एक आध्यात्मिक त्रासदी / महात्मा गांधी और सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे

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एक आध्यात्मिक त्रासदी
जयप्रकाश चौकसे

गांधीजी के 1915 में भारत आगमन से लेकर आजादी प्राप्त होने तक के कालखण्ड में गांधी नामक चमत्कार से राष्ट्र, समाज, साहित्य और सिनेमा सभी प्रभावित हुए, क्योंकि आम आदमी से लेकर श्रेष्ठि वर्ग तक सभी लोगों की विचार प्रक्रिया पर गांधीजी का प्रभाव रहा। उनकी मृत्यु के पच्चीसवें वर्ष में स्विटजरलैंड के विद्वान एरिक एरिकसन ने 'गांधीस टूथ' नामक किताब में रेखांकित किया कि गांधीजी के पहले भी स्वतंत्रता प्राप्त करने के अनेक प्रयास हुए थे और सारे प्रयास देश प्रेमियों ने पूरी निष्ठा और समर्पण के भाव से किए थे, परन्तु सफलता नहीं मिलने का कारण यह या कि उन प्रयासों का प्रभाव सीमित क्षेत्रों तक ही रहा। इसलिए अंग्रेज प्रशासन को उसे कुचलने में सफलता मिली। अंग्रेजों ने भारतीय लोगों की सहायता और सहयोग से ही हमेशा भारत में राज किया था। उन्होंने हिन्दुस्तानी हाथों में ही कोड़ा थमाया, हिन्दुस्तानी पीठों पर ही बरसाने के लिए।

गांधीजी के अभिनव प्रयास का प्रभाव पूरे भारत पर पड़ा था और इसी व्यापक तथा गहरे प्रभाव से ही वे अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर सकते थे। गांधीजी भारत को पूरी तरह समझते थे और सामूहिक अवचेतन में पैठने की अद्भुत कला और विज्ञान को उन्होंने विकसित किया था। दरअसल उनके इस पक्ष का विज्ञान सम्मत अध्ययन आज तक नहीं हुआ है। इस टेलीविजन युग की बाजार और विज्ञापन ताकतों ने अभी तक इसे समझा नहीं है और इसे समझ लेने पर उनका काम आसान हो सकता है। आज विज्ञापन जगत में सूत्र वाक्य बनाने का बहुत महत्व है। कम शब्दों में वस्तु के आकर्षण का वर्णन कठिन काम है। 'दिल मांगे मोर' या 'कुछ मीठा हो जाये' की धूम है। गांधीजी ने सबसे बड़ा सूत्र मंत्र दो शब्दों में रचा 'विवट इंडिया' अर्थात 'भारत छोड़ो'। उन दिनों फिल्म संवाद लेखक नाटकीय स्थिति में किसी पात्र से संवाद कहलाते 'कमरा छोड़ो' या 'वापस जाओ' और दर्शक इसे स्वतंत्रता संग्राम से जोड़कर तालियां बजाते थे।

गांधीजी ने अपने 1920 में किए गए आन्दोलन के स्वरूप में 1930 में परिवर्तन किए और 1942 में 'भारत छोड़ो' भी विगत आन्दोलनों की परम्परा का होते हुए भी कई मायनों में मौलिक था। महायुद्ध के क्षेत्र व्यापक होने और लंदन पर बमबारी तथा जापान द्वारा सिंगापुर पर कब्जे के बाद गांधीजी ने अपने आदर्श के अनुरूप आन्दोलन को यह मोड़ दिया कि अंग्रेज सरकार और प्रशासन पंगु न हो और वे युद्ध के लिए आवश्यक साधन भारत में जुटाते रहें। परम शत्रु के प्रति यह सहिष्णुता और दया ही गांधीजी को विश्व का सबसे विरल नेता बनाती है। युद्ध में जर्मनी और सहयोगियों को सफलता मिल रही थी और जापान के द्वारा भारत पर आक्रमण की आशंका थी, इसलिए असहयोग आन्दोलन को सीमित कर दिया गया। व्यक्तिगत स्तर पर कुछ लोगों ने असहयोग जारी रखा।

जापान के आक्रमण का भय और युद्ध के कारण बढ़ती कीमतें तथा जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं की कालाबाजारी के कारण जनता में भय और नैराश्य छा गया। देश में जीवन से पलायन और नैराश्य की भावना को शांताराम की प्रमथेशचन्द्र बरुआ की 'देवदास' पर प्रतिक्रिया स्वरूप बनाई फिल्म 'आदमी' से समझा जा सकता है। शांताराम को यह पसंद नहीं आया कि नायक जीवन के यथार्थ से भागकर शराब में डूबता है और कोठे पर वेश्या के प्रेम को भी अस्वीकार कर देता है। उनकी 'आदमी' का नायक पुलिसवाला तवायफ से प्रेम करता है, तो उसे पत्नी बनाने का साहस भी रखता है। शांताराम को 'देवदास मनोवृत्ति' का यह बचाव भी अरुचिकर लगा कि शराबनोशी नायक का विद्रोह है। बहरहाल गांधीजी ने न 'देवदास' देखी थी और न ही 'आदमी' परन्तु उनके अपने अदृश्य एन्टिना से जनता का नैराश्य और मय छुपा नहीं था। उ लगा कि इतने दशकों में बड़ी मेहनत से नव-जागृति की लहर कहीं फिर विलुप्त न हो जाये। उन्होंने प्रेरणादायक लेख लिखे और राष्ट्र में स्फूर्ति का संदेश देने वाले ओजस्वी भाषण दिए और सम्पूर्ण स्वतंत्रता के प्रति अपने आग्रह को ठोस रूप दिया। अपनी मांग के दोहराव में इस बार भावना की तीव्रता थी और 'करो या मरो' महज नारा नहीं था, वरन् उसमें देश का दृढ़ संकल्प जाहिर होता था।

उस दौर में फिल्म उद्योग में पलायनवादी फिल्मों की संख्या बढ़ती गई। फिल्म निगेटिव का आयात महंगा और कठिन हो गया था। स्टूडियो प्रणाली, जिसके तहत कलाकार और तकनीशियन माहवारी वेतन पर काम करते थे, में सेंध लग चुकी थी। कुछ सितारों ने स्टूडियो अनुबंध से मुक्त स्वतंत्र रूप से अधिक मेहनताने पर काम करना शुरू कर दिया था। काले धन और कालाबाजारी के दौर में फिल्म निर्माण महंगा हो गया था और युद्ध की खबरों के कारण भय और आशंका के वातावरण में दर्शक संख्या कम हो रही थी। 1940 में 171 फिल्में बनीं, तो 1943 में 139 और 1945 में मात्र 99 फिल्में ही बनीं। अराजकता दरवाजे पर दस्तक दे रही थी। मेहबूब खान की 'रोटी' के एक दृश्य में संकेत था कि रोटी नहीं मिलती तो जबरन छीन लो। मारधाड़ वाली फिल्मों तक में भी अराजकता के संकेत होते थे और आज भी वे अनाम तानाशाह के नाम निमंत्रण पत्र की तरह हैं।

समाज और सिनेमा सबसे अधिक आहत था साम्प्रदायिक हलचल से और धर्मनिरपेक्षता की दीवार भी कमजोर हो रही थी। उस दौर के चुनावों में धर्म के आधार पर समुदाय द्वारा अपने धर्म के उम्मीदवार को वोट दिए जा रहे थे। लार्ड कर्जत द्वारा 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध स्वरूप 30 दिसम्बर, 1906 को ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना हो चुकी थी। उस समय मुहम्मद अली जिन्ना ने लीग में शामिल होने से इंकार किया था। मुहम्मद अली जिन्ना ने 1910 में इलाहाबाद में एक सम्मेलन आयोजित किया और आग्रह किया कि मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ मिलकर काम करे। उसी समय जिन्ना ने यह भी घोषित किया कि लीग व कांग्रेस अपने अधिवेशन एक ही शहर में रखें, ताकि सामूहिक ढंग से काम किया जा सके।

1920 में कलकत्ता के ऐतिहासिक कांग्रेस अधिवेशन में हिन्दू-मुस्लिम एकता के आधार पर आन्दोलन करने के प्रस्ताव के पक्ष में 144 मत थे. तो विरोध में 132 थे। उसी अधिवेशन में मुहम्मद अली जिन्ना ने यह विचार अभिव्यक्त किया कि राजनीति और धर्म को नहीं मिलाना चाहिए और हर भारतीय को अपने धर्म या मजहब के परे राष्ट्र की स्वतंत्रता की लडाई लड़ना चाहिए। मुहम्मद अली जिन्ना की पढ़ाई-लिखाई लंदन में हुई थी और वहाँ के प्रिवी काउन्सिल के वे अत्यंत सफल वकील थे। भारत के आन्दोलनों में भी उनका बहुत नाम था। उनका सोच-विचार और रहन-सहन पूरी तरह अंग्रेजों की तरह था। यहाँ तक कि वे भारतीय भाषाओं में सहज रूप से बातचीत भी नहीं कर सकते थे। एक बार गुजरातियों के बीच आयोजित एक समारोह में मुहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजी भाषा में गांधीजी के विचारों और प्रयासों की प्रशंसा प्रारम्भ की तो गांधीजी ने उनसे अनुरोध किया कि सभागृह में सभी गुजरातीभाषी हैं और स्वयं मुहम्मद अली जिन्ना गुजरात में जन्मे हैं, अतः गुजराती में बोलें। जिन्ना ने स्वीकार किया कि उन्हें कोई भारतीय भाषा नहीं आती, यहाँ तक कि उर्दू भी नहीं।

स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में शामिल अनेक नेता लंदन में पढ़े थे। गांधीजी ने 1915 में भारत पहुँचने पर गरीब आदमी सी पोशाख धारण की। पंडित जवाहरलाल नेहरू तो लंदन के श्रेष्ठि वर्ग की पोशाख बनाने वाले सिविल रोड से ही कपड़े बनवाते थे, परन्तु गांधीजी के प्रभाव में विशुद्ध मोटी खादी के कपड़े पहनने लगे। मुहम्मद अली जिन्ना ने आजादी के कुछ समय पूर्व लम्बी शेरवानी धारण की, परन्तु पेन्ट पहनना तब भी जारी रखा। उन्हें तो यह भी नहीं मालूम था कि जश्ने आजादी के समय रमजान का महीना था और दावतें ईद के बाद ही दी जा सकती हैं। इसीलिए लार्ड माउंटबेटन को दिये गये निमंत्रण की तिथि में परिवर्तन करना पड़ा। दरअसल आदमी कपड़ों को पहनता है और कपड़े आदमी को नहीं पहनते। इसलिए पोशाख के आधार पर आचरण का आकलन नहीं किया जा सकता। हमने देखा है कि आजादी के बाद खादीधारियों ने क्या किया। विचारणीय यह है कि मुहम्मद अली जिन्ना की तरह का बुद्धिमान और कांग्रेस को सहयोग देने वाला व्यक्ति इससे विमुख क्यों हुआ ? हम इसे एक विद्वान के पथभ्रष्ट होने की तरह देखते हैं, जबकि उसने मुसलमानों के लिए एक स्वतंत्र एवं आधुनिक देश की कल्पना की थी। वह कभी भी पाकिस्तान में इस्लाम को राष्ट्रीय धर्म घोषित नहीं करना चाहते थे। वे चाहते थे कि सदियों से चले आ रहे हिन्दू-मुस्लिम विरोध से मुक्त ऐसे देश की रचना, जहाँ आधुनिक शिक्षा की सुविधाएं आम आदमी को मिलें और वह सदियों से चली आ रही कुरीतियों से मुक्त हो सके। 1929 में जिन्ना पुनः लंदन में बस गये थे और वकालत में सक्रिय हो गए थे। 1931 में मुहम्मद अली जिन्ना ने एच.सी. आर्मस्ट्रांग की मुस्तफा कमाल अतातुर्क के जीवन पर रची 'ग्रे वोल्फ एन इन्टीमेट स्टडी ऑफ ए डिक्टेटर' पढ़ी और वे अतातुर्क द्वारा अपने देश को आजाद कराकर आधुनिक देश के रूप में ढालने के कायल हो गये थे। जिस तरह का प्रभाव गांधीजी पर रस्किन की 'अनटू द लॉस्ट' का पड़ा था, वैसा ही प्रभाव मुहम्मद अली जिन्ना पर इस किताब का हुआ।

लंदन में 1933 की तीसरी गोलमेज कान्फ्रेंस में न जाने क्यों मुहम्मद अली जिन्ना को आमंत्रित नहीं किया गया, जबकि उसके पहले की चर्चाओं में वे शामिल थे। उनके अहंकार को इससे बहुत ठेस लगी। आहत जिन्ना को इस समाचार से राहत मिली की मुम्बई में उनकी अनुपस्थिति में ही वे एक चुनाव निर्विरोध जीत चुके हैं। अतः 1935 में वे भारत लौटे।

आजाद ख्याल के अत्याधुनिक मुहम्मद अली जिन्ना ने कभी धर्मान्धता को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने 1906 में मुस्लिम लीग में शामिल होने से इन्कार करते हुए मुस्लिम समाज से कहा कि वे गांधीजी के नेतृत्व में हिन्दुओं के साथ मिलकर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करें। उन दिनों कट्टरपंथी मुसलमान उन्हें कांग्रेस व हिन्दुओं का एजेन्ट कहते थे। 1919 के नागपुर अधिवेशन में मुहम्मद अली जिन्ना ने खलीफा की बहाली हेतु प्रारम्भखिलाफत आन्दोलन, जिसे गांधीजी ने विराट रूप देकर असहयोग का आधार बनाया, का भी विरोध किया कि राजनीति और धर्म को अलग-अलग रखा जाये। आज दोनों देशों की आजादी के पैंसठ वर्ष पश्चात् हम देख सकते हैं कि पाकिस्तान तो आतंकवाद की राजधानी बन गया और भारत में धर्मान्धता कहर ढा रही है। यह जो भयावह स्थिति हम आज देख रहे हैं, उसके बीज बहुत पहले बो दिए गए थे।

यह स्थापित तथ्य है कि अंग्रेजों ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद हिन्दू और मुसलमानों को एक दूसरे का बैरी बनाकर शोषण करने की प्रक्रिया को तीव्र कर दिया। जनगणना में धर्म, जाति, उपजाति का पूरा विवरण देना आवश्यक कर दिया। उन दिनों अखबारों में भी अपराध का विवरण प्रस्तुत करते समय अपराधी के धर्म को अवश्य रेखांकित किया जाता था। विचारणीय यह है कि क्या महज अंग्रेजों की 'बांटो और शासन करो' नीति के कारण हिन्दू और मुसलमानों के बीच वैमनस्य का जन्म हुआ और देश का बंटवारा हुआ ? चंगेज खान, गजनी इत्यादि ने भारत पर आक्रमण करके यहाँ मंदिर तोड़े और लूट खसोट की। उनके अत्याचार की कहानियां पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई गई। ध्वस्त मंदिर और लूट खसोट विदेशी आक्रमणकर्ता के साथ जुड़कर अवचेतन में गहरे पैठ गए। बाबर ने अपनी पहली विजय के बाद अपने सैनिकों को निर्देश दिया कि कोई लूट खसोट नहीं की जाए, क्योंकि वे हिन्दुस्तान में बसना चाहते हैं और यहाँ के लोगों से मित्रता करना चाहते हैं। मुगल साम्राज्य की स्थापना के साथ ही गंगा-जमुनी संस्कृति का उदय हुआ। उस समय तक लगातार विदेशी आक्रमणों के कारण भारत एक यकामांदा देश बन चुका था और सांस्कृतिक ऊर्जा भी शिथिल हो गई थी। मुगल अपने साथ पर्सिया की संस्कृति लाए थे, जो शिखर से उतार की अवस्था में आ चुकी थी। इनके विलय से उभरी थी नई संस्कृति। हिन्दुस्तान में एक बड़ा वर्ग कभी मुगलों के भारत में सम्पूर्ण विलय को स्वीकार नहीं कर पाया। उन्होंने पोर्तगीज, फ्रेन्च और ब्रिटिश को कुछ हद तक स्वीकार किया, परन्तु मुगलों को गजनी चंगेजखान की बर्बरता से जोड़े रखा और उनके लिए वे ही एकमात्र विदेशी बने रहे।

मुसलमान भी यह कभी नहीं भूल पाए कि वे कभी शासक वर्ग के थे। इसके साथ ही हर मुसलमान स्वयं को बाबर के साथ आए सैनिकों का वंशज मानता रहा, जबकि निरंतर अन्तर्जातीय शादियां होती रहीं और दबाव में या अपनी सुविधा के कारण धर्म परिवर्तन भी होता रहा। इसके साथ उनके अवचेतन में यह भी भय था कि कहीं उनकी इबादत की स्वतंत्रता नहीं छीन ली जाये। ज्ञातव्य है कि हर धर्म के मर्म को मुलाकर उसको प्रायः हर युग में गलत परिभाषित किया गया है। धर्म का सच तो नदियों की तरह निरंतर प्रवाहित रहता है, परन्तु अपने सीमित बर्तन में कैद उसके पानी को उसका पूरा सच मानने की गलती सदियों से हर जगह दोहराई गई है। धर्म का सबसे अधिक नुकसान धर्म के ठेकेदारों ने अपनी दुकानदारी के लिए गलत परिभाषाएं देकर किया। संस्कृत और फारसी कम लोग जानते थे, अतः मंत्र और आयत तया हदीस का मनमाना अर्थ प्रचारित किया गया।

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय जैसे विद्वान एवं संवेदनशील साहित्यकार ने 'वर्तमान हिन्दू मुस्लिम समस्या' पर कहा कि महात्मा गांधी द्वारा हिन्दू-मुस्लिम एकता के आधार पर स्वतंत्रता संग्राम लड़े जाने के प्रयास की सफलता संदिग्ध है। उनके विचार में दोनों जीवनशैलियां इतनी भिन्न हैं कि उनके बीच कोई सेतु नहीं बन सकता। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के विचार शरतचंद्र से ज्यादा उम्र थे और उनके 'आनंदमठ' में भी नकारात्मक शक्ति ब्रिटिश नहीं, वरन् एक मुस्लिम नवाब है। लोकप्रिय इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने अपनी किताब 'बंगाल के इतिहास' में लार्ड क्लाइव की नवाब पर विजय को भारत में नये अध्याय की तरह प्रस्तुत किया और इसे भारत की विजय के रूप में देखा, जबकि वह अंग्रेजों की हुकूमत का प्रारम्भ था। जदुनाथ सरकार ने अंग्रेजों के राज्य में भारत को उभस्ती आर्थिक शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। वे पुरस्कृत भी हुए और उनके इतिहास को विश्वसनीय भी माना जाता है। वे अपनी साम्प्रदायिकता छिपाने में सफल रहे।

गांधीजी सतह के भीतर प्रवाहित अलगाव, घृणा और पूर्वाग्रह से परिचित थे। भारतीय इतिहास और समाज की उन्हें गहरी जानकारी थी और वे जानते थे कि दोनों समुदायों में एकता और भाईचारा स्थापित किये बिना न केवल स्वतंत्रता संग्राम लड़ना असंभव है, वरन् इसके बिना स्वतंत्रता के बाद देश ठोस और मजबूत भी नहीं बन सकता। गांधीजी में आदर्श के साथ व्यावहारिकता का अभूतपूर्व मेल था। उनका विश्वास था कि अंग्रेजों को परास्त करने का पहला कदम यह होगा कि उनकी विभाजित करके राज्य करने की नीति को तोड़ना होगा। देश में एकता स्थापित होते ही अंग्रेजों के साम्राज्य की नींव हिल जाएगी। खिलाफत मुहीम ने उन्हें मुस्लिम समाज का हृदय जीतने का अवसर दिया। उनका विश्वास था कि परिवार में कमजोर बच्चे को अधिक प्यार देना पड़ता है और उनके इसी विचार को मुसलमानों का अचीवमेंट माना गया और स्वतंत्रता के बाद यह कांग्रेस नीति का अंग हो गया, जिससे मुसलमान वर्ग की भी हानि हुई और हिन्दू समुदाय ने इसे बुरा माना। यही रूठा हुआ समुदाय कट्टरपंथियों के प्रश्रय में चला गया।

गांधीजी प्रायः रामराज्य की स्थापना की बात सार्वजनिक सभाओं में कहते थे। 'रामराज्य' से उनका तात्पर्य हिन्दू राज्य नहीं, बल्कि एक आदर्श राज्य से था, जिसमें समानता, स्वतंत्रता और भाईचारा हो, परन्तु 1937 के चुनाव प्रचार में जाने कैसे पह प्रचार हुआ कि गणतंत्र प्रणाली में एक व्यक्ति को एक मत का अधिकार होता है और हिन्दू बाहत्य देश में हिन्दुओं की सरकारें बनेंगी। उस चुनाव में कांग्रेस की जीत से मुसलमानों के मन में डेमोक्रेसी से भी भय का जन्म हुआ और उनके अवचेतन का यह भय मजबूत हुआ कि कहीं ऐसा देश न बने, जहाँ उन्हें इबादत की स्वतंत्रता न मिले। इस आधारहीन भय को 'दार अल हर्ब कहा जाता है। इबादत तो कहीं भी की जा सकती है, गुलामी की अवस्था में भी की जा सकती है। जगह न हो तो दिल को चादर की तरह बिछाकर भी इबादत की जा सकती है।

दरअसल, 1906 से 1933 तक मुहम्मद अली जिन्ना गांधीजी के समर्थक थे और धार्मिक एकता के आधार पर स्वतंत्रता संग्राम लड़ा जाये इसके प्रबल समर्थक थे। इसके साथ यह भी सच है कि उनका आधुनिकता के प्रति प्रबल आग्रह उन्हें राजनीति में धर्म के समावेश की बात स्वीकार करने की आज्ञा नहीं देता था। उनके जीवन और सोच में परिवर्तन आया 1933 में जब गोलमेज वार्ता में उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया और उन्हीं दिनों मुस्तफा कमाल अतातुर्क की आधुनिकता उन्हें अपने दिल के करीब लगी। अतातुर्क उनकी आत्मा में समा गये। उनको यह यकीन हो गया कि हिन्दू और मुसलमान साथ नहीं रह सकते। मुसलमानों के एक आधुनिक देश के निर्माण के ख्वाबों ने उनकी नींद छीन ली। उनकी महत्वाकांक्षा ने उनसे उनका विवेक छीन लिया। उनके हृदय के भीतर यह द्वन्द जरूर कायम रहा कि क्या वे अविभाजित भारत में अपने सपनों का हिस्सा नहीं रच सकते ? उनका गिरता हुआ स्वास्थ्य भी उन्हें निरन्तर परेशान कर रहा था। गांधीजी से अहंकार का टकराव या नेहरू से ईर्ष्या की बात में दम नहीं है।

स्वतंत्रता संग्राम के इस अंतिम दौर में जब गांधीजी के आदर्श उनकी आँखों के सामने टूट रहे थे, तब केवल फिल्मों में गांधीवाद कायम था। साम्प्रदायिक असहिष्णुता के दौर में सोहराब मोदी की 'पुकार' बनी, जिसमें मुगल सम्राट जहांगीर एक गरीब स्त्री की शिकायत पर अपनी प्रिय पत्नी को दंडित करने का मन बनाते हैं। वे अपने समानता आधारित न्याय प्रियता से डिगना नहीं चाहते थे। उसी दौर में हरिकृष्ण 'प्रेमी' के प्रसिद्ध नाटक 'रक्षाबंधन' से प्रेरित 'चित्तौड़ विजय' बनाई गई, जिसमें एक मुसलमान शहनशाह अपनी राजधानी पर मंडराते खतरे को अनदेखा करके अपनी फौज लेकर अपनी मुँह बोली राजपूत बहन की रक्षा के लिए कूच करता है।

ब्रिटिश सरकार ने युद्ध प्रयासों में भारत की सहायता प्राप्त करने के लिए गांधीजी के आन्दोलनों से संबंधित 17 प्रतिबंधित वृत्तचित्रों पर से अपनी पाबंदी हटा दी और उनके सार्वजनिक प्रदर्शन की आज्ञा जारी कर दी। ये सारे वृत्तचित्र स्वतंत्र निर्माताओं ने अपनी इच्छा और अपने साधनों से बनाए थे। अगर इन 17 वृत्तचित्रों को एकसाथ देखा जाये तो महात्मा गांधी के आन्दोलनों का स्पष्ट रूप उभर कर सामने आता है। गोया कि स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास सेल्युलाइड पर भी लिखा गया है।

गांधीजी ने स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अहिंसा, असहयोग, सत्याग्रह एवं उपवास इत्यादि जिन साधनों का प्रयोग किया, वे सब भारतीय संस्कृति से लिए गए हैं, परन्तु उनके साध्य उन्हें इंग्लैंड में शिक्षा के समय प्राप्त हुए थे। फ्रांस की क्रांति के बाद स्वतंत्रता, गणतंत्र, समानता और भाईचारा आदर्श के रूप में स्थापित हो चुके थे। यह माना जाता है कि किसी जमाने में भारत में गणतंत्र व्यवस्था थी, परन्तु आधुनिक गणतंत्र व्यवस्था के समान वह नहीं थी। हमने अपनी समृद्ध विरासत को बाहरी आक्रमण के पहले अपने अन्तर्विरोध से स्वयं नष्ट किया है। भारत में सामंतवाद का लम्बा इतिहास रहा है और धर्म के नाम पर संघर्ष भी हमेशा हुए हैं। यहाँ तक कि दुर्गा भक्त अन्य आराध्य की भक्ति करने वालों से लड़े हैं। हिन्दू धर्म में भीतरी द्वन्द हमेशा रहे हैं। सर्वकालिक महानतम कवि कबीर ने इस बात का प्रबल विरोध किया है। भारत में धर्म और भाषाओं की विविधता रही है। सम्राट अशोक पहले महान व्यक्ति थे, जिन्होंने अखण्ड भारत की अवधारणा को ययार्य स्वरूप दिया और उनके बाद फिर बिखराव हुआ। शहनशाह अकबर ने देश को एकजुट किया।

गांधीजी का प्रादुर्भाव एक महात्मा और संत की तरह हुआ और इसी स्वरूप की महिमा ने देश को फिर एकजुट किया। कोई राजनैतिक विचारधारा से यह देश बंध नहीं सकता। हमारे यहाँ परिवर्तन के लिए दिव्य आभामंडल आवश्यक है। हम मनुष्य की नहीं देवता की सुनते हैं। अवतारों और अजूबों में हमारा दृढ़ विश्वास रहा है। गांधीजी के प्रभाव वाला कालखण्ड मारत नामक फिल्म में मनोहारी स्वप्न दृश्य की तरह रहा, वह कभी मूल-कथा का अविमाज्य हिस्सा नहीं था। गांधीजी को अपने सपने का टूटना भी देखना पड़ा और वे बुरी तरह आहत भी हए। उनकी अपनी क्रांति उनकी बलि लेने के लिए तत्पर थी। ऐसा इतिहास में अनेक बार हुआ है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उस युद्ध के नायक विन्सटन चर्चिल चुनाव हार गये। वहाँ की जनता ने उन्हें शांति-काल में नेतृत्व सौंपने से इन्कार कर दिया और भारत की स्वतंत्रता की राह में आखरी बाधा वहाँ की जनता ने ही हटा दी।

आयशा जलाल ने विभाजन पर अपनी किताब में यह जिक्र किया है कि मुहम्मद अली जिन्ना ने मुसलमान के लिए पचास प्रतिशत निर्वाचन क्षेत्रों में आरक्षण की मांग की, जिसके अस्वीकृत होने पर वे विभाजन ही चाहते थे और यह महज उनकी धमकी थी, जिसका इस्तेमाल वे अपनी आरक्षण की अव्यावहारिक मांग पूर्ति के लिए करना चाहते थे। उन्हें विश्वास था कि महात्मा गांधी कभी विभाजन को स्वीकार नहीं करेंगे और उनकी पूरी नहीं तो आंशिक शर्तें मान ली जाएंगी। वे एक योग्य वकील थे और उनका ख्याल था कि भारत की अदालत में उनके हक में फैसला होगा, परन्तु गांधीजी को हाशिये में ढकेलने वाले कांग्रेस नेतृत्व ने मुहम्मद अली जिन्ना को अपनी धमकी से पीछे हटने की जगह ही नहीं दी। आयशा जलाल द्वारा प्रतिपादित यह बात बाद में अनेक लेखकों ने दोहराई है, परन्तु आयशा जलाल का उल्लेख नहीं किया। मुहम्मद अली जिन्ना की आक्रामकता उनके अदालती दांवपेंच की तरह थी।

दरअसल, आज भी अनेक लोग विभाजन के लिए जिन्ना को जवाबदार मानते हैं। कुछ लोग हुकूमते बरतानिया को उत्तरदायी ठहराते हैं और ऐसे लोगों की भी कमी नहीं, जो महात्मा गांधी को दोष देते हैं। विभाजन की प्रवृत्तियां हिन्दुस्तान की अपनी सदियों पुरानी कमी है। हम धर्म के नाम पर जगाए जुनून का शिकार हो जाते हैं। गांधीजी ने अपने जादुई प्रभाव से हमें कई वर्ष तक एक रखा और भाईचारे की भावना छाई रही। परन्तु अलगाव के प्रति हमारे पूर्वाग्रह अत्यंत मजबूत थे, अतः अन्ततः विभाजन होकर रहा।

निर्णय के उन संकट के दिनों में अनेक शहरों में साम्प्रदायिक दंगे छिड़ गये। अफवाहों के अंधड़ ने कहर ढाया। हालात कुछ ऐसे हो गये कि अनेक शिखर नेताओं को लगा कि विभाजन स्वीकार करके इस आग को शांत कर दें। उस दौर में गांधीजी एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने दंगों के क्षेत्र में सर्वाधिक दौरे किये। कलकत्ता में दंगाग्रस्त क्षेत्र की सड़कों पर कांच के टुकड़े बिछे थे। सीधे चलना दुश्वार था, परन्तु गांधीजी ने जीवन में कभी आंकी बांकी सुविधाजनक पगडंडी स्वीकार नहीं की थी। सड़क पर बिछे कांच से अधिक उनकी आंखों में अपने ध्वस्त आदर्श के नुकीले शूल चुभ रहे थे। उन्होंने दंगा पीड़ित क्षेत्र में मुसलमान के घर रहने का निश्चय किया। उनके हर आदर्श कदम के खिलाफ मनगढंत अफवाहें फैलाई जा रहीं थीं। हिन्दू और मुसलमान के धर्म के भवनों के नीचे बने तलघरों से शैतानी ताकतें बाहर निकल कर आ रहीं थीं। विभाजन के समय फिल्म उद्योग में से थोड़े से लोग ही सरहद पार गये, जब अन्य क्षेत्रों में असहिष्णुता का दौर चल रहा था, तब भी फिल्म उद्योग में हिन्दू-मुस्लिम एकता कायम रही, परदे पर और परदे के पीछे भी। तलघरों को ही असली भवन मानने वालों को नृशंस हिंसा के दौर में आनन्द प्राप्त हो रहा था। जहाँ पंजाब में भारी संख्या में मौजूद फौजी जवान दंगों को रोक नहीं पा रहे थे, वहाँ, कलकत्ता में गांधीजी ने अकेले ही शांति स्थापित करने में सफलता पाई।

बापू को 1944 में दो आघात लगे। उनके विश्वस्त सचिव महादेव भाई देसाई का और 22 फरवरी, 1944 को उनकी पत्नी कस्तूरबा का निधन हुआ। यह महज इत्तफाक है कि भारत में कथा फिल्म के जनक धुंडिराज गोविंद फाल्के का निधन 16 फरवरी 1944 को हुआ। इसके बाद के घटनाक्रम में राजनैतिक उथल-पुथल और साम्प्रदायिकता की आग से गांधीजी भीतर से बिखर रहे थे। उनके लिए अपने आदर्श का लहुलूहान होना आत्मा पर आघात की तरह था। जनवरी 1948 में उनकी हत्या के दो प्रयास विफल हुए थे, परन्तु उन्होंने अतिरिक्त सुरक्षा का विरोध किया। उन्हें मृत्यु से कोई भय नहीं था। 30 जनवरी को नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। गांधीजी के मुँह से निकला 'हे राम'। बचपन में उन्हें सिखाया गया था कि अंधकार के समय राम का जाप करने से भय नहीं लगता। उस क्षण गांधीजी ने अपनी आँखों के सामने अंधेरा देखा और आज इतने दशकों बाद हम उस अंधेरे को गहरा होते महसूस करते हैं।

नाथूराम गोडसे ने पिस्तौल का घोड़ा दबाया था, परन्तु सब जानते हैं कि घोटा दिमाग में होता है। नाथूराम गोडसे के दिमाग में जहर और हिंसा जिन्होंने भरी उन्हें कातिल नहीं ठहराया गया। दूसरों के दिमागों को संचालित करने वाले बहुत शातिर होते हैं। गांधीजी की हत्या के पहले उनके आदर्श धराशायी हुए थे, परन्तु गोडसे के मस्तिष्क को संचालित करने वाली शक्तियां आज भी सक्रिय हैं। आम भारतीय की सबसे बड़ी शक्ति और सबसे गहरी कमजोरी हमेशा धर्म रहा है। वह जीवन के असमान बुद्ध में निहत्या ही सतत् युद्धरत रहता है और अन्यायपूर्ण दमनकारी व्यवस्या में उसका एकमात्र संबल उसकी धार्मिक आस्या ही रहती है। दुनियादार विद्वान उसके लिए धर्म की ऐसी व्याख्या करते हैं कि वह भयभीत होकर कर्मकाण्ड में अपनी ऊर्जा को खो देता है। उसके लिए श्राप गढ़े गये हैं, आशीर्वाद भी रचा गया है। ऋषि-मुनि अपने विकारों पर विजय प्राप्त करने के बाद सिद्ध कहलाते हैं। ऐसे लोगों को क्रोध में आकर ग्राप देते बताया जाता है। सबसे भयावह बात यह कि आम आदमी से उसकी अपनी शक्तियों पर विश्वास घटा दिया जाता है। उसे यह यकीन दिला दिया जाता है कि उसका जीवन किसी और के खेलने का माध्यम मात्र है। गांधीजी धर्म की असल व्याख्या करने का प्रयास करते थे। धर्म दूसरे धर्म का आदर करना सिखाता है, भाईचारा सिखाता है। जब असहयोग आन्दोलन में 'अल्लाह हो अकबर' के नारे का उन्होंने समावेश किया, तब उनके अनजाने और अनचाहे ही धर्म के नाम पर संकीर्णता का प्रचार करने वाले उनसे नाराज हो गये। उनकी हत्या के षडयंत्र का बीज बोया जा चुका था। इसी तरह उनके द्वारा बार-बार रामराज्य की स्थापना की बात करने के कारण संकीर्णता के शिकार मुस्लिम भी उन्हें नापसंद करने लगे। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता को स्वतंत्रता संग्राम का आधार मानते थे और दोनों धर्मो के संकीर्ण विचार वाले लोग उनके ही खिलाफ हो गये। उन्हीं की तरह मुहम्मद अली जिन्ना का अतातुर्क की तरह आधुनिकता से ओतप्रोत देश रचने का ख्वाब भी टूटा। उनकी हत्या नहीं हुई, परन्तु उनके आदर्श भी भंग हो गये

ज्याँ पाल सार्च की अंतरंग मित्र और नोबल पुरस्कार विजेता सिमॉन द ब्यूव् की किताब 'द कमिंग ऑफ एज' में वृद्धावस्या का गहन अध्ययन प्रस्तुत किया है। उन्होंने अनेक महान लोगों के जीवन के अंतिम दौर में उनकी मानसिक व शारीरिक अवस्था का अध्ययन उस कालखण्ड के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। उनका विचार है कि गांधीजी के शरीर ने कभी उनके साथ दगा नहीं किया। उपवास और त्याग में तपा उनका शरीर अंतिम क्षण तक अभेद और मजबूत था। उनकी मजबूती का राज उनके जीवन मूल्यों के साथ ही उनका प्रतिदिन मीलों पैदल चलना भी था। दरअसल आज तक यह आकलन नहीं किया गया कि पूरे जीवन में वे कितने लाख मील चले। वे कई बार सौ साल से अधिक जीने के विश्वास को अभिव्यक्त कर चुके थे। दरअसल वे उन विरल उम्रदराज लोगों में एक थे, जिनका शरीर और संवेदनाएं लगभग अंतिम क्षण तक उम्र से अप्रभावित रहीं। परन्तु उनका सौ वर्ष पार करने का विश्वास और उमंग हिन्दू-मुस्लिम दंगों ने तोड़ दी। इन भयावह दंगों के कारण कांग्रेस को लगा कि विभाजन स्वीकार करने से ही ये रुक सकते हैं। उन्हें उस समय यह अनुमान भी नहीं था कि विभाजन जख्मों की ऊपरी मरहमपट्टी सिद्ध होगा और भीतर जमा मवाद समय-समय पर बाहर निकलता रहेगा। बहरहाल, 14 जून, 1947 को विभाजन को स्वीकार कर लिया गया और गांधीजी की आत्मा लहुलूहान हो गई। उन्होंने विभाजन को आध्यात्मिक त्रासदी माना।

सारी उम्र उन्होंने भारत की स्वतंत्रता का सपना देखा था, परन्तु 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता मिलते समय गांधीजी भीतर से टूट गये। वे स्वतंत्रता की घोषणा वाले समारोह में भी नहीं गये। उनके जीवन मूल्य और आदर्श ध्वस्त हो चुके थे। उन दिनों वे प्रार्थना करते थे कि हे ईश्वर तुम अगर मुझसे थोड़ा भी स्नेह करते हो तो मुझे इस रक्तरंजित धरती से उठा लो। अब एक क्षण भी जीने की इच्छा नहीं है। उन दिनों उनके व्ययित हृदय में बार-बार यह गूंजता था कि क्या उनके भीतर कुछ गलत हो गया है ? वे ताउम्र प्रकृति के साथ तारतम्य बनाकर जिये थे, परन्तु उन दिनों उनको लगता कि वे अपना मानसिक संतुलन खो रहे हैं। सिमॉन द ब्यूव् का विचार है कि गांधीजी 'काउंटर क्लोजर' अर्थात 'प्रति समापन' का शिकार हुए। यह ज्याँ पॉल सार्त्र की अवधारणा थीं। यह न बच पाने वाला क्षण इतिहास की गति का हिस्सा है। एक महान व्यक्ति सारी उम्र के संघर्ष के बाद विजय के क्षण में निष्क्रिय और असहाय हो जाता है। जवानी में मर जाने वाले इस वैचारिक उलट-फेर को नहीं देख पाते। आपके जीवन का अर्थ आपकी आँखों के सामने अनर्थ में बदल जाता है। मासूम आइंस्टिन भी काउंटर क्लोजर के शिकार हुए थे।

सिमोन द न्यू आगे लिखती हैं कि पंडित जवाहरलाल नेहरू को इस भयावह त्रासदी का पूर्वानुमान हो गया था। धर्मान्धता और उसकी हिंसा का तांडव गांधीजी के धर्म और राजनीति को अलग न कर पाने के निर्णय में ही अन्तर्निहित या और यह उनका अनसोचा अनचाहा था। अपने अहिंसा के आदर्श में आकंठ लिप्त गांधीजी दोनों समुदायों के भीतर धधकती हिंसा को नहीं देख पाये, क्योंकि उनके लिए उनके आदर्श निर्मम यथार्थ से बड़े थे। उनके लिए साध्य और साधन दोनों की पवित्रता समान रूप से आवश्यक थी। यह गांधीजी के लिए कितनी बडी त्रासदी थी कि उनके महान जीवन मूल्य और आदर्श उनकी आँखों के सामने न केवल टूट गये, वरन् उनके विपरीत हिंसा और नफरत की आंधी भी चलने लगी।