एक ऊँचा मकान / योगेश गुप्त

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दरअसल यह इतना ऊंचा मकान उसी का है।

और अब वह इसी मकान के एक कमरे में खिड़की के किनारे मेज-कुर्सी डालकर पढ़ता रहता है। जाने क्या-क्या!

कभी-कभी उसका मन करता है कि वह खिड़की में से सिर निकालकर मकान की ऊंचाई देखेए पर उसने खुद मकान बनाने वालों को सलाह दी है कि कोई भी खिड़की न रहे। इतना ऊंचा मकान बना है कि कोई ऊपर की मंजिल का आदमी खिड़की से नीचे झांकने लगे तो डरकर गिर न जाए. मंजिल पर मंजिल रखकर आसमान को छुआ गया है। हर मंजिल का अपना-अपना दालान है और उन सबने मिलकर एक गहरे कुएं की शेप ले ली है। उस कुएं में तमाम खिड़कियों से कूड़ा-करकट, थूक-बलगम झरता रहता है, जिसे वह देखता है और तरह-तरह के मुंह बनाता है। पर हिलता-डुलता नहीं, सिर्फ़ किताब पढ़ता रहता है।

कुएं की तमाम दीवारें कभी सफेद थीं। अब उनका रंग सुरमई है।

हर मंजिल में चार कमरे हैं और चार खिड़कियां। एक खिड़की दूसरी के सामने खुलती है और दो कमरे मिलकर एक फ्लैट बनाते हैं। दोनों कमरों के पास एक-एक दरवाजा है। बाहर के कमरे का दरवाजा खुलते ही सामने लटकी सीढि़यां नजर आती हैं।

हवाई जहाज पर से इस मकान को देखें तो शायद बहुत अच्छा लगे।

वह रोज खिड़की के पास बैठा रहता है और कोई न कोई किताब पढ़ता रहता है।

वह आज भी बैठा है। एक किताब पढ़ रहा है। उसने कमीज और पाजामा पहन रखा है। किताब का नाम है-"पौधों पर आवाजों का असर।"

बराबर के कमरे में उसकी बीवी और दो बच्चों की आवाजें आ रही हैं। सुबह का वक्त है और सामने मंजिलों की खिड़कियों से कुछ-न-कुछ 'रिले' हो रहा है। वे सब आवाजें कुएं में डूब रही हैं। कूड़ा-करकट, थूक-बलगम की तरह।

उसे किताब में रस आ रहा है। क्या बात है! आदमी का ज्ञान कहाँ से कहाँ पहुंच गया है। आज वह क्या नहीं जान सकता। जो दीखता है, वह तो दीखता ही है, पर जो अदृश्य है वह भी विज्ञान की आंखों से साफ-साफ नजर आता है। आसमान दीखता है... उसने खिड़कियों में सलाखें लगावाकर गलती की। मन खुश हो तो ऊपर आसमान की तरह देखना अच्छा लगता है। यहाँ से कैसा लगता? जैसे नीला रेशमी टुकड़ा कपड़ों में आकर फंस जाए तो... ओह! क्या बात है!

पर... पर गिरने का डर भी तो था। आदमी-न जाने कितने आदमी जान से हाथ धो बैठते।

उसने सुना है, पत्नी कह रही है, "अरे नीता, तूने अब तक मुंह-हाथ नहीं धोया? कब से तो बैठी है।"

"नीचे वालों ने नल खोल रखा है मां, पानी नहीं आ रहा।"

उसने किताब को ज़रा मेज पर से उठाया और हाथ से मेज पर पड़ी धूल साफ की और फिर डूबकर किताब पढ़ने लगा।

कैसे-कैसे राग उठता है और कैसे-कैसे उन्माद में उफनता है। तौबा! कितने बारीक होते है। रेशे पौधों के और स्वरों की अनदीखती डोरियां और...

वह किताब ध्यान से पढ़ने लगा है। उसके बायीं तरफ थोड़ा ऊपर एक बल्ब है, जो हर समय जलता रहता है। कमरों में बाहरी रोशनी आने की मनाही है। इस बल्ब से भी बहुत लतीफ डोरियां चारों तरफ फैली हुई हैं। उस राग की ध्वनियां भी इतनी लतीफ होंगी। शायद इससे भी लतीफ हो। पौधे कितने संवेदनशील होते हैं। भौतिक स्तर पर लतीफ डोरियों का असर कुबूल करते हैं।

पत्नी कह रही है, "नीता, खड़ी ही रहेगी?"

"पानी नहीं आया, मां!"

"और तू यहाँ क्यों बैठा है रे संजू, अंगीठी के पास धुंए में।"

संजू चुप हैं। वह अंगीठी पर रखे पानी के उबलने की प्रतीक्षा कर रहा है। खिड़कियां अभी भी कुछ-न-कुछ रिले कर रही हैं।

समय बीत रहा है।

कमरों की कालिस में हल्का-सा फर्क आया है।

सूरज ऊपर चढ़ रहा होगा। आसमान से परिन्दे गायब हो रहे होंगे। चारों तरफ के पेड़ धीरे-धीरे हिलना डुलना बंद कर रहे हैं। चारों तरफ के संगीत में एक शांति व्याप रही है।

आवाजों के टुकड़ें कुएं में गिर रहे हैं।

अचानक एक बहुत गंभीर आवाज उसकी पत्नी ने अपनी सामने वाली खिड़की की तरफ फेंकी है।

"अरी ओ, पप्पू की मां...!"

पप्पू की माँ ने नहीं सुना है।

उसकी पत्नी फिर भी कह रही है, "कोई हमारा दरवाजा बाहर से बंद कर गया है। पप्पू की मां..."

पप्पू की माँ और पप्पू का बाप पलंग पर बैठे कुछ बातें कर रहे हैं। उन्होंने नहीं सुना है।

उसकी पत्नी ने अपनी खिड़की की सलाखों को दोनों हाथों से पकड़ रखा है। वह ठीक, रेडियो पर लड़ाई के समय की चेतावनी की तरह रिले कर रही है, "कोई दरवाजा बाहर से बंद कर गया है, कोई आकर खोल दो।"

आवाज और छोटी हो जाती है, "बाहर से बंद कर गया है, खोल दो।"

"बंद कर गया है, खोल दो।"

आवाज का आखिरी टुकड़ा लगातार कुएं में गिर रहा है, कूड़े-करकट की तरह, थूक-बलगम की तरह। यह टुकड़ा भारी है। पहला टुकड़ा ऊपर उठाता है और खिड़कियों से टकराता है और तमाम खिड़कियों से ठहाकों की आवाजें अपने साथ जोड़कर बाहर निकल जाता है।

"कोई बाहर से बंद कर गया है... ह-ह-हा।"

नीता अब भी नल के पास खड़ी है।

संजू चाय के पानी के उबलने की प्रतीक्षा कर रहा है।

वह अपनी किताब पढ़ रहा है-पौधों पर आवाजों का असर। कभी-कभी वह जोर-जोर से गुनगुनाने भी लगता है। उसका मन करता है कि कोई पौधा हो और वह राग छेड़ दे और पौधा धीरे-धीरे बढ़ने लगे और...

लेकिन आसपास कोई पौधा नहीं है। वह अपनी मेज से उठता है। बत्ती बुझा देता है। चारों तरफ रेशमी अँधेरा छा जाता है और वह पल भर खड़ा रहता है। फिर अचानक स्विच ऑन कर देता हैं। एक ही पल में चारों तरफ देखता है और बड़बड़ाता है, 'लतीफे डोरियों का जाल! मुझे बांध लिया!' कहकर फिर आकर मेज पर बैठ जाता है। किताब पढ़ने से पहले वह एक पल के लिए पत्नी की तरफ देखता है।

पत्नी कुछ बोल रही है। वह सोचता है। हां, पर पप्पू की माँ से। मुझसे नहीं और सोचकर वह अपनी किताब में गर्क हो जाता है।

उसकी पत्नी बोले चली जा रही है, "खोल दो, खोल दो।"

आवाज का यह टुकड़ा कुएं में गिर रहा है।

नीता अभी भी खड़ी है। उसकी आंखों में आंसू हैं।

संजू अंगीठी के पास बैठा-बैठा सो गया है।

सामने पप्पू की माँ जोर-जोर से अखबार पढ़ रही है। "हिन्दुस्तान में अकाल पड़ने वाला है... हिटलर ने यहूदियों को चुन-चुनकर मारा था... वियतनाम में नापाक बम से झुलसा एक बच्चा पांच घंटे तक रोता रहा... कैनेडी के कत्ल की कहानी का रहस्य नहीं खुल सकता... साइकिल पर पीछे बैठी पत्नी कूदकर भाग गयी। साइकिल बस से टकरायी... पति खरबूजे की तरह पिचर हो गया।"

पप्पू का बाप जोर से हंस दिया है।

नीता की अम्मा बोलते-बोलते थक गयी है।

वह किताब में गर्क है।

ऊपर छत पर चिपके आसमान के टुकड़े में एक चील फंस गयी है। समय धीरे-धीरे बीत रहा है।

धूप ने तेजी पकड़ ली है। आसमान लाल हो उठा है। मकान की तमाम रगंत गर्म होने लगी हैं। तेज गर्मी में यह मकान बाहर की तमाम दुनिया से पिघलकर अलग हो जाता है। धूप में खड़े एक विशालकाय अकेले आदमी की तरह। चारों तरफ के पेड़ छोटे होने के कारण उसे हवा करने में असमर्थ रह जाते हैं। आसमान के सिवा इसे कभी किसी की छाया नहीं मिलती। आसमान गर्म हो तो...

इस मकान को अजब तरह से बनाया गया था। पूरी मंजिल तैयार थी। लोहे की बनी एक बहुत बड़ी संड़ासी से पूरी-पूरी मंजिल उठा-उठाकर एक के ऊपर एक रखी जाती रहीं। किसी ने कहा भी, " बहुत ऊंची हो गयी है, अँधेरा नीचे तलहटी से बढ़ता चला जा रहा है, पर वह नहीं माना। ऊपर जाना संभव नहीं है, फिर... फिर वह उसमें रहने लगा और रात-दिन पढ़ाई में लीन रहने लगा। उसे खुश्बूदार बातें बहुत पसंद हैं। आज भी वह...

दोपहर हो रही है।

पत्नी सोच रही है कि पति से कहे कि बाहर से दरवाजा बंद हो गया है, कोई उपाय करो। पर वह जानती है कि वह क्या उपाय कर सकता है। वह तो खुद बंद है। फर्क सिर्फ़ इतना है कि पत्नी ने अब तक उसे बताया नहीं है। क्या फायदा है बताने से? उसे डराने से। पढ़ने दो। जितनी देर तक आदमी नावाकिफ रहे, अच्छा है। घबराहट कम रहती है। पर यह बाहर से दरवाजा बंद कर कौन गया है। यह तक पता नहीं चलाया जा सकता? अजब हालत है। है तो।

उसने फिर एक दफा वाक्य दोहरना चाहा है। पर वह सकते में खड़ी रह गयी है। उसके मुहं से आवाज नहीं निकली है। किवाड़ के नीचे से धुआं आ रहा है। सफेद-सफेद, पीला-पीला, किसी की उल्टी के रंग का और बड़े-बड़े बगूलों में यह कैसा धुआं है? अब क्या होगा?

संजू खिड़की के पास बैठा सो रहा है। नीता अभी भी नल के नीचे बैठी है। नीचे वालों ने नल बंद कर किया है।

धुआं बढ़ रहा है।

नीता ने माँ से पूछा है, "मां धुआं कहा से आ रहा है?"

मं ने कहा है, "कुछ पता नहीं चलता।"

"अब क्या होगा मां, माँ?"

"...पता नहीं चलता।"

उसने खिड़की से बाहर की तरफ देखा है। सामने की खिड़की में कोई दिखाई नहीं देता। दोनों मियां-बीवी दीवार के पीछे हैं, शायद-और ये... ये बैठे हैं और उसी तल्लीन भाव से किताब पढ़ रहे हैं? धुएं के गोले उफन-उफन कर आ रहे हैं। वह सोचती है, "अब क्या होगा?" फिर नीता की तरफ देखती है और देखती रहती है। नीता अंधेरे में बैठी है। सात साल की नीता। एकदक गुडि़या की तरह। गोरी-चिट्ठी, काले घुंघराले बालों वाली... और यह संजू, ये घुटकर मर जायेंगे? या कोई आकर दरवाजा खोल देगा। कैसे खोल देगा किवाड़? बंद चाहे कोई करे, पर खोलने तो खुद ही होते हैं।

न खोल सको तो मर जाओ, घुट जाओ और...

नीता कितनी सलौनी लग रही है?

धुआं किसी की उल्टी की तरह कमरे में फैलता आ रहा है। बल्ब की रोशनी चुभ रही है। वह खिड़की से हटी और स्विच ऑफ कर दिया। अब धुंआ दिखाई नहीं देता, नीता खूबसूरत नहीं लगती। अब... अब सब ठीक है।

वह फिर खिड़की पर आ गयी है। धुआं कदम-कदम बढ़कर खिड़की की राह बाहर निकलने लगा है।

वह जोर से बोली है, "सुनो!"

वह किताब में डूबा है, "पौधों पर आवाजों का असर।"

उसने फिर चीखकर कहा है, "सुनोगे नहीं?"

वह चौंका है। पानी की तरफ देखकर बोला है, "क्या है?"

"कमरे में धुआं आ रहा है, कोई दरवाजा..."

वह समझ गया है। फौरन उठा है और मेज से चार कदम आगे बढ़कर उसने अपने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर दिया है। लौटते हुए अचानक उसका हाथ स्विच पर चला गया है। उसके मुंह से निकला है, "लतीफ डोरियां।" वह बत्ती बुझाता है। फिर जलाता है। कहता है, "कमाल है, जो बोलती नहीं, उसकी छुअन जब इतना सुख देती है, संगीत की लहरियां तो..."

लगता कितना...

वह आकर मेज पर बैठ गया है। किताब में फिर गर्क हो गया है। पत्नी ने देखा है। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में आंसू उभर आए हैं।

वह कह रही है, "दरवाजा बंद है, धुआं भर रहा है। खोल दो।"

कुएं में आवाजों का ढेर लग गया है।

तपती दोपहरी की झिलमिल रोशनी गहरे कुएं की आवाजों पर पड़ रही है। उधर एक खिड़की से उभरते धुएं को वह सब खिड़कियों के लिए उजागर कर रही है। सब अपनी-अपनी खिड़कियां बंद कर रहे हैं। वह बैठा किताब पढ़ रहा है और उसकी पत्नी दो सलाखों में अपना ऊंचा गोरा-माथा टिकाये है और धीरे-धीरे बोल रही है, "धुआं भर गया है, बच्चे सो रहे हैं, दरवाजा खोल दो, किसी भी तरफ का..."

ऊपर छत पर चिपके नीले रेशमी टुकड़े में फंसी चील नीचे घात लगा रही है। ये इस कुएं में इतने सारे जानवर कैसे सैर कर रहे हैं? शिकार के काबिल हैं।

पर कुएं से वह डरती है।

लेकिन है भूखी और धुएं से बने छोटे-बड़े पंछियों पर वह टूट पड़ी है। पर टूटते ही सीधे दीवार से टकराती है। कुएं की स्याह दीवारों से चील के पंखों की फड़फड़ाहट टकराकर एक गंूज पैदा कर रही है। वह अपनी मेज पर से उठता है और खिड़की के किवाड़ बंद कर लेता है।

"कितना शोर है, कोई पढ़ने भी नहीं देता।"

पत्नी ने बोलना बंद कर दिया है। शायद वह...

नीचे वालों ने नल बंद कर दिया है। पानी की धार जमीन पर गिरकर एक बहुत सूक्ष्म धुआं उगल रही है।