एक उम्मीद और / अभिमन्यु अनत

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साँचा:GKUpanyaas


1 पहले एक स्पन्दन हुआ था। और तब पैदा हुआ था वह पहला सवाल। इसके बाद कई सवालों का सिलसिला शुरू हो गया था। कहाँ था मैं ? इस तरह का खयाल इधर कई बार पैदा हुआ। इसके साथ और भी कई सवाल जिनमें एक का भी उत्तर मुझसे नहीं बन पा रहा था। मैं सवालों के चक्रवात में ही था कि मुझे किसी की आवाज सुनाई पड़ी। -अँधेरा है, कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा। बत्ती तो पहले जलाओ। इसके बाद इस मधुर आवाज से एकदम भिन्न कुछ मोटी सी आवाज आई। -ठीक है। लो रोशनी आ गई। देखो तुम्हारे मुन्ने के लिए क्या लाया हूँ। फिर वह पहलीवाली सुरीली आवाज। -गुड़िया ? पर अगर वह आपकी इच्छा के विपरीत हुआ और लड़की न होकर लड़का हुआ तो ? खैर जनमते ही उसे अपने लड़का या लड़की होने का बोध थोड़े ही हो जाएगा। वैसे भी मेरा छोटा भाई तो साल-भर का हो गया था और अपनी गुड़िया को अपने से चिपकाए रहता था। -देखो प्रिया, हम दोनों के बीच यह तय था कि हमारा पहला बच्चा लड़की हो।

-आपकी चाह थी, मैं मान गई थी। पर लड़का हुआ या लड़की यह तो ऊपरवाले के चाहने से होता है। पर लड़का हो या लड़की मैं तो माँ ही रहूँगी और आप बाप ही रहेंगे और जनमनेवाला हमारी औलाद ही रहेगा। धीरे-धीरे बात मेरी समझ में आने लगी थी। मैं आवाजें तो सुन पा रहा था पर मुझे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। समझ में आ गया कि मैं अँधेरे में था। यह भी समझ सका कि देख पाने के लिए रोशनी की आवश्यकता होती है। पर यह रोशनी आएगी कैसे ? कुछ देर बाद मैंने एक तीसरी आवाज सुनी। -बहू ! तुम इस तरह झटके के साथ पलंग से न उठा करो। पेट के भीतर के बच्चे के लिए झटका अच्छा नहीं होता। दोनों में बातें होती रहीं। मैं सुनता रहा। पहले भी कुछ-कुछ सुनता रहा था। समझना चाहता रहा था। अब बात कुछ समझ में आने लगी। मैं अपनी माँ के पेट में था। अभी मेरे जनमने में कई दिन बाकी थे। पर ये दिन कितने लम्बे या छोटे होते हैं, इसका मुझे कोई आसार नहीं मिल सका। बाद में बस इतना जान सका कि सुबह होती है, दिन होता है, फिर रात होती है और फिर सुबह होती है। फिर दिन होता है, फिर रात होती है और फिर सुबह होती है, फिर दोपहर, फिर शाम, फिर रात, फिर दिन...।

मेरे अपने भीतर जनमने की इच्छा बढ़ती गई। अपने माँ-बाप को देखने की बेसब्री प्रबल होती गई। और जिस दिन अपनी दादी को माँ से यह कहते सुना कि उसने दुनिया देखी थी-मैं भी दुनिया देखने को बेताब हो गया। दिन-रात बीतते गए और मैं दिन और रात के बीच में अन्तर जानने लगा। जब मैं अपने बाप को माँ का माथा चूमने और उस चुम्बन की धीमी आवाज को सुनता और माँ को यह कहते पाता-शाम को जल्दी लौटना-तो समझ जाता कि सुबह का वक्त था और दिन की शुरुआत थी। जब दादी को रामायण गाते सुनने को मिलता तो समझ जाता कि रात की शुरुआत हो रही थी। गहरी खामोशी जब छा जाती तो उसे रात मानकर मैं दिनवाली नींद से अधिक गहरी नींद में खो जाता। समय का अन्दाजा मुझे उस समय तनिक भी नहीं रहता जब रात में मेरे माँ-बाप देर तक बातें करते रह जाते। मैं भी जागता रहता फिर भी समय का सही अन्दाजा मुझसे नहीं हो पाता।

मेरी माँ को हमेशा मेरे बाप के सो जाने के बाद ही नींद आती थी। उस समय मेरी माँ मुझसे बातें करती रहती। मैं उसे सिर्फ सुन पाता और चाहकर भी उसकी बातों का कोई उत्तर नहीं दे पाता। पहला सवाल जो मैंने अपनी माँ से सुना था-तुम जनमने में देर क्यों कर रहे हो मुन्ने ? अभी कुछ क्षण पहले मेरी माँ ने मुझसे यह कहा था-मुन्ने, इस घर का हर आदमी तुम्हारे आगमन का बेसब्री के साथ इन्तजार कर रहा है। मैंने अपने चाचा और छोटी फूफू के बीच अपने ऊपर बाजी भी लगते सुना-चाचा का दावा था कि उसे एक भतीजा मिलनेवाला था और फूफी को भतीजी पाने का यकीन था। दोनों के बीच चाचा के लिए नई कमीज और फूफू के लिए नई साड़ी का दाँव भी लग गया था। अब तक तो घर के हर एक सदस्य की पूरी जानकारी मुझे मिल गई थी। सात व्यक्तियों में जिनमें घर की नौकरानी सुजाता भी थी तीन चाचा के पक्ष में थे और दो फूफू के साथ। मैंने अपने आपसे यह जानना चाहता कि मैं लड़का था या लड़की पर कुछ तय नहीं कर पाया।

मैंने जिन आवाजों को सुनता रहता था उनमें माँ की आवाज मुझे सबसे अधिक अच्छी लगती थी। कई बार घर के लोगों की आवाजों के अलावा मैं कुछ नई आवाजें भी सुन जाता था। ये उन लोगों की आवाजें थीं जो माँ से मिलने आते थे। ठीक मेरी माँ की तरह मुझे अपनी चाची की आवाज भी बहुत प्यारी लगी थी। माँ और चाची, जब बातें करती होतीं तो पता नहीं चलता कि कौन वाली माँ की आवाज थी और कौन चाची की। यह तो बाद में पता चला कि माँ और चाची दोनों चचेरी बहनें थीं। मेरी चाची मेरी माँ से तीन साल छोटी थी। मैं यह जानने में लगा रहा कि क्या मेरे आगे-पीछे भी कोई जनमनेवाला था या कि मैं अकेला था। अपनी माँ की बातों को सुन-सुनकर मैं यह चाहने लगा था कि मैं अकेला जनमूँ ताकि माँ जो कुछ मेरे साथ कहती रहती थी वे सब केवल मुझे ही मिलते रहें। वह बोलती-तुम्हें अपनी बाँहों में झुलाती रहूँगी-तुम्हें लोगों की नजरों से बचाती रहूँगी-तुम्हें अपनी आँखों का तारा बनाए रखूँगी। मैं इन सारी बातों का सही अर्थ न समझकर भी यह माने बैठा था कि वे मेरे लिए बड़े महत्त्व की बातें होंगी। शाम को माँ और दादी की बात से माँ कुछ हताश सी हो गई कि मेरे जनमने में अभी चालीस दिन बाकी थे। चालीस की संख्या का सही ज्ञान मुझे नहीं था पर जिस ढंग से दादी ने चालीस का उच्चारण किया था उससे वह छोटी अवधि प्रतीत नहीं हुई। इधर रात में जब माँ और मेरे बाप के बीच बातें होतीं तो अपने बाप की बातें मुझे कम सुनाई पड़तीं। इसका कारण मुझे तब पता चला जब मैंने अपने बाप को यह कहते सुना।

-...नहीं प्रिया, मुझे नीचे बिस्तर पर सोने में कोई तकलीफ नहीं होती। तकलीफ तो बस इस बात की होती है कि तुम मेरी बगल में नहीं होती हो। माँ की बातें साफ सुनाई पड़ती थीं और पलंग के नीचे सोये मेरे बाप की बातों की सिर्फ हल्की झलक ही मिल पाती थी। अपने बाप की बातों का कुछ अंश माँ की बातों से समझ में आ जाता था। माँ की बातों से पता चलता रहा कि वह मेरी माँ को कितना चाहता था। उसका कितना खयाल रखता था। माँ बोली थी। -आप मेरे ऊपर सभी कुछ निछावर कर जाने को तैयार रहते हैं और मैं हूँ कि आपका पहले जैसा खयाल नहीं रख पा रही। -मेरे बच्चे का खयाल रखकर मेरे ही ऊपर तो खयाल रखती हो। पाँच लम्बे वर्षों की प्रतीक्षा के बाद यह सुनहला अवसर आया है। जानती हो प्रिया हम अपनी बच्ची को वकील बनाएँगे। नहीं, डॉक्टर बनाएँगे। -और लड़का हुआ तो ? -हमारी पहली औलाद लड़का होगी। -हाँ, मैंने सोचा मेरा बाप यही कह गया होगा। -इधर कुछ दिनों से माँजी मुझे गौर से देखते रहने के बाद बताऊँ क्या कहती हैं ? मेरे बाप ने कुछ कहा पर मैं सुन नहीं पाया। लगा कि वह कोई बहुत छोटा सवाल रहा होगा तभी तो माँ तुरन्त कह उठी। -उन्हें अब पूरा विश्वास हो गया है कि हमारा यह पहला बच्चा लड़का होगा ? मेरे बाप ने कुछ कहा, फिर माँ बोली। -अगमज्ञानी न सही पर जीवन का अनुभव तो है उनके पास। -इसके बाद मुझे अपने बाप की खर्राटें सुनाई पड़ने लगी थीं।

2 अगले दिन घर के लोग नौकरी के लिए निकल चुके थे। मेरी दादी जो घर से बहुत कम निकलती थी मेरी माँ के पास आकर बोली। -मैं मन्दिर जा रही हूँ बेटी। तुम कोई भारी काम मत करना, मैं भगवान को प्रसाद चढ़ाकर जल्दी ही लौट आऊँगी। सुजाता ! बहरी है क्या ? बहू को देखते रहना। मैंने एक बार अपनी दादी को मेरी छोटी चाची से यह कहते सुना था कि भगवान हर जगह रहता है। इसलिए यह नहीं समझ पाया कि जब भगवान हर जगह होता है तो दादी हर गुरुवार को भगवान के दर्शन के लिए मन्दिर क्यों जाती हैं। मैं अपने आपसे पूछ बैठा। -क्या हमारे घर में भगवान नहीं ? मेरी दादी हर शाम रामायण का जो पाठ करती हैं उसमें माँ को शामिल करने के लिए कुछ दिन पहले बोली थी। -प्रिया बेटी ! तुम भी आकर भगवान रामचन्दर की प्रतिमा के सामने बैठकर रामायण का पाठ सुन लिया करना। तुम्हारे और बच्चे-दोनों के लिए अच्छा रहेगा।

इससे तो साफ जाहिर था कि घर में भगवान था तो फिर घर के भगवान को छोड़ बाहर जाने की जरूरत दादी को क्यों पड़ती थी ? पर मेरे इस प्रश्न का उत्तर मुझे कौन देता। दादी के जाने के थोड़ी ही देर बाद मैंने अपनी माँ को बातें करते सुना। पर वह किससे बात कर रही थी यह नहीं जान सका क्योंकि माँ जिससे बातें कर रही थी उसकी आवाज मुझ तक पहुँच नहीं पा रही थी। मैं माँ को थम-थमकर बोलते हुए सुनता जा रहा था। -तुम्हें पहले ही बता चुकी हूँ कि हम दोनों के बीच ऐसा कोई रिश्ता बाकी नहीं जिसके लिए तुम्हारा मुझसे मिलना जरूरी हो। -...। -नहीं, एक क्षण के लिए भी ऐसा सम्भव नहीं हो सकता। -...। -मैं घर से बाहर निकलने की स्थिति में होती तो भी तुमसे मिलने नहीं आती।

मैं समझ नहीं पाया कि माँ जिससे बातें कर रही थी उसको मैं क्यों सुन नहीं पा रहा था। कहीं ऐसा तो नहीं था कि माँ अकेले में आपसे बातें कर रही थी जैसा कि मुझसे करने की वह आदी थी। मेरा भी तो कोई जवाब नहीं होता था। तभी मैंने माँ को ऊँचे स्वर में बोलते सुना। -तुमने यहाँ आने की कोशिश की तो मैं जान दे दूँगी। मैं डर गया। अपनी माँ के पूरे बदन के काँप जाने की अनुभूति मुझे हुई। मैं भी काँप उठा। यह जान देनेवाली बात मैंने अपने चाचा से सुनी थी एक बार। वह बोले थे कि उसके दफ्तर की एक लड़की ने दफ्तर की खिड़की से कूदकर जान दे दी थी। उसके साथ उसके पेट में जो बच्चा था वह भी मर गया था। मेरी दादी ने उसे डाँटते हुए कहा था कि वह अपनी गर्भवती भाभी के सामने आत्महत्या जैसी मनहूस बात क्यों बता रहा था। मैं चिल्ला-चिल्लाकर अपनी माँ से पूछता रहा। -माँ, तुम अपनी जान क्यों देना चाहती हो। नहीं माँ....तुम ऐसा मत कहो..तुम जान दे दोगी तो मैं धरती पर कैसे पहुँचूँगा। तुम मुझे अपनी बाँहों में कैसे झुलाओगी ? कौन मुझे अपनी आँखों का तारा बनाएगा। कौन ? कौन माँ कौन ? लेकिन जिस तरह मैं अपनी माँ से बात करनेवाले की आवाज नहीं सुन पाई ठीक उसी तरह मेरी माँ मेरी आवाज नहीं सुन पाई।

और मैं काफी लम्बे समय तक अपनी माँ की आवाज सुन पाने से महरूम रहा। केवल उसकी धड़कने सुनता रहा। वह मेरी दादी की आवाज थी जो मैं सुन पाया। -क्यों बहू, इस तरह उदास क्यों बैठी हो। लो भगवान का प्रसाद लो। मेरी माँ की खामोशी बनी रही। मैं उस बिन आवाजवाले व्यक्ति के बारे में सोचता रहा। अभी उस दिन मेरी माँ देर तक मुझे अपने और मेरे बाप के बारे में बताती रही थी फिर यह बताने लगी थी कि वे दोनों और उनके साथ-साथ इस घर का हर एक प्राणी मुझे कितना प्यार करेगा। -बता नहीं पाऊँगी मुन्ने। और फिर बोली थी। -तुम भी सोच नहीं सकते। पर अब तो मैं सोचने लगा था।

पहली बार जब मैंने रेडियो से संगीत और गाने सुने तो समझ ही नहीं पाया था कि वह क्या था। पहले तो सारा कुछ शोर-सा लगा था लेकिन जब अपनी माँ को धुन-से-धुन मिलाकर गाने गुनगुनाते सुना तो मुझे भी संगीत बेहद भाने लगा। मेरा अपने आपसे यह पूछते रहना बना ही रहता कि इतनी अच्छी लगनेवाली ये आवाजें क्या थीं। वह तो घरवालों की बातों ही बातों के दौरान रेडियो, संगीत, कासेट, टेपरेकॉर्डर, टेलीविजन तथा गाने आदि के शब्द सुनने-समझने के बाद ही कुछ समझ में आने लगा था। पर बहुत कुछ समझ कर भी बहुत कुछ बिन समझे रह जाता था। मेरे बाप ने जब मेरी माँ को एक कासेट देते हुए कहा था कि उसमें लता मंगेशकर के बारह गाने थे तो मैं यह सोचने लगा था कि वह कितनी बड़ी टोकरी होगी जिसमें इतने सारे गाने समा सकते थे। अपनी दादी को मैं माँ से यह कहते कई बार सुन चुका था कि उसे भारी बोझ नहीं उठाना चाहिए। सोचता रहा आखिर माँ उन सभी गानों को कैसे थाम पाई होगी। माँ के साथ-साथ मैं भी उन गानों को बार-बार सुनता रहता था। उन गानों में एक ऐसा भी गाना था जो मैंने जब भी सुना मुझे नींद आ गई। यहाँ तक कि जब माँ भी उस गाने को गुनगुनाती तो मैं सो जाता था। मैं उस वक्त हल्की नींद में सो रहा था जब गानों से भी तेज घनघनाहट हुई। जब वह घनघनाहट तीन-चार बार होती रही तो मैंने माँ को आवाज देकर छोटी चाची को कहते सुना।

-सुजाता ! फोन बज रहा है। दूसरे ही क्षण वह घनघनाहट बन्द हुई और इस बार छोटी चाची की आवाज सुनाई पड़ी। -दादी, आप ही का फोन है। मैंने माँ को पलंग पर से उठते महसूस किया। उसकी तेज धड़कनों को सुना फिर उसकी आवाज को। -हैलो कौन बोल रहा है। -...। फिर से माँ ही बोली। -मैंने तुम्हें फोन करने से मना किया था।...नहीं, मैं एक सेकेंड भी तुम्हें सुनने को तैयार नहीं। फिर दादी को कहते सुना। -कौन है बहू ? -गलत नम्बर मिल गया कोई। माँ की आवाज के साथ ही झटके की आवाज हुई और फिर पूरी खामोशी।

रात में मेरी माँ और बाप के बीच बातें हो ही रही थीं कि मुझे नींद आ गई। एक चिल्लाहट से एकाएक मेरी नींद टूट गई। चिल्लाहट जारी रही। वह मेरे बाप की आवाज थी। फिर मेरी दादी की आवाज आई उतनी ही जोर की। -तुम मुझे चुप रहने को कह रहे हो ? इस बार मेरे बाप की आवाज कुछ धीमी पड़ी। -तुम नाहक ही सिर पर आसमान उठा बैठी। -तुम्हें गवारा हो सकता है पर मुझे यह गवारा नहीं हो सकता कि कोई पराया मर्द इस घर की बहू-बेटियों को बार-बार फोन करे। -पर माँ प्रिया ने बताया न कि वह...। -यह जानना तो जरूरी है न कि वह क्यों फोन करता रहता है और हममें से किसी से बातें न करके केवल तुम्हारी पत्नी से बातें करना चाहता है ! -कारण बताया न कि वह प्रिया का...। -तो वह हममें से किसी से बात तो कर सकता था ? -पर उसे हमसे नहीं प्रिया से कोई काम होगा। -कौन सा ऐसा काम हो सकता है जिसके लिए बार-बार फोन करता रहे ? उदय, आखिर तुम कब तक इस तरह की बात इस घर में होने दोगे। मेरे बाप और मेरी दादी दोनों की आवाजें कुछ धीमी पड़ने से मुझे नींद आ गई और आगे की बातें मैं सुन नहीं पाया।

3 सुबह मैं अपने बाप को माँ के साथ बातें करते हुए सुनता रहा। -तुम माँ की बातों का बुरा मत मानो प्रिया। इनके जमाने में तो टेलीफोन ही नहीं था और न ही उन्हें यह आजादी थी कि वे स्त्री-पुरुष के रिश्तों को अपने सीमित दायरे के बाहर लाकर समझ सकें। यह टेलीफोन क्या है ? यह जानने की ख्वाहिश मेरे भीतर जोर पकड़ चुकी थी। माँ के साथ की जा रही अपने बाप की बातों को समझना चाहकर भी मेरे लिए आसान नहीं था। मेरी माँ चुप थी। मेरा बाप ही अपने मोटे स्वर में बोले जा रहा था। -तुम्हारा भी उस व्यक्ति के साथ बेरुखी से पेश आना अच्छी बात नहीं। तुम उसे घर बुलाकर परिवार के सभी लोगों से मिलाने की बात क्यों नहीं सोचती। बहुत देर से मुझे अपनी माँ की आवाज सुनने को मिली। उसकी हमेशावाली मीठी आवाज मुझे कुछ कम मीठी प्रतीत हुई। -वह आदमी अब मेरे सामने आने के काबिल नहीं रहा। माँ की बातें भी मुझे समझ से बाहर लगने लगीं। वह आगे बोलती गई। माँ के रुकते ही मेरे बाप ने कहा। -उसकी वापसी और फोन की बात तुमने मुझे देर से बताई। डरती थी कि मैं...। -डरती नहीं। मैं एक बात पूछूँ। -पूछो। -आप मेरी कितनी भारी भूल को माफ कर सकते हैं ? -तुमने मेरी जितनी भूलों को माफ किया है। -वे भूलें नहीं थीं।

-हो सकता है कि तुम भी जिसे अपनी भूल माने बैठी हो वह भूल न हो। और फिर तुम्हीं ने तो यह कहा था कि भूल और गुनाह दो अलग चीजें होती हैं और जब गुनाह माफ किया जा सकता है तो भूल तो फिर भी भूल होती है। -भूल छोटी होती है और बड़ी भी। मेरी भूल... -अगर मेरी भूल बड़ी थी तो मुझे मत बताओ। पर इतना जान लो कि मेरे जीवन में आने से पहले की तुम्हारी कोई भी बड़ी भूल मेरे लिए कोई माने नहीं रखती। पहली बार मेरे माँ-बाप ऐसी बातें किए जा रहे थे जो मेरे भीतर ऊब पैदा कर रही थीं। मैंने चिल्लाकर दोनों से कहना चाहा-ये किस भाषा में बातें किए जा रहे हो तुम दोनों-पर चिल्लाने से क्या लाभ...। वे तो मुझे सुन ही नहीं पाएँगे..। अगर सुन भी लें तो शायद मेरी भाषा भी उन दोनों की समझ में आए ही नहीं। दोनों की बातें जारी रहीं। मैं बस उन बातों को अनसुनी करके अब तक की सुनी सभी बातों के आधार पर सोचने लगा...जन्म..धरती...घर-रिश्ते..संगीत-प्यार-गोद...अपने..पराए...क्या ये सारी चीजें देखने को मिलेंगी...पर ये चीजें होती क्या हैं ? बार-बार सुनता रहा हूँ..देखना-बोलना-बैठना-चलना-गाना-रोना-हँसना-अच्छा-बुरा...खाना-पीना...ये क्या होते हैं, कैसे होते हैं ? कल रात मेरी माँ बहुत दुखी थी...खुद मुझसे बात करती हुई बोली थी।

-...मुन्ने...आज मैं बहुत दुखी हूँ। काश ! तुम मेरी गोद में होते और मैं तुम्हारी मुस्कान देखकर अपने इस दुःख को भूल जाती। तुम्हें अपनी गोद में लेकर तो मैं दुनिया का सारा सुख अपनी गोद में पालूँगी.. कौन मुझे बताए कि दुःख क्या होता है, सुख क्या होता है। उसी से मुझे यह भी सुनने को मिला था कि मेरे जनमने में अभी पैंतीस दिन बाकी थे और यह पैंतीस भी हो सकता है और छत्तीस भी। गिनती का यह चक्कर भी मेरी समझ में बाहर की बात था। अपनी माँ के पेट में कभी मैं अपने को अँधेरे में पाता कभी एक चकाचौंध उजाले में। कभी मेरी आँखें कुछ देख नहीं पातीं तो कभी मेरा मन देखने लग जाता उसी अँधेरे और उजाले की परिक्रमा को। और...और मैं फिर सोचने लग जाता यहाँ से जहाँ मुझे जाना था वह जगह क्या होगी, कैसी होगी। इधर तीन-चार बार मैं यह सुन चुका था-हमारी दुनिया-हमारा देश-हमारा शहर-नदी-समन्दर-पहाड़ ! वास्तव में ये सब क्या हो सकते हैं....क्या मैं इन अजूबों को देख पाऊँगा पर कब...? मेरे बाप की गैरहाजिरी में मेरी दादी फिर मेरी माँ के पास आकर उसे दुखी कर जानेवाले सवाल करती रही। मेरी माँ चुप थी मेरी दादी बोलती जा रही थी। -वैसे आदमी के साथ तुम्हारा सम्बन्ध बना ही क्यों ? -....। -क्यों तुम्हें साँप सूँघ गया है क्या ? मैंने अपनी दादी को डाँटा ठीक उसी तरह उसने मेरी माँ को डाँटा था। उसकी डाँट से तो मेरी माँ सिसक उठी थी पर दादी पर मेरी डाँट का कोई असर हुआ ही नहीं। मैंने अपनी माँ से पूछा। मेरी माँ ने भी ठीक मेरी दादी की तरह मेरी बात को अनसुनी कर दिया। कुछ और खरी-खोटी सुनाकर मेरी दादी जब चली गई तब मेरी माँ ने मुझसे धीमे स्वर में बातें करनी शुरू की। -मुन्ने ! अभी कुछ दिन पहले तुम्हारे जन्म की इस घर में जो खुशी थी अब वह खुशी जैसे कम होती रही है। तुम्हारे बाप को छोड़कर बाकी सभी लोग मुझे सन्देह की नज़र से देखने लगे हैं।

-सन्देह क्या होता है माँ ? मेरी माँ अपनी धुन में बोलती गई। -आज मन्दिर से लौटकर तुम्हारी दादी ने मुझे प्रसाद भी नहीं दिया। और न ही..तभी माँ की बोली से अधिक जोर से घनघना उठी। वही घनघनाहट ! मैं समझ गया कि फोन था वह। मेरा ऐसा समझना एकदम सही प्रमाणित होकर रहा जब मेरी दादी कर्कश स्वर में बोल गई। -वही तुम्हारा वह रहा होगा। मेरी आवाज सुनते ही फोन काट दिया। घंटी दोबारा बज उठी। मेरी दादी चिल्ला उठी। -जा तू ही उठा। हमसे वह थोड़े ही बात करेगा। घंटी बजती रही। बजती रही। दादी फिर बोली। -ले मैं दूसरे कमरे में चली जाती हूँ। जा जी-भर के बातें कर ले। मैंने अपनी माँ को तेजी के साथ उठते हुए महसूसा। मुझे झटका सा लगा। दूसरे ही मिनट बाद फोन की घनघनाहट रुकी और मैंने अपनी माँ को पहली बार उस तेवर में बात करते सुना। -हैलो, तुम यह हरकत बन्द भी करोगे या... फिर एकाएक माँ का तेवर बदल गया और अपनी पहलेवाली मृदुलता के साथ उसने कहा। -आप हैं ? पर..बात यह है कि मैं...क्या अभी दो मिनट पहले आपही ने फोन किया था ?..हाँ-हाँ, माँजी ने ही उठाया था..हाँ शायद आपकी आवाज आने से पहले ही उसने फोन रख दिया था।...हाँ, उनका शक था कि...ठीक है मैं माँजी को बुलाए देती हूँ...सुजाता आज काम पर नहीं आई है। मैं अपनी माँ की आवाज देकर दादी को बुलाते हुए सुना। मेरी दादी तुरन्त नहीं पहुँचीं क्योंकि कुछ देर बाद ही मैं इसकी आवाज सुन सका। -तुम थे ? तो फिर तुम बोले क्यों नहीं उदय ? यह फोन तो मेरे लिए भी उलझन बनता गया।