एक औरत की नोटबुक (सुधा अरोड़ा) / अनुराधा सिंह

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“एक पुरुष पति कुछ एक बरस साथ रहने के बाद यह सूंघ लेता है कि वह किस ‘जाति’ या ‘किस्म’ की औरत के साथ है। वह जानता है कि अपनी पत्नी को सज़ा देने का सबसे बेहतरीन तरीक़ा या नुस्खा क्या है। उसे कितने नुकीले या कितने भोथरे औजार किस तरह से इस्तेमाल करने हैं। वह जानता है कि अपनी पत्नी पर शारीरिक बल का इस्तेमाल कर या उसे चाँटा मारकर वह उतनी तकलीफ नहीं पहुंचा सकता, जितनी उसकी उपेक्षा या अवहेलना कर।“ (एक औरत की नोटबुक, पृष्ठ ६८ सुधा अरोड़ा)

सुधा अरोड़ा की वैचारिक लेखों पर आधारित ताज़ा क़िताब ‘एक औरत की नोटबुक’ जो राजकमल प्रकाशन से २०१५ में आई है, को पढ़ते हुए पाठक एक शहरी मध्यमवर्गीय स्त्री के जीवन की उन विपदाओं से रूबरू होता है जिन्हें न केवल बक़िया पूरी दुनिया बल्कि खुद उसका ‘हमसफ़र’ तक़लीफ मानने से इंकार कर देता है। विशुद्ध स्त्री विमर्श पर आधारित इस पुस्तक में दो खंड हैं, पहला है ‘घरेलू हिंसा के खिलाफ़’ और दूसरा खंड है ‘मानसिक प्रताड़ना के खिलाफ’, जो मुझे अपनी व्याख्या- सामर्थ्य व ब्यौरों के तरतीबवार विश्लेषण की अद्वितीयता के कारण चुम्बकीय आकर्षण से खींचता है। यह निस्संदेह विमर्श आधारित पुस्तक है लेकिन कहीं भी अपने उद्देश्य में अतिरेक पूर्ण या जाली नहीं लगती क्योंकि यह महज़ जेंडर डिस्कोर्स नहीं वरन स्त्री पुरुष संबंधों के सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक पक्ष का गहन विश्लेषण भी है। इसे पढ़ना आरम्भ करते ही आपको लगता है कि यह उन कुछ चुनिन्दा किताबों में से है जिन्हें पढ़कर आप अधिक तार्किक और विवेकवान बनते हैं, यह पुस्तक स्त्री या पुरुष पाठक केन्द्रित नहीं है। इसमें दोटूक सच व्यक्त किया गया है।

इस पुस्तक में हिंसा की समस्या को जिस मुक़ाम और नज़रिए से देखा गया है वही इसे सबसे अलग बनाती है। संकलित कुल १३ रचनाओं में से पहला आलेख ही बड़े साहस से स्वीकार करता है कि हिंसा किसी भी रूप में निंदनीय है, चाहे वह पति द्वारा पत्नी पर की गयी हो या माँ द्वारा संतान पर, ’जिस दिन वह बच्चा बड़ा होगा और शारीरिक रूप से प्रतिकार के काबिल होगा, वह बिसूरते हुए अपना गाल सहलाने की बजे माँ के उठे हुए हाथ को न सिर्फ पीछे धकेल देगा, बल्कि प्रकारांतर से बचपन में मिले सारे तमाचों को मूल और ब्याज सहित लौटा देगा।‘ यह कहीं भी स्त्री के स्त्री होने के मलाल को नहीं कहती है बल्कि एक शालीन प्रतिरोध है उस पितृसत्तात्मक व्यवस्था के ख़िलाफ जहाँ स्त्री को अभी तक एक सामान्य इंसान तक न मानने की ज़िद ज़ारी है। इसी खंड में उनकी एक कहानी ‘तीसरी बेटी के नाम’ में आख़िरी पैराग्राफ कहता है, ‘पर सुन मेरी बच्ची! अपनी कटी हुई हथेलियाँ न फैलाना उस बनाने वाले के सामने कि पिछली बार तुझे बनाते समय जो भूल की थी, उसे सुधार ले! नहीं! तुझे तो फिर फिर वही बनना है! फिर फिर औरत! सौ जनमों तक औरत! तब तक औरत, जब तक तेरे हिस्से का असमान, तेरे और सिर्फ तेरे नाम न कर दिया जाए!” एक और कहानी ‘बड़ी हत्या, छोटी हत्या’ कन्या भ्रूण (शिशु) हत्या के निर्मम सच को खुले में खड़ा कर देती है। एक पृष्ठ की यह कहानी आपकी अंतरात्मा पर इतना बड़ा असर करती है कि कितनी ही देर के लिए आपके दिलो दिमाग सुन्न होकर रह जाते हैं। ‘ताराबाई चाल : कमरा नंबर एक सौ पैंतीस’ के विषय में वे खुद कहतीं हैं, ‘ हिंसा एक नकारात्मक भाव है और हिंसक व्यक्ति अपने भीतर की सारी कुंठाओं, सारे असंतोष को अपनी पत्नी या बच्चों (यानी ऐसे लोग जो शारीरिक रूप से उससे कमज़ोर हैं) के प्रति आक्रामक होकर अपने भीतर से बाहर निकालने की कोशिश करता है। इसके पीछे मुख्य कारण उसकी पत्नी के मुखर प्रतिवाद की अनुपस्थिति है।“ उनकी चर्चित कहानी ‘अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी’ महानगर के ठाट बाट की मृग मरीचिका में फँस कर वहाँ ब्याह दी गयीं छोटे कस्बों की नवब्याहताओं की शारीरिक व मानसिक दुर्गति का अभूतपूर्व आख्यान है। उनसे उनका न्यूनतम हवा पानी और आकाश तक छीन लिया जाता है फिर भी वे बड़ी भाग्यवान मानी और कहलायी जातीं हैं अपने मायके में।

एक औरत की नोटबुक का दूसरा खंड ‘जिसके निशान नहीं दीखते’ एक बेहद नामालूम और सूक्ष्म किस्म की मानसिक प्रताड़ना के विषय में बात करता है और उन अदृश्य चोटों का हैरतअंगेज खुलासा करता है जो तब तक पूरी तरह नज़रअंदाज़ की गयीं जब तक कि नासूर नहीं बन गईं। यहाँ पुष्टि के लिए वरिष्ठ लेखिका मन्नू भंडारी की आत्मकथा का एक अंश प्रस्तुत किया गया है जिसमें वे कहती हैं के “इनके (राजेन्द्र यादव के) बहुत भीतरी व्यक्तित्व का एक ऐसा भी हिस्सा है जो बहुत निर्मम, कठोर और अमानवीयता को छूने की हद तक क्रूर भी रहा है और इसकी मार झेली है उन लोगों ने जो बहुत अंतरंग होकर उनके प्यार की सीमा में होने का भ्रम पालते रहे। वास्तव में राजेंद्र के प्यार और अंतरंगता की सीमा में कोई हो ही नहीं सकता सिवाय खुद राजेंद्र के क्योंकि किसी को भी प्यार की सीमा में लेते ही अधिकार की बात आ जाती है, जो राजेंद्र किसी को दे नहीं सकते समर्पण की बात आ जाती है, जो राजेंद्र कर नहीं सकते।“ इसी आलेख में सुधा जी तनाव जनित व्याधियों की बात भी करती हैं अवसादग्रस्त हो जाने से कुछ औरतों की दमे की बीमारी जोर पकड़ लेती है। अपच और एसिडिटी जैसी पाचनक्रिया से संबंधित बीमारियां फौरन शरीर को अशक्त बना देती है। वायरस पेट में अल्सर, साइनस, माइग्रेन जैसी सभी बीमारियां शरीर में एड्रीनल ग्रंथि के नकारात्मक हिसाब से पैदा होती हैं और यह क्रिया सीधे मानसिक अस्त-व्यस्तता और तनाव से जुड़ी हुई है। पुस्तक के पहले खंड यानी कि ‘घरेलू हिंसा के खिलाफ’ की तुलना में यह दूसरा खंड ‘मानसिक प्रताड़ना के खिलाफ’ न केवल भिन्न लक्ष्यकेन्द्रित है बल्कि आज की स्त्री के सरोकारों को ध्यान में रखते हुए उतना ही ज़रूरी भी है। हमारा मध्यमवर्ग और उच्चवर्ग स्त्रियों के प्रति बरती जाने वाली मानसिक हिंसा रूपी इस रोग का शिकार हमेशा से रहा है। यह वह गुप्त रोग है जिसका केवल पृष्ठप्रभाव दिखता है। सदियों से स्त्रियाँ मानसिक हिंसा झेलती आ रही है लेकिन यह इतनी स्पष्ट और नमूदार नहीं होती जो गाली गलौज़ या चीख चिल्लाहट के रूप में सुनाई दे सके। यह हिंसा का बहुत बारीक और मारक स्वरूप है जो एक धीमे ज़हर की तरह धीरे धीरे मारता है, फैल जाता है रग़ रग़ में । सुधा अरोड़ा इसी वर्ग की स्त्री का प्रतिनिधित्व करती हैं सो धीमे ज़हर के प्रभाव को उनसे ज्यादा और कोई नहीं समझता, फिर एक समर्थ लेखिका होने के नाते वे इस तेज़ाब को कागज़ पर उतार लेने में पूरी तरह सक्षम हुई हैं। यह लगभग असंभव है कि कोई स्त्री इस पुस्तक को पढ़े और उसे इसका एक भी आलेख या कहानी अपनी सी न लगे। इस दूसरे खंड में मानसिक हिंसा का एक नृशंस रूप पुरुष के सोचे समझे मौन के रुप में प्रस्तुत किया गया है। वे कहती हैं, ”मानसिक प्रताड़ना में स्थिति अलग होती है क्योंकि पति पत्नी पर हाथ नहीं उठाता और उसके शरीर पर चोट के कोई निशान नहीं छोड़ता इसलिए उसकी आत्मा पर कोई बोझ भी नहीं रहता। ….वह इनसे बेहतर अदृश्य लेकिन पैने औजारों का इस्तेमाल करता है जिसमें संवादहीनता या चुप्पी की हिंसा प्रमुख है। ऐसे पुरुष दोहरी छवि रखते हैं एक वह जो उनकी सार्वजनिक छवि है जिसमें वह बेहद खुश मिज़ाज, ज़िंदादिल, मिलनसार, बेलौस ठहाके लगाने वाले इंसान दिखाई देते हैं। आपके पति अगर चुप रहते हैं, आपसे कुछ शेयर नहीं करते, आप की ओर देखते तक नहीं इसमें असामान्य क्या है? इसकी आप एफ़आईआर दर्ज़ नहीं करवा सकते, क्योंकि बात न करना, चुप रहना, उपेक्षा करना कोई अपराध नहीं है।“

डॉ दीपक शर्मा कहती हैं, “एक औरत की नोटबुक” नारीवाद के महत्वपूर्ण सूत्र ‘द पर्सनल इज पॉलिटिकल’ को वाणी देती है- जहां स्त्री के वैयक्तिक यथार्थ का विस्तार समाज की नीतिसम्मत सत्ता से जा जुड़ता है।“ शालिनी माथुर कहती हैं, “यह किताब एक सामाजिक दायित्व को निभाती है।” डॉक्टर प्रमोद त्रिवेदी का मानना है, “चर्चित कथाकार और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी सुधा अरोड़ा की पुस्तक - एक औरत की नोटबुक में धैर्य, संस्कार, विवशता की परतों के नीचे छुपी वे सच्चाइयां हैं जिनकी भोक्ता औरतें है।” दूसरे खंड के कुल जमा आठ कहानियों व आलेखों में जमीन की अभेद्य परत के नीचे बहते लावे सी राजदारी और आग को ज्वालामुखी की तरह उभार दिया गया है जिसे तथाकथित भले समाज की सौ फ़ीसदी औरतों ने भोगा है, बस पहचाना और कहा अब जा रहा है। इसी खंड में एक कहानी है ‘नमक’; मेज पर रखे जाने वाले नमक, नमक की एक छोटी सी डिबिया के जरिये एक औरत के पूरे अस्तित्व की क्षति, अपने घर में आत्मसम्मान के साथ जीने के अधिकार और जीवन भर अपूर्ण और इंपरफेक्ट कहे जाने, त्याग दिए जाने की असुरक्षा को इतने प्रतीकात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि हमें सुधा जी के भीतर छुपा कवि अनायास दिखाई दे जाता है। भाषा का सौंदर्य, अभिव्यक्ति, छवियां और बिम्ब सुधा अरोड़ा जी की लेखन भाषा के कौशल और प्रभावपूर्णता को पूरी तरह प्रतिबिंबित करते हैं। कुल मिलाकर ‘एक औरत की नोटबुक’ प्रभावपूर्ण और पाठक को निरंतर बांधे रखने में समर्थ, रोचक आलेखों, छोटी कहानियों और उनकी व्याख्या का महत्वपूर्ण संकलन है। जिसे पढ़ना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि आने वाला समय कभी हमसे यह शिकायत न कर सके कि हमने उसकी आधी आबादी का पक्ष सुनने और समझने का प्रयास तक नहीं किया ।