एक अॉर्केस्ट्रा, जिसका कंडक्टर ही नहीं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :11 जून 2016
जब अमिताभ बच्चन ने 1969 में अभिनय क्षेत्र में प्रवेश किया तब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस में दादाओं के सिंडीकेट को ध्वस्त किया तथा बैंकों का राष्ट्रीयकरण करते हुए भूतपूर्व सामंतवादियों के प्रिवी पर्स बंद किए। अमिताभ बच्चन की प्रारंभिक फिल्में इतनी असफल रही कि उनकी अभिनीत कुछ फिल्मों को अधूरा ही छोड़ दिया गया। 1973 में सलीम-जावेद की लिखी और प्रकाश मेहरा की बनाई 'जंजीर' ने सफलता पाई और अमिताभ बच्चन का शिखर दौर प्रारंभ हुआ। आज के इरफान खान और नवाजुद्दीन सिद्दीकी संभवत: उस दौर में जन्मे होंगे। उस दौर में अमिताभ बच्चन की एंग्री यंगमैन छवि अत्यंत लोकप्रिय हुई। दरअसल, वह दौर भारत में गहरे असंतोष और अवाम की नाराज़गी का दौर था। जयप्रकाश नारायण का आंदोलन भी उसी असंतोष का परिणाम था।
मौजूदा वक्त में महंगाई अधिक हो गई है और अवाम के पास दु:खी होने के अनेक कारण भी हैं परंतु आज अवाम उस दौर की तरह अपना असंतोष व नाराज़गी जाहिर नहीं करता। क्या हम इस नतीजे पर पहुंच जाएं कि अब तक अवाम को असंतोष की आदत हो गई है या उन्हेें लगता है कि अपना आक्रोश दिखाने से भी कोई परिवर्तन उनके जीवन में नहीं होग? इस दरमियान उन्होंने अन्य लोगों को अवसर देकर भी यह महसूस किया कि उनकी दशा हमेशा एक-सी कायम रहती है। अगर ऐसा है तो यह नैराश्य की अंतिम सीमा है। क्या इस तरह की मानसिक दशा का कारण यह है कि 'कोउ नृप होये हमें का हानि' ही हमारे सामूहिक अवचेतन का स्थायी भाव है?
आज असंतोष फिल्म की सफलता का फॉर्मूला नहीं रह गया है। इंदिरा गांधी के समय के समाज में और आज नरेंद्र मोदी के समय के समाज में अंतर है। अवाम ने यह भी देख लिया है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण से भी उन्हें अनुमानित लाभ नहीं मिला। सामंतवादियों के प्रिवी पर्स बंद हो गए परंतु कुछ लोगों को अभी अनर्जित धन प्राप्त हो रहा है। आज के नेता विगत के सामंतवादियों की तरह ही सोचते हैं परंतु इस नव-सामंतवाद के पास वे कला मूल्य नहीं हैं, जो महाराजाओं और नवाबों के पास थे। नव-धनाढ्य वर्ग समाज में नैतिक मूल्यों के पतन का ही प्रतीक बन गया है।
आज इरफान और नवाजुद्दीन को सामाजिक असंतोष को अभिव्यक्त करने वाली फिल्मों में वैसी सफलता नहीं मिल सकती जैसी 1973 में अमिताभ बच्चन की आक्रोशभरी छवि को मिली। क्या असंतोष का अब अवमूल्यन हो गया है? आज असंतोष और क्रोध को वह सार्वजनिक सहमति प्राप्त नहीं है, जो उस दौर में प्राप्त थी। अार्थिक उदारवाद ने सांस्कृतिक मूल्यहीनता को 'स्थायी' की तरह स्थापित कर दिया है। अब बाजार ही सारे मूल्य निर्धारित करता है। लोगों की पसंद अौर नापसंद को भी बड़े ही व्यवस्थित ढंग से बाजार ने अपने कब्जे में ले लिया है। आज लोकप्रियता गढ़ी जाती है, तालियां कब बजाना है, इसका भी संकेत दिया जाता है। समाज के ऑर्केस्ट्रा को संचालित करने वाला बैटन अब अदृश्य हाथों में हैं गोयाकि समाज के सारे ऑर्केस्ट्रा अर्थात तामझाम को कौन 'कंडक्ट' कर रहा है, यह पता ही नहीं चल पा रहा है। इसीलिए यह माधुर्य का नहीं, शोर का कालखंड है और स्ट्रिंग सेक्शन, रिदम सैक्शन से अलग ही धुन बजा रहा है। यह कुछ अपरिभाषित बेसुरापन है, जो सर्वत्र छाया है। इसकी अगली कड़ी यह होगी कि वाद्य यंत्र ही आपस में टकराने लगेंगे। बांसुरी वायलिन तोड़ती नज़र आएगी, तबला सैक्सोफोन से भिड़ जाएगा, पखावज किसी घूंसे का भाग बन जाएगा।
शोर के बाद सन्नाटा छाएगा और उस नीरव शांति से कुछ स्वर फूटेंगे, फिर राग छिड़ेगा, फिर किरण परी गगरी छलकाएगी, क्योंकि ऐसी कोई रात ही नहीं, जिसकी सुबह नहीं हो।