एक उम्रदराज पत्रकार का निधन / जयप्रकाश चौकसे

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एक उम्रदराज पत्रकार का निधन
प्रकाशन तिथि : 24 अगस्त 2018


पत्रकार कुलदीप नैयर का निधन हो गया। अपने 95 वर्ष के जीवन में उन्होंने भारतीय राजनीति में हुए परिवर्तनों को गौर से देखा था। अगर हम इसे नाटक माने तो यह कहना होगा कि स्टेज के बहुत नज़दीक बैठकर उन्होंने सब कुछ देखा। वे देश के विभाजन में विस्थापित हुए और शरणार्थी कैंप में भी रहे। आपातकाल के समय जेल में भी समय गुजारा।

वे भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को आदर्श मानते थे परंतु इंदिरा गांधी के विषय में हमेशा दुविधाग्रस्त रहे। उनके 'इस्पात'से उन्हें डर लगता था पर उनके समाजवादी इरादों के प्रति मोह भी था। दरअसल, इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि आप उसे पसंद करें या नापसंद करें परंतु उन्हें नज़रअंदाज नहीं पाते थे। यह रहस्मयी चुम्बकीय व्यक्तित्व भारतीय राजनीति का वह गुहा द्वार है, जिसका 'खुल जा सिम सिम' किसी को नहीं मालूम। उन्हें प्रियदर्शनी कहकर यूं ही नहीं संबोधित किया गया था। नेहरू-इंदिरा से मु्क्ति महज लफ्फाजी है और वैसा ही बनने की तीव्र इच्छा छिपाए नहीं छिप रही है। पत्रकारिता पर बनी फिल्म 'पेज 3' इस तथ्य को रेखांकित करती है कि इस क्षेत्र में बड़े दबाव और तनाव होते हैं। शशि कपूर अभिनीत 'न्यू देहली टाइम्स'भी इसी विषय पर उल्लेखनीय फिल्म बनी थी। नूतन अभिनीत एक फिल्म में बलराज साहनी ने पत्रकार की भूमिका निभाई थी। नूतन उसमें एक प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं और लालची रिश्तेदारों से घिरी हैं।

पत्रकार उस सोने की चिड़िया को स्वतंत्र कराना चाहता है। उसमें एक मधुर गीत के सार्थक बोल थे-'रात भर का है मेहमान अंधेरा, किसके रोके रुका है सवेरा, रात जितनी संगीन होगी, सुबह उतनी ही रंगीन होगी।' वॉटर गेट स्कैंडल के पत्रकार के जीवन से प्रेरित फिल्म भी बनी है। आधुनिक टेक्नोलॉजी ने खबर व्यापार में क्रांतिकारी परिवर्तन किया है। आज ताजा खबर को बासा पड़ते देर नहीं लगती। एक अमेरिकन उपन्यास में कुछ इस तरह की बात कही गई कि ताजा के मोह में खबर का उत्पादन भी किया जाता है और उत्पादित खबर को अपनी निजी सफलता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस उपन्यास का नाम 'फाउंटनहेड' रखकर भ्रम पैदा किया गया है, क्योंकि आइन रैंड के महान उपन्यास का नाम 'द फाउंटनहेड' है। जिसका विषय आर्किटेक्चर है।

कुलदीप नैयर ने अपनी अात्मकथा में गालिब के एक शेर के माध्यम से अपनी बात कही है। 'शमा हर रंग में जलती है पहर होने तक'। इससे स्मरण आता है कि संगीतकार एआर रहमान अपने संगीत कक्ष में एक शमा जलाते हैं और शमा के जलते रहने तक काम करते हैं। अगर कभी कोई धुन उनके मन में बज रही है और उसी समय शमा बुझ गई तो वे काम करना बंद कर देते हैं। वे उसी धुन के साथ सो जाते हैं और पहर होने पर वह धुन अगर तब भी उनके अवचेतन में गूंज रही है, तब उसे पूरा करते हैं। अगर सुबह तक वो कायम नहीं रही तो उसको वे अपने चिंतन संसार से खारिज कर देते हैं। हम जितनी रचनाएं पूरी कर पाते हैं, उससे अधिक रचनाएं अधूरी रह जाती हैं। जिनका कोई लेखा-जोखा नहीं होता। इस तरह हमारे व्यक्तित्व का विकास भी आधा-अधूरा ही रहता है और जीवन यात्रा समाप्त हो जाती है। यह अधूरापन बहुत गहरा है और अभिव्यक्त हुआ है वह उथले स्तर पर ही था। मनुष्य मस्तिष्क की असीम संभावनाएं हैं और आइंस्टीन जैसे महापुरुष भी उसका एक अंश ही उजागर कर पाए। प्रतिमा का संपूर्ण दोहन कभी हो ही नहीं पाता। कुलदीप नैयर लिखते हैं कि संजय गांधी के विमान दुर्घटनास्थल पर इंदिरा गांधी दूसरी बार भी गई थीं और वहां कुछ ढूंढ़ रही थीं, ऐसा आभास होता था। इस घटना को कुछ इस तरह बयां किया गया मानो इंदिरा गांधी वहां स्विट्जरलैंड बैंक का अकाउंट नंबर खोजने गई थीं।

सीधी-सी बात है कि दुर्घटना में सभी कुछ जल गया तो वे किस नंबर की खोज में गई थीं। इस तरह की बातें भ्रामक होती हैं। न जाने क्यों इस घटना को इस तरह क्यों नहीं देखा जाता कि एक मां अपने लाड़ले के मृत स्थान पर उसकी याद में बंधी चली गई। अपने पुत्र की याद को भी गुनाहे अज़ीम की तरह बना देने की रुग्ण मानसिकता पर मातम ही मनाया जा सकता है। कोई भी नेता कितने ही बड़े पद पर क्यों न पहुंचा हो उसका सामान्य मानव बना रहना सामान्य बात है। मीडिया इस तथ्य को अनदेखा कर देता है। इस्पात-सी काठी के पैर भी कच्ची मिट्‌टी के ही बने होते हैं। एक मां दुर्घटनास्थल पर जाकर अश्रु बहाए ऐसी सामान्य बात को भी सनसनीखेज बना दिया जाता है।