एक उपेक्षित वर्ग के दु:ख दर्द / जयप्रकाश चौकसे

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एक उपेक्षित वर्ग के दु:ख दर्द
प्रकाशन तिथि : 24 जनवरी 2014


आदित्य चोपड़ा और आमिर खान ने कल रात 'धूम तीन' के अखिल भारतीय प्रदर्शकों को फिल्म की सफलता की दावत दी। उद्योग के इतिहास में पहली बार सिनेमाघर के मालिक और सिनेमाघरों की श्रंखला के बुकिंग एजेंट को निर्माता और सितारे ने दावत दी थी। फिल्म उद्योग का निर्माण पक्ष सदैव ही वितरण एवं प्रदर्शकों के सहयोग को अनदेखा करता रहा है। यह तो दर्शक द्वारा दिए गए धन में अपना निजी धन मिलाकर सिनेमाघर के मालिक निर्माताओं को फिल्म बनते समय पैसा भेजते रहे हैं जिस आर्थिक योगदान ने निर्माण पक्ष को मजबूती दी है और एक तरह से फिल्म ही एकमात्र उद्योग है जिसमें उपभोक्ता की धनराशि से 'प्रोडक्ट' बनता रहा है। अन्य उद्योगों में माल बिकने के बाद मूल्य मय मुनाफे के आता है जबकि सिनेमा उद्योग में फिल्म निर्माण के समय ही आंशिक लागत उपभोक्ता द्वारा सिनेमा मालिकों के माध्यम से निर्माता को मिलती है और यह रिश्ता ही इसे अन्य उद्योगों से अलग भी करता है।

भारतीय प्रदर्शन क्षेत्र में अनगिनत सिनेमा प्रेमियों ने सिनेमाघरों का निर्माण किया और उसका रखरखाव उसी भावना और जोश से किया जिससे फिल्में बनाई जाती हैं। विगत बीस वर्षों में आर्थिक सुधारवाद के तहत पनपे मल्टीप्लेक्स के दौर में जब तथाकथित विकास के कारण जमीन के मूल्य आसमान छूने लगे तब भी सिनेमा प्रेम के कारण ही अनेक लोगों ने सिनेमाघर को बनाए रखा। जबकि उसमें उनको लाभ मिलना बंद हो गया था। इस तथाकथित विकास के मॉडल में अंतर्निहित विनाश ने अनेक एकल सिनेमाघर लील लिए परंतु कुछ सिनेमा प्रेमियों ने अपने सिनेमा बचाए रखे। दरअसल भारत के वो आम सिनेमा प्रेमी जिनके जुनून के कारण 85 प्रतिशत असफल फिल्में बनाने वाला उद्योग भी सौ वर्ष तक जीवित रहा है, केवल एकल सिनेमाघरों में ही वाजिब दरों पर फिल्में देख सकते हैं। मल्टीप्लेक्स में श्रेष्ठी वर्ग के साथ विगत बीस वर्षों में उभरा नौकरी पेशा मध्यम वर्ग ही महंगे टिकिट खरीदकर फिल्म देख सकता इस उपेक्षित वर्ग को आदित्य चोपड़ा और आमिर खान ने आदर दिया जिसकी सराहना की जानी चाहिए। तमाम फिल्म पुरस्कार समारोहों में सितारों और तकनीशियनों को पुरस्कार से नवाजा जाता है परंतु वितरण एवं प्रदर्शन क्षेत्र को इन तमाशों से अलग रखा गया है। गोयाकि जलसा घर को ही जलसे से मुक्त किए जाने की उलटबासी रची जा रही है। अनेक सिनेमाघर के मालिक रखरखाव में व्यक्तिगत रुचि लेते हैं और फिल्म की असफलता का ठीकरा भी उनके माथे पर इस तरह फूटता है कि उनके द्वारा दी गई अग्रिम राशि या तो लौटती ही नहीं और लौटती भी है तो बहुत देर से। इसी तरह ड?बा फिल्म से क्रोधित दर्शक सिनेमाघर की कुर्सियां तोड़ देते हैं, परदे पर पत्थर फेंकते हैं। जब कोई कलाकार किसी कारण जेल जाता है या उस पर कोई देशद्रोह का आरोप हो तो राजनीति से प्रेरित हुड़दंगी सिनेमाघर को नुकसान पहुंचाते है जबकि उसका कोई अपराध नहीं था।

दरअसल आम आदमी के आक्रोश का खामियाजा प्राय: निर्दोष लोगों को भुगतना पड़ता है। आम आदमी द्वारा फेंका पत्थर कभी सही निशाने या अपराधी के सिर पर नहीं पड़ता। सारे आंदोलनों की असली हानि भी आम आदमी और राष्ट्र की संपति को ही झेलनी पड़ती है। जो स्वार्थी शक्तियां आम आदमी के हाथ में पत्थर देती हैं वो शक्तियां हमेशा बची रहती है-शीशे का घर तो आम आदमी का ही है।

यह गौरतलब है कि अमेरिका में सिनेमा के प्रारांभिक चरण में शहर से दूर मिलों और कारखानों के क्षेत्रों में प्रदर्शन की व्यवस्था हुई। परंतु सिनेमा प्रेमी भारत में सिनेमा घर शहर के बीच में धनी बस्ती में बने हैं और इस नई विधा सिनेमा का जादू ही कुछ ऐसा था कि प्रारंभ होते ही अनेक छोटे बड़े शहरों में सिनेमाघर बनाए गए। जिस तेजी से भारतीय लोगों ने सिनेमा को स्वीकार किया उस तेजी से विज्ञानजनित अन्य चीजों को नहीं लिया गया। क्योंकि विज्ञानजनित यह माध्यम कथा कहता है और हम भारतीय अनन्य कथा प्रेमी हैं। हमारे लिए अफसाने हकीकत से ज्यादा महत्वपूर्ण रहे हैं। प्रांतीय सरकारों को एकल सिनेमाघरों के मालिकों को हर संभव मदद करनी चाहिए।