिलकर निभा रहे हैं। इसमें रैकरिंग इनकम से हमारा क्या सम्बन्ध?"
"बिना दहेज शादी करने में आप इसलिए समर्थ हो गये, क्योंकि आप के कोई लड़की न थी।"
"शायद! परन्तु जब लड़की है ही नहीं, तो यह आरोप सोलहों आने सही कैसे माना जा सकता है? किन्तु यह तथ्य एक सौ एक पैसे सही है कि हम दहेज लेने की स्थिति में थे, लेकिन लिया नहीं।"
"क्या इन शादियों को 'आदर्श विवाह' कहा जा सकता है?"
"शायद नहीं। दूसरे लोगों ने तो और भी कमाल किए हैं। मैं तो बस इतना जानता हूँ कि मैंने अपने बेटों का सौदा नहीं किया। असल में शादी के सन्दर्भ में 'आदर्श' शब्द विवरण सहित परिभाषा-सापेक्ष है।"
"दोस्तों ने आपको आर्थिक सहायता ही दी है या कभी साहित्यिक सर्जन में योगदान भी किया है?"
" डॉ. श्रीकृष्ण वार्ष्णेय मेरे हमेशा दूसरे श्रोता रहे, जो मुझे महत्त्वपूर्ण परामर्श देते थे...
"दूसरे क्यों?"
"भई, पहली श्रोता और आलोचिका तो मेरी श्रीमती जी हैं, जो आधी रात मुझे कचौड़ी-बरूले बनाकर खिलाती थीं, तभी तो मैं लिखता था। 'लँगड़ी भिन्न' लगभग मैंने एक रात एक लेख की दर से पूरी की। 'टेलीफून की मुसीबत' मेरी नहीं, आचार्य मुरारीलाल जी की है। 'घोड़ेवाला मेहमान' भी उन्हीं का है, मैं तो मात्र नक़्शानवीस था। 'अभिमन्यु: दाक्षिण्य पर्व' कभी पूरा न होता, यदि उसमें प्रो. खानचन्द्र गुप्त के अनुभव न पिरोये गये होते। 'भुलक्कड़ भाई साहब' और 'क़िस्सा गंगाराम पटेल' में मैंने डॉ. श्रीकृष्ण वार्ष्णेय के साथ थोड़ी-सी गुस्ताखी की है।"
"सच बताइए, क्या आपने किसी लेखक की नक़ल की है?"
"पूर्ववर्ती साहित्य किसी भी लेखक की दादालाई सम्पत्ति होती है, जिसका किसी न किसी रूप में प्रयोग होता ही है। लेखक सुना हुआ भी प्रयोग करता है। सम्भव है सुनाने वाले ने भी कहीं पढ़ा-सुना हो। कभी-कभी एक ही विचार एकाधिक लेखकों को भी आ सकता है। यह शोधकर्ता की खोज का विषय है कि वह इस संयोग को तलाश करे। वैसे 'विद्वान्सः मूर्खाः भवन्ति' के काफी चुटकुले सुने हुए हैं। 'ठाकुर टैंकसिंह' का प्रारम्भिक सम्वाद भी सुना हुआ है। पहली गित्तल 'आप कुछ भूल गये जी' का विचार कहीं पढ़ा था, इसीलिए वह पुस्तक में शामिल नहीं की। 'बच्चे' कहानी का कथानक मूलतः मेरा नहीं है। शायद इसी नाम से इसी कथानक पर कोई दूसरी कहानी भी मिल जाए।"
"क्या आपका लिखा भी किसी ने मारा है?"
"मेरा यह सौभाग्य कहाँ? किन्तु कभी-कभी मेरे दृष्टान्त और पैराग्राफ ज्यों के त्यों दिखाई पड़ जाते हैं। एक बार 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में 'टाँग में मोच आई' हास्य-व्यंग्य किन्हीं चतुर्वेदी ने मेरे निबन्ध 'आँख आई' की तर्ज पर लिखा था। लगभग आधा लेख मेरा था। नक़ल की सीमा यह थी कि आँखों में डालने वाली दवा टाँग पर लगा दी गई थी। रामानन्द 'दोषी' के बाद एक बार 'कादम्बिनी' में मेरी गित्तल 'बहसवादी' किन्हीं माथुर के नाम से प्रकाशित हुई थी। किसी भी सम्पादक ने मेरा प्रतिवाद नहीं छापा। मैं समझता हूँ कि प्रारम्भ में यह सब चलता है, बाद में लेखक का व्यक्तित्व और अस्तित्व उभरता-निखरता है।"
"लगता है कि कहानियों के पात्र आप वास्तविक जीवन से लेते हैं। एक-दो उदाहरण दीजिए?"
"बिना यथार्थ की नींव के कल्पना का महल खड़ा नहीं हो सकता। बीज ही वृक्ष में बदलता है। केन्द्रीय बिन्दु हाथ आते ही प्रारम्भ और अन्त कल्पना में तैयार हो जाता है, फिर मध्य भाग समय-सापेक्ष रह जाता है। यह समय दो-चार दिन भी हो सकता है और दस साल भी। नगेन्द्र की बेईमानी सहित 'वैदेही' का अन्त काल्पनिक है। किन्तु परीक्षा-प्रतियोगिता यथार्थ है। आज वैदेही का मुझे पता नहीं, किन्तु नगेन्द्र और चन्दन दोनों नगर-निवासी थे और एक ही विश्वविद्यालय के उपकुलपति रह चुके थे। अब दोनों का देहान्त हो चुका है और उनकी सन्तानें उच्च पदों पर आसीन हैं। 'छटंकी' कभी-कभी घर आती है। औरतों के बीच उसकी दौड़ देखकर ही कहानी का जन्म हुआ था। 'बोझ' कहानी का अन्त काल्पनिक है, किन्तु सम्वादों और अतीत के चित्रों में सच्चाई का काफी अंश है।"
"पाठकों की कौन-सी प्रशंसा आपको सर्वप्रिय लगी?"
"जयपुर से एक पाठक ने लिखा था, 'शरत की' विराजबहू'समाप्त करने के बाद आपकी' छोटी बहू' एक सिटिंग में ही पढ़ गया। यह वाक्य मुझे आज भी खुशी से भर देता है। लगता है, शरत ने मेरा प्रणाम स्वीकार कर लिया।"
"क्या रचना का अस्वीकृत होना उसके स्तर का मापदण्ड है?"
"आजकल तो कतई नहीं। 'हंस' से लौटी कहानी 'चील-कौए' का 'ग्रन्थायन' अलीगढ़ से प्रकाशित 'हिन्दी कहानी: 1986-90' में चयन हुआ। असल में आज किस सम्पादक के पास समय है कि रचना पढ़े? प्रकाशन का आधार लेखक का परिचित होना अथवा स्थापित होना है, किन्तु रामानन्द 'दोषी' इसका अपवाद थे। वे लेख को बाकायदा पढ़ते थे और आवश्यकता समझने पर लेखक से संशोधन करा लेते थे। उन्होंने 'कादम्बिनी' में मेरे कई व्यंग्य और रेखाचित्र प्रकाशित किए। दुर्भाग्य से मैं उनसे मिल नहीं सका। जब साहस कर दिल्ली पहुँचा तो वे मृत्यु शैया पर थे। 'चुल्लू भर चमचा-चरित' 'धर्मयुग' में प्रकाशित हुआ तो धर्मवीर भारती का प्रशंसा से भरा एक लम्बा पत्र आया, जिसमें एक और व्यंग्य भेजने का आग्रह था। तब मैंने 'क्लर्क-क्रन्दन' भेजा।"
"क्या किसी बड़े लेखक का वरदहस्त आपको मिला?"
"नहीं, क्योंकि बड़े लेखक दूसरे लेखकों को पढ़ते ही नहीं हैं। उदाहरण के लिए रवीन्द्रनाथ त्यागी द्वारा सम्पादित पुस्तक 'उर्दू-हिन्दी हास्य-व्यंग्य' 1978 में प्रकाशित हुई। 1976 तक मेरे 116 लेख पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके थे; किन्तु भूमिका में त्यागी जी लिखते हैं, 'पेशेवर हास्य-व्यंग्यकारों के अतिरिक्त बाकी कलाकार भी यदा-कदा हास्य-व्यंग्य लिखते रहे और उसमें से कुछ इतने ऊँचे दर्जे का है कि कुछ कहा नहीं जा सकता।' 'इस सन्दर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय' बीस धुरन्धर लेखकों में लेख सहित मेरा नाम भी शामिल है।" रोशनलाल सुरीरवाला हँसे, 'हुआ यह होगा कि किसी पत्रिका में मेरे उक्त लेख' एक भारतीय मन्त्री का भौगोलिक वर्णन पर उनकी कृपा-दृष्टि पड़ गई और बस। "
"नहीं लगता कि आपको जितनी ख्याति मिलनी चाहिए थी, उतनी नहीं मिली?"
"शर्मा जी, यह तो प्रत्येक लेखक को लगने वाली यह बीमारी है, जिसे मधुमेह की माँति नियन्त्रण में तो रखा जा सकता है; किन्तु ठीक नहीं किया जा सकता। शरत तक को यह रोग था। तभी तो उन्होंने लिखा है कि वर्तमान काल ही साहित्य का सुप्रीम कोर्ट नहीं है।"
"आजकल आप क्या लिख रहे हैं?"
'लगता है कि मरने के बाद सब रद्दी के भाव में बिक जाएगा। अतः बिखरे हुए को समेट रहा हूँ। चाहता हूँ कि किसी प्रकार प्रकाशित हो जाये तो कुछ उम्र मिले। वैसे कॉलिज-जीवन पर' पतन के पंख' उपन्यास लिख रहा हूँ। ऊपर वाले से यदि पाँच-छह साल की छूट मिल गई तो शायद पूरा हो जाए। "
"इस अंक से आपको क्या लाभ मिलेगा?"
राष्ट्रीय लिबास (अण्डरवीयर बनियान) में रोशनलाल सुरीरवाला सहसा खिलखिला पड़े, "मैं एक बार पुनः पत्नी के सम्मुख सिद्ध कर सकूँगा कि में बदसूरत हूँ, मूर्ख नहीं।"
इसी समय बहू रानी चाय ले आयीं। मैंने कमीज़ के बटन बन्द किए और नमकीन प्लेट की ओर चम्मच बढ़ा दी, "मैं चाय नहीं पीता।"
प्रसंगवश: अगस्त, 1994
(श्री सुरीरवाला पर केन्द्रित अंक)
(हिन्दी गद्य के विविध रंग से साभार)